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Friday, 14 September 2018

विज्ञान-तकनीक की भी भाषा बने हिंदी

सूर्यकांत मिश्र

जब रूस, चीन, जर्मनी, फ्रांस आदि अपनी भाषा का प्रयोग कर समर्थ बन सकते हैं तो हम क्यों नहीं बन सकते?


दुनिया में चीन की भाषा मंदरिन के बाद हिंदी बोलने वाले दूसरे स्थान पर हैं। अंतरराष्ठीय संपर्क भाषा अंग्रेजी होने के बावजूद हिंदी भी धीरे-धीरे अपना अंतरराष्ट्रीय स्थान ग्रहण कर रही है। भारत की बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था, बढ़ता हुआ बाजार, हिंदी भाषी उपभोक्ता, हिंदी सिनेमा, प्रवासी भारतीय, हिंदी का विश्व बंधुत्व भाव हिंदी को बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो रहे हैं। यही कारण है कि अब अंग्रेजी माध्यम के कई टीवी चैनलों को हिंदी भाषा में प्रस्तुतीकरण करना पड़ रहा है। हिंदी भाषा को विश्व पटल पर स्थापित करने के लिए एक बड़ी चुनौती संयुक्त राष्ट्र में हिंदी भाषा को सातवीं भाषा के रूप में स्थान दिलाना है। इसके लिए भारत के विदेश मंत्रलय की ओर से प्रयास किए जा रहे हैं। इसी के तहत विश्व हिंदी सचिवालय की मॉरीशस में स्थापना हुई, जिसका उद्घाटन इसी वर्ष मार्च में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद द्वारा किया गया। हाल में विश्व हिंदी सम्मेलन भी मारीशस में ही संपन्न हुआ। यह भी अच्छा है कि संयुक्त राष्ट्र की ओर से सप्ताह में एक दिन-शुक्रवार को हिंदी भाषा में एक समाचार बुलेटिन का प्रसारण शुरू किया गया है। इससे दुनिया भर में फैले हिंदी भाषियों को अपनी भाषा में संयुक्त राष्ट्र द्वारा विश्व के समाचार प्राप्त होने शुरू हो गए हैं। विश्व पटल पर हिंदी को स्थापित करने में सबसे बड़ा कदम पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा तब उठाया गया था, जब उन्होंने 1977 में भारत के विदेश मंत्री के रूप में संयुक्त राष्ट्र महासभा को पहली बार हिंदी में संबोधित किया था। कुछ समय पहले संपन्न वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा भी हिंदी में संबोधन देना उसी कड़ी को आगे बढ़ाने वाला रहा। भाषा को आगे बढ़ाने के लिए राजनीतिक प्रतिबद्धता बहुत आवश्यक होती है। यह प्रतिबद्धता अंतरराष्ट्रीय स्तर के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर भी मजबूती से प्रदर्शित की जाए, इसकी प्रबल आवश्यकता है। आज हिंदी पूरी दुनिया में सिर्फ बोल चाल और संपर्क भाषा के रूप में ही नहीं बढ़ रही है, बल्कि आधुनिक भी होती जा रही है। हिंदी भाषा के आधुनिक बाजार को देखते हुए गूगल, याहू इत्यादि भी हिंदी भाषा को बढ़ावा दे रहे हैं। आज हिंदी केवल भारत, भारतवासियों, प्रवासी भारतीयों की भाषा ही नहीं है, बल्कि कई विकसित और विकासशील देशों में हिंदी अपना स्थान बना रखी है। अमेरिका जैसे सबसे समर्थ राष्ट्र में हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार के लिए 150 संस्थान हिंदी को सिखा रहे हैं। अन्य पश्चिमी देशों में भी हिंदी पढ़ाई जा रही है। इसके चलते हिंदी समर्थ हो रही है। उसमें नए-नए शब्द समाहित हो रहे हैं। हिंदी भाषा में 25 लाख से ज्यादा अपने शब्द हैं। दुनिया में समाचार पत्रों में सबसे ज्यादा हिंदी के समाचार पत्र हैं। इसे देखते हुए हम कह सकते हैं कि विश्व पटल पर हिंदी अपना प्रमुख स्थान बना रही है, लेकिन उसके समक्ष अनेक चुनौतियां भी हैं। ये चुनौतियां अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर भी हैं। हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ाना अभी भी एक अधूरा लक्ष्य बना हुआ है। हिंदी को जीवन के विविध क्षेत्रों जैसे विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान, तकनीक, विधि, अर्थशास्त्र, संचार विज्ञान और अन्य अनेक क्षेत्रों में समृद्ध करना अभी भी शेष है। विज्ञान, तकनीक, विधि और चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में हंिदूी भाषा को समृद्ध करने के प्रयास और संघर्ष होते रहे हैं। कुछ संघर्ष तो खासे लंबे खिंचे। बतौर उदाहरण आइआइटी दिल्ली के छात्र श्यामरुद्र पाठक का संघर्ष। 