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Friday, 6 July 2018

पर्यावरण सरंक्षण पर बातें नहीं, ठोस काम जरूरी


विश्व पर्यावरण दिवस(5 जून ) पर विशेष 
शशांक द्विवेदी  
पूरी दुनियाँ की जलवायु में तेजी से परिवर्तन हो रहा है ,बेमौसम आंधी ,तूफ़ान और बरसात से हजारों लोगों की जान जा रही है साथ ही सभी ऋतु चक्रों में तेजी से बदलाव देखने को मिल रहा है । सच्चाई यह है कि पर्यावरण सीधे सीधे हमारे अस्तित्व से जुड़ा मसला है । दुनियाँभर में पर्यावरण सरंक्षण को लेकर काफी बातें, सम्मेलन, सेमिनार आदि हो रही है परन्तु वास्तविक धरातल पर उसकी परिणिति होती दिखाई नहीं दे रही है । जिस तरह क्लामेट चेंज दुनियाँ में भोजन पैदावार और आर्थिक समृद्धि को प्रभावित कर रहा है, आने वाले समय में जिंदा रहने के लिए जरूरी चीजें इतनी महंगी हो जाएगीं कि उससे देशों के बीच युद्ध जैसे हालात पैदा हो जाएंगे । यह खतरा उन देशों में ज्यादा होगा जहाँ कृषि आधारित अर्थव्यवस्था है । पर्यावरण का सवाल जब तक तापमान में बढोत्तरी से मानवता के भविष्य पर आने वाले खतरों तक सीमित रहा, तब तक विकासशील देशों का इसकी ओर उतना ध्यान नहीं गया । परन्तु अब जलवायु चक्र का खतरा खाद्यान्न उत्पादन पर पड रहा है, किसान यह तय नहीं कर पा रहे है कब बुवाई करे और कब फसल काटें । तापमान में बढ़ोत्तरी जारी रही तो खाद्य उत्पादन 40 प्रतिशत तक घट जायेगा, इससे पूरे विश्व में खाद्यान्नों की भारी कमी हो जायेगी । ऐसी स्थिति विश्व युद्ध से कम खतरनाक नहीं होगी । एक नई अमेरिकी स्टडी में दावा किया गया है कि तापमान में एक डिग्री तक का इजाफा साल 2030 तक अफ्रीकी सिविल वार होने के रिस्क को 55 प्रतिशत तक बढा सकता है । यानी महज अगले 12  वर्षों में अफ्रीकी देशों में संकट गहरा सकता है । यह स्टडी यूनिवर्सिटी आफ कैलीफोर्निया के इकानमिस्ट मार्शल बर्क द्वारा की गई है । इसमें कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण बनी स्थितियों में अकेले अफ्रीका के उप सहारा इलाके में युद्ध भड़कने से 3 लाख 90 हजार मौतें हो सकती हैं । इन युद्धों के बहुत विनाशकारी होनें की आशंका है ।
नेचर क्लाइमेट चेंज एंड अर्थ सिस्टम साइंस डाटा जर्नल में प्रकाशित  एक रिपोर्ट के अनुसार चीन, अमेरिका और यूरोपीय संघ के वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में क्रम से 26 ,15 और 11 फीसद की हिस्सेदारी है जबकि भारत का आंकड़ा सात फीसद है। इसमें बताया गया है कि प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन के मामले में भारत की हिस्सेदारी 2.44 टन है जबकि अमेरिका, यूरोपीय संघ और चीन की प्रति व्यक्ति हिस्सेदारी क्रम से 19.86 टन, 8.77 और 8.13 टन है।यह रिपोर्ट ब्रिटेन के ईस्ट एंजलिया विश्वविद्यालय के ग्लोबल कार्बन परियोजना द्वारा किये गये एक अध्ययन पर आधारित है ।  दुनियाँ भर में कार्बन उत्सर्जन की बढती दर ने पर्यावरण और खासकर जैव विविधता को बड़े पैमानें पर नुकसान पहुँचाया है , एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले एक दशक में विलुप्त प्रजातियों की संख्या पिछले एक हजार वर्ष के दौरान विलुप्त प्रजातियों की संख्या के बराबर है। जलवायु में तीव्र गति से होने वाले परिवर्तन से देश की 50 प्रतिशत जैव विविधता पर संकट है। अगर तापमान से 1.5  से 2.5  डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होती है तो 25 प्रतिशत प्रजातियां पूरी तरह समाप्त हो जाएंगी।  अंतरराष्ट्रीय संस्था वर्ल्ड वाइल्ड फिनिशिंग ऑर्गेनाइजेशन ने अपनी रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि 2030 तक घने जंगलों का 60 प्रतिशत भाग नष्ट हो जाएगा। वनों के कटान से वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की कमी से कार्बन अधिशोषण ही वनस्पतियों व प्राकृतिक रूप से स्थापित जैव विविधता के लिए खतरा उत्पन्न करेगी। मौसम के मिजाज में होने वाला परिवर्तन ऐसा ही एक खतरा है। इसके परिणामस्वरूप हमारे देश के पश्चिमी घाट के जीव-जंतुओं की अनेक प्रजातियां तेजी से लुप्त हो रही हैं।
पिछले दिनों पर्यावरण और वायु प्रदूषण का भारतीय कृषि पर प्रभाव शीर्षक से प्रोसिडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस में प्रकाशित एक शोध पत्र के नतीजों ने  सरकार ,कृषि विशेषज्ञों और पर्यावरणविदों की चिंता बढ़ा दी है । शोध के अनुसार भारत के अनाज उत्पादन में वायु प्रदूषण का सीधा और नकारात्मक असर देखने को मिल रहा है। देश  में धुएं में बढ़ोतरी की वजह से अनाज के लक्षित उत्पादन में कमी देखी जा रही है। करीब 30 सालों के आंकड़े का विश्लेषण करते हुए वैज्ञानिकों ने एक ऐसा सांख्यिकीय मॉडल विकसित किया जिससे यह अंदाजा मिलता है कि घनी आबादी वाले राज्यों में वर्ष 2010 के मुकाबले वायु प्रदूषण की वजह से गेहूं की पैदावार 50 फीसदी से कम रही। कई जगहों पर खाद्य उत्पादन में करीब 90 फीसदी की कमी धुएं की वजह से देखी गई जो कोयला और दूसरे प्रदूषक  तत्वों की वजह से हुआ। भूमंडलीय तापमान वृद्धि और वर्षा के स्तर की भी 10 फीसदी बदलाव में अहम भूमिका है। कैलिफॉर्निया विश्वविद्यालय में वैज्ञानिक और शोध की लेखिका जेनिफर बर्नी के अनुसार ये आंकड़े चौंकाने वाले हैं हालांकि इसमें बदलाव संभव है। संयुक्त राष्ट्र में जलवायु परिवर्तन के लिए बने अंतर सरकारी पैनल(आइपीसीसी)  रिपोर्ट में भी इसी तरह की चेतावनी दी गई थी । जलवायु परिवर्तन - प्रभाव, अनुकूलन और जोखिमशीर्षक से जारी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पहले से ही सभी महाद्वीपों और महासागरों में विस्तृत रूप ले चुका है। रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण एशिया को बाढ़, गर्मी के कारण मृत्यु, सूखा तथा पानी से संबंधित खाद्य की कमी का सामना करना पड़ सकता है। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले भारत जैसे देश जो केवल मानसून पर ही निर्भर हैं, के लिए यह काफी खतरनाक हो सकता है। जलवायु परिवर्तन की वजह से दक्षिण एशिया में गेहूं की पैदावार पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है । साथ ही वैश्विक खाद्य उत्पादन भी धीरे-धीरे घट रहा है। एक खास बात यह भी है कि जलवायु परिवर्तन से न केवल फसलों की उत्पादकता प्रभावित हो रही है बल्कि उनकी पोष्टिकता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है । एशिया में तटीय और शहरी इलाकों में बाढ़ की वृद्धि से बुनियादी ढांचे, आजीविका और बस्तियों को काफी नुकसान हो सकता है। ऐसे में मुंबई, कोलकाता, ढाका जैसे शहरों पर खतरे की संभावना बढ़ सकती है। पिछले दिनों पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने भी जलवायु परिवर्तन पर इंडियन नेटवर्क फॉर क्लाइमेट चेंज असेसमेंट की रिपोर्ट जारी करते हुए चेताया था कि यदि पृथ्वी के औसत तापमान का बढ़ना इसी प्रकार जारी रहा तो अगामी वर्षों में भारत को इसके दुष्परिणाम झेलने होंगे। इसका सीधा असर देश की कृषि व्यवस्था पर भी पड़ेगा ।
पूरी दुनियाँ की जलवायु में तेजी से परिवर्तन हो रहा है ,बेमौसम आंधी ,तूफ़ान और बरसात से हजारों लोगों की जान जा रही है साथ ही सभी ऋतु चक्रों में तेजी से बदलाव देखने को मिल रहा है । सच्चाई यह है कि पर्यावरण सीधे सीधे हमारे अस्तित्व से जुड़ा मसला है । दुनियाँभर में पर्यावरण सरंक्षण को लेकर काफी बातें, सम्मेलन, सेमिनार आदि हो रही है परन्तु वास्तविक धरातल पर उसकी परिणिति होती दिखाई नहीं दे रही है । जिस तरह क्लामेट चेंज दुनियाँ में भोजन पैदावार और आर्थिक समृद्धि को प्रभावित कर रहा है, आने वाले समय में जिंदा रहने के लिए जरूरी चीजें इतनी महंगी हो जाएगीं कि उससे देशों के बीच युद्ध जैसे हालात पैदा हो जाएंगे । यह खतरा उन देशों में ज्यादा होगा जहाँ कृषि आधारित अर्थव्यवस्था है । पर्यावरण का सवाल जब तक तापमान में बढोत्तरी से मानवता के भविष्य पर आने वाले खतरों तक सीमित रहा, तब तक विकासशील देशों का इसकी ओर उतना ध्यान नहीं गया । परन्तु अब जलवायु चक्र का खतरा खाद्यान्न उत्पादन पर पड रहा है, किसान यह तय नहीं कर पा रहे है कब बुवाई करे और कब फसल काटें । तापमान में बढ़ोत्तरी जारी रही तो खाद्य उत्पादन 40 प्रतिशत तक घट जायेगा, इससे पूरे विश्व में खाद्यान्नों की भारी कमी हो जायेगी । ऐसी स्थिति विश्व युद्ध से कम खतरनाक नहीं होगी । एक नई अमेरिकी स्टडी में दावा किया गया है कि तापमान में एक डिग्री तक का इजाफा साल 2030 तक अफ्रीकी सिविल वार होने के रिस्क को 55 प्रतिशत तक बढा सकता है । यानी महज अगले 12  वर्षों में अफ्रीकी देशों में संकट गहरा सकता है । यह स्टडी यूनिवर्सिटी आफ कैलीफोर्निया के इकानमिस्ट मार्शल बर्क द्वारा की गई है । इसमें कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण बनी स्थितियों में अकेले अफ्रीका के उप सहारा इलाके में युद्ध भड़कने से 3 लाख 90 हजार मौतें हो सकती हैं । इन युद्धों के बहुत विनाशकारी होनें की आशंका है ।

