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Monday, 26 August 2013

बढ़ेगी तोपखाने की ताकत

डॉ. लक्ष्मी शंकर यादव
भारतीय सेना के तोपखाने की ताकत बढ़ने का समय नजदीक आ गया है। अमेरिका अपनी तोपें भारत को बेचने के लिए तैयार है। दो अगस्त, 2013 को अमेरिकी रक्षा मंत्रालय ने होवित्जर किस्म की 145 तोपें भारत को बेचने के बारे में अमेरिकी संसद को सूचित किया है। अमेरिकी रक्षा मंत्रालय द्वारा कहा गया है कि भारत सरकार ने हल्के वजन वाली लेजर इनर्शियल आर्टिलरी प्वाइंटिंग सिस्टम ‘एलआइएनएपीएस’
वाली 145, एम-777 होवित्जर तोपों की खरीद एवं उनकी मरम्मत के लिए आवश्यक कलपुजरे, प्रशिक्षण के उपकरण एवं रखरखाव आदि के लिए अनुरोध किया है। इन तोपों की अनुमानित लागत साढ़े 88 करोड़ डॉलर है। एम-777 होवित्जर तोपों का सबसे पहले अफगानिस्तान युद्ध में प्रयोग किया गया। वहां इनके बेहतर परिणाम सामने आए। वर्तमान में अमेरिकी सेनाओं के अलावा इन तोपों का इस्तेमाल ऑस्ट्रेलिया और कनाडाई सेना द्वारा किया जा रहा है। सऊदी अरब ने भी इन तोपों की खरीद के लिए आर्डर दे रखा है। अमेरिका की रक्षा सुरक्षा सहयोग एजेंसी ‘डीएससीए’
द्वारा जारी एक बयान में कहा गया है कि यह प्रस्तावित बिक्री भारत-अमेरिका के बीच रणनीतिक संबंधों को मजबूत बनाने में मदद करेगी। यह बिक्री दक्षिण एशिया में अमेरिका के एक ऐसे सहयोगी देश (भारत) की सुरक्षा व्यवस्था को सुधारने में सहायता करेगी जो अपने यहां की राजनीतिक स्थिरता, शांति एवं आर्थिक प्रगति के प्रति समर्पित रहा है। रक्षा सुरक्षा सहयोग एजेंसी के अनुसार भारत अपने सैन्यबलों के आधुनिकीकरण और कठिन यौद्धिक परिस्थितियों में विशेष अभियान चलाने के लिए इन तोपों का इस्तेमाल करना चाहता है। तोपों की बिक्री के क्रियान्वयन के लिए अमेरिकी सरकार और अनुबंधकर्ता प्रतिनिधियों के आठ सदस्यीय दल को भारत की वार्षिक यात्रा की जरूरत होगी। यह दल दो साल तक भारत में तकनीकी सहयोग, प्रशिक्षण और परीक्षण के लिए रहेगा। भारतीय सेना एवं रक्षा मंत्रालय ने तोपखाने की ताकत बढ़ाने के लिए 11 मई, 2012 को अमेरिका से लगभग 3000 करोड़ रुपये की लागत से 145 अल्ट्रा लाइट हॉवित्जर तोपें खरीदने का फैसला किया था। रक्षा मंत्री एके एंटनी की अध्यक्षता में हुई सैन्य अधिग्रहण परिषद ‘डीएसी’
की बैठक में विदेशी सैन्य खरीद ‘एफएमएस’ मार्ग से 145 एम-777 हॉवित्जर तोपों तथा अन्य कई रक्षा उपकरणों की खरीद को हरी झंडी देने का निर्णय लिया गया था। इससे पहले इन तोपों को खरीदने की सिफारिश रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन के प्रमुख वीके सारस्वत की अध्यक्षता वाली उच्चस्तरीय समिति ने की थी। सैन्य अधिग्रहण परिषद की स्वीकृति के बाद इसे रक्षा मंत्रालय व संसद की सुरक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ‘सीसीएस’ के पास मंजूरी के लिए भेजा गया। इनसे मंजूरी हासिल होने के बाद तोपों की खरीद का अंतिम निर्णय हुआ। एम-777 हॉवित्जर तोपें अमेरिका के बीएई सिस्टम द्वारा निर्मित हैं और भारत की जरूरतों के हिसाब से भरोसेमंद एवं अत्यंत उपयोगी हैं। इन तोपों को सरलता के साथ हवाई जहाज के द्वारा इधर-उधर लाया व ले जाया जा सकता है। इस कारण इन्हें पर्वतीय क्षेत्रों में भी तेजी से तैनात किया जा सकेगा। ये काफी अत्याधुनिक