1985 में जब उन्होंने आइआइटी दिल्ली के छात्र के तौर पर बीटेक की प्रोजेक्ट रिपोर्ट हिंदी में लिखी तो उसे अस्वीकार कर दिया गया। जब वह अपनी प्रोजेक्ट रिपोर्ट हिंदी में ही पेश करने को लेकर अडिग बने रहे तो उनका मामला संसद में गूंजा। आखिरकार आइआइटी दिल्ली के प्रशासन को झुकना पड़ा। इसके बाद पाठक ने अन्य क्षेत्रों में हिंदी के हक के लिए लड़ना शुरू किया। ऐसे कुछ और लोग हैं जो इसके लिए संघर्षरत हैं कि सुप्रीम कोर्ट में न्याय अपनी भाषा में मिले और संसद में कानून के निर्माण की भाषा हंिदूी हो। क्या यह विडंबना नहीं कि देश की सबसे बड़ी अदालत में न्याय की भाषा हमारी अपनी नहीं? इसी तरह संसद में विधि निर्माण की भाषा भी मूलत: अंग्रेजी है। श्यामरुद्र पाठक के संघर्ष का स्मरण करते हुए मैं यह उल्लेख करना चाहूंगा कि 1991 में जब मैंने अपने एमडी पाठ्यक्रम की थीसिस हिंदी में प्रस्तुत करने का निर्णय किया तो किंग जार्ज मेडिकल कालेज, लखनऊ के तत्कालीन प्रशासन के विरोध के फलस्वरूप लगभग एक वर्ष तक संघर्ष करना पड़ा। अंतत: जब उत्तर प्रदेश विधानसभा से सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित हुआ तब मुङो हंिदूी में शोध प्रबंध जमा करने की अनुमति मिली। हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि दुनिया के लगभग सभी विकसित देशों ने अपनी भाषा में ही विज्ञान, तकनीक और चिकित्सा विज्ञान में पढ़ाई को महत्व दिया है। रूस, चीन , जर्मनी, जापान, फ्रांस जैसे सक्षम देशों में प्रारंभिक से लेकर उच्च शिक्षा की पढ़ाई उनकी अपनी भाषा में होती है। आखिर जब ये देश अपनी-अपनी भाषा का प्रयोग कर समर्थ बन सकते हैं तो हम क्यों नहीं बन सकते? माना कि अंग्रेजी अंतरराष्ट्रीय भाषा है, लेकिन यह कहना सही कैसे है कि वह प्रगति की भी भाषा है? भारतीय भाषा सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में केवल 7-8 प्रतिशत लोग ही अंग्रेजी भाषा में पारंगत है, बाकी हिंदी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं का प्रयोग करते हैं। हमारे देश में लगभग 500 मेडिकल कॉलेज हैं और सभी में चिकित्सा शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है। अधिकतर मेडिकल कॉलेजों में एमबीबीएस प्रथम वर्ष में चिकित्सकीय पाठ्यक्रम के अतिरिक्त अंग्रेजी भाषा की भी पढ़ाई होती है ताकि छात्र एमबीबीएस की पढ़ाई समझने के लिए अंग्रेजी भाषा में पारंगत हो सकें। इस समस्या को दूर करने का एक मात्र उपाय यही है कि उच्च शिक्षा का माध्यम भी हंिदूी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में हो ताकि विद्यार्थियों को अपनी सरल भाषा में शिक्षा मिले और उन्हें अंग्रेजी सीखने का अतिरिक्त मानसिक बोझ न पड़े। यह एक तथ्य है कि छात्रों का अच्छा-खासा समय अंग्रेजी सीखने में खप जाता है। यह समय के साथ ऊर्जा की बर्बादी है। यह बर्बादी इसलिए हो रही है कि अच्छी उच्च शिक्षा अंग्रेजी में ही उपलब्ध है। (लेखक किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय, लखनऊ में रेस्पिरेटरी मेडिसिन विभाग के विभागाध्यक्ष हैं)