नेचर क्लाइमेट चेंज एंड अर्थ सिस्टम साइंस डाटा जर्नल में प्रकाशित  एक रिपोर्ट के अनुसार चीन, अमेरिका और यूरोपीय संघ के वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में क्रम से 26 ,15 और 11 फीसद की हिस्सेदारी है जबकि भारत का आंकड़ा सात फीसद है। इसमें बताया गया है कि प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन के मामले में भारत की हिस्सेदारी 2.44 टन है जबकि अमेरिका, यूरोपीय संघ और चीन की प्रति व्यक्ति हिस्सेदारी क्रम से 19.86 टन, 8.77 और 8.13 टन है।यह रिपोर्ट ब्रिटेन के ईस्ट एंजलिया विश्वविद्यालय के ग्लोबल कार्बन परियोजना द्वारा किये गये एक अध्ययन पर आधारित है ।  दुनियाँ भर में कार्बन उत्सर्जन की बढती दर ने पर्यावरण और खासकर जैव विविधता को बड़े पैमानें पर नुकसान पहुँचाया है , एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले एक दशक में विलुप्त प्रजातियों की संख्या पिछले एक हजार वर्ष के दौरान विलुप्त प्रजातियों की संख्या के बराबर है। जलवायु में तीव्र गति से होने वाले परिवर्तन से देश की 50 प्रतिशत जैव विविधता पर संकट है। अगर तापमान से 1.5  से 2.5  डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होती है तो 25 प्रतिशत प्रजातियां पूरी तरह समाप्त हो जाएंगी।  अंतरराष्ट्रीय संस्था वर्ल्ड वाइल्ड फिनिशिंग ऑर्गेनाइजेशन ने अपनी रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि 2030 तक घने जंगलों का 60 प्रतिशत भाग नष्ट हो जाएगा। वनों के कटान से वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की कमी से कार्बन अधिशोषण ही वनस्पतियों व प्राकृतिक रूप से स्थापित जैव विविधता के लिए खतरा उत्पन्न करेगी। मौसम के मिजाज में होने वाला परिवर्तन ऐसा ही एक खतरा है। इसके परिणामस्वरूप हमारे देश के पश्चिमी घाट के जीव-जंतुओं की अनेक प्रजातियां तेजी से लुप्त हो रही हैं। 
पिछले दिनों पर्यावरण और वायु प्रदूषण का भारतीय कृषि पर प्रभाव शीर्षक से प्रोसिडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस में प्रकाशित एक शोध पत्र के नतीजों ने  सरकार ,कृषि विशेषज्ञों और पर्यावरणविदों की चिंता बढ़ा दी है । शोध के अनुसार भारत के अनाज उत्पादन में वायु प्रदूषण का सीधा और नकारात्मक असर देखने को मिल रहा है। देश  में धुएं में बढ़ोतरी की वजह से अनाज के लक्षित उत्पादन में कमी देखी जा रही है। करीब 30 सालों के आंकड़े का विश्लेषण करते हुए वैज्ञानिकों ने एक ऐसा सांख्यिकीय मॉडल विकसित किया जिससे यह अंदाजा मिलता है कि घनी आबादी वाले राज्यों में वर्ष 2010 के मुकाबले वायु प्रदूषण की वजह से गेहूं की पैदावार 50 फीसदी से कम रही। कई जगहों पर खाद्य उत्पादन में करीब 90 फीसदी की कमी धुएं की वजह से देखी गई जो कोयला और दूसरे प्रदूषक  तत्वों की वजह से हुआ। भूमंडलीय तापमान वृद्धि और वर्षा के स्तर की भी 10 फीसदी बदलाव में अहम भूमिका है। कैलिफॉर्निया विश्वविद्यालय में वैज्ञानिक और शोध की लेखिका जेनिफर बर्नी के अनुसार ये आंकड़े चौंकाने वाले हैं हालांकि इसमें बदलाव संभव है। संयुक्त राष्ट्र में जलवायु परिवर्तन के लिए बने अंतर सरकारी पैनल(आइपीसीसी)  रिपोर्ट में भी इसी तरह की चेतावनी दी गई थी । ‘जलवायु परिवर्तन - प्रभाव, अनुकूलन और जोखिम’ शीर्षक से जारी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पहले से ही सभी महाद्वीपों और महासागरों में विस्तृत रूप ले चुका है। रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण एशिया को बाढ़, गर्मी के कारण मृत्यु, सूखा तथा पानी से संबंधित खाद्य की कमी का सामना करना पड़ सकता है। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले भारत जैसे देश जो केवल मानसून पर ही निर्भर हैं, के लिए यह काफी खतरनाक हो सकता है। जलवायु परिवर्तन की वजह से दक्षिण एशिया में गेहूं की पैदावार पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है । साथ ही वैश्विक खाद्य उत्पादन भी धीरे-धीरे घट रहा है। एक खास बात यह भी है कि जलवायु परिवर्तन से न केवल फसलों की उत्पादकता प्रभावित हो रही है बल्कि उनकी पोष्टिकता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है । एशिया में तटीय और शहरी इलाकों में बाढ़ की वृद्धि से बुनियादी ढांचे, आजीविका और बस्तियों को काफी नुकसान हो सकता है। ऐसे में मुंबई, कोलकाता, ढाका जैसे शहरों पर खतरे की संभावना बढ़ सकती है। पिछले दिनों पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने भी जलवायु परिवर्तन पर इंडियन नेटवर्क फॉर क्लाइमेट चेंज असेसमेंट की रिपोर्ट जारी करते हुए चेताया था कि यदि पृथ्वी के औसत तापमान का बढ़ना इसी प्रकार जारी रहा तो अगामी वर्षों में भारत को इसके दुष्परिणाम झेलने होंगे। इसका सीधा असर देश की कृषि व्यवस्था पर भी पड़ेगा ।
दुनियाँ भर के देशों की जलवायु और मौसम में परिवर्तन हो रहा है।  पिछले दो सालों में देश के कई इलाकों में बेमौसम बरसात और सूखे की वजह से किसानों की बड़ी आबादी बेहद मुश्किल दौर से गुजर रही है । पिछले साल अचानक आई बेमौसम बारिश ने कहर ढाते हुए कई राज्यों की कुल 50 लाख हेक्टेयर भूमि में खड़ी फसल बर्बाद कर दिया था । मौसम में तीव्र परिवर्तन हो रहा है ,ऋतु चक्र बिगड़ चुके है। मौसम के बिगड़े हुए मिजाज ने देश भर में समस्या पैदा कर दी है । सच्चाई यह है कि देश में कृषि क्षेत्र में मचे हाहाकार का सीधा संबंध जलवायु परिवर्तन से है । यह सब जलवायु परिवर्तन और हमारे द्वारा पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने  की वजह से हो रहा है ।
जलवायु परिवर्तन संपूर्ण मानवता के लिये एक बहुत बड़ा खतरा है ।एक अहम् बात और है कि सौर ,विंड जैसी वैकल्पिक ऊर्जा पर जोर देकर हम अपनी उर्जा जरूरतों के साथ साथ ग्लोबल वार्मिंग पर काबू कर सकतें है। बड़े पैमानें पर वैकल्पिक उर्जा  के उपयोग और उत्पादन के लिए अब पूरे विश्व को एक साथ आना होगा तभी कुछ हद तक वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में कुछ कमी आ पायेगी । 
कुलमिलाकर देश के प्राकृतिक संसाधनों का ईमानदारी से दोहन और पर्यावरण के संरक्षण के लिए सरकारी प्रयास के साथ साथ जनता की  सकारात्मक भागीदारी की जरुरत है । जनता के बीच जागरूकता फैलानी होगी, तभी इसका संरक्षण हो पायेगा । पर्यावरण संरक्षण का सवाल पृथ्वी के अस्तित्व से जुड़ा है। इसलिए हम सभी को इसके लिए संजीदा होना होगा  ।
(लेखक राजस्थान के मेवाड़ यूनिवर्सिटी में डिप्टी डायरेक्टर हैं और टेक्निकल टूडे मैगज़ीन के संपादक है )



