Friday 31 August 2012

मंगल पर एलियंस !!!


मंगल पर टहल रही नासा की खोजी गाड़ी क्यूरियॉसिटी नेवहां के माहौल की जो शुरुआती ब्लैक एंड ह्वाइट तस्वीरेंधरती पर भेजी हैं , वे यहां एक खास तबके को बावला बनादेने के लिए काफी साबित हुई हैं। इनमें कुछ को इन तस्वीरों मेंएलिएन ( परग्रही जीव ) दिखाई पड़ गए तो कुछ ने इनमेंचार उड़नतश्तरियां खोज डालीं , जो ' मंगल पर इंसान कीबच्चों जैसी हरकतों पर नजर रखे हुए हैं। ' इंटरनेट फिलहालइन तस्वीरों पर की गई ऐसी काल्पनिक टिप्पणियों और इनकेसाथ छेड़छाड़ करके बनाए गए ऐसे फर्जी चित्रों से भर गया है, जिनका मकसद मंगल ग्रह को विचित्र जीवों और चीजों सेभरी हुई जगह साबित करना है। क्या 35 करोड़ किलोमीटरदूर एक छोटे ट्रक जितनी बड़ी गाड़ी को सुरक्षित तरीके सेजमीन पर उतार लेना और उसके जरिये एक अनछुए ग्रह के बारे में वैज्ञानिक जानकारियां जुटाना कोई कमअनोखी बात है , जो सोते - जागते उड़नतश्तरियों के ही साथ जीने वाले लोग इसे अपनी तिकड़मों के बल परऔर भी अनोखा बनाने में जुटे हैं ? 

यूएफओलॉजी अमेरिका और यूरोपीय देशों में सक्रिय कुछ ऐसे लोगों का पंथ है , जिन्हें हर जगह उड़नतश्तरियांही दिखाई देती हैं। इन लोगों ने क्यूरियॉसिटी की भेजी एक तस्वीर को कई बार फिल्टर से गुजारकर उसे ऐसाबना दिया कि उसमें जहां - तहां नजर आने वाले सूक्ष्म धब्बे सचमुच उड़नतश्तरियों जैसे ही दिखाई देने लगे।चार - पांच साल पहले उन्होंने मंगल की परिक्रमा कर रहे एक यान की भेजी तस्वीरों में इंसानी आकार - प्रकारवाला एक हरे रंग का एलियन बाकायदा दौड़ता हुआ ढूंढ निकाला था। तीन दशक पहले , जब चंद्रमा पर इंसानको उतारने के लिए अपोलो अभियान की रूपरेखा तैयार हो रही थी , तब चंद्रमा का चक्कर लगा रहे एक कृत्रिमउपग्रह द्वारा भेजी गई तस्वीरों में कुछ लालबुझक्कड़ों ने एक बहुत बड़ा इंसानी चेहरा खोज निकाला था। 

यह कुछ - कुछ वैसा ही है , जैसे बच्चे बादलों में हाथी , भेड़ या आदमी की शक्ल बन जाने की आश्चर्यजनकसूचना अपने घर वालों को देते हैं , लेकिन उनकी बात सही साबित हो , इसके पहले ही बादलों की शक्ल कुछऔर हो चुकी होती है। ऐसी भोली हरकतें चंद्रमा या मंगल के खोजी अभियान से जुड़कर भी बुरी नहीं लगतीं।लेकिन आधुनिकतम टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करके वहां से आई तस्वीरों के साथ छेड़छाड़ करना और झूठीअफवाहें फैलाना तो उस वैज्ञानिक चेतना को ही नष्ट करने जैसा है , जिसे आगे बढ़ाने के लिए इस मंदी के माहौलमें पूरे ढाई अरब डॉलर खर्च करके क्यूरियॉसिटी को मंगल पर उतारा गया है।(ref-nbt.in)

खुद से खतरा है सोशल मीडिया को

सोशल मीडिया 
गौतम चिकरमने, एग्जीक्यूटिव एडीटर, बिजनेस, हिन्दुस्तान टाइम्स
आपमें से ज्यादातर लोगों की तरह ही, जो आर्थिक या राजनीतिक, घरेलू या अंतरराष्ट्रीय, प्रशासनिक या भ्रष्टाचार या फिर आस्था या तर्क के मुद्दों पर अपनी एक राय रखते हैं, मैं भी उन लोगों का शिकार हूं, जो नफरत फैलाते हैं, लोगों पर ठप्पे लगाते हैं, अश्लीलता परोसते हैं और सबका अपमान करते हैं। ऐसे काम वे इतने जोर-शोर से करते हैं, जैसे उनके पास कोई और काम हो ही नहीं। यह किसी बात को तथ्यों के साथ, आंकड़ों के साथ तर्कपूर्ण ढंग से रखने से अलग है। मुझे इसी तरह का विमर्श अच्छा लगता है और मैं उसी में शामिल होता हूं। लेकिन ये लोग कुछ भी कहते हैं, कुछ भी करते हैं, नफरत, यहां तक कि देशद्रोह जैसी भावनाएं फैलाते हैं और बच निकलते हैं। इसका कारण है उन्हें मिली अनाम रहने की सुविधा। अनाम रहने की इसी सुविधा का लाभ उठाकर इंटरनेट पर और खासतौर पर सोशल मीडिया पर लोग किसी को भी निशाना बनाते हैं, नुकसान पहुंचाते हैं और फिर गायब हो जाते हैं। यह ऐसा काम है, जिसे हकीकत की दुनिया में आप नहीं कर सकते।
वर्चुअल दुनिया में इन्फ्रास्ट्रचर चलाने वाली गूगल, ट्विटर और फेसबुक जैसी कंपनियां ऐसे लोगों के अकाउंट बंद करने में आनाकानी करती हैं। जब वे ऐसे लोगों के अकाउंट बंद करती हैं, तो वे कई तरह के आरोपों में घिर जाती हैं। अगर नहीं करतीं, तो सरकार उन पर शिंकजा कसने लगती है। जैसे कि हाल ही में भारत सरकार ने ट्विटर पर दबाव डालकर ऐसे लोगों के अकाउंट बंद करवाए, जो विभिन्न समुदायों के खिलाफ नफरत फैलाने का काम कर रहे थे। लेकिन इसी प्रक्रिया में कुछ ऐसे नामचीन लोगों के जायज अकाउंट भी बंद हो गए, जो सिर्फ सरकार के आलोचक थे। वैसे जिनसे शिकायत है, उनके खिलाफ सरकार भी कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं है। अनाम रहने में तब तक कोई दिक्कत नहीं है, जब तक कि आपका अनाम रहना किसी को आहत न कर रहा हो। मसलन, अगर आप निजी बातचीत में यह कहते हैं कि फलां मंत्री भ्रष्ट है, तो इसमें कोई दिक्कत नहीं है। अगर आप यही बात ट्विटर पर या किसी ब्लॉग में कहते हैं, तो इसका अर्थ है कि यह निजी बातचीत नहीं है और आप इसे सार्वजनिक मंच से कह रहे हैं।
पिछले हफ्ते हुए हिन्दुस्तान टाइम्स के डिजिटल लिटरेसी सम्मेलन में सूचना तकनीकी राज्यमंत्री सचिन पायलट ने कहा था कि सरकार चाहती है कि हर परिवार में कम से कम एक शख्स ऐसा जरूर हो, जो डिजिटल साक्षर हो। विडंबना यह है कि जब हम इस बात को कर रहे थे, तभी ट्विटर पर लगाम कसने की खबर भी आ गई। डिजिटल साक्षरता एक ऐसा औजार हो सकता है, जिससे आर्थिक विकास के मोर्चे पर हम एक या दो पीढ़ी में लंबी छलांग लगा सकते हैं। लेकिन यह सब जो चल रहा है, उससे तो इसमें बाधा ही आएगी। और काफी अजीब तरीके से आएगी। नतीजा यह हुआ है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र दुनिया के सबसे बड़े एकदलीय व्यवस्था वाले देश चीन के साथ खड़े होकर संयुक्त राष्ट्र से फेसबुक और ट्विटर पर लगाम लगाने की मांग कर रहा था। अभी साल-दो साल पहले तक टय़ूनीशिया, मिस्र और लीबिया जैसे देशों के तानाशाहों का तख्ता पलट हुआ, सोशल नेटवर्किग पर इस तरह की पाबंदियां लगाने से वहां की सरकारों को कई तरह के दमनकारी अधिकार मिल सकते थे। अगर भारत सरकार की यह योजना आगे बढ़ती है, तो सरकार को पूरी सावधानी से साथ अपने घरेलू दिशा-निर्देश बनाने पड़ेंगे। बहुत सारा काम तो हो भी चुका है। अब जो स्थिति है, उसमें आपको तथा आपकी बातों को आपके आईपी एड्रेस, फोन व सिग्नल के जरिये ट्रैक किया जा सकता है।
अनाम बने रहने के अपने फायदे हैं। इसमें उन लोगों को अवाज मिल जाती है, जो सामने आने से घबराते हैं या मनोवैज्ञानिक रूप से अपने भीतर ही सिमटे रहते हैं। ऐसे लोगों को दूसरों तक अपनी आवाज पहुंचाने का जरिया मिल जाता है। लेकिन जब अनाम रहने की सुविधा को लोगों को नुकसान पहुंचाने के औजार में बदल देते हैं, तो यह तय है कि समाज यह सुविधा आपके पास ज्यादा समय तक नहीं रहने देगा। कुछ सिरफिरे आतंकवादियों ने विमान को अमेरिका के ट्विन टॉवर से टकरा दिया था और उसके बाद हवाई अड्डों में सुरक्षा जांच के ढेर सारे चरण बना दिए गए, इसका नतीजा यही हुआ कि लागत बढ़ी और विमान यात्रा बहुत महंगी हो गई। यही इंटरनेट के मामले में भी होगा। अनाम रहने की सुविधा का गलत फायदा अगर एक हद से ज्यादा उठाया गया, तो नतीजा यहां भी लागत का बढ़ जाना ही होगा।
आइए, अब हकीकत की दुनिया में अपना अक्स देखते हैं। हम प्रशासन के मामले में सरकार से पारदर्शिता की उम्मीद करते हैं। जब चुनाव होते हैं, तो हम चाहते हैं कि हमें राजनेताओं की संपत्ति की पूरी जानकारी मिले। जनता से पैसे इकट्ठा करने के लिए जब कोई कंपनी पूंजी बाजार में आती है, तो हम उससे हर चीज के खुलासे की उम्मीद रखते हैं। सूचना के अधिकार से आप अधिकारियों और नौकरशाहों के बारे में बहुत छोटी से छोटी चीज भी जान सकते हैं। तो क्यों नहीं वचरुअल दुनिया में हमारा व्यवहार भी पारदर्शी हो?
वैसे पिछले कुछ दिनों से मैं सोशल मीडिया और अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदी के आर्थिक विकास से रिश्ते को पता लगाने की कोशिश कर रहा हूं। लेकिन लगता है कि इनके बीच में कोई रिश्ता है ही नहीं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बिना पिछले तीन दशक से आर्थिक कामयाबी के झंडे गाड़ने वाला चीन अगर एक तरफ है, तो दूसरी तरफ उत्तर कोरिया है। इसी तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वाले देशों में अगर एक तरफ अमेरिका है, तो दूसरी तरफ पाकिस्तान भी है। 