किस्म की तोपें हैं। भारतीय सेना की योजना के मुताबिक इन हॉवित्जर तोपों को लद्दाख तथा अरुणाचल प्रदेश के अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में तैनात किया जाएगा। इनकी तैनाती के बाद ऊंचाई पर स्थित चौकियां युद्ध के लिए अधिक सक्षम हो जाएंगी। उत्तरी मोर्चे पर यही चौकियां युद्ध का मुख्य मैदान होंगी। इस तरह भारत की तोपखाना ताकत अत्यंत बढ़ जाएगी। इस तरह तकरीबन 27 वर्षो बाद हॉवित्जर तोपों की खरीद हो रही है। विदित हो कि वर्ष 1986 में बोफोर्स तोप सौदे के विवाद के बाद सेना के तोपखाना भंडार को किसी प्रकार की नई तोपें प्राप्त नहीं हुई हैं। उस समय बोफोर्स तोप सौदे में दलाली को लेकर बड़ा विवाद हुआ था। इस विलंब से सेना की तैयारियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा था और भारतीय सेना का तोपखाना पूरी दनिया में इस्तेमाल हो रही आधुनिकतम तोपों से वंचित था। अब सेना 1970 के दशक वाली तोपों को हटाकर आधुनिक तकनीक वाली तोपों से लैस हो जाएगी। सेना पिछले लगभग 17 वर्षो से 155 मिलीमीटर और 52 कैलिबर की खींच कर ले जाई जा सकने वाली 400 तोपें, 145 बेहद हल्की तोपें तथा पहियों वाली खुद चलने में सक्षम 140 तोपें खरीदने की कोशिश कर रही थी। अब इनके प्राप्त होने की उम्मीद बढ़ गई है। चूंकि तोपों की खरीद में विलंब हो रहा था इसलिए देश में बोफोर्स जैसी 100 तोपें निर्मित करवाने का फैसला फरवरी 2012 में लिया गया था। सेना ने 155 मिमी की 100 तोपें खरीदने का आदेश आयुध कारखाना बोर्ड को जारी कर दिया है और इन तोपों के निर्माण को एक निश्चित समय में पूरा करने को कहा गया है। विदित हो कि जब बोफोर्स तोपों की खरीद की गई थी तभी से इनके उत्पादन की तकनीक भारत में आ गई थी। रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल करने का एक बड़ा कदम था। इन स्वदेशी तोपों का विकास जबलपुर के तोप कारखाने में किया जाएगा। इसके बाद इनका निर्माण कोलकाता स्थित कारखाने में किया जाएगा। सैन्य अधिग्रहण परिषद की इस मंजूरी के साथ ही तकरीबन 7000 करोड़ रुपये से अधिक की खरीद परियोजनाओं को स्वीकृति प्रदान कर दी गई थी। इसमें एल- 70 हवाई रक्षा तोपों के लिए 65 से अधिक की संख्या में रडारों की खरीद की मंजूरी भी है। इस सौदे में लगभग 3000 करोड़ रुपये की लागत आने की उम्मीद है। अन्य जिन परियोजनाओं को हरी झंडी प्रदान की गई है उनमें 300 करोड़ रुपये से अधिक की लागत के सिमुलेटर खरीदे जाएंगे जिनका उपयोग टी-90 टैंकों में किया जाएगा। तोपों की तरह टैंकों की निगहबानी बढ़ाने की तैयारी की जा रही है। सेना की पश्चिमी कमान में स्थानीय स्तर पर ऐसी तकनीक विकसित कर ली गई है जिससे टैंकों पर लगे विजुअल वीडियो डिस्प्ले ‘वीवीडी’ की जगह एलसीडी स्क्रीन लगाई जाएगी। सेना की इलेक्ट्रॉनिक एंड मैकेनिकल इंजीनियर कोर के इंजीनियरों ने पुरानी रुस की वीवीडी की जगह नई एलसीडी स्क्रीन लगाने में कामयाबी हासिल कर ली है। इस नई तकनीक से सेना रात में दुश्मनों की हरकतों पर नजर रख सकेगी। दूसरे, रूस से मंगाई जाने वाली 25 से 30 लाख की वीवीडी की जगह पांच हजार रुपये में यह एलसीडी उपलब्ध होगी। नई एलसीडी को रूस से खरीदे गए टी-90 टैंकों पर लगाया जाएगा। इससे सेना को एक नई ताकत मिल गई है क्योंकि इससे टैंको की मारक क्षमता में बढ़ोत्तरी होगी।