Wednesday, 4 April 2018

अब समुद्र को गर्म करनें में जुटी दुनियाँ


स्कन्द शुक्ला 
"मान लीजिए कि आप किसी सौ-मंज़िला अट्टालिका की सबसे ऊँची मंज़िल पर रहते हैं। लेकिन आपके राशन का स्टोर-रूम बेसमेंट में है , जबकि रसोईं वहीं आपके पास सौवीं मंज़िल पर। तो ऐसे में क्या होगा आपके साथ ?"
"मुश्किल होगी।"
"कितनी मुश्किल होगी ?"
"बहुत।"
"आप कैसे व्यवस्था करेंगे ?"
"ऊपर-नीचे बहुत दौड़भाग करनी होगी।"
"और दौड़भाग न हो पायी या न कर पाये तो ? याद रखिए कि इस बिल्डिंग में भोजन की कोई और व्यवस्था नहीं।"
मित्र अब चुप हैं और सोच में पड़ गये हैं। 
"मैं बताता हूँ। आप मर भी सकते हैं। भूख से। चोट से।"
"आपने यह उदाहरण क्यों दिया ?"
"क्योंकि पृथ्वी के समुद्रों में यही बुरा खेल चल रहा है। रोज़। और इसके ज़िम्मेदार हम हैं।"
"कौन सा खेल ? कैसी ज़िम्मेदारी ?"
"पृथ्वी पर जानवरों के लिए ऑक्सीजन कौन पैदा करता है ?"
"पेड़-पौधे।"
"कौन से पेड़-पौधे सबसे ज़्यादा ऑक्सीजन पैदा करने में योगदान दे रहे हैं ?"
"यही जो हमारे आसपास हैं।"
"नहीं। न पीपल , न बरगद , न नीम , न आम , न जामुन। वे हैं समुद्री नन्हें एककोशिकीय जीव जिन्हें फ़ाइटोप्लैंक्टन कहा जाता है। उनमें पर्णहरित या क्लोरोफ़िल होता है। और वे समुद्र की सबसे ऊपरी सतहों पर रहते हैं , जहाँ सूरज के प्रकाश को पाकर वे प्रकाश-संश्लेषण करते हैं। पृथ्वी की आधी ऑक्सीजन इन्हीं नन्हें जीवों की पैदावार है।"
"तो फिर इनके लिए समस्या क्या हो रही है ?"
"समस्या यह है कि इन प्लैंक्टनों के पोषक तत्त्व नीचे समुद्री तलहटी पर मिलते हैं। और इनका निवास समुद्री सतह पर है। समुद्र के तल का पानी ठण्डा होता है समुद्र की सतह के पानी से। लेकिन यह अन्तर थोड़ा होता है। इस कारण समुद्री जल ऊपर-नीचे होता रहता है। ताकि इन जीवों को पोषक तत्त्व भी मिलते रहें और इनका प्रकाश-संश्लेषण भी चलता रहे।"
"तो मनुष्य ने क्या बुरा किया इनके साथ ?"
"मनुष्य ने समुद्रों को गर्म करना शुरू कर दिया और अम्लीय भी। उसने फैक्ट्रियाँ चलायीं , डीज़ल-पेट्रोल फूँके। नतीजन वायुमण्डल में गर्माहट बढ़ी , जिसे सागरों-महासागरों से सोख लिया। इस कारण वे गर्म हो उठे और वायुमण्डल की गैसों ने उन्हें अम्लीय कर दिया।"
"तो ?"
"तो यह कि सतह का गर्म पानी इतना अधिक गर्म है कि अब वह नीचे नहीं जाता। और नीचे का ठण्डा पानी ऊपर नहीं उठ पाता। नतीजन प्लैंक्टनों को एक-साथ पोषक तत्त्व पाने और प्रकाश-संश्लेषण करने में समस्या आ रही है। वे ऊपर रहें कि नीचे जाएँ ? कैसे जिएँ ? कैसे ऑक्सीजन बनाएँ ?"
"वे कैसे जी रहे हैं ?"
"वे नीचे जा रहे हैं। नष्ट भी हो रहे हैं बड़ी मात्रा में। लगभग एक-तिहाई से अधिक नष्ट हो चुके हैं। लेकिन फिर वे ऊपर रहकर ऑक्सीजन नहीं बना पा रहे।"
"तो इसमें तो हमारी ही हानि है।"
"हाँ। पर क्या मनुष्य अपनी हानि समझने योग्य प्रजाति है ? आपको लगता है कि लोग सचमुच वयस्क हैं कि वे अपनी वास्तविक हानियों पर बात कर सकें ?"
"अगर हम फ़ैक्ट्रियों के प्रदूषण पर नियन्त्रण कर लें ? डीज़ल-पेट्रोल का प्रयोग सीमित करने की कोशिश करें ? तब तो प्लैंक्टनों की मौत थमेगी न ? समुद्र फिर ठण्डे होंगे पहले जैसे ?"
"समुद्रों को अपने पूर्व के सामान्य ताप पर पहुँचने में हज़ार साल तब भी लग जाएँगे , ऐसा वैज्ञानिक मानते हैं। पापों का प्रायश्चित्त इतनी जल्दी नहीं होता।"