Thursday 30 August 2012

विज्ञान ने साबित किया भगवान राम का अस्तित्व


गीतिका कपूर
भगवान राम के अस्तित्व को लेकर समय-समय पर सवाल खड़े होते रहे हैं, लेकिन कभी कोई ठोस प्रमाण नहीं पेश किया जा सका। अब वैज्ञानिकों ने उनके अस्तित्व पर मोहर लगाई है। दिल्ली के इंस्टीट्यूट फॉर साइंटिफिक रिसर्च ऑन वेदाज (आइ-सर्व) को त्रेता युग के भगवान राम के जन्म की सटीक तिथि के बारे में पता लगाने में सफलता मिली है। संस्थान ने इसे वैज्ञानिक तौर पर प्रमाणित करने का भी दावा किया है। संस्थान की निदेशक सरोज बाला ने बताया कि हमने अपने सहयोगियों और प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर के माध्यम से प्रभु राम की जन्मतिथि की सटीक जानकारी प्राप्त की है। इससे भगवान राम का अस्तित्व भी प्रमाणित होता है।
उन्होंने बताया कि प्रभु राम का जन्म 10 जनवरी, 5014 ईसा पूर्व (सात हजार, 122 साल) पहले हुआ था। उस दिन चैत्र का महीना और शुक्ल पक्ष की नवमी थी। जन्म का वक्त दोपहर 12 बजे से दो बजे की बीच था।
इतना ही नहीं उनका कहना है कि भविष्य में वह ऐसी अन्य ऐतिहासिक घटनाओं की सत्यता और अस्तित्व के बारे में पता लगाएंगी। प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर का प्रयोग नासा और नेहरू प्लैनेटेरियम द्वारा विभिन्न ग्रहों की स्थिति का पता लगाने में किया जाता है।
आइ-सर्व के वैज्ञानिकों ने बताया कि वे न केवल भगवान राम बल्कि अन्य पौराणिक पात्रों की जन्मतिथि और अस्तित्व का सत्यापन करने का प्रयास कर रहे हैं। वह प्रभु राम के जीवन में हुई घटनाओं, जैसे वनवास, रावण वध का भी सत्यापन करने जा रहे हैं।(ref-jagran.com)

पृथ्वी और जीवन के उपजने के नये रहस्य

दो भारतीय मूल के वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि उन्होंने पृथ्वी और जीवन के उपजने के नये रहस्य को खोज निकाला है. अभी तक माना जाता था कि फ़ोर्मोस अभिक्रिया से ही पृथ्वी पर जीवन को अंजाम देने में सहायक ग्लूकोज पैदा हआ था.
पर, अब स्क्रिप्स शोध संस्थान के वासु सागी और रामनारायण कृष्णमूर्ति ने कहा है कि उनको इस अभिक्रिया के अलावा एक और रास्ता मिला है, जिससे शुगर को जन्म मिला होगा. जर्नल ऑफ़ द अमेरिकन केमिकल सोसाइटी में प्रकाशित रिपोर्ट में इस अभिक्रिया को ग्लयोजाइलेट सेनेरियो नाम दिया गया है.
वैज्ञानिकों को उम्मीद थी कि कार्बन मोनोऑक्साइड की मौजूदगी में ग्लयोजाइलेट तत्व पैदा हआ होगा. सागी और उनकी टीम ने इस परीक्षण को अंजाम देना शुरू किया और पाया कि पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व से पहले मौजूद तत्वों के संपर्क में आने से हई अभिक्रिया से कुछ रसायन बने. इनमें से प्रमुख रसायन को फ़ोर्मेलडिहाइड कहा जाता है.
इसी फ़ोर्मेलडिहाइड से एक तरह का ग्लूकोज तत्व पैदा हआ, जिसे कीटोसेस कहा गया. कीटोसेस से ही डीएनए और आरएनए जैसे तत्वों का जन्म हुआ, जो जीवन के आधार बने. इस परीक्षण और शोध को अहम इसलिए भी माना जा रहा है कि पहले की फ़ोर्मोस अभिक्रिया के मुकाबले डीएनए और आरएनए उत्पादन में इसकी क्षमता ज्यादा है.