Thursday, 22 August 2013

सिंधुरक्षक हादसा : रक्षा तैयारियों के लिए बड़ा झटका

शशांक द्विवेदी 
पिछले दिनों नौसेना की आईएनएस अरिहंत और आईएनएस विक्रांत की उपलब्धियों के साथ सिंधुरक्षक पनडुब्बी के साथ हुआ हादसा हमारी रक्षा तैयारियों के लिए बहुत बड़ा झटका है। 
मुंबई के कोलाबा में लाइन गेट नेवल डॉकयार्ड में भारतीय नौसेना की ‘पनडुब्बी सिंधुरक्षक’ में भीषण आग की घटना ने बड़े सवाल खड़े कर दिये हैं। हादसे के बाद से पनडुब्बी  पर तैनात 18 नौसैनिक लापता हो गये । अभी तक ७  नौसैनिको  की मौत की पुष्टि हुए है लेकिन  माना जा रहा है कि इन सभी की मौत हो गई है। रक्षा मंत्री एके एंटनी ने भी नौसैनिकों के शहीद होने की आशंका जताई है। ये भीषण आग १३ अगस्त की  रात करीब 12 बजे लगी। चश्मदीदों ने आग से पहले धमाके की आवाजें सुनी। आग ने एक दूसरी पनडुब्बी को भी चपेट में ले लिया। डेढ़ घंटे की मेहनत के बाद आग पर काबू पाया गया, लेकिन सबसे अहम बात ये है कि पनडुब्बीढ में आखिरकार आग कैसे लगी। 
बैटरी चार्जिंग के दौरान धमाका 
विशेषज्ञों के अनुसार  पनडुब्बी में ये धमाका बैटरी चार्जिंग के दौरान हुआ। बताया जा रहा है कि बीती रात पनडुब्बी मुंबई के डॉकयार्ड पर खड़ी थी और बैटरी चार्ज की जा रही थी, तभी किन्हीं वजहों से बैटरी में आग लग गई और देखते ही देखते आग तेजी से बढ़ी और बाद में पनडुब्बी में जोरदार धमाका हुआ। धमाके की लपटें दूर तक देखी गईं। नौसेना ने मामले की जांच के लिए बोर्ड ऑफ इनक्वायरी के आदेश दे दिए हैं।
टारपीडो से लीक हुआ ऑक्सी्जन 
सिंधुरक्षक पनडुब्बी फिलहाल इस्तेमाल में थी और इसमें  टारपीडो और मिसाइल तैनात थे। टारपीडो में ऑक्सीजन भरा होता है जो कि तेजी से आग पकड़ता है। टारपीडो रूम से सटे बैटरी कंपार्टमेंट था जिसमें हाइड्रोजन मौजूद था। आशंका जताई जा रही है कि किसी दुर्घटना के चलते ऑक्सीजन लीक हुआ और हाइड्रोजन से जा मिला। दोनों गैसों के रिएक्शन से आग लग गई, जिसने खतरनाक रुख अख्तियार कर लिया और पनडुब्बी में जोरदार धमाका हुआ। चूंकि टारपीडो और बैटरी कंपार्टमेंट पनडुब्बी के अगले हिस्से में होता है, इसलिए उसका अगला हिस्सा धमाके के बाद बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुआ है। पनडुब्बी का पिछला हिस्सा अभी भी काफी हद तक सुरक्षित बताया जा रहा है।
2010 में भी हुआ था हादसा
2010 में भी सिंधुरक्षक हादसे का शिकार हो चुकी है। उस समय इसमें लगी आग में इलेक्ट्रिकल टेक्नीशियन की मौत हो गई थी। हादसे के बाद भारतीय नौसेना की इस डीजल इलेक्ट्रिक पनडुब्बी सिंधुरक्षक को मरम्मत के लिए अगस्त 2010 में रूस भेजा गया। सिंधुरक्षक की मरम्मत रूस के ज्वेज्दोचका पोत कारखाने में हुई थी। मरम्मत के दौरान पनडुब्बी में क्लब एस क्रूज मिसाइल और 10 भारतीय और विदेश निर्मित प्रणालियां जोड़ी गई थीं। इसके अलावा जहाज की सैन्य क्षमता और सुरक्षा बढ़ाने के लिए पनडुब्बी को ठंडा रखने वाली प्रणाली को उन्नत किया गया था। इसके लिए भारत सरकार ने 490 करोड़ रुपये खर्च किए थे। करीब 2 साल तक मरम्मत का काम चला और इसी साल अप्रैल में सिंधुरक्षक वापस भारत लौटी थी। 
सिन्धुरक्षक पनडुब्बी के बारे में ?