---- ये जब्र भी देखा है , तारीख़ की नज़रों ने
लम्हों ने ख़ता की थी , सदियों से सज़ा पायी।

( मुज़फ़्फ़र रज़्मी )


Friday, 10 November 2017

राजनीतिक एजेंडे में शामिल हो पर्यावरण का मुद्दा

जानलेवा स्तर पर वायु प्रदूषण
शशांक द्विवेदी 
पिछले कुछ दिनों से राजधानी दिल्ली में वायु प्रदूषण ,धुंध ,धुँआ जानलेवा स्तर तक पहुँच गई है हर आम और खास को साँस लेने में परेशानी ,आँखों में जलन सहित कई तरह की स्वास्थ्य समस्याएं होने लगी है कुलमिलाकर कथित विकास के पीछे विनाश की आहत धीरे धीरे दिखाई और सुनाई पड़ने लगी हैहालात इतने बदतर हो गएँ है वायु प्रदूषण मापने वाला इंडेक्स ही नहीं काम कर रहा है मतलब वह उच्चतम स्तर तक पहुँच गया है इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारें बैठकें करके एक दुसरे पर आरोप –प्रत्यारोप कर रही है लेकिन आम आदमी भारी परेशानी में है ,उसे समझ में नहीं आ रहा है कि वो क्या करें ,कहाँ जाए फौरी तौर पर बच्चों के स्कूल कॉलेज बंद करने ,सब को घर में रहकर काम करने की सलाह देने वाले क्या बताएँगे कि आम नौकरी पेशा करने वाला ,मजदूरी करने वाला आदमी अब कहाँ जाएँ हो सकता है कुछ दिन में ये धुंध कम हो जाए लेकिन इसका ख़तरा तो अब हमेशा बना ही रहेगा अधिकांश राजनीतिक दलों के एजेंडे में पर्यावरण संबंधी मुद्दा है ही नहीं ,ना ही उनके चुनावी घोषणापत्र में पर्यावरण ,प्रदुषण कोई मुद्दा रहता है । देश में हर जगह ,हर तरफ हर पार्टी विकास की बातें करती है लेकिन ऐसे विकास का क्या फायदा जो लगातार विनाश को आमंत्रित करता है ।ऐसे विकास को क्या कहें जिसकी वजह से सम्पूर्ण मानवता का अस्तित्व ही खतरे में पढ़ गया हो । सच्चाई तो यह है कि अब समय आ गया है जब पर्यावरण का मुद्दा राजनीतिक पार्टियों के साथ आम आदमी की प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर होना चाहिए क्योंकि  अब भी अगर हमनें इस समस्या को गंभीरता से नहीं लिया आगे आने वाला समय भयावह होगा फिलहाल देश के सभी बड़े शहरों में वायु प्रदूषण अपने निर्धारित मानकों से बहुत ज्यादा है
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक रिपोर्ट के अनुसार  दिल्ली का वातावरण बेहद जहरीला हो गया है । इसकी गिनती विश्व के सबसे अधिक प्रदूषित शहर के रूप में होने लगी है। यदि वायु प्रदूषण रोकने के लिए शीघ्र कदम नहीं उठाए गए तो इसके गंभीर परिणाम सामने आएंगे। डब्ल्यूएचओ ने वायु प्रदूषण को लेकर 91 देशों के 1600 शहरों पर डाटा आधारित अध्ययन रिपोर्ट जारी की थी । इसमें दिल्ली की हवा में पीएम 25 (2.5 माइक्रोन छोटे पार्टिकुलेट मैटर) में सबसे ज्यादा पाया गया है। पीएम 25 की सघनता 153 माइक्रोग्राम तथा पीएम 10 की सघनता 286 माइक्रोग्राम तक पहुंच गया है। जो कि स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक है। वहीं बीजिंग में पीएम 25 की सघनता 56 तथा पीएम 10 की 121 माइक्रोग्राम है। जबकि कुछ वर्षो पहले तक बीजिंग की गिनती दुनिया के सबसे प्रदूषित शहर के रूप में होती थी, लेकिन चीन की सरकार ने इस समस्या को दूर करने के लिए कई प्रभावी कदम उठाए। जिसके सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं। पर्यावरण विज्ञान से जुड़ी संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरन्मेंट ने पिछले दिनों राजधानी के विभिन्न स्थलों व सार्वजनिक परिवहन के अलग-अलग साधनों में वायु प्रदूषण का स्तर मापने के लिए किए अध्ययन के आधार पर कहा है कि बस, मेट्रो, ऑटो व पैदल चलने वाले दिल्ली में सबसे अधिक जहरीली हवा में सांस लेने के लिए मजबूर हैं। दिल्ली की हवा बद से बदतर होती जा रही है। बीती सर्दी में यह खतरनाक स्तर तक पहुंच गई थी।
एक अध्ययन के मुताबिक वायु प्रदूषण भारत में मौत का पांचवां बड़ा कारण है। हवा में मौजूद पीएम25 और पीएम10 जैसे छोटे कण मनुष्य के फेफड़े में पहुंच जाते हैं। जिससे सांस व हृदय संबंधित बीमारी होने का खतरा बढ़ जाता है। इससे फेफड़ा का कैंसर भी हो सकता है। दिल्ली में वायु प्रदूषण बढ़ने का मुख्य कारण वाहनों की बढ़ती संख्या है। इसके साथ ही थर्मल पावर स्टेशन, पड़ोसी राज्यों में स्थित ईंट भट्ठा आदि से भी दिल्ली में प्रदूषण बढ़ रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का नया अध्ययन यह बताता है कि हम वायु प्रदूषण की समस्या को दूर करने को लेकर कितने लापरवाह हैं और यह समस्या कितनी विकट होती जा रही है। खास बात यह है कि ये समस्या सिर्फ दिल्ली में ही नहीं है बल्कि देश के लगभग सभी शहरों की हो गई है .अगर हालात नहीं सुधरे तो वो दिन दूर नहीं जब शहर रहने के लायक नहीं रहेंगे । जो लोग विकास ,तरक्की और रोजगार की वजह से गाँव से शहरों की तरफ आ गयें है उन्हें फिर से गावों की तरफ रुख करना पड़ेगा ।
स्वच्छ वायु सभी मनुष्यों, जीवों एवं वनस्पतियों के लिए अत्यंत आवश्यक है। इसके महत्त्व का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि मनुष्य भोजन के बिना हफ्तों तक जल के बिना कुछ दिनों तक ही जीवित रह सकता है, किन्तु वायु के बिना उसका जीवित रहना असम्भव है। मनुष्य दिन भर में जो कुछ लेता है उसका 80 प्रतिशत भाग वायु है। प्रतिदिन मनुष्य 22000 बार सांस लेता है। इस प्रकार प्रत्येक दिन में वह 16 किलोग्राम या 35 गैलन वायु ग्रहण करता है। वायु विभिन्नगैसों का मिश्रण है जिसमें नाइट्रोजन की मात्रा सर्वाधिक 78 प्रतिशत होती है जबकि 21 प्रतिशत ऑक्सीजन तथा 0.03 प्रतिशत कार्बन डाइ ऑक्साइड पाया जाता है तथा शेष 0.97 प्रतिशत में हाइड्रोजन, हीलियम, आर्गन, निऑन, क्रिप्टन, जेनान, ओजोन तथा जल वाष्प होती है। वायु में विभिन्न गैसों की उपरोक्त मात्रा उसे संतुलित बनाए रखती है। इसमें जरा-सा भी अन्तर आने पर वह असंतुलित हो जाती है और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक साबित होती है। श्वसन के लिए ऑक्सीजन जरूरी है। जब कभी वायु में कार्बन डाई ऑक्साइड, नाइट्रोजन के ऑक्साइडों की वृद्धि हो जाती है, तो यह खतरनाक हो जाती है ।
भारत को विश्व में सातवें सबसे अधिक पर्यावरण की दृष्टि से खतरनाक देश के रूप में स्थान दिया गया है । वायु शुद्धता का स्तर ,भारत के मेट्रो शहरों में पिछले 20 वर्षों में बहुत ही खराब रहा है आर्थिक स्तिथि ढाई गुना और औद्योगिक प्रदूषण चार गुना और बढा है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार हर साल लाखों लोग खतरनाक प्रदूषण के कारण मर जाते हैं। वास्तविकता तो यह है कि पिछले 18 वर्ष में जैविक ईधन के जलने की वजह से कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन 40 प्रतिशत तक बढ़ चुका है और पृथ्वी का तापमान 0.7 डिग्री सैल्शियस तक बढ़ा है। अगर यही स्थिति रही तो सन् 2030 तक पृथ्वी के वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा 90 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी।