मंगल पर क्यूरियोसिटी की गतिविधियाँ


नासा द्वारा मंगल ग्रह पर भेजे गए क्यूरियोसिटी रोवर ने ग्रह की सतह पर अपना पहला एक छोटा चक्कर पूरा कर लिया है. रोवर ने इस चक्कर के जरिए अपनी अगली यात्र की तैयारी की है, जिसमें वह मंगल पर जीवन की संभावनाओं की तलाश करेगा.
छह पहियों वाला यह रोवर उस जगह से ज्यादा दूर नहीं गया, जहां दो सप्ताह पहले उतरा था. कल यह लुढक कर लगभग 4.6 किलोमीटर आगे की ओर गया और फिर अपनी दिशा के लंबवत मुड गया. इसके बाद यह ग्रह की मिट्टी पर अपने निशान छोडता हुआ पीछे की ओर भी थोडी दूरी तक चला.
इस अभियान के प्रबंधक इस बात से खुश हैं कि रोवर ने अपना पहला चक्कर बिना किसी बाधा के पूरा कर लिया. नासा जेट प्रणोदक प्रयोगशाला के परियोजना प्रबंधक पीटर थीसिंजर ने कहा, ‘‘हमने रोवर बनाया है. अगर यह घूमता ही नहीं तो हमारा काम पूरा नहीं हो पाता. इसलिए हमारे लिए यह महत्वपूर्ण समय है.’’
कल क्यूरियोसिटी ने अपनी चालन क्षमताओं की जांच के लिए अपने सभी छह पहियों को सफलतापूर्वक खोल लिया था. इसके बाद उसने अपना यह छोटा सा चक्कर पूरा किया. मंगल की भूमध्य रेखा के पास स्थित गेल ग्रेटर में क्यूरियोसिटी पांच अगस्त को उतरा था.
इसका उद्देश्य वहां के पर्यावरण की जांच करके पता लगाना है कि क्या कभी वहां सूक्ष्मजीवों का अस्तित्व था? आखिर में रोवर को मंगल स्थित माउंट शार्प नामक पर्वत पर जाना है. यह पुरानी क्रेटर मिट्टी के जमाव से बना हुआ है. इस पर्वत के आधार में पूर्व में रहे पानी की मौजूदगी के सबूत मिले हैं. इसी की वजह से यहां पर जीवन की संभावनाओं का अध्ययन किया जा रहा है.

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नासा के क्यूरियोसिटी रोवर को मंगल के आकाश में एक अजीब सी सफेद रोशनी नाचती हुई दिखाई दी है. इसके अलावा क्यूरियोसिटी द्वारा भेजी गई तस्वीरों में आकाश में दिखने वाले चार धब्बे भी दिखाई पड़े हैं. यूएफओ को पहचानने वाले लोगों का दावा है कि ये धब्बे दरअसल एलियन (दूसरे ग्रह के वासी) के अंतरिक्षयान हैं, जो अंतरिक्ष में मानव के कदमों पर नजर रख रहे हैं.
अनसुलझी है पहेली
मंगल की सतह से भेजी गई ये तस्वीरें फिलहाल पहेली बनी हुई हैं. हालांकि, नासा का कहना है कि यह और कुछ नहीं कैमरे के लेंस पर लगे कुछ दाग ही हैं. तस्वीरों में इन संदिग्ध धब्बों की पहचान यूट्यूब के यूजर स्टीफन हैनर्ड ने की.
छोटा चक्कर पूरा
क्यूरियोसिटी ने लाल ग्रह की सतह पर अपना पहला एक छोटा चक्कर पूरा कर लिया है. रोवर ने इस चक्कर के जरिए अपनी अगली यात्रा की तैयारी की है, जिसमें वह मंगल पर जीवन की संभावनाओं की तलाश करेगा. छह पहियों वाला यह रोवर उस जगह से ज्यादा दूर नहीं गया, जहां दो सप्ताह पहले उतरा था. यह लुढ़क कर लगभग 4.6 किलोमीटर आगे की ओर गया और फिर अपनी दिशा के लंबवत मुड़ गया. इसके बाद यह ग्रह की मिट्टी पर अपने निशान छोड़ता हुआ पीछे की ओर भी थोड़ी दूरी तक चला.

Tuesday 28 August 2012

अब हिंदी की वर्तनी भी गूगल बाबा के सहारे

राकेश कुमार
हा ल ही में टीवी-अखबार पर एक खबर दिखायी दी कि नित नयी तकनीकों के आने से इनसान की दिमागी क्षमता घट रही है. मुझे यह निष्कर्ष 100 फीसदी सही लगता है. जब से फोन नंबर मोबाइल में सेव होने लगे, हाल यह है कि लोगों को अपनी बीवी तक का फोन नंबर याद नहीं रहता. कैलकुलेटर ने ऐसी आदत खराब की है कि अगर किराना का दाम भी बिना इस मशीन के जोड़ना पड़ जाये तो दिमाग चक्कर खाने लगता है. गणित में ग्रेजुएट रह चुका व्यक्ति भी प्रतिशत निकालने के लिए ‘कैलकुलेटरम् शरणम् गच्छामि’ का जाप कर रहा है.

तकनीक लोगों के भाषाई ज्ञान की जड़ों में भी मट्ठा डाल रही है. सभी भाषाओं पर इसका असर पड़ रहा है, लेकिन हिंदी पर इसकी कुछ ज्यादा ही मार पड़ रही है. अंगरेजी माध्यम से पढ.नेवाले बच्चों में वैसे भी हिंदी से कोई लगाव नहीं रहता. अंगरेजियत का नशा चढ.ाने में स्कूल से लेकर घर-परिवार के लोग जी-जान से जुटे रहते हैं. हालांकि इतनी मशक्कत के बाद भी ज्यादातर का अंगरेजी ज्ञान अधकचरा ही है. हिज्जे और व्याकरण ठीक रहे, इसके लिए बिना कंप्यूटर के उनका काम नहीं चलता. आजकल अंगरेजी माध्यम से पढ. कर जो नौजवान हिंदी की रोटी खा रहे हैं, हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में काम कर रहे हैं, वे हिंदी में भी अंगरेजी की तरह ‘स्पेल चेक’ और ‘ग्रामर चेक’ साफ्टवेयर चाहते हैं. लेकिन अफसोस कि हिंदी में ये साफ्टवेयर अभी इतने उत्रत नहीं हैं कि काम चल जाये. एक दिन मैंने ऐसे ही कुछ नौजवानों को बात करते सुना- ‘‘अच्छा बताओ कि अंगरेजी के शब्द तो कंप्यूटर और इंटरनेट के सहारे सही-सही मिल जाते हैं, लेकिन हिंदी के सही शब्दों को कहां से सीखा जा सकता है? उसमें इकार, उकार का सही-सही उपयोग समझ में नहीं आता.’’ यह सुन कर दूसरे ने तपाक से जवाब दिया - ‘‘अरे क्या सोचते हो, तुरंत गूगल में जाओ. भाषा हिंदी चुनो और उस शब्द को टाइप करो. तुम्हें सही-सही लिखा शब्द मिल जायेगा.’’ मैं आश्‍चर्य में पड़ गया कि ‘गूगल बाबा’ अब हिंदी शिक्षक हो गये हैं!