Sunday, 17 November 2013

भारत रत्न वैज्ञानिक सीएनआर राव पर अखबारों में शशांक द्विवेदी के लेख

विज्ञान के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान
देश के कई प्रमुख अखबारों में शशांक द्विवेदी के लेख 
 दैनिक जागरण ,लोकमत ,हरिभूमि ,दबंग दुनियाँ ,डेली न्यूज ,डीएनए,कल्पतरु एक्सप्रेस ,राज एक्सप्रेस ,मिड डे,आज  में लेख  
दैनिक जागरण 
केंद्र सरकार ने भारत का  सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न सचिन तेंदुलकर और प्रख्यात वैज्ञानिक प्रोफ़ेसर सीएनआर राव को देने का फैसला किया है .अपने अपने क्षेत्र में दोनों की सफलताएं असाधारण है .जहाँ सचिन ने बल्लेबाजी में शतकों का शतक लगाया है वहीं प्रोफ़ेसर राव ने अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रों के प्रकाशन में शतक लगाया है .दोनों की उपलब्धियाँ असाधारण है लेकिन मीडिया खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया सचिन की कवरेज तो बहुत कर रहा है लेकिन प्रोफ़ेसर राव के बारे में या उनके काम के बारे में कोई भी प्रोग्राम नहीं दिखाया जा रहा है . टीवी पर जहाँ सचिन पर घंटो कार्यक्रम दिखाए गये वहीं पर प्रोफ़ेसर राव पर दस मिनट का कार्यक्रम अधिकतर टीवी न्यूज चैनलों में दिखाया तक नहीं गया . विज्ञान जगत के किसी व्यक्ति को भारत के सबसे बड़े सम्मान की खबर पूरी तरह से उपेक्षित नजर आयी जबकि दोनों को ही भारत रत्न मिला है .विज्ञान की खबरों के प्रति टीवी चैनलों का ये दुराग्रह नया नहीं है ,ऐसा पहली बार नहीं हुआ है .याद करिये भारत के सबसे बड़े अंतरिक्ष अभियान मार्स मिशन को भी टीवी वालों ने ज्यादा तवज्जो नहीं दी थी . देश में विज्ञान ,अनुसंधान और शोध  से सम्बंधित खबरे  प्रिंट मीडिया में थोड़ी जगह बना रही है लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया इससे कोसों दूर है प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं है आप खुद देखिये कि इस क्षेत्र में इलेक्ट्रानिक मीडिया कितना संजीदा है सिर्फ विज्ञान और तकनीक से जुड़ी सनसनीखेज खबरें ही खबरिया चैनलों में थोड़ी बहुत जगह बना पाती है ।खैर जो भी हो लेकिन आज वक्त है विलक्षण प्रतिभा के धनी वैज्ञानिक प्रोफ़ेसर सीएनआर राव को याद करने का जिनकी वजह से अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत का मान-सम्मान  बढ़ा है .