सिर्फ दिल्ली ही नहीं बल्कि देश के कई शहरों का वातावरण बेहद प्रदूषित हो गया है । इस प्रदूषण को रोकने के लिए कभी सरकार ने गंभीर प्रयास नहीं किये ,जो प्रयास किये गये वो नाकाफी साबित हुए और वायु प्रदूषण बढ़ता ही गया । इसे रोकने के लिए सरकार को अब जवाबदेही के साथ एक निश्चित समयसीमा के भीतर  ठोस प्रयास करना पड़ेगा नहीं तो प्राकृतिक आपदाओं के लिए हमें तैयार रहना होगा । जिस तरह से आज राजधानी दिल्ली के लोग शुद्ध हवा में साँस लेने को तरस रहें है ,ऐसे में वो दिन दूर नहीं जब देश के अधिकांश शहरों का यही हाल होगा इसलिए हमें कल से नहीं बल्कि आज से या कहे अभी से इस रोकनें के लिए तत्काल कदम उठाना होगा । सरकार के साथ साथ समाज और व्यक्तिगत स्तर पर भी काम करना होगा तभी इन सब से छुटकारा मिल पायेगा ।

Monday, 9 October 2017

कूड़े का प्रबंधन और हमारी आदतें

सुनीता नारायण, पर्यावरणविद व महानिदेशक, सीएसई
हर दिन आती नई-नई खबरों के बीच गाजीपुर हादसे को  चंद रोज में ही हम भूलने लगे हैं। दिल्ली-उत्तर प्रदेश सीमा पर स्थित इस इलाके में पिछले दिनों कूड़े के पहाड़ के ढहने से दो लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। इस घटना के बाद संबंधित अमला सक्रिय जरूर हुआ, लेकिन वह सक्रियता भी चंद रोज में ही शांत होती दिखने लगी है। यहां आशय उस दुर्भाग्यपूर्ण घटना को फिर से शब्द देने का नहीं, बल्कि उस घटना के बहाने देश में कचरा प्रबंधन की स्थिति पर ध्यान खींचना है।
हम यह तो बखूबी जानते हैं कि कचरा आज एक बड़ी समस्या बन चुका है। मगर यह शायद ही हम जानते हैं कि इसका समाधान सिर्फ उसके निस्तारण की तकनीक में नहीं, बल्कि घरेलू स्तर के पृथक्करण तंत्र से तकनीक को जोड़ने में छिपा है, ताकि लैंडफिल एरिया (भराव क्षेत्र) तक उसके पहुंचने की नौबत ही न आए। यानी उसे पहले ही साफ किया जा सके और किसी न किसी रूप में उसका दोबारा इस्तेमाल हो सके। अगर ऐसा नहीं किया गया, तो ऊर्जा या अन्य दूसरे कामों के लिए कचरे का कोई मोल नहीं रह जाएगा। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि हमारी कचरा प्रबंधन प्रणाली इस मोर्चे पर निष्क्रिय-सी दिखाई देती है।
यह स्थानीय निकायों की जवाबदेही है कि वे शहरी ठोस कचरा (एमएसडब्ल्यू) कानून 2016 के अनुसार स्रोत पर ही कचरे को अलग-अलग करना सुनिश्चित करें। इसका अर्थ यह है कि लोगों को इसके लिए जागरूक किया जाए और फिर इस सूखे व गीले या सड़न योग्य या दोबारा इस्तेमाल होने वाले कचरे को नगर निकाय अलग-अलग जमा करके उनके उचित निस्तारण की व्यवस्था करे। असल में, कचरा प्रबंधन को लेकर एक आसान सा समाधान यही दिखता है कि उसे जमा करो और भराव क्षेत्र में डाल दो या फिर प्रोसेगिंग प्लांट (निपटान इकाई) के हवाले कर दो। मगर देश-दुनिया के अनुभव बताते हैं कि कचरे को अलग-अलग किए बिना निस्तारित किए जाने वाले कूड़े से तैयार ईंधन की गुणवत्ता खराब होती है और वह हमारे काम का नहीं रह जाता है। लिहाजा हमारे नगर निगमों को घर के स्तर पर ही कचरे को अलग-अलग करने की मुहिम चलानी चाहिए। 
इस मामले में गोवा की राजधानी पणजी एकमात्र ऐसा शहर है, जिसने इस व्यवस्था को सही मायने में जमीन पर उतारा है। वहां घरों से अलग-अलग दिन अलग-अलग कचरा जमा किया जाता है। इससे घरों में ही कचरे का पृथक्करण सुनिश्चित हो जाता है। इतना ही नहीं, वहां ऐसा न करने वाले नागरिकों पर जुर्माने की व्यवस्था तो है ही, कॉलोनी स्तर पर ही कचरे के निस्तारण की व्यवस्था भी की गई है। और सबसे खास बात यह कि होटल जैसे बड़े-बड़े व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के लिए बैग मार्किंग सिस्टम भी बनाया गया है, ताकि नियमों का उल्लंघन करने वाले प्रतिष्ठानों को पकड़ा जा सके और दंडित किया जा सके।
केरल के अलेप्पी में एक दूसरी व्यवस्था काम करती है। वहां म्युनिसिपल कॉरपोरेशन कचरा जमा नहीं करता, क्योंकि वहां ऐसी कोई जगह ही नहीं, जहां इसे फेंका जा सके। वहां के एकमात्र भराव क्षेत्र को नजदीकी गांव वालों ने बंद करा दिया है। साफ है, जब म्युनिसिपैलिटी कचरा जमा ही नहीं कर रहा, तो लोग इसका खुद प्रबंध कर रहे हैं। वे इसे अलग-अलग जमा करते हैं और फिर उससे जितनी खाद बना सकते हैं, बनाते हैं। यह खाद घरेलू बागवानी में काम आती है। रही बात नॉन-बायोडिग्रेडेबल (प्राकृतिक तरीके से न सड़ने वाला) कचरे की, तो इस मोर्चे पर सरकार सक्रिय है। ऐसे कचरों के निस्तारण के लिए वह पहले से ही व्यवस्थित अनौपचारिक वेस्ट-रिसाइकिलिंग क्षेत्रों की मदद लेती है। इस व्यवस्था को अपनाकर म्युनिसिपैलिटी ने कचरे के भंडारण या उसकी ढुलाई आदि पर होने वाला अपना खर्च भी बचा लिया है।
यह कचरा प्रबंधन का एक पहलू है। इसका दूसरा पहलू यह सुनिश्चित करना होना चाहिए कि ऐसे कूडे़ के लिए कहीं कोई जगह ही न छोड़ी जाए, जिसे छांटकर अलग न किया गया हो। मतलब साफ है कि शहरों में लैंडफिल एरिया का प्रबंधन सख्ती से किया जाए। एमएसडब्ल्यू कानून 2015 में कहा गया है कि लैंडफिल एरिया का इस्तेमाल सिर्फ ऐसे कचरे के लिए होना चाहिए, जो दोबारा उपयोग लायक न हो, किसी दूसरे काम में इस्तेमाल न आ सके, जो ज्वलनशील या रिएक्टिव न हो। सवाल यह है कि इसे लागू कैसे किया जाए? फिलहाल नगर निगम या नगर पालिकाएं कचरा प्रबंधन को लेकर जो अनुबंध करती हैं, उसमें अधिक से अधिक मात्रा में कचरे को भराव क्षेत्र तक लाने को प्रोत्साहित किया जाता है। चूंकि ठेकेदार को कचरे की मात्रा के अनुसार ही रकम अदा की जाती है, यानी अधिक से अधिक कचरा व उसी अनुपात में ठेकेदारों का आर्थिक लाभ। इतना ही नहीं, इन निकायों को कचरे को फिर से इस्तेमाल के लायक बनाने की बजाय उसे जमा करना, ढुलाई करना और फिर भराव क्षेत्र में फेंक देना कहीं ज्यादा आसान लगता है।