रूस ने 1995 में निर्मित पनडुब्बी (आईएनएस सिंधुरक्षक) को दिसंबर 1997 में भारत को सौंपा था। एक साथ 52 नौसैनिकों की क्षमता वाले सिंधुरक्षक में 19 नॉट्स (35 किलोमीटर प्रति घंटा) की रफ्तार और समुद्र में 300 मीटर की गहराई तक जाने की क्षमता है  । आईएनएस सिन्धुरक्षक, सिन्धुरक्षक श्रेणी की पनडुब्बी थी जिसका मुख्य रूप से इस्तेमाल प्रतिरक्षा या युद्धक परिस्थितियों में किया जा सकता था। सिंधुरक्षक पनडुब्बी की कई खासियतें हैं। भारत की सुरक्षा को मजबूती देने वाली सिंधुरक्षक दुश्मनों को थर्राने का दम रखती है। यह एक डीजल इलेक्ट्रिक पनडुब्बी है।  इस पनडुब्बी का वजन 23 हजार टन है और लंबाई 238 फीट।  इसमें चालक दल के 52 सदस्य सवार हो सकते हैं जो 45 दिन तक लगातार इसमें रह सकते हैं।  इसमें जमीनी हमले की क्षमता है। 300 मीटर गहराई तक गोता लगानेवाली इस  पनडुब्बियों से तारपीडो मिसाइलें दागी जा सकती हैं। रेडियो संचार प्रणाली के अलावा इसमें सभी आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल हुआ है।
हादसों से सबक 
हादसे की वजह चाहे कुछ भी हो लेकिन इतना तय है कि आईएनएस सिंधुरक्षक में सबकुछ ठीक नहीं था। पिछले हादसों से सबक नहीं सीखा गया जिसका नतीजा एक बड़े हादसे के रूप में सामने है। सवाल ये है कि क्या ये लापरवाही है, और अगर ये लापरवाही है तो जिम्मेदार कौन है?इस दुर्घटना के बाद रुस के काम की गुणवत्ता पर  भी कई सवाल खड़े हो गए हैं| जिसकी समीक्षा होना बेहद जरूरी है .
इस हादसे में अट्ठारह नौसैनिकों का बलिदान होना जितना दुखद है, उतनी ही चिंता समुद्र में सुरक्षा तैयारियों के अभियान पर लगे झटके ने भी बढ़ा दी है। पनडुब्बियों के मामले में हम काफी पीछे चल रहे हैं। सिंधुरक्षक के नुकसान के बाद हमारे पास जो पनडुब्बियां बची हैं, वे भी बहुत पुरानी हैं और वे एक के बाद एक नौसेना के बेड़े से हटती जा रही हैं। इस कारण हमारे साढ़े सात हजार किलोमीटर लंबे समुद्र तट की रक्षा सवालों के घेरे में आती जा रही है। भारत को अपने जल क्षेत्र में कम से कम 25 से 30 सबमरीन की जरूरत है, लेकिन अभी 14 से ही काम चलाया जा रहा है। बाकी बची 13 पनडुब्बियां भी पुरानी हो चुकी हैं। इसलिए उन्हें लेकर हमेशा आशंका बनी रहती है। हाल यह है कि सिंधुरक्षक को जिस कीमत पर खरीदा गया था, उसको अपग्रेड करने में उससे ज्यादा पैसा लगा।
हमारे पास एक भी एयर इंडिपेंडेंट प्रोपल्सन सिस्टम वाली पनडुब्बी नहीं है, जिसमें एक लंबे अरसे तक समुद्र के अंदर मौजूद बने रहने की क्षमता होती है। पुरानी तकनीक के कारण हमारी पनडुब्बियों को थोड़े-थोड़े समय के अंतराल में पानी से बाहर निकलना पड़ता है। पनडुब्बियों के निर्माण में स्वदेशीकरण का मामला भी अत्यंत पिछड़ा हुआ है। ठीक इसी प्रकार पनडुब्बियों की मरम्मत के मामले में भी हम आत्म-निर्भर नहीं बन पाए हैं और इसके लिए विदेशों से मदत लेना हमारी मजबूरी है। इस हादसे का सबक यह है कि हम नौसेना को मजबूत बनाने के लिए हमें  पनडुब्बी मामलों में पूर्ण रूप से आत्म निर्भर होना पड़ेगा ,पनडुब्बियों का निर्माण कार्य अब युद्धस्तर पर शुरू करके  इनकी डिजाइन, सुरक्षा के उपाय और रख-रखाव पर पूर्ण निगरानी रखना पड़ेगा । 