इसमें नौजवानों का भी क्या कसूर? अंगरेजी का शब्द कोश आपको हर घर में मिल जायेगा. लेकिन हिंदी शब्दों के मायने जानने के लिए कोश रखने की जहमत बहुत कम लोग उठाते हैं. ऑनलाइन शब्द कोश का इस्तेमाल गुनाह नहीं, पर हिंदी के मामले में इनकी विश्‍वसनीयता बहुत कम है. इंटरनेट पर उपलब्ध हिंदी के शब्द सही ही होंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है. कंप्यूटर और इंटरनेट की दुनिया ने अभी कुछ वर्षों पहले ही हिंदी को अपनाया है. उसमें हिंदी में काम करने के लिए अंगरेजी जैसी सार्मथ्यता अब भी विकसित नहीं हो पायी है. वैसे जोखिम लेनेवालों की कमी नहीं है और वे गूगल की हिंदी का छाती ठोंक कर प्रयोग कर रहे हैं.(प्रभात खबर ,रांची)

बोलने में अक्षम भी बात कर पायेंगे

दु निया में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं, जो पैरालिसिस के शिकार हों. इनमें से कई ऐसे हैं, जो अपनी इस बीमारी की वजह से बोल तक नहीं पाते. लेकिन, अब इन लोगों का बोलना भी मुमकिन हो सकता है. दरअसल, शोधकर्ताओं का दावा है कि पैरालिसिस से ग्रसित लोग अब बात करने में भी सक्षम हो सकते हैं. वैज्ञानिकों ने यह पता लगाया है कि कैसे हमारा मस्तिष्क विभित्र वर्णों को उारण करता है. गौरतलब है कि भौतिकविद मोटर न्यूरॉन नामक बीमारी से ग्रसित हैं और उन्हें अपनी कहने के लिए कंप्यूटराइज्ड डिवाइस की मदद लेनी पड़ती है. लेकिन, अब इस नये शोध के सामने आने के बाद एक मस्तिष्क में ऐसा प्रोस्थेटिक डिवाइस विकसित किया जा सकता है, जो पैरालिसिस शिकार लोगों को बातचीत करने या बोलने में मदद करेगा. वैज्ञानिकों ने अपने खोज में पाया कि हमारे मस्तिष्क में दो ऐसे भाग होते हैं, जो बातचीत करने या शब्दों के उारण में महत्वपूर्ण भूमिका निप्रभाते हैं. इन दोनों का नाम है- सुपीरियर टेंपोरल जाइरस और मेडियल फ्रंटल लोब. मेडियल फ्रंटल लोब उारण संबंधी न्यूरॉन्स के लिए जवाबदेह होता है और वर्णों के उारण में हमारी मदद करता है. वहीं, सुपीरियर टेंपोरल जाइरस में मौजूद न्यूरॉन्स ध्वनि प्रक्रिया के लिए जवाबदेह होता है. गौरतलब है कि मस्तिष्क के विभित्र भागों में मौजूद न्यूरॉन्स अलग-अलग तरह व्यवहार करते हैं. अब अपनी इस खोज के बाद वैज्ञानिकों का कहना है कि एकबार यदि न्यूरॉनल कोड का पता चल जाये तो उसके बाद यह संभव हो सकता है कि जो व्यक्ति शारीरिक से बोलने में अक्षम हैं, वो भी बातचीत कर सकते हैं.

मिल्की-वे की तरह आकाशगंगा
र ह्मांड की कहानी बेहद ही रोचक है और इंसान लगातार अंतरिक्ष की इन कहानियों को सामने लाने की कोशिश करता रहता है. वह इस कोशिश में कई बार सफल भी होता है. अब आकाशगंगा की दुनिया को लें, तो जह हमारे आकाशगंगा मिल्की-वे की खोज हुई थी, तो लगता था यही एकमात्र आकाशगंगा अंतरिक्ष में है. लेकिन, धीर-धीरे अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने और भी आकाशगंगाओं की खोज की. अब पिछले दिनों ही उन्होंने बिल्कुल हमारी ही तरह आकाशगंगा की खोज की है. और ऐसा पहली बार है, जब हमारी आकाशगंगा यानी मिल्की-वे की तरह ही यह है. वैज्ञानिकों ने यह खोज गैलेक्सी एं.ड मास असेंबली सर्वे (गामा) की मदद से की है. इस प्रोजेक्ट के तहत छह टेलिस्कोप को मिलाकर एक थ्री-डी मैप बनाया गया और उसकी मदद से यह खोज की गयी. हालांकि, यह गैलेक्सी थोड़ा धुंधला दिखा. लेकिन, अंतरिक्ष वैज्ञानिकों का कहना है कि शुरुआती शोध से उन्होंने यह पाया कि अन्य आकाशगंगाओं की ही तरह यह अधिक गर्म है. इस खोज को यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया के इंटरनेशनल सेंटर फॉर रेडियो एस्ट्रोनॉमी रिसर्च एवं यूनिवर्सिटी ऑफ सेंट एंड्रयूज ने अंजाम दिया. इस खोजदल की अगुवाई करने वाले डॉ रोबोथम ने बताया कि इससे पहले हमने कभी मिल्की-वे की तरह किसी दूसरी आकाशगंगा को नहीं देखा. उन्होंने बताया कि अभी तक कुल 14 ऐसे आकाशगंगाओं की खोज की जा चुकी है, जो एक समान हैं. हालांकि, यह पहला मामला है, जब पृथ्वी की तरह की आकाशगंगा की खोज की गयी है.

Sunday 26 August 2012

सोशल मीडिया की दुधारी तलवार

मदन जैड़ा
नब्बे के दशक में इंटरनेट का व्यावसायिक इस्तेमाल शुरू होने के कुछ ही वर्षों बाद सोशल नेटवर्किग साइट्स का उदय हुआ। पहले ऐसी साइट्स सीमित हुआ करती थीं और कंप्यूटर नेटवर्किंग के जरिये एक निश्चित दायरे में ही संचालित होती थीं, लेकिन 1995 के आसपास वर्ल्ड वाइड वेब की शुरुआत हुई तो ऑनलाइन सोशल नेटवर्किग साइट्स का मौजूदा स्वरूप सामने आया।

आज ये तेजी से बढ़ रही हैं। अनुमान है कि विश्व की करीब सात अरब आबादी में से दो अरब लोग इन साइट्स की सोशल नेटवर्किग से जुड़े हैं। इन साइट्स ने जहां उम्र, लिंग, धर्म और देश-प्रदेश की सीमाओं को तोड़ कर लोगों को एक मंच पर लाकर अपने विचार व्यक्त करने का मौका दिया है, वहीं इनके खतरे भी कम नहीं हैं। ताजा उदाहरण हिंसा की वे तस्वीरें हैं, जो इन साइट्स पर गत एक माह के दौरान खास इरादे से अपलोड की गईं। यदि  सरकार ने उचित कदम न उठाए होते तो शरारती तत्व अपने मकसद में कामयाब भी हो जाते।
कैसे हुआ बेजा इस्तेमाल
कोई भी व्यक्ति ईमेल के जरिये सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अपना खाता खोल सकता है। देश-विदेश में कहीं भी ईमेल एड्रेस बनाने के लिए स्थाई पहचान देने की जरूरत नहीं है, इसलिए शरारती तत्व नकली पहचान से ईमेल एड्रेस बना कर इन पर सक्रिय हैं। केंद्रीय गृह मंत्रलय के अनुसार फेसबुक, ट्विटर, गूगल, माइ स्पेस, लिंक्डइन समेत दर्जनों साइट्स पर ऐसे तत्वों ने जुलाई के पहले सप्ताह में आपत्तिजनक सामग्री लोड की। तब असम के कोकराझार और आसपास के क्षेत्रों में बोडो और मुस्लिमों के बीच हिंसा हुई थी। इन साइट्स पर ऐसे चित्र एवं वीडियो लोड किए गए, जिनमें बांग्लादेश, म्यांमार में प्राकृतिक आपदाओं और अन्य हिंसक घटनाओं की तस्वीरों को असम की तस्वीरें बताया गया।