इस सोच को बदलने के लिए जरूरी है कि लैंडफिल टैक्स लगाया जाए। अनुबंध इस तरह के हों कि कचरे के लिए नगरपालिका कोई भुगतान न करे, बल्कि ठेकेदारों से इसके लिए रकम वसूली जाए। यह व्यवस्था कचरा निस्तारण इकाइयों को भी आर्थिक लाभ पहुंचाएगी और सुनिश्चित करेगी कि भराव क्षेत्र तक कम से कम कचरा पहुंचे। यहां यह भी स्पष्ट किया जाना चाहिए कि कचरे के आधार पर घरों से भी टैक्स वसूला जाए और अगर वे घरेलू कचरा अलग-अलग नहीं करते, तो उनसे जुर्माना लिया जाए। हमें यह मानना ही होगा कि हर घर, हर प्रतिष्ठान, हर होटल कचरा पैदा करने का स्रोत है, इसलिए वह प्रदूषक  है। लिहाजा उन पर भी वह टैक्स लगना चाहिए, जो किसी अन्य प्रदूषक इकाई पर लगता है, वरना हमारे शहर कचरे के ढेर में तब्दील हो जाएंगे।
इस मामले में ‘निम्बी’ यानी नॉट इन माई बैकयार्ड (मेरे घर के पीछे नहीं) अभियान एक गेम-चेंजर साबित हो सकता है। अब गरीब व गांव-समाज के लोग अपने-अपने घरों के पीछे कचरा फेंकने का विरोध करने लगे हैं। वे अब ऐसी जगहों के आस-पास कतई नहीं रहना चाहते, जहां लैंडफिल एरिया हो। वाकई जब यह भूमि अपनी है, तो फिर इसे साफ रखने की जिम्मेदारी भी हमारी ही होनी चाहिए। क्या हम ऐसा करेंगे?