Tuesday, 20 August 2013

नौसेना पर अखबारों(डीएनए,दैनिक भास्कर आदि ) में मेरे लेख

सिन्धुरक्षक हादसा -सुरक्षा मानकों की अनदेखी भयावह

मत्स्येन्द्र प्रभाकर
तेरह अगस्त की रात मुम्बई के निकट कोलाबा के नेवल डॉकयार्ड में भीषण विस्फोट के साथ हुए अग्निकांड में ˜सिन्धुरक्षक पनडुब्बी का सागर में समा जाना सामान्य दुर्घटना नहीं है। यह 1971 के बाद भारतीय नौसेना के इतिहास की सबसे बड़ी घटना है और शान्तिकाल में नौसेना के लिए सर्वाधिक भीषण आपदा। निकट भविष्य में इसकी भरपाई के आसार नहीं दिख रहे हैं क्योंकि हमारी लंबी सरहदों के सन्दर्भ में सिन्धुरक्षक  लाने के प्रस्तावों पर बहुत फौलादी राजनीतिक इरादा दिखाया भी गया तो अगली पनडुब्बी हासिल करने के लिए कम से कम 2021-22 तक इंतजार करना पड़ेगा। उल्लेख जरूरी है कि भारतीय नौसैनिक बेड़े के लिए और छह पनडुब्बियों की खरीद का फैसला छह साल पहले लिया गया था और पिछले तीन सालों से इसके लिए टेंडर जारी करने पर कवायद भी हुई लेकिन मामला अब तक लटका हुआ है। मुमकिन है कि भारतीय नौसेना की शान में इस ताजा चोट के बाद सरकार की नींद खुल जाए। सिन्धुरक्षक हादसे की तुलना अन्य आपदाओं से नहीं की जा सकती। बेशक इससे नौसेना को तगड़ा झटका लगा है जिसमें भारत को अपने तीन अधिकारियों समेत 18 नौसैनिकों की जान गंवानी पड़ी है और अरबों रु पयों की क्षति हुई है पर इससे अधिक चिंतनीय यह है कि अपने वर्ग की नौवीं इस पनडुब्बी पर भारत की 7,517 किलोमीटर लम्बी सामुद्रिक सीमा की रक्षा की जिम्मेदारी थी। यह उन दस पनडुब्बियों में प्रमुख थी जिन्हें 1996 से 2000 के बीच भारतीय नौसेना में शामिल किया गया था। 2003 टन की ˜किलो श्रेणी की पनडुब्बी ˜आईएनएस सिन्धुरक्षक का निर्माण रूस में हुआ था।1997 में 24 दिसम्बर को नौसेना में शामिल किये जाने के पहले भारत को इसकी कीमत के रूप में 115 मिलियन डॉलर (तबके हिसाब से 400 करोड़ रु पये) रूस को चुकाने पड़े थे। यह राशि मौजूदा मूल्य पर सात अरब रु पये से अधिक बैठती है। इसे 2010-12 के दौरान इसकी कीमत से भी ज्यादा लागत 156 मिलियन डॉलर (मौजूदा मूल्य पर करीब 9.67 अरब रु पये) देकर रूस में ही नवीनीकृत (मॉडिफाइ) कराया गया था। यह बात अलग है कि अपग्रेड करने वाले रूसी शिपयार्ड ने इसे अत्याधुनिक हथियारों (अल्ट्रा मॉडर्न वेपन्स) से लैस किया था। दरअसल, ओवरहालिंग के नाम पर इसकी जरूरत तब इसलिए आ पड़ी थी कि 2010 की फरवरी में भी इसके बैटरी कम्पार्टमेंट में आग लग गयी थी। तब इसमें एक नौसैनिक की जान गयी थी। लिहाजा उसी साल अगस्त में सिन्धुरक्षक को रूस भेजना पड़ा जिसने जून 2012 में इसे उपलब्ध कराया और करीब चार महीने पहले 29 अप्रैल को दोबारा यह नौसेना में शामिल की गयी थी। ˜सिन्धुरक्षक का हादसा हमारी रक्षा नीति और सुरक्षा प्रबन्धों समेत समूची इंतजामिया के लिए गम्भीर चिन्ता का विषय होना चाहिए। कारण, भारतीय नौसेना में पिछले पांच सालों में यह चौथी दुर्घटना है। खुद इसी पनडुब्बी में हुए 2010 के हादसे के पहले 2009 में किलो श्रेणी (नाटो के द्वारा रूस निर्मिंत डीजल-विद्युत चालित पनडुब्बियों को दिया गया एक नाम) का एक अन्य युद्धपोत आईएनएस सिन्धुघोष एक व्यायसायिक जहाज से टकरा गया था। उस हादसे की वजह आज तक जाहिर नहीं हुई। इसके बाद ‘आईएनएस विद्यागिरि एक मर्चेंट शिप से टकराने के बाद लगभग नष्ट ही हो गया। गनीमत यह रही कि प्रमुख युद्धपोत के इस हादसे में किसी की जान नहीं गयी।