कहने की कोशिश की गई कि असम में मुस्लिमों पर बड़े पैमाने पर हिंसा की जा रही है। ऐसी करीब पांच सौ से ज्यादा तस्वीरें, वीडियो एवं लिखित सामग्री नेटवर्किग साइट्स पर एक पखवाड़े के दौरान डाली गई। खुफिया एजेंसियों को इसकी भनक न लगी। बाद में जब पिछले सप्ताह बेंगलुरु से पूर्वोतर के लोगों का पलायन शुरू हुआ, तब इस षड्यंत्र का पता चला। पूवरेत्तर के लोगों से ही पता चला कि उन्हें पहले से चेतावनी भी दी गई है। 
लोकप्रियता बनी हथियार
इंटरनेट की इस दुनिया में इन साइट्स की उपयोगिता को अनदेखा नहीं किया जा सकता, लेकिन इनकी लोकप्रियता को शरारती तत्व हथियार बना रहे हैं। देश में डेढ़ करोड़ ब्रॉडबैंड कनेक्शन हैं, जबकि इंटरनेट यूजर आबादी दस फीसदी से अधिक होने का अनुमान है, और यह तेजी से बढ़ रही है। नेटवर्किंग साइट्स के मोबाइल पर मिलने से नौजवानों में यह काफी लोकप्रिय हो रही हैं। हालांकि पहले भी कुछ चुनौतियां इनसे उत्पन्न हुई थीं। विशिष्ट व्यक्तियों के खिलाफ आपत्तिजनक एवं गुमराह करने वाली टिप्पणी हुई थी। ऐसी घटनाएं तमाम देशों में हो रही हैं। खबर यह भी है कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स का उपयोग कई देशों में धार्मिक उन्माद फैलाने के लिए किया जा रहा है। खुफिया एजेंसियों के अनुसार आतंकी संगठन भी इनके जरिये अपने नेटवर्क के बीच कोड भाषा में संपर्क साधने का कार्य करते हैं। इसकी वजह यह है कि खुफिया एजेंसियां संदिग्ध व्यक्तियों के ईमेल को इंटरसेप्ट कर रही हैं, जबकि इन साइट्स पर फर्जी प्रोफाइल से कोड भाषा में संदेश खुफिया एजेंसियों की नजर से बच जाते हैं।
देश में साइबर सुरक्षा
देश में साइबर हमलों से सुरक्षा के इंतजाम किए जा रहे हैं, लेकिन ऐसे इंतजामों का सारा फोकस दूसरे पहलू पर है। तमाम उपाय इस दिशा में हो रहे हैं कि कैसे आतंकी या शरारती तत्वों से साइबर नेटवर्क को तहस-नहस होने से बचाया जाए। केंद्रीय गृह मंत्रलय ने नेशनल थ्रेट इंटरेलीजेंस सेंटर स्थापित करने का फैसला लिया है।

दरअसल, प्रधानमंत्री कार्यालय, सीबीआई जैसे संस्थानों की महत्वपूर्ण वेबसाइट्स पर साइबर हमले हो चुके हैं। सिर्फ कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान भारतीय वेबसाइट्स पर करीब आठ हजार साइबर हमले हुए थे। सरकारी एवं निजी कामकाज में इंटरनेट पर निर्भरता बढ़ रही है, इसलिए खतरा यह है कि नेटवर्क पर हमले से कामकाज ठप न हो जाए, लेकिन यह साइबर सुरक्षा का सिर्फ एक पहलू है। इस सांप्रदायिक साइबर अटैक के बाद केंद्र सरकार अब नए सिरे से इस समस्या को ले रही है। साइबर अपराधों की जांच, साइट्स की निगरानी तथा साइबर फॉरेंसिक की दिशा में कानून प्रवर्तन एजेंसियों की तैयारी अभी अधूरी है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन के अनुसार नेशनल टेक्निकल रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन (एनटीआरओ) तथा इंडियन कंप्यूटर इमरजेंसी रिस्पॉन्स टीम (आईसीईआरटी) को साइबर सुरक्षा से जुड़े तमाम पहलुओं को देखने का जिम्मा दिया गया है। दरअसल, भारत में कार्य कर रही वेबसाइट्स की जिम्मेदारी सुनिश्चित नहीं है। वे अक्सर सर्वर देश से बाहर होने और गोपनीयता के नाम पर सहयोग में आनाकानी करती हैं।
साइबर अपराध एवं जांच
देश में साइबर अपराध बढ़ रहे हैं। साइबर अपराधों के लिए आईटी एक्ट बना है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक 2010 में जहां आईटी एक्ट के तहत 966 मामले दर्ज हुए थे, वहीं 2011 में इनकी संख्या में 85 फीसदी का इजाफा हुआ और मामले बढ़ कर 1781 हो गए। इसी प्रकार साइबर अपराध के  422 मामलों में आईपीसी के तहत भी मामले दर्ज हुए। ऐसे मामलों में भी गत वर्ष की तुलना में 18 फीसदी इजाफा हुआ है। खबर यह है कि इनमें से 70-75 फीसदी मामले अनसुलझे हैं, क्योंकि जांच एजेंसियों के पास जांच के इंतजाम नहीं हैं। इतना ही नहीं, देश में खुले एकमात्र साइबर ट्रिब्यूनल में एक साल से जज नहीं है। साथ ही, नियमित अदालतों में भी साइबर अपराधों की जानकारी रखने वाले जजों एवं संबंधित स्टाफ का अभाव है, इसलिए साइबर अपराधी जल्दी छूट जाते हैं।
सोशल साइट्स की मॉनीटरिंग नहीं
देश में सोशल नेटवर्किग साइट्स की मॉनीटरिंग के इंतजाम नहीं हैं। आईसीईआरटी और खुफिया एजेंसियां आंशिक रूप से निगरानी कार्य तभी करती हैं, जब कोई शिकायत मिले या फिर कोई गोपनीय सूचना आ रही हो। यही कारण है कि 13 जुलाई से सामग्री वेबसाइट्स पर लोड होती रही और सरकारी एजेंसियों को तब पता चला, जब उसके गंभीर नतीजे सामने आ चुके थे।
कमजोर कानून
साइबर विशेषज्ञ नीरज अरोड़ा के मुताबिक आईटी एक्ट में खामियां हैं। इसमें एक तो साइबर क्राइम को जमानती अपराधों की श्रेणी में रखा गया है। दूसरे, अधिकतम सजा तीन साल रखी गई है। तीसरे, आपत्तिजनक सामग्री अपलोड होने पर संबंधित साइट को नोटिस देने के 36 घंटे के भीतर उसे हटाना होगा। यह अवधि ज्यादा है। इतनी देर तक आपत्तिजनक सामग्री साइट पर पड़ी रहेगी तो उसका जो संदेश जहां पहुंचना था, पहुंच ही जाएगा। चौथे, कानून के क्रियान्वयन के लिए पुलिस में साइबर क्राइम सेल नाममात्र के हैं। उनमें साइबर विशेषज्ञों की नियुक्ति नहीं हो रही। ट्रेनिंग भी पर्याप्त नहीं है।