Wednesday, 21 October 2015

जलवायु परिवर्तन पर पेरिस शिखर सम्मलेन के पहले की कवायद

शशांक द्विवेदी
डिप्टी डायरेक्टर (रिसर्च), मेवाड़ यूनिवर्सिटी  
पेरिस शिखर वार्ता के पहले प्रधानमंत्री मोदी ने जलवायु परिवर्तन को दुनियाँ के लिए सबसे बड़ी चुनौती माना है और उन्होंने साफ़-सुथरी ऊर्जा के इस्तेमाल के लिए जो एक आक्रामक रूख दिखाया है । जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर शुरू से भारत का स्पष्ट रुख रहा है कि कार्बन उत्सर्जन के मामले में विकसित देश अपनी जिम्मेदारी ठीक से निभाए और सभी देश विकास को नुकसान पहुंचाए बिना जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ पक्के इरादे के साथ काम करें । इसी क्रम में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर भारत ने कार्बन उत्सर्जन में 33 से 35 फीसदी तक कटौती का स्पष्ट एलान कर दिया जो कि एक बड़ा कदम है  यह कटौती साल 2005 को आधार मान कर की जाएगी। इमिशन इंटेसिटी कार्बन उत्सर्जन की वह मात्रा है जो 1 डॉलर कीमत के उत्पाद को बनाने में होती है। सरकार ने यह भी फैसला किया है कि 2030 तक होने वाले कुल बिजली उत्पादन में 40 फीसदी हिस्सा कार्बनरहित ईंधन से होगा। यानी, भारत साफ सुथरी ऊर्जा (बिजली) के लिए बड़ा कदम उठाने जा रहा है। भारत पहले ही कह चुका है कि वह 2022 तक वह 1 लाख 75 हजार मेगावाट बिजली सौर और पवन ऊर्जा से बनाएगा। वातावरण में फैले ढाई से तीन खरब टन कार्बन को सोखने के लिए अतिरिक्त जंगल लगाए जाएंगे।
भारत ने यह भी साफ कर दिया है कि वह सेक्टर आधारित (जिसमें कृषि भी शामिल है) लिटिगेशन प्लान के लिए बाध्य नहीं है। इस साल के अंत में जलवायु परिवर्तन पर शिखर सम्मेलन फ्रांस की राजधानी पेरिस में हो रहा है। अमेरिका, चीन, यूरोपियन यूनियन जैसे देशों ने पहले ही अपने रोडमैप की घोषणा कर दी है। भारत का रोडमैप इन देशों के मुकाबले ज्यादा प्रभावी दिखता है।
पिछले दिनों अपनी अमेरिका की यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री और फ्रांस के राष्ट्रपति से भी मिलकर जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर भारत द्वारा सकारात्मक भूमिका निभाने के लिए अपनी प्रतिबद्धता दिखाई प्रधानमंत्री मोदी ने तीनों ही राष्ट्राध्यक्षों से कहा कि भारत इस मामले की अगुवाई करने को तैयार हैविश्लेषकों का कहना है इस साल के आख़िर में पेरिस में होने वाले जलवायु सम्मेलन से पहले राष्ट्रपति ओबामा इस मुद्दे पर एकमत कायम करने की कोशिश कर रहे हैंऔर अगर भारत इस मुहिम में उनके साथ आता है तो जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए एक बड़े समझौते की उम्मीद बनती हैन्यूयॉर्क में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मुलाक़ात के बाद अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था कि जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ जंग में आनेवाले कई दशकों तक भारत के नेतृत्व की बेहद अहम भूमिका होगी
विकासशील देश पर्यावरण के दुश्मन नहीं हैं 
जलवायु परिवर्तन पर पेरिस शिखर  सम्मेलन से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विकसित देशों से साफ तौर पर कहा कि विकासशील देश पर्यावरण के दुश्मन नहीं हैं। उन्होंने इस मनोवृत्ति को  बदलने पर जोर दिया कि विकास और प्रगति पारिस्थितिकी के प्रतिकूल हैं।  प्रधानमंत्री ने सलाह दी कि विश्वभर में विकसित और विकासशील, दोनों तरह के देशों में पर्यावरण विषयों पर समान स्कूली पाठ्यक्रम होना चाहिए ताकि युवा पीढ़ी जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में समान लक्ष्यों के साथ आगे बढ़ सके। मोदी ने यह बात समान विचारों वाले विकासशील देशों के प्रतिनिधिमंडलों के प्रमुखों के साथ चर्चा करते हुए कही, जो पेरिस में इस साल के अंत में जलवायु परिवर्तन पर होने वाले सम्मेलन की तैयारियों के संदर्भ में यहां एक बैठक के लिए आए थे । पीएम मोदी ने कहा कि विश्व, जो अब जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से अच्छी तरह अवगत है को जलवायु न्याय के सिद्धांत के बारे में अवगत होना चाहिए। मोदी ने प्रतिनिधियों से कहा कि कुछ खास समूहों द्वारा, विकासशील देशों में भी, निर्मित इस माहौल का मुकाबला किए जाने की आवश्यकता है कि विकास और प्रगति पर्यावरण के दुश्मन हैं और इसलिए विकास और प्रगति पर चलने वाले सभी लोग दोषी हैं। उन्होंने कहा कि विश्व को यह मानने की जरूरत है कि विकासशील देश पर्यावरण के दुश्मन नहीं हैं। प्रधानमंत्री ने इस बात पर भी जोर दिया कि विकसित देश स्वच्छ प्रौद्योगिकी साझा करने के संबंध में अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करें और जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए विकासशील दुनिया की मदद करें। उन्होंने ऊर्जा खपत घटाने के लिए जीवनशैली में बदलाव का आह्वान किया।
फिलहाल जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर विकसित और विकासशील देशों के बीच मतभेद साफ़ नजर आ रहा है । लेकिन अधिकांश देश मोटे तौर पर इस बात से सहमत है कि सभी देशों को कार्बन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिए काम करना चाहिए। कार्बन  उत्सर्जन को ही लू, बाढ़, सूखा और समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी का कारण माना जा रहा है । क्योटो प्रोटोकाल के अंतर्गत केवल सर्वाधिक विकसित देशों को ही अपना उत्सर्जन कम करना था और यह एक मुख्य कारण था कि अमेरिका ने इसे स्वीकार करने से इन्कार कर दिया था।अमेरिका कहना था कि चीन और भारत जैसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था वाले देश हर हाल में इसका हिस्सा बनें। विकासशील देशों का यह तर्क सही  है कि जब वैश्विक भूमंडलीय तापवृद्धि (ग्लोबल वार्मिग) में ऐतिहासिक रूप से उनका योगदान पश्चिम के औद्योगिक-विकसित देशों की तुलना में न के बराबर है, तो उन पर इसे कम करने की समान जवाबदेही कैसे डाली जा सकती है? जबकि  लीमा में  क्योटो प्रोटोकोल से उलट धनी देश सबकुछ सभी पर लागू करना चाहते थे , खासकर उभरते हुए विकासशील देशों पर ।
कार्बन उत्सर्जन न रुका तो नहीं बचेगी दुनिया
पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र समर्थित इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने चेतावनी देते हुए कहा कि कार्बन उत्सर्जन न रुका तो नहीं बचेगी दुनिया । दुनिया को खतरनाक जलवायु परिवर्तनों से बचाना है तो जीवाश्म ईंधन के अंधाधुंध इस्तेमाल को जल्द ही रोकना होगा । आईपीसीसी ने कहा है कि साल 2050 तक दुनिया की ज्यादातर बिजली का उत्पादन लो-कार्बन स्रोतों से करना जरूरी है और ऐसा किया जा सकता है । इसके बाद बगैर कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (सीसीएस) के जीवाश्म ईंधन का 2100 तक पूरी तरह इस्तेमाल बंद कर देना चाहिए । संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने कहा, विज्ञान ने अपनी बात रख दी है । इसमें कोई संदेह नहीं है. अब नेताओं को कार्रवाई करनी चाहिए । हमारे पास बहुत समय नहीं है । संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने कहा कि , जैसा कि आप अपने बच्चे को बुखार होने पर करते हैं, सबसे पहले हमें तापमान घटाने की जरूरत है. इसके लिए तुरंत और बड़े पैमाने पर कार्रवाई किए जाने की जरूरत है ।
शिखर सम्मेलनों के अधूरे लक्ष्य
1992 में रियो डि जेनेरियो में अर्थ समिट यानी पृथ्वी सम्मेलन  से लेकर लीमा तक के शिखर सम्मेलनों के लक्ष्य अभी भी अधूरे हैं। आज आपसी विवादों के समाधान की जरूरत है। कटु सच्चाई यह है कि जब तक विश्व अपने गहरे मतभेदों को नहीं सुलझा लेता तब तक कोई भी वैश्विक कार्रवाई कमजोर और बेमानी सिद्ध होगी। आज जरुरत है ठोस समाधान की ,इसके लिए एक निश्चित समय सीमा में लक्ष्य तय होने चाहिए ।

पिछले 13 महीनों के दौरान प्रकाशित आईपीसीसी की तीन रिपोर्टों में जलवायु परिवर्तन की वजहें, प्रभाव और संभावित हल का खाका रखा गया है । इस संकलन में इन तीनों को एक साथ पेश किया गया है कि ताकि 2015 के अंत तक जलवायु परिवर्तन पर पर एक नई वैश्विक संधि करने की कोशिशों में लगे राजनेताओं को जानकारी दी जा सके । हर वर्ष विश्व में पर्यावरण सम्मेलन होते है पर आज तक इनका कोई ठोस निष्कर्ष नही निकला है । जबकि दिलचस्प है कि दुनिया की 15 फीसदी आबादी वाले देश दुनिया के 40 फीसदी प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग कर रहे है। पिछले 2 दशक में पर्यावरण संरक्षण को लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 20  जलवायु सम्मेलन हो चुके है लेकिन अब तक कोई ठोस नतीजा नहीं निकला । लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए की पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन पर इस साल के अंत में  पेरिस में होने वाली शिखर बैठक में कुछ ठोस नतीजे सामने आये जिससे पूरी दुनियाँ को राहत मिल सके ।

Tuesday, 9 June 2015

जलवायु परिवर्तन और उपभोगवादी संस्कृति

ज्ञानेद्र रावत 
आजकल पर्यावरण क्षरण और जलवायु परिवर्तन का सवाल बहस का मुद्दा बना हुआ है कारण इसके चलते आज समूची दुनिया का अस्तित्व खतरे में है। पर्यावरणविद् इस बारे में समयस मय पर चेता रहे हैं और वैज्ञानिकों के शोध- अध्ययनों ने इस तथ्य को साबित कर दिया है। सच यह है कि जीवनदायिनी प्रकृति और उसके द्वारा प्रदत्त प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा उपयोग और भौतिक सुख सुविधाओं की चाहत की अंधी दौड़ के चलते आज न केवल प्रदूषण बड़ा है बल्कि अंधाधुंध प्रदूषण से जलवायु में बदलाव आने से धरती तप रही है। यूएन की अंतर सरकारी पैनल की रिपोर्ट के अनुसार 2080 तक 3.2 अरब लोग पानी की तंगी से, 60 करोड़ लोग भोजन व तटीय इलाकों के 60 लाख लोग बाढ़ की समस्या से जूझेंगे। हालात की भयावहता की ओर इशारा करते हुए कोलम्बिया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक स्टीफन मोर्स का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव मलेरिया, लू आदि बीमारियों के वितरण और संचरण में प्रभाव लाने वाला साबित होगा और ये पूरे