वैज्ञानिक शोध में शतक
भारत सरकार ने प्रख्यात वैज्ञानिक और प्रधानमंत्री की वैज्ञानिक सलाहकार परिषद के प्रमुख प्रोफेसर सीएनआर राव को देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न देने की घोषणा की है। सीएनआर राव सोलिड स्टेट और मैटीरियल केमिस्ट्री के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनके  1400 शोध पत्र और 45 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। दुनियाभर के तमाम प्रमुख वैज्ञानिक शोध संस्थानों ने राव के योगदानों का महत्वपूर्ण बताते हुए उन्हें अपने संस्थान की सदस्यता के साथ ही फेलोशिप भी दी है। उन्हें कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुके हैं।
दबंग दुनियाँ 
वास्तव में जो ऊंचाई 40 वर्षीय तेंदुलकर ने क्रिकेट में हासिल किया है वहीं ऊंचाई प्रोफेसर चिंतामणि नागेश रामचंद्र राव (79) यानी सीएनआर राव ने भी शोध क्षेत्र में हासिल किया है । तेंदुलकर ने एक बल्लेबाज के रूप में 100 अंतरराष्ट्रीय शतक जड़े हैं तो राव भी पहले भारतीय हैं जो शोध कार्य के क्षेत्र में सौ के एच-इंडेक्स में पहुंचे हैं। राव ने इस साल अप्रैल में 100 के एच-इंडेक्स (शोधकर्ता की वैज्ञानिक उत्पादकता एवं प्रभाव का वर्णन करने का जरिया) तक पहुंचने वाले पहले भारतीय होने का गौरव हासिल किया। राव की इस उपलब्धि से पता चलता है कि उनके प्रकाशित शोध कार्यों का दायरा कितना व्यापक है। एच-इंडेक्स किसी वैज्ञानिक के प्रकाशित शोध पत्रों की सर्वाधिक संख्या है जिनमें से कम से कम प्रत्येक का कई बार संदर्भ के रूप में उल्लेख किया गया हो। राव की इस उपलब्धि का मतलब समझाते हुए कुछ वैज्ञानिक कहते हैं कि उन्होंने जो मुकाम हासिल किया, दरअसल वह सचिन के 100 शतकों की उपलब्धि से किसी भी मायने में कम नहीं है।
परमाणु शक्ति संपन्न होने और अंतरिक्ष में उपस्थिति दर्ज करा चुकने के बावजूद विज्ञान के क्षेत्र में हम अन्य देशों की तुलना में पीछे हैं। वैज्ञानिकों-इंजीनियरों की संख्या के अनुसार भारत का विश्व में तीसरा स्थान है, लेकिन वैज्ञानिक साहित्य में पश्चिमी वैज्ञानिकों का बोलबाला है ऐसे समय में प्रोफेसर राव ने पश्चिम के एकाधिकार को तोड़ते हुए शोध पत्रों के प्रकाशन के साथ साथ शोध और अनुसंधान के क्षेत्र में भारत का नाम रोशन किया । उनकी सफलता असाधारण है ।