स्थिति यह है कि साइबर क्राइम के नाम पर साल में जो थोड़े बहुत मामले दर्ज हो भी रहे हैं, वे इंटरनेट के जरिए ठगी एवं धोखाधड़ी या अश्लीलता फैलाने के हैं। उन्माद फैलाने, भ्रामक जानकारी, लोगों में नफरत फैलाने, चरित्र पर आपत्तिजनक टिप्पणी, अफवाह फैलाने जैसे मामलों में साइबर सेल मामला ही दर्ज नहीं करते।
जब सीमा के बाहर हों शरारती
यहां एक समस्या यह भी आती है कि जब आपत्तिजनक सामग्री दूसरे देश से अपलोड की जाए तो जांच एजेंसियों के हाथ बंध जाते हैं। नीरज अरोड़ा के मुताबिक ऐसे मामलों में थोड़ी मुश्किल होती है, लेकिन यह असंभव नहीं है। नेटवर्किग साइट ऐसी सामग्री लोड करने वाले वाले इंटरनेट सेवा प्रदाता का आईपी एड्रेस मुहैया करा सकती है, लेकिन सरकार को इसके लिए कड़े कानूनी प्रावधान करने होंगे व तय करना होगा कि सामग्री लोड होने पर न सिर्फ संबंधित नेटवर्किग साइट उसे बिना देर किए हटा दे, बल्कि आईपी एड्रेस मुहैया कराने की जिम्मेदारी उसकी हो। दूसरे, अन्य देशों के साथ ऐसे मामलों से निपटने के लिए द्विपक्षीय समझौते करने होंगे।  
पहचान अनिवार्य बनाई जाए
सूचना एवं प्रौद्यौगिकी मंत्रलय के एक विशेषज्ञ के अनुसार सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर पहचान पुष्टि के बिना एक्सेस का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए। ऐसा करना मुश्किल नहीं है। इस घटना के बाद इस दिशा में विचार-विमर्श शुरू हो गया है, लेकिन यह ऐसा मुद्दा है, जिसमें विश्व स्तर पर पहल करनी होगी। सोशल नेटवर्किग साइट्स चाहें तो खाता खोलने वाले की पहचान के सुबूत के तौर पर वे उसके मोबाइल या फोन नंबर को आधार बना सकती हैं, क्योंकि फोन नंबर बिना पहचान के नहीं मिलता।

जिस प्रकार इंटरनेट बैंकिंग के लिए पासवर्ड ग्राहक को मोबाइल फोन के जरिये नेटबैंकिंग शाखा से भेजा जा सकता है, उसी प्रकार की व्यवस्था सोशल नेटवर्किंग साइट भी कर सकती है।  इससे 99 फीसदी मामलों में व्यक्ति की सही पहचान की जा सकती है। विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में सोशल नेटवर्किंग साइट्स के लिए यह प्रावधान अनिवार्य कर देना चाहिए।(ref-livehindustan.com)

Friday 24 August 2012

डीजल के धुएं से कैंसर का खतरा

डीजल इंजन के धुंए से कैंसर हो सकता है. और ये तंबाकू के धुएं जितनी ही खतरनाक है. फ्रांस के लियोन में चली बैठक बाद विशेषज्ञों के एक समूह ने ये दावा किया है. ये बैठक विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से बुलाई गई थी.
संगठन से जुडी फ्रांसीसी एजेंसी आईएआरसी (इंटरनेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर) ने अपने एक शोध में उन तत्वों का पता लगाया जो डीजल की भभक से निकलते हैं और कैंसर फैलाते हैं. इस शोध से जुड़े विशेषज्ञों ने दुनिया भर के लोगों को आगाह किया है कि वो डीजल के धुएं के संपर्क में आने से बचें. विशेषज्ञों का कहना है, 'ये निष्कर्ष अकाट्य तर्क पर आधारित हैं. हमने अपने शोध में पाया है कि डीजल के अवशेष फेफड़े का कैंसर फैलाते हैं. इसके अलावा ये मूत्राशय के कैंसर को बढ़ाने के लिए जिम्मेदार होता है.'
ये निष्कर्ष स्वतंत्र विशेषज्ञों के बीच एक हफ्ते तक चली मीटिंग के बाद निकाले गए हैं. कैंसर फैलाने के लिए डीजल और गैसोलिन किस हद तक जिम्मेदार हैं विशेषज्ञों की इस बारे में अलग अलग राय थी. डीलज के धुएं को विशेषज्ञों ने तंबाकू, एसबेस्टस, आर्सेनिक की ही तरह खतरनाक बताया है. आईएआरसी के अध्यक्ष क्रिस्टोफर पोर्टियर ने कहा कि विशेषज्ञों के समूह में इस बात की सहमति थी कि डीजल के धुएं से कैंसर फैलता है. ये निष्कर्ष पशुओं और सीमित मात्रा में इंसानों पर किए गए शोध के बाद निकाले गए हैं.
इस बारे में पहली बार अमेरिका के राष्ट्रीय कैंसर संस्थान में रिपोर्ट भी छपी थी. 1947 के बाद कई दशकों तक चले इस शोध में कहा गया था कि जो बच्चे डीजल इंजन से निकलने वाले धुएं के ज्यादा संपर्क में होते हैं उन्हें फेफड़े के कैंसर का खतरा ज्यादा होता है.
ये चेतावनी पश्चिमी यूरोप के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण मानी जा रही है. इस क्षेत्र में डीजल कारें काफी लोकप्रिय हैं. टैंक्स छूट और तकनीकी श्रेष्ठता की वजह से डीजल कारों की मांग भी खूब बढ़ी है. यूरोप के अलावा भारत में भी डीजल इंजन कारें खूब खरीदी जाती हैं. हालांकि दूसरी जगहों पर इनका इस्तेमाल ज्यादातर व्यापारिक वाहनों के लिए किया जाता है. अब जर्मन वैज्ञानिक अमेरिका में भी डीजल कार के बारे में जागरुकता फैलाने की कोशिश में लगे हैं. अमेरिका के लंबे हाइवे के लिए डीजल कारें सबसे ज्यादा मुफीद मानी जाती हैं.'
आइएआरसी का कहना है कि दुनिया की बड़ी आबादी डीजल के धुएं के संपर्क में हर आती है. फिर वो चाहे नौकरी पेशे की वजह से हो या फिर हवा में मौजूद डीजल के कण की वजह से. विकासशील देशों में तो हालत और भी बुरी है. इन देशों में तकनीक कम विकसित है.
1998 के बाद से ही विशेषज्ञों ने इस बारे में ध्यान देना शुरु कर दिया था. हालांकि ऑटो कंपनियों ने मांग की है कि डीजल के धुएं को कैंसर फैलाने वाली वस्तुओं की सूची में नीचे रखना चाहिए. वाशिंगटन स्थित डीजल तकनीक फोरम के अध्यक्ष एलेन शफर ने इस फैसले पर कडी प्रतिक्रिया दी है. उनका कहना है, ' इंजन और दूसरे उपकरण बनाने वाली कंपनियां, ईंधन को शुद्ध करने वाली कंपनियां और दूसरी कंपनियों ने उत्सर्जन कम करने के लिए करोड़ो डॉलर खर्च किया है. नई तकनीक से बनाए गए डीजल इंजन हाइड्रोकार्बन और नाइट्रोजन ऑक्साइड का न के बराबर उत्सर्जन करते हैं.' कुछ इसी तरह की प्रतिक्रिया यूरोपीय संघ के ऑटोमोबाइल उद्योग की तरफ से दी गई है. इसमें कहा गया है, 'इस निष्कर्ष से उद्योग जगत सन्न रह गया है. हम उन निष्कर्षों पर गौर से विचार करेंगे.
आईएआसी की रिपोर्ट के बाद जनरल मोटर्स ने एक बयान जारी किया है. जिसमें कहा गया है,'हम ईंधन बचाने वाली तकनीक पर काम करते रहेंगे और ऐसे इंजन का विकास करेंगे जो वैकल्पिक ईंधन पर चल सके.' हालांकि आज जिन डीजल इंजनों का इस्तेमाल किया जाता है वो पहले से काफी बेहतर हैं. और उनसे सल्फर का उत्सर्जन भी कम होता है.