सिन्धुरक्षक  त्रासदी के पीछे कारण क्या रहा, इस बारे में जांच समिति के निष्कर्ष से ही असल तौर पर कुछ पता चल सकेगा. सम्भव है कि सिन्धुरक्षक  तरह की घटनाओं में कारणों का .खुलासा न करने के पीछे कुछ पेशेवराना दिक्कतें हों. फिर भी उनके कारणों के उभर कर न आने से कोई दबाव नहीं बन पाता जिससे हालात और खतरनाक बनते जाते हैं. कहने की आवश्यकता नहीं कि लोकतंत्र को सुरक्षित रखने के साथ परिष्कृत करने के लिए आज हर क्षेत्र में जन दबाव जरूरी हो गया है. इसलिए सवाल उठाना लाजिमी हो जाता है कि जांच-पड़ताल पर पर्दा आखिर क्यों डाला जाता है? सिन्धुरक्षक हादसे की जांच- पड़ताल की दिशा और नतीजे पर संशय के बादल पहले दिन से ही मंडराने लगे हैं. ईमानदार छवि के रक्षामंत्री ए.के. एंटनी ने गत बुधवार को मुम्बई पहुंचकर जहां पनडुब्बी में किसी तोड़फोड़ की आशंका से इनकार किया, वहीं नौसेना प्रमुख एडमिरल डी.के. जोशी ने कहा कि दुर्घटना के पीछे किसी साज़िश की आशंका को खारिज़ नहीं किया जा सकता. बोर्ड ऑफ़ इनक्वायरी इस घटना की हर कोण से जांच कर रहा है.
बहरहाल, पनडुब्बी को बनाने वाले रूस के उप प्रधानमन्त्री दिमित्री रोगाजिन का कहना है कि इस दुर्घटना की वजह सुरक्षा की अनदेखी हो सकती है। दिमित्री रोगाजिन ने पनडुब्बी में लगाये गये किसी खास उपस्कर पर घटना की कोई जिम्मेदारी डालने से तौबा की है। मुमकिन है कि इसके पीछे रूस की मंशा कुछ और हो। क्योंकि नवीनीकरण करने के साथ उसने सिन्धुरक्षक की बाबत अगले साल तक की वारंटी दी है। भारतीय रक्षा सचिव आरके माथुर इसी हफ्ते भारत-रूस रक्षा सहयोग पर बातचीत के लिए रूस जाने वाले हैं। इस दौरान पनडुब्बी हादसे पर उनकी रूसी अधिकारियों से भी र्चचा होगी मगर इससे क्या इनकार किया जा सकता है कि सुरक्षा-संरक्षा में कमी भी सिन्धुरक्षक के भयंकर हादसे की एक अहम वजह हो सकती है। इसके संकेत इस आधार पर खोजे जा सकते हैं कि भारतीय नौसैनिक इस पनडुब्बी में बैटरी के इलाके में काम कर रहे थे। उसे काफी खतरनाक माना जाता है और उस समय सुरक्षा नियमों में जरा सी चूक भीषण आपदा की वजह बन सकती है। नौसेना समेत सेना के सभी अंगों में अस्त्र-शस्त्र और साधनों के नियमित परीक्षण-प्रशिक्षण-परिचालन समेत उसके समस्त साधनों के रखरखाव पर सतर्कता बेहद जरूरी है। भारतीय सेना अब पारंपरिक नहीं रही। वह अत्याधुनिक सेना का रूप ले चुकी है और दुनिया की सशक्त तथा विशालतम सेनाओं में शुमार है। हाल में पहली पूर्णत: स्वदेश निर्मिंत परमाणु पनडुब्बी ˜अरिहन्त का नाभिकीय रिएक्टर चालू करने की घोषणा के साथ भारत इस क्षमता वाले देशों- (अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन) में शामिल हो इस क्लब का छठा सदस्य हो गया है। इस बीच चीन और पाकिस्तान हमारी सरहद पर अपनी हरकतों से तनाव बढ़ा रहे हैं। अत: यह बहुत ही चुनौतीपूर्ण वक्त है। भारत क्योंकि नाभिकीय अस्त्र सम्पन्न देश है, इसलिए हमारे सुरक्षा प्रबन्धों में कोई चूक भयावह हो सकती है। स्थलीय ठिकानों से भिन्न सामुद्रिक क्षेत्र में मानकों की अनदेखी व सतर्कता में कमी और चूक जल-थल-नभ सब जगह खतरनाक हो सकती है। ध्यान रखना होगा कि भारत आज दुनिया के हर छठवें व्यक्ति का स्थायी आवास बन चुका है। इस रूप में हमारी जिम्मेदारियां बहुत बढ़ गयी हैं।