प्रोफेसर सीएनआर राव का जन्म 30 जून 1934 को बेंगलूर में हुआ था। 1951 में मैसूर विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद बीएचयू से मास्टर डिग्री ली। अमेरिकी पोडरू यूनिवर्सिटी से पीएचडी करने के बाद 1961 में मैसूर विश्वविद्यालय से डीएससी की डिग्री हासिल की। 1963 में आइआइटी कानपुर के रसायन विभाग से फैकल्टी के रूप में जुड़कर करियर की शुरुआत की । 1984-1994 के बीच इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के निदेशक रहे। ऑक्सफोर्ड, कैंब्रिज समेत अनेक विश्वविद्यालयों में विजिटिंग प्रोफेसर रहे हैं। वो इंटरनेशनल सेंटर ऑफ मैटिरियल साइंस के भी निदेशक रहे। रसायन शास्त्र की गहरी जानकारी रखने वाले राव फिलहाल बंगलौर स्थित जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस्ड साइंटिफिक रिचर्स में कार्यरत हैं। डॉ. राव न सिर्फ न केवल बेहतरीन रसायनशास्त्री हैं बल्कि उन्होंने देश की वैज्ञानिक नीतियों को बनाने में भी अहम भूमिका निभाई है।
विलक्षण प्रतिभा के धनी है प्रोफेसर सीएनआर राव
हरिभूमि 
राव के एक वैज्ञानिक के रूप में पांच दशकों के करियर में 1400 से अधिक शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं। दुनियाभर की प्रमुख वैज्ञानिक संस्थाएं, रसायन शास्त्र के क्षेत्र में उनकी मेधा का लोहा मानती हैं। वे  उन चुनिंदा वैज्ञानिकों में एक हैं जो दुनिया के सभी प्रमुख वैज्ञानिक अकादमी के सदस्य हैं। सीवी रमन, पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के बाद राव इस सर्वोच्च सम्मान को पाने वाले तीसरे भारतीय वैज्ञानिक हैं। राव को दुनिया के 60 विश्वविद्यालयों से डाक्टरेट की मानद उपाधि मिल चुकी है और भारतीय वैज्ञानिक समुदाय में वह एक आइकन की तरह देखे जाते हैं। । किसी वैज्ञानिक  के मूल्यांकन के लिए सिर्फ उसका एच-इंडेक्स ही काफी नहीं है बल्कि उसके कितने शोध पत्रों को दृष्टांत के रूप में उल्लेख किया गया है यब भी बहुत मायने रखता है । इस मामले में भी  प्रोफेसर राव दुनिया के कुछेक चुनिंदा वैज्ञानिकों में ऐसे एकमात्र भारतीय हैं जिनके शोध पत्र का दृष्टांत के तौर पर वैज्ञानिकों ने लगभग 50 हजार बार के करीब उल्लेख किया है। 
प्रोफेसर राव ठोस अवस्था, संरचनात्मक और मैटेरियल रसायन के क्षेत्र में दुनिया के जाने-माने रसायन शास्त्री हैं । भारत सरकार ने उन्हें 1974 में पदमश्री और 1985 में पदमविभूषण से सम्मानित किया। वर्ष 2000 में रायल सोसायटी ने उन्हें ह्युजेज पुरस्कार से सम्मानित किया वर्ष 2004 में भारतीय विज्ञान पुरस्कार पाने वाले पहले भारतीय बने । भारत-चीनी विज्ञान सहयोग को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाने के लिए उन्हें इसी साल जनवरी, 2013 में चीन