साल फैलेंगी। पहाड़ों पर ठंड के बावजूद भी मलेरिया फैलेगा। शहरों में आवासीय व जनसंख्या की समस्या विकराल होगी, दैनिक सुविधाएं उपलब्ध कराने में प्रशासन को दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा और खासकर विकासशील देशों में उच्च घनत्व वाली आबादी के बीच एचआईवी, तपेदिक, श्वास रोग व यौन रोगों में वृद्धि होगी। निष्कर्ष यह कि ग्लोबल वार्मिंग की मार से क्या शहर-गांव, क्या घनाढ्य या शहरी मध्य वर्ग, निम्न वर्ग या फिर प्राकृतिक संसाधनों पर सदियों से आश्रित आदिवासी-कमजोर वर्ग कोई भी नहीं बचेगा और बिजली-पानी के लिए त्राहि-त्राहि करते लोग संक्रामक बीमारियों से मौत के मुंह में जाने को विवश होंगे। वैश्विक तापमान के बारे में नासा के अध्ययन में यह खुलासा हुआ है कि बीते 30 सालों में धरती का तापमान 0.2 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। यदि इसमें एक डिग्री का इजाफा हो जाता है तो यह पिछले 10 लाख साल के अधिकतम तापमान के बराबर हो जाएगा। रूटगर्स यूनिवर्सिटी के प्रख्यात मौसम विज्ञानी एलेन रोबॉक कहते हैं कि यदि आने वाले समय में ग्लोबल वार्मिंग दो-तीन डिग्री और बढ़ जाती है तो धरती की तस्वीर ही बदल जाएगी। वैज्ञानिकों के अनुसार 21 वीं सदी बीतते-बीतते धरती का औसत तापमान 1.1 से 6.4 डिग्री सेन्टीग्रेड तक बढ़ जाएगा। भारत में बंगाल की खाड़ी व उसके आस- पास यह वृद्धि 2 डिग्री और हिमालयी क्षेत्र में यह 4 डिग्री तक होगी जो समूची सभ्यता को तहस-नहस कर देगी। देखा जाए तो मौजूदा खतरे के लिए पश्चिमी या विकसित शक्तिशाली राष्ट्रों के साथसाथ् ा हम भी उतने ही दोषी हैं जितने अमेरिका, चीन, रूस और जापान।भारत विश्व में सबसे कम प्रदूषण करने वाला देश है और भारत की हिस्सेदारी विश्व कार्बन प्रदूषण में मात्र चार फीसदी ही हैकहने मात्र से हमारी जिम्मेवारी कम तो नहीं हो जाती। जबकि सीएफसी रसायनों का प्रयोग देश में आजादी से 20 साल पहले ही शुरू हो गया था और फिर 1950 के बाद इसमें आई तेजी में भी भारत का योगदान कम नहीं है। फिर भी हमारी सरकार विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) और अर्थव्यवस्था की बेलगाम तेज रμतार पर निसार है। दुनिया के 70 देशों में पर्यावरणीय लोकतंत्र सूचकांक के मामले में भारत का स्थान 24वां है। जबकि लिथुआनिया इस सूचकांक में शीर्ष स्थान पर रहा। बीते दिनों वॉशिंगटन के वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट और एक्सेस इनीशिएटिव द्वारा जारी दुनिया के शीर्ष 10 देशों में लिथुआनिया के बाद लातविया, रूस, अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, ब्रिटेन, हंगरी, बुल्गारिया, पनामा और कोलंबिया का नाम सूची में है। इस तरह का आकलन दुनिया में पर्यावरण सतर्कता को लेकर 70 देशों में पहली बार किया गया है। असलियत में यह सूचकांक ऐसा शक्तिशाली आधार है जो सरकारों को पर्यावरण के मामले में ज्यादा पारदर्शी बनाने और आम नागरिकों को ज्यादा अधिकारों की वकालत करने में मदद करेगा। इसमें दो राय नहीं कि यदि हमें पर्यावरण सुधारना है, वायुमंडल को प्रदूषण से बचाना है तो हमें संयम बरतना होगा। वह संयम भोग की मर्यादा का हो, नीति के पालन का होना चाहिए, तृष्णा पर अंकुश का होना चाहिए, प्राकृतिक संसाधन यथा मिट्टी, जल, खनिज, वनस्पति आदि के उपयोग में होना चाहिए, तभी विश्व में शांति और स्थायित्व संभव है अन्यथा नहीं। यह सही है कि ग्लोबल वार्मिंग अब दरवाजे पर खड़ी नहीं है, वह घर के अंदर आ चुकी है और अब उससे आंखें नहीं मूंदी जा सकती हैं। जहां तक विश्व परिदृश्य पर ग्लोबल वार्मिंग से निपटने का सवाल है, यह उतना आसान नहीं है जितना समझा जाता है क्योंकि औद्योगिक क्रांति की शुरुआत के बाद बीसवीं सदी के अंत में बहुतेरे ऐसे देश भी औद्योगिक विकास की अंधी दौड़ में शामिल हुए जो पहले धीमी रतार से इस ओर बढ़ने की चेष्टा कर रहे थे। नतीजतन समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया। इसका यदि कोई कारगर समाधान है तो वह है विकास के किफायती रास्तों की खोज, जिसका धरती और वायुमंडल पर बोझ न पड़े। यह सच है कि यह काम इतना आसान और आनन-फानन में किया जाने वाला नहीं है। इसमें दो राय नहीं कि विभिन्न क्षेत्रों में अमरीका ने ही सबसे तेजी से औद्योगिक विकास किया जिसके बलबूते ही वह विश्व महाशक्ति के रूप में उभर कर सामने आया। इसके बावजूद पर्यावरण रक्षा की पहल में हिस्सेदारी से बचने का प्रयास उसके गैर जिम्मेदाराना रवैये का ही सबूत है। भले कार्बन डाईआॅक्साइड गैस के उत्सर्जन में भारत का योगदान 1.1 अरब टन ही क्यों न हो लेकिन यह तो सच है कि ग्लोबल वार्मिंग का असर तो हम पर भी पड़ेगा। वह बात दीगर है कि वह हमारी जमीन से उठी हो या फिर अमेरिका या चीन से। इसलिए अब जरूरत इस बात की है कि भारतीय नेतृत्व अपना यह तर्क बदले कि पहले पश्चिमी देश अपना उत्सर्जन कम करें फिर हम करेंगे। बेहतर यही होगा कि हम अपनी ओर से ऐसी पहल करें, जो विकसित देशों के लिए भी अनुकरणीय हो। यथार्थ में उपभोगवाद और सुविधावाद ने पर्यावरण की समस्या को और जटिल बना दिया है। इस मनोवृत्ति पर नियंत्रण परमावश्यक है। आज व्यक्ति, समाज और पदार्थ के चारों ओर अर्थ व पदार्थ परिक्रमा कर रहे हैं। इसलिए आज मानव जाति के अस्तित्व की रक्षा और इस भूमंडल को संभाव्य खतरों से बचाने के लिए जरूरी है कि हम सभी संयम प्रधान जीवनशैली का अनुसरण और संकल्प करें। आज एक दूसरे पर दोष मढ़ने, आरोप-प्रत्यारोप से कुछ होने वाला नहीं। खर्चीला र्इंधन जलाने वाला विकास का तरीका लंबे समय के लिए न तो उचित है, न उपयोगी ही। कारण अब धरती के पास इतना र्इंधन ही नहीं बचा है। यह सही है कि पर्यावरण संरक्षण की दिशा में आज उठाए गए कदम लगभग एक दशक बाद अपना सकारात्मक प्रभाव दिखाना आरंभ करेंगे। इसलिए जरूरी है कि समस्या के भयावह रूप धारण करने से पहले सामूहिक प्रयास किए जाएं। सरकार कुछ करे या न करे लेकिन अब समय आ गया है कि हम कुछ करें। हम सबसे पहले अपनी जीवन शैली बदलें और अधिक से अधिक पेड़ लगाएं जिससे र्इंधन के लिए उनके बीज, पत्ते, तने काम आएंगे और हम धरती के अंदर गड़े कार्बन को वहीं रखकर वातावरण को बचा सकेंगे। तभी धरती बचेगी। इतना तो हम कर ही सकते हैं।