Wednesday 22 August 2012

पानी की बर्बादी


जल संकट के प्रति आगाह कर रहे हैं शशांक द्विवेदी 
 दैनिक जागरण (राष्ट्रीय) में 25 /07/2012 को प्रकाशित 

विकास और लालच ने हमारी जमीन को बंजर बना दिया। अधिकांश नदियों, तालाबों, झील, पोखरों का अस्तित्व मिट गया। गंगा, यमुना जैसी जीवनदायिनी नदियों को हम नालों में तब्दील कर रहे हैं। शहरों में कंक्रीट के जंगलों के बीच हम इतने बेसुध हो गए है कि हमें भविष्य के खतरे की आहट ही नहीं सुनाई पड़ रही है। वास्तव में जल ही जीवन का आधार है, जल के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। धरातल पर तीन-चौथाई पानी होने के बाद भी पीने योग्य पानी एक सीमित मात्रा में ही है। उस सीमित मात्रा के पानी का इंसान ने अंधाधुध दोहन किया है। नदी, तालाबों और झरनों को पहले ही हम कैमिकल की भेंट चढ़ा चुके हैं, जो बचा-खुचा है उसे अब अपनी अमानत समझ कर अंधाधुंध खर्च कर रहे हैं। जबकि भारतीय नारी पीने के पानी के लिए रोज ही औसतन चार मील पैदल चलती है। भारत में विश्व की लगभग 16 प्रतिशत आबादी निवास करती है, लेकिन उसके लिए मात्र तीन प्रतिशत पानी ही उपलब्य है। भारत में जल संबंधी मौजूदा समस्याओं से निपटने में वर्षा जल को भी एक सशक्त साधन समझा जाए। पानी के गंभीर संकट को देखते हुए पानी की उत्पादकता बढ़ाने की जरूरत है। चूंकि एक टन अनाज उत्पादन में एक हजार टन पानी की जरूरत होती है और पानी का 70 फीसदी हिस्सा सिंचाई में खर्च होता है, इसलिए पानी की उत्पादकता बढ़ाने के लिए जरूरी है कि सिंचाई का कौशल बढ़ाया जाए। यानी कम पानी से अधिकाधिक सिंचाई की जाए। अभी होता यह है कि बांधों से नहरों के माध्यम से पानी छोड़ा जाता है, जो किसानों के खेतों तक पहुंचता है। जल परियोजनाओं के आंकड़े बताते हैं कि छोड़ा गया पानी शत-प्रतिशत खेतों तक नहीं पहुंचता। कुछ पानी रास्ते में भाप बनकर उड़ जाता है, कुछ जमीन में रिस जाता है और कुछ बर्बाद हो जाता है। पानी का महत्व भारत के लिए कितना है यह हम इसी बात से जान सकते हैं कि हमारी भाषा में पानी के कितने अधिक मुहावरे हैं। अगर हम इसी तरह कथित विकास के कारण अपने जल संसाधनों को नष्ट करते रहे तो वह दिन दूर नहीं, जब सारा पानी हमारी आंखों के सामने से बह जाएगा और हम कुछ नहीं कर पाएंगे। पानी के बारे में एक नहीं, कई चौंकाने वाले तथ्य हैं। विश्व में और विशेष रूप से भारत में पानी किस प्रकार नष्ट होता है, इस विषय में जो तथ्य सामने आए हैं उन पर ध्यान देकर हम पानी के अपव्यय को रोक सकते हैं। अनेक तथ्य ऐसे हैं जो हमें आने वाले खतरे से तो सावधान करते ही हैं, दूसरों से प्रेरणा लेने के लिए प्रोत्साहित भी करते हैं और पानी के महत्व व इसके अनजाने श्चोतों की जानकारी भी देते हैं। दिल्ली, मुंबई और चैन्नई जैसे महानगरों में पाइप लाइनों के वॉल्व की खराबी के कारण रोज 17 से 44 प्रतिशत पानी बेकार बह जाता है। इजराइल में औसतन मात्र 10 सेंटीमीटर वर्षा होती है और इस वर्षा से ही वह इतना अनाज पैदा कर लेता है कि वह उसका निर्यात करता है। दूसरी ओर भारत में औसतन 50 सेंटीमीटर से भी अधिक वर्षा होने के बावजूद अनाज की कमी बनी रहती है। ध्यान देने की बात यह है कि यदि ब्रश करते समय नल खुला रह गया है, तो पांच मिनट में 25 से 30 लीटर पानी बरबाद होता है। जबकि विश्व में प्रति 10 व्यक्तियों में से 2 व्यक्तियों को पीने का शुद्ध पानी नहीं मिल पाता है। नदियां पानी का सबसे बड़ा श्चोत हैं। जहां एक ओर नदियों में बढ़ता प्रदूषण रोकने के लिए विशेषज्ञ उपाय खोज रहे हैं, वहीं कल-कारखानों से बहते हुए रसायन उन्हें भारी मात्रा में दूषित कर रहे हैं। ऐसी अवस्था में जब तक सख्ती नहीं बरती जाती, अधिक से अधिक लोगों को दूषित पानी पीने का समय आ सकता है। समय आ गया है जब हम वर्षा का पानी अधिक से अधिक बचाने की कोशिश करें। बारिश की एक-एक बूंद कीमती है। इन्हें सहेजना बहुत ही आवश्यक है। यदि अभी पानी नहीं सहेजा गया, तो संभव है पानी केवल हमारी आंखों में ही बच पाएगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं) 
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Tuesday 21 August 2012