के सर्वश्रेष्ठ विज्ञान पुरस्कार से सम्मानित किया गया । प्रोफेसर राव ने ट्रांजीशन मेटल ऑक्साइड सिस्टम, (मेटल-इंसुलेटर ट्रांजीशन, सीएमआर मैटेरियल, सुपरकंडक्टिविटी, मल्टीफेरोक्सि), हाइब्रिड मैटेरियल, नैनोट्यूब और ग्राफीन समेत नैनोमैटेरियल और हाइब्रिड मैटेरियल के क्षेत्र में काफी शोध और अनुसंधान कार्य किये । प्रोफेसर राव सॉलिड स्टेट और मैटेरियल केमिस्ट्री में अपनी विशेषज्ञता की वजह से जाने जाते हैं। उन्होंने पदार्थ के गुणों और उनकी आणविक संरचना के बीच बुनियादी समझ विकसित करने में अहम भूमिका निभाई है।
लोकमत समाचर 
भारत को अंतरिक्ष विज्ञान में आकाश की अनंत बुलंदी पर पहुँचाने वाले मंगल अभियान में भी उन्होंने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया । विज्ञान के क्षेत्र में भारत की नीतियों को गढ़ने में अहम भूमिका निभाने वाले राव, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की वैज्ञानिक सलाहकार परिषद के भी सदस्य थे। इसके बाद उन्होंने प्रधानमंत्री राजीव गांधी, एचडी दैवेगोड़ा, और आईके गुजराल के कार्यकाल में भी परिषद से जुड़े रहें । राव की मेधा और लगन का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके साथ काम करने वाले अधिकतर वैज्ञानिक सेवानिवृत्त हो चुके हैं, लेकिन वे 79 साल की उम्र में भी सक्रिय हैं और प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह की वैज्ञानिक सलाहकार परिषद में अध्यक्ष के तौर पर अपनी सेवाएं दे रहे हैं । 
दुनिया में अब वैज्ञानिक और तकनीकी ज्ञान आर्थिक स्त्रोत के उपकरण बन गए हैं। किसी भी देश की वैज्ञानिक और तकनीकी क्षमता उसकी आर्थिक प्रगति का पैमाना बन चुकी है। दुनिया के ज्यादातर विकसित देश वैज्ञानिक शोध को बढ़ावा देने के लिए अपने रिसर्च फंड का 30 प्रतिशत तक यूनिवर्सिटीज को देते हैं, मगर अपने देश में यह प्रतिशत सिर्फ छह है। उस पर ज्यादातर यूनिवर्सिटीज के अंदरूनी हालात ऐसे हो गए हैं कि वहां शोध के लिए स्पेस काफी कम रह गया है। वैज्ञानिक शोध पत्रों के प्रकाशन में भी भारत की स्तिथि बहुत अच्छी नहीं है । इसको सुधारने के लिए सरकार को तुरंत ध्यान देना होगा । देश में प्रोफेसर सीएनआर राव जैसे कई वैज्ञानिक पैदा करने के लिए इस शोध के लिए नया माहौल और समुचित फंड देने की जरुरत है ।
कुलमिलाकर विज्ञान के क्षेत्र में प्रोफेसर सीएनआर राव का योगदान अभूतपूर्व है और उनको देश का सर्वोच्च सम्मान  भारत रत्न देने के फैसले से देश में वैज्ञानिक शोध और अनुसंधान को प्रोत्साहन भी मिलेगा । इससे देश में वैज्ञानिक चेतना का माहौल बनाने में भी मदत मिलेगी ।
article link
http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-pioneers-of-research-10872828.html