Monday, 19 August 2013

सेल ने बनाया दुनिया का सबसे ताकतवर स्टील

भारत ने नौसेना के स्वदेश निर्मित पहले विमानवाहक पोत आईएनएस विक्रांत के निर्माण के लिये जरूरी खूबियों वाला इस्पात बनाने के बाद अब परमाणु पनडुब्बियों के निर्माण के लिये जरूरी दुनिया का सबसे ताकतवर स्टील विकसित कर लिया है. ये इस्पात तैयार किया है. भारतीय इस्पात प्राधिकरण (सेल) ने और इसका फार्मूला ईजाद किया है. रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन की इकाई रक्षा धातु अनुसंधान प्रयोगशाला हैदराबाद ने.
हालांकि इस स्टील के बारे में सेल और नौसेना आधिकारिक रूप से कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है, लेकिन सूत्रों के अनुसार पनडुब्बी के निर्माण के लिये जरूरी स्टील विकास एवं परीक्षण के लगभग के सभी चरणों को पार करके प्रमाणन हासिल करने की प्रक्रिया में है. भारत ने इस डीएमआर 292 स्टील के लिये पेटेंट अधिकार हासिल करने के लिये आवेदन दाखिल किया है. सूत्रों के अनुसार ये दुनिया का सबसे ताकतवर इस्पात होगा, जो परमाणु पनडुब्बी, सैन्य एवं असैन्य परमाणु संयंत्रों में भी इस्तेमाल हो सकेगा.
एक बार औपचारिक प्रमाणन हासिल करने के बाद देश सैन्य इस्पात के लिये घोषित तौर पर पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर हो जायेगा. राउरकेला इस्पात संयंत्र के स्पेशल स्टील प्लांट में डीएमआर 292 ए को अंतिम रूप दिया जा रहा है. इसी जगह भारत के प्रथम स्वदेश निर्मित विमानवाहक पोत आई एन एस विक्रांत के लिये डीएमआर 249 , डीएमआर 249 बी और डीएमआर 249 , जेड 25, किस्मों की 20 मिलीमीटर मोटी प्लेटों को अंतिम रूप दिया गया है. इससे पतली प्लेटें भिलाई संयंत्र में तैयार की गई हैं. सेल के अधिकारी डीएमआर 249 श्रेणी के बारे में बताते हैं कि यह स्टील आम स्टील से बहुत अलग है. यह जितना कठोर है उतना ही लचीला भी. यह शून्य से 60 डिग्री सेल्शियस कम तापमान पर भी 80 जूल की ताकत का प्रहार सह सकता है.
जबकि आम स्टील इस तापमान पर मामूली से झटके में ही शीशे की तरह बिखर जाता है. लेकिन यह इतना लचीला भी है कि 180 अंश तक बिना कोई चटक पड़े, मोड़ा भी जा सकता है. इस इस्पात की खासियत के बारे में धातुविज्ञानियों ने बताया कि इसमें मैगनीज, कार्बन और सल्फर की मात्रा कम करके निकल की मात्रा बढ़ाई गई तथा नियोबियम, वेनेडियम, मोलिब्डेनम, क्रोमिनयम जैसे तत्व मिलाये गये तथा फिर उसकी प्लेट तैयार करके हीट ट्रीटमेंट किया गया, जिसमें प्लेट को 950 डिग्री सेंटीग्रेड पर रक्ततप्त करके पानी और तेल में ठण्डा किया जाता है और फिर हल्का गर्म करके टैम्परिंग की जाती है. इससे धातु के वांछित गुण प्राप्त हो गये. नौसेना के अधिकारियों के मुताबिक इसका वजन कम होने से विमानवाहक पोत में ज्यादा से ज्यादा हथियार एवं रणनीतिक उपकरण लगाये जा सकते हैं.
सेल के इंजीनियरों, रक्षा वैज्ञानिकों और नौसेना के अधिकारियों के मुताबिक भारत करीब 15 साल के अंदर उन चंद देशों में शामिल हो गया है, जो स्टील के मामले में आत्मनिर्भर हैं. अमेरिका, रूस और नाटो के कुछ देशों के पास ही इस तरह की तकनीक और उत्पादन क्षमता है. लेकिन रूस को छोड़ कर कोई अन्य देश भारत को निर्यात नहीं करता था. रूस भी स्टील या उसकी प्रौद्योगिकी देने की बजाय युद्धपोत का सौदा करने का ज्यादा इच्छुक था. वर्ष 1999 में डीआरडीओ ने सेल से यह स्टील बनाने का प्रस्ताव किया तो सेल सहर्ष तैयार हो गया और 2002 में तैयार करके दिखा दिया. सेल के अधिकारियों के मुताबिक इस फार्मूले पर स्टील का निर्माण हैवी इंजीनियरिंग कारपोरेशन रांची, दुर्गापुर इस्पात संयंत्र स्थित एलॉय स्टील प्लांट और राउरकेला के स्पेशल स्टील प्लांट में किया गया. भिलाई इस्पात संयंत्र में 20 मिलीमीटर से पतली प्लेट तैयार की गई है.
नौसेना के कोचीन शिपयार्ड को विमानवाहक पोत बनाने के लिये 2004-05 में डीएमआर 249 ए की आपूर्ति शुरू हुई. विमानवाहक पोत के डेक पर विमानों की लैण्डिंग और टेक ऑफ से होने वाले झटकों को सहन करने के लिये डीएमआर 249 बी का विकास किया गया. प्लेट की मोटाई की दिशा में दबाव झेलने की क्षमता के लिये डीएमआर 249 , जेड25, स्टील का विकास किया गया. सेल के अध्यक्ष चंद्रशेखर वर्मा का कहना है कि यह नौसेना के लिये राहत और आत्मनिर्भरता की बात तो है ही लेकिन सेल और देश के लिये एक बहुत बड़े राष्ट्रीय गौरव की बात है. वर्मा ने बताया कि 37500 टन वजनी इस विमानवाहक पोत के लिये 28 हजार टन से ज्यादा लोहे की जरूरत थी, जिसमें करीब करीब पूरा स्टील सेल ने दिया है. इसके अलावा अन्य शिपयार्डों को मिला लिया जाये तो नौसेना को 40 हजार टन से ज्यादा डीएमआर 249 श्रेणी के सैन्य इस्पात की आपूर्ति की जा चुकी है.
वर्मा के मुताबिक राउरकेला के स्पेशल प्लेट प्लांट की क्षमता पांच गुनी की जा रही है. वहां 4.3 मीटर चौड़ी प्लेट तैयार करने के लिये एक नयी प्लेट मिल भी बन कर तैयार हो गई है. राउरकेला संयंत्र की क्षमता दोगुनी बढायी जा रही है. नौसेना के वास्तु निदेशालय के प्रमुख निदेशक कोमोडोर ए के दत्ता. डी आरडीओ के चीफ कंट्रोलर जी मलकोंडैय्या ने सेल की इस उपलब्धि को देश के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि बताते हुए कहा कि इससे देश में नौसैनिक बेड़े की कमी पूरी करने के लिये युद्धपोत निर्माण को बल मिलेगा और नौसेना को समुद्र में रणनीतिक बढ़त हासिल होगी.