स्टेम कोशिका तकनीक- नई उम्मीदें

स्टेम कोशिका अनुसंधान लंबे समय से जारी है, और कुछ समय पूर्व ही इस दिशा में सफलता प्राप्त होनी शुरू हुई है। स्टेम कोशिका तकनीक से मानव जाति में फैली आनुवांशिक और अन्य बीमारियों की ही नहीं, बल्कि प्राणी संरक्षण में भी सहयोग मिलेगा। हालांकि अभी यह शोध कार्य शुरुआती दौर में ही है, लेकिन वह दिन दूर नहीं, जब इसके लाभ आमजन को आसानी से मुहैया होंगे। इस तकनीक से जुड़ी नवीन जानकारी दे रहे हैं मुकुल व्यास
शरीर के विभिन्न अंगों में विकसित हो सकने की खूबी के कारण स्टेम कोशिकाओं ने पूरी दुनिया का ध्यान आकृष्ट किया है। चिकित्सा विज्ञान में इन कोशिकाओं के उपयोग के लिए पिछले कई वर्षो से विभिन्न स्तरों पर रिसर्च चल रही है। हालांकि अभी कोई चमत्कारिक नतीजे सामने नहीं आए हैं, लेकिन विभिन्न प्रयोगशालाओं से मिल रही रिपोर्ट स्टेम कोशिका टेक्नोलॉजी से बड़े चमत्कारों की उम्मीद जगाती है। फिर भी वैज्ञानिकों को स्टेम सेल रिसर्च के बारे में पिछले साल यूरोपियन कोर्ट ऑफ जस्टिस के फैसले से कुछ धक्का लगा था। कोर्ट ने भ्रूण स्टेम सेल पर आधारित आविष्कारों के पेटेंट पर प्रतिबंध लगा दिया है। यूरोपियन कंपनियों के सभी देश इस फैसले को मानने के लिए बाध्य हैं।
वैज्ञानिकों को चिंता है कि कोर्ट के फैसले के बाद कंपनियां यूरोप में स्टेम सेल थेरेपी से जुड़े प्रोजेक्टों पर निवेश करने से कतराएंगी। कोर्ट का फैसला जो भी हो, रिसर्चर स्टेम कोशिका के कुछ नए उपयोग खोजने में कामयाब रहे हैं। इनमें स्टेम कोशिका से कृत्रिम रक्त, शुक्राणु और किडनी उत्पन्न करने के तरीके शामिल हैं। आइए, इन कुछ प्रयोगों का जायजा लें।
मिलने लगेगा कृत्रिम रक्त
स्टेम सेल रिसर्च ने कृत्रिम रक्त के निर्माण का रास्ता  दिखला दिया है। स्कॉटलैंड के रिसर्चरों का दावा है कि अगले तीन वर्षों में स्टेम सेल से निर्मित रक्त के क्लिनिकल ट्रायल शुरू हो जाएंगे और दस वर्ष में अंग प्रत्यारोपण के दौरान कृत्रिम रक्त का प्रयोग होने लगेगा। यूनिवर्सिटी ऑफ एडिनबरा के रिसर्चरों ने अस्थि मज्जा से स्टेम सेल निकाले और प्रयोगशाला में उनसे ऐसी कोशिकाएं विकसित की हैं, जो शरीर के भीतर ऑक्सीजन ढोने में सक्षम हैं। रिसर्चर ओ नेगेटिवटाइप का रक्त निर्मित करने की कोशिश कर रहे हैं, जो यूनिवर्सल डोनर ग्रुप होता है। करीब 98 प्रतिशत मरीज इसे स्वीकार कर लेते हैं।
उधर कनाडा के वैज्ञानिकों ने ऐसी स्टेम कोशिकाओं का पता लगाया है, जिनसे विभिन्न किस्म की रक्त कोशिकाओं का उत्पादन किया जा सकता है। इनमें  लाल कोशिकाएं, श्वेत कोशिकाएं और प्लेटलेट्स शामिल हैं। गौरतलब है कि लाल कोशिकाएं शरीर के भीतर विभिन्न हिस्सों में ऑक्सीजन पहुंचाने का काम करती हैं। श्वेत कोशिकाएं हमारी प्रतिरोध प्रणाली का ध्यान रखती हैं, जबकि प्लेटलेट्स खून की क्लोटिंग में मदद करती हैं।
इस बड़ी खोज का मतलब यह है कि स्टेम कोशिकाओं की मदद से समूची रक्त प्रणाली को पुनर्निर्मित किया जा सकता है या मरीजों की स्टेम कोशिकाओं से उनकी जरूरत की रक्त कोशिकाओं की सप्लाई की जा सकती है।
वैज्ञानिक एक ऐसी शुद्ध स्टेम कोशिका की तलाश में थे, जिसे नियंत्रित करना संभव हो और मरीजों में  प्रत्यारोपित करने से पहले उसकी कल्चर तैयार की जा सके। कनाडा में टोरंटो स्थित यूनिवर्सिटी हेल्थ नेटवर्क  के वैज्ञानिक जॉन डिक का कहना है कि उनकी टीम ऐसी स्टेम कोशिका को पृथक करने में कामयाब हो गई है, जो रक्त प्रणाली के सारे हिस्सों को उत्पन्न कर सकती है। इससे स्टेम कोशिकाओं के चिकित्सीय उपयोग की क्षमता बढ़ जाएगी।
नई प्रजनन तकनीक
वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में स्टेम कोशिकाओं से शुक्राणु निर्मित करके इसका इस्तेमाल चूहों में स्वस्थ संतान उत्पन्न करने के लिए किया है। इस तकनीक को प्रजनन विज्ञान में मील का बड़ा पत्थर बताया जा रहा है। स्टेम कोशिकाएं वे कोशिकाएं होती हैं, जो विभाजित होने के बाद किसी भी विशिष्ट कोशिका के रूप में विकसित हो सकती हैं। वैज्ञानिकों को यकीन है कि भविष्य में इस तकनीक से नि:संतान दंपतियों को बड़ा फायदा हो सकता है। यह पहला मौका है जब स्टेम कोशिका तकनीकों से उत्पन्न शुक्राणुओं का प्रयोग स्वस्थ संतान उत्पन्न करने के लिए किया गया है।
कैसे काम करेगी यह तकनीक : एक संभावना यह है कि नि:संतान पुरुष या महिला से प्राप्त त्वचा कोशिकाओं को पहले स्टेम कोशिकाओं में बदला जाएगा। स्टेम कोशिकाओं को पहले जर्मकोशिकाओं में परिवर्तित किया जाएगा। गौरतलब है कि शुक्राणु और अंडाणु जर्म कोशिकाओं से उत्पन्न होते हैं। इस प्रक्रिया से उत्पन्न शुक्राणुओं और अंडाणुओं का प्रयोग सामान्य आईवीएफ (परखनली निषेचन) पद्धति में किया जा सकता है।
क्योटो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मितिनोरी साइतो के नेतृत्व में जापानी टीम ने यह नई तकनीक विकसित की है। रिसर्चरों ने प्रयोगशाला के चूहों के भ्रूणों से स्टेम कोशिकाएं निकाल कर उन्हें परिपक्व शुक्राणु कोशिकाओं  में बदल दिया। इन शुक्राणुओं का इस्तेमाल उन्होंने अंडाणुओं को निषेचित करने के लिए किया। इससे उत्पन्न  संतान शारीरिक या आनुवांशिक दोषों से मुक्त थी। रिसर्चरों ने प्रयोग के दौरान 214 भ्रूण उत्पन्न किए। इन भ्रूणों को मादा में प्रत्यारोपित किया गया। इनसे 65 चूहों का जन्म हुआ।
प्रोफेसर साइतो का कहना है कि भ्रूण स्टेम कोशिकाओं से निकाली गई जर्म कोशिकाओं से स्वस्थ संतान उत्पन्न करने का प्रयोग दुनिया में पहली बार हुआ है। साइतो ने भ्रूण कोशिकाओं से स्वस्थ अंडाणुओं के निर्माण पर भी काम शुरू कर दिया है।
गंजेपन का इलाज
कुछ रिसर्चरों का मानना है कि स्टेम कोशिकाओं के उपयोग से गंजेपन से छुटकारा पाने के लिए नए इलाज विकसित किए जा सकते हैं। अमेरिका में येल यूनिवर्सिटी में मॉलिक्यूलर, सेलुलर और डेवलपमेंट बायोलॉजी के असिस्टेंट प्रोफेसर वालेरी होर्सले का कहना कि यदि हम किसी तरह इन कोशिकाओं का संवादहेयर फोलिकल के तल पर निष्क्रियस्टेम कोशिकाओं के साथ करा दें, तो बालों का उगना फिर शुरू हो सकता है।
स्टेम कोशिका से किडनी
यूनिवर्सिटी ऑफ एडिनबरा के रिसर्चरों द्वारा विकसित तकनीक यदि कामयाब रही तो किडनी प्रत्यारोपण के लिए मरीजों को डोनर का इंतजार नहीं करना पड़ेगा। वे खुद स्टेम कोशिकाओं से अपनी जरूरत के अंग विकसित कर लेंगे, जिन्हें रुग्ण अंगों की जगह प्रत्यारोपित किया जा सकेगा। वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में जानवरों की भ्रूण कोशिकाओं और मानव भ्रूण द्रव्य (एमिनोटिक फ्लूड) से किडनी तैयार करने में कामयाबी हासिल की। यह किडनी एक सेंटीमीटर लंबी थी। अजन्मे शिशु की किडनी का आकार भी लगभग इतना ही होता है।