Friday, 8 November 2013

विज्ञान पत्रकारिता से गायब है विशेषज्ञ लेखन

मीडिया में मंगल अभियान की स्तरीय कवरेज ना होने पर आशीष कुमार के विचार 

हिंदी पत्रकारिता में विशेषज्ञ लेखन की स्थिति सोचनीय है। हिंदी प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रानिक मीडिया दोनों में ही विशेषज्ञ पत्रकारों की संख्या नगण्य है। विज्ञान, रक्षा, पर्यावरण, विदेश नीति, अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम और आर्थिक मामलों का कवरेज करते समय अक्सर गुणवत्ता में कमी देखने को मिलती है। भारत के मंगल अभियान कवरेज के दौरान भी हिंदी अखबारों और न्यूज चैनलों में विज्ञान पत्रकारिता के संबंध में विशेषज्ञता की कमी दिखाई दी।          अधिकांश हिंदी न्यूज चैनल और अखबारों ने मंगल अभियान को केवल खबरों तक ही सीमित रखा। अखबारों में छपे विशेष लेखनों में भी गुणवत्ता की कमी दिखाई दी। समाचार चैनलों पर इंटरनेट से चुराए गए विदेशी स्पेस एजेंसियों के ग्राफिक्स व एनिमेशन दिखाए जा रहे थे। कुछ पर तो ग्राफिक्स भी घटना का गलत चित्रण कर रहे थे, जिसमें मंगल मिशन सेटेलाइट और उपकरणों को मंगल की सतह पर उतरता हुए दिखाया जा रहा था। जबकि भेजे गए उपकरण केवल मंगल की परिक्रमा करेंगे। किसी ने भी गहराई से तकनीकी पक्षों के बारे में बात नहीं की। कोई भारत को विश्व में तीसरा, कोई चौथा व कोई पांचवा देश बता रहा था, जिसने मंगल ग्रह की ओर अपना मानव रहित अंतरिक्ष यान भेजा है। समाचार चैनलों के तथ्यों में भी भिन्नता देखने को मिल रही थी। मंगल यान की लांचिंग के बाद किसी ने कहा कि भारत को अपना मंगल यान पीएसएलवी से न भेजकर जीएसएलवी के जरिए भेजना चाहिए था, तो किसी भी समाचार चैनल ने पीएसएलवी व जीएसएलवी के तकनीकी पक्षों के अंतर को विशेषज्ञों के जरिए स्पष्ट कराने की कोशिश नहीं की थी। आम हिंदी भाषी दर्शक व पाठक भी देश को गौरवान्वित करने वाले इस घटनाक्रम के संबंध में गहराई से जानना चाहता था, लेकिन सभी को केवल उथली सूचना ही मिलीं। वहीं, एक चैनल पर एनएसी के पूर्व सदस्य हर्ष मंदर कह रहे थे कि भारत ने बेवजह मंगल मिशन पर 480 करोड़ रुपये खर्च किए हैं। देश को मंगल पर जाने की जगह गरीबों पर ध्यान देना चाहिए, उनकी गरीबी दूर करनी चाहिए। उनके समर्थन में एकाध पत्रकार ने भी हामी भरी। हर्ष मंदर व उनको समर्थन करने वाले पत्रकारों को पता होना चाहिए की अंतरिक्ष के क्षेत्र में काम करने वाली इसरो जैसी संस्था कृषि, मौसम, पर्यावरण, संचार आदि के क्षेत्र में भी काम करती है। एक क्षेत्र की सूचनाएं दूसरे क्षेत्र में काम आती हैं। मौसम की पूर्व घोषणा कृषि के पैदावार के लिए सहायक होती है। मौसम की पूर्व घोषणा व संचार तकनीक के सहारे ही उड़ीसा में आए फेलिन से हजारों लोगों के जान माल को बचाया जा सका। हर्ष मंदर के आधारहीन तर्कों का मीडिया में आना और नगण्य ही सही, समर्थन मिलना मेन स्ट्रीम इलेक्ट्रानिक मीडिया में विज्ञान के विशेषज्ञ पत्रकारों की घोर कमी को दर्शाता है।        
विशेषज्ञता की कमी केवल विज्ञान पत्रकारिता के मामले में ही नहीं है बल्कि रक्षा, आर्थिक, पर्यावरण मसले पर भी यह बराबर लागू होती है। पाकिस्तान व चीन के संबंध में युद्ध उन्मादी पत्रकारिता जैसा वातावरण दिखने को मिलता है। वहीं, आर्थिक पत्रकारिता के मसले पर हिंदी समाचार चैनलों व अखबारों का लगभग समान हाल है। विशुध्द आर्थिक पत्रकारिता करने वाले अंग्रेजी के छह समाचार पत्र निकलते हैं वहीं हिंदी का केवल एक। भारत में छह बिजनेस चैनल हैं, जिसमें चार अंग्रेजी के व दो हिंदी के। हिंदी के बिजनेस चैनलों व अखबारों की सामग्री की गुणवत्ता में या तो कमी दिखाई देगी या अंग्रेजी से उधार ली हुई।       ऐसा नहीं है कि विशेषज्ञता से परिपूर्ण सामग्री चाहने वाले पाठकों की कमी है। किसी भी घटना व मुद्दे पर गहराई से जानने की इच्छा रखने वाला एक बड़ा पाठक वर्ग है, लेकिन उसे उस स्तर की सामग्री नहीं मिल पाती है। इस मामले में समाचार पत्र भी गंभीर नहीं दिखाई देते हैं। सबसे बड़ी बात उनके स्टाफ में विशेषज्ञ पत्रकारों का कमी होना है। बड़ी-बड़ी समाचार संस्थाओं में भी भर्ती प्रक्रिया के दौरान इस ओर ध्यान दिया नहीं दिया जाता है। उनकी नजर में journalist  एक generalist होता है। समय-समय बीट के अनुसार संबंधित पत्रकारों को ट्रेनिंग के लिए भी कोई विशेष व्यवस्था नहीं होती है। एक-एक करोड़ का सर्कुलेशन बताने वाले अखबारों का भी विशेषज्ञ लेखन के मामले में कमोबेश यही हाल है। उनके यहां भी विशेषज्ञ पत्रकारों का घोर अभाव है। मैंनेजमेंट भी इस ओर कोई ध्यान नहीं देता है, उनके अनुसार वे पत्रकारिता में नहीं, बल्कि किसी भा तरह मुनाफा देने वाले खबरों के धंधे में हैं। (ref-bhadas.com) 