Saturday, 17 August 2013

भारतीय नौसेना की उपलब्धियों के दिन

इन दिनों भारत की रक्षा तैयारियों में कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धियां देखने को मिल रही हैं। इनमें तकनीकी रूप से सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण भारत की पहली और पूरी तरह देश में ही बनी परमाणु ईंधन चालित पनडुब्बी आईएनएस अरिहंत के रिएक्टर का चालू होना है। इसके अलावा भारत में ही बने विमानवाहक जहाज आईएनएस विक्रांत को पानी में उतारा गया। पानी में इसकी क्षमताओं के परीक्षण के बाद इसमें कुछ और निर्माण कार्य किया जाएगा और संभवत: 2018 तक यह पूरी तरह उपयोगी हो जाएगा। इन दोनों ही तकनीकी उपलब्धियों से भारत उन चंद देशों में शामिल हो जाएगा, जिनके पास यह तकनीक है। परमाणु चालित पनडुब्बियां अमेरिका, रूस, ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस और चीन के पास हैं और विमानवाहक जहाज बनाने की क्षमता अमेरिका, गेट्र ब्रिटेन, फ्रांस और रूस के पास है। विमानवाहक जहाज कुछ और देशों के पास हैं, लेकिन उनमें से कुछ देश भारत के साथ उन्हें बनाने की क्षमता हासिल करने में लगे हैं। अमेरिका के पास जितने विमानवाहक जहाज हैं, उतने तो बाकी देशों के पास कुल मिलाकर भी नहीं हैं। इस साल के अंत में अगर रूस में बना आईएनएस विक्रमादित्य भारतीय नौसेना में शामिल हो गया, तो भारत के पास तीन विमानवाहक जहाज हो जाएंगे।
इसके अलावा परमाणु हथियार क्षमता वाली मध्यम पूरी की मिसाइल पृथ्वी-2 का भी सफल परीक्षण किया गया।आईएनएस अरिहंत के रिएक्टर का कामयाबी के साथ शुरू हो जाना इसलिए बड़ी उपलब्धि है, क्योंकि इसके लिए कई तकनीकी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। सबसे बड़ी चुनौती इतना छोटा और हल्का परमाणु रिएक्टर बनाना होता है, जो पनडुब्बी में फिट हो सके। इसके अलावा पनडुब्बी की गति काफी परिवर्तित होती रहती है और उसे समुद्र में तरह-तरह के झटके बर्दाश्त करने होते हैं। अगर पनडुब्बी से मिसाइल छोड़ी गई, तो उसे काफी तेज झटका लगता है। ऐसे में, रिएक्टर इतना मजबूत भी होना चाहिए, जो ऐसे हालात में पूरी तरह सुरक्षित रह सके। पनडुब्बी की गति जब कभी तेज और जब कभी धीमी होती है, तो इसके लिए रिएक्टर से ऊर्जा उत्पादन का भी तेजी से कम ज्यादा होना जरूरी है। बिजली पैदा करने के लिए जो आम रिएक्टर लगाए जाते हैं, उनमें यह ऊर्जा उत्पादन में परिवर्तन की रफ्तार काफी धीमी होती है, लेकिन पनडुब्बी के रिएक्टर में ऐसा नहीं चल सकता। भारत में सरकारी और निजी क्षेत्र ने अपने कौशल से इन तकनीकी चुनौतियों का सामना किया और ऐसा रिएक्टर बना कर दिखा दिया।

इस रिएक्टर में जो उच्च दबाव पर सामान्य पानी इस्तेमाल करने की तकनीक है, वह हमारे परमाणु बिजलीघरों में भारी पानी पर आधारित तकनीक से अलग है और इस नई तकनीक में महारत हमारे लिए बिजली उत्पादन में भी उपयोगी साबित हो सकती है। भारत की समुद्री सीमा बहुत बड़ी है और हिंद महासागर क्षेत्र में भारत सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। हिंद महासागर में अपने सामरिक और व्यापारिक हितों की खातिर भारत को उच्च तकनीक पर आधारित नौसैनिक साजो-सामान चाहिए। चाहे परमाणु पनडुब्बी हो या विमानवाहक जहाज, ये किसी देश की नौसैनिक पहुंच हजारों किलोमीटर तक कर देते हैं। सिर्फ इनकी मौजूदगी का ही ऐसा असर होता है, जैसा छोटे और सीमित क्षमता के हथियारों के इस्तेमाल का भी नहीं होता। इसके अलावा उच्च तकनीक के क्षेत्र में जो कुछ सैनिक उपलब्धि होती है, उसका फायदा देश को कई और क्षेत्रों में भी मिलता है। इस मायने में इन दिनों की ये उपलब्धियां देश को दूरगामी फायदा पहुंचाएंगी।(ref-Hindustan)