Monday, 23 April 2012

विज्ञान लेखन पर


विज्ञान' शब्द पर प्रारंभ से ही एक विशिष्ट वर्ग का एकाधिकार ही देखा गया है. यही कारण है कि आम जनमानस  सामान्यतः इसे एक आकाशकुसुम की तरह ही, सम्मान से मगर एक दूरी से ही देखता है. इस प्रवृत्ति ने एक विषय के रूप में विज्ञान को गरिमा तो दी है, मगर आम जनों से दूरी इसके दीर्घकालीन भविष्य के दृष्टिकोण से उचित नहीं कही जा सकती.
विज्ञान और विज्ञान लेखन की दशा में दिनों-दिन उन्नयन ने आज इसे एक महत्त्वपूर्ण मुकाम पर ला पहुँचाया है, किन्तु इसकी जनस्वीकृति सुनिश्चित करने हेतु विज्ञान लेखकों को ही आगे आ इसकी दिशा सुनिश्चित करने की जरुरत है.
इस दिशा में सबसे महत्वपूर्ण तत्त्व है इसकी भाषा. भाषा में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि क्लिष्ट विषयों की व्याख्या में प्रयुक्त भाषा और आम बोलचाल की  भाषा में काफी फर्क होता है. संस्कृत, अंग्रेजी जैसी विशिष्ट भाषाओँ में ही विज्ञान साहित्य की उपलब्धता इसकी लोकस्वीकृति में बाधक है. जनता को उसीकी भाषा में विज्ञान को पहुँचने के लिए कुलीन संकोच को तोड़ना होगा; तभी विज्ञान में स्वतंत्र चिंतन और लोक भागीदारी का संयोजन सुनिश्चित हो सकेगा.
आम तौर पर विज्ञान लेखन मूलतः ऐसे विषयों के इर्द-गिर्द ही घूमता रहता है, जो आम जनता को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित नहीं करते. विज्ञान को आम जनता के सरोकारों से जोड़ने की जरुरत है, और विज्ञान लेखक इस दायित्व को ज्यादा बेहतर ढंग से निभा सकते हैं.
नई पीढी और बच्चों में विज्ञान के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए इसे जटिल व्याख्याओं के बंधन से मुक्त करना होगा. इसी पीढी के हाथों में ही न सिर्फ विज्ञान लेखन बल्कि विज्ञान जगत का भी भविष्य है. इसलिए इन्हें स्वयं से जोड़ने के लिए इसमें लचीलापन लाना होगा.
अकादमिक संस्थाओं के माध्यम से भी विज्ञान लेखन को दृढ़ता देने के प्रयास सुनिश्चित करने होंगे. किसी शोधार्थी का मूल्यांकन सिर्फ उसके शोध प्रबंध से प्रकाशित शोधपत्रों से ही नहीं, बल्कि विज्ञान को आम जनता के बीच पंहुचाने में सफलता के पैमाने पर रखकर भी होना चाहिए. इस दिशा में शोध निर्देशकों को भी सकारात्मक भूमिका निभाने को प्रेरित किया जाना चाहिए. अकादमिक जगत की सक्रियता विज्ञान लेखन की स्थिरता सुनिश्चित करने में अत्यंत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है.
निष्कर्षतःविज्ञान लेखन की दिशा विज्ञान को प्रयोगशालाओं तथा अकादमिक जकड़न से मुक्ति दिलाने और आम जन तक सुलभ बनाने की ओर ही होनी चाहिए.