मीडिया में मंगल अभियान की स्तरीय कवरेज ना होने पर आशीष कुमार के विचार
हिंदी
पत्रकारिता में विशेषज्ञ लेखन की स्थिति सोचनीय है। हिंदी प्रिंट मीडिया हो या
इलेक्ट्रानिक मीडिया दोनों में ही विशेषज्ञ पत्रकारों की संख्या नगण्य है। विज्ञान, रक्षा, पर्यावरण, विदेश नीति,
अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम और आर्थिक मामलों का कवरेज करते समय अक्सर
गुणवत्ता में कमी देखने को मिलती है। भारत के मंगल अभियान कवरेज के दौरान भी हिंदी
अखबारों और न्यूज चैनलों में विज्ञान पत्रकारिता के संबंध में विशेषज्ञता की कमी
दिखाई दी। अधिकांश हिंदी न्यूज चैनल और
अखबारों ने मंगल अभियान को केवल खबरों तक ही सीमित रखा। अखबारों में छपे विशेष
लेखनों में भी गुणवत्ता की कमी दिखाई दी। समाचार चैनलों पर इंटरनेट से चुराए गए
विदेशी स्पेस एजेंसियों के ग्राफिक्स व एनिमेशन दिखाए जा रहे थे। कुछ पर तो
ग्राफिक्स भी घटना का गलत चित्रण कर रहे थे, जिसमें मंगल
मिशन सेटेलाइट और उपकरणों को मंगल की सतह पर उतरता हुए दिखाया जा रहा था। जबकि
भेजे गए उपकरण केवल मंगल की परिक्रमा करेंगे। किसी ने भी गहराई से तकनीकी पक्षों
के बारे में बात नहीं की। कोई भारत को विश्व में तीसरा, कोई
चौथा व कोई पांचवा देश बता रहा था, जिसने मंगल ग्रह की ओर
अपना मानव रहित अंतरिक्ष यान भेजा है। समाचार चैनलों के तथ्यों में भी भिन्नता
देखने को मिल रही थी। मंगल यान की लांचिंग के बाद किसी ने कहा कि भारत को अपना
मंगल यान पीएसएलवी से न भेजकर जीएसएलवी के जरिए भेजना चाहिए था, तो किसी भी समाचार चैनल ने पीएसएलवी व जीएसएलवी के तकनीकी पक्षों के अंतर
को विशेषज्ञों के जरिए स्पष्ट कराने की कोशिश नहीं की थी। आम हिंदी भाषी दर्शक व
पाठक भी देश को गौरवान्वित करने वाले इस घटनाक्रम के संबंध में गहराई से जानना
चाहता था, लेकिन सभी को केवल उथली सूचना ही मिलीं। वहीं,
एक चैनल पर एनएसी के पूर्व सदस्य हर्ष मंदर कह रहे थे कि भारत ने
बेवजह मंगल मिशन पर 480 करोड़ रुपये खर्च किए हैं। देश को
मंगल पर जाने की जगह गरीबों पर ध्यान देना चाहिए, उनकी गरीबी
दूर करनी चाहिए। उनके समर्थन में एकाध पत्रकार ने भी हामी भरी। हर्ष मंदर व उनको
समर्थन करने वाले पत्रकारों को पता होना चाहिए की अंतरिक्ष के क्षेत्र में काम
करने वाली इसरो जैसी संस्था कृषि, मौसम, पर्यावरण, संचार आदि के क्षेत्र में भी काम करती है।
एक क्षेत्र की सूचनाएं दूसरे क्षेत्र में काम आती हैं। मौसम की पूर्व घोषणा कृषि
के पैदावार के लिए सहायक होती है। मौसम की पूर्व घोषणा व संचार तकनीक के सहारे ही
उड़ीसा में आए फेलिन से हजारों लोगों के जान माल को बचाया जा सका। हर्ष मंदर के
आधारहीन तर्कों का मीडिया में आना और नगण्य ही सही, समर्थन
मिलना मेन स्ट्रीम इलेक्ट्रानिक मीडिया में विज्ञान के विशेषज्ञ पत्रकारों की घोर
कमी को दर्शाता है।
विशेषज्ञता की कमी केवल
विज्ञान पत्रकारिता के मामले में ही नहीं है बल्कि रक्षा, आर्थिक,
पर्यावरण मसले पर भी यह बराबर लागू होती है। पाकिस्तान व चीन के
संबंध में युद्ध उन्मादी पत्रकारिता जैसा वातावरण दिखने को मिलता है। वहीं,
आर्थिक पत्रकारिता के मसले पर हिंदी समाचार चैनलों व अखबारों का
लगभग समान हाल है। विशुध्द आर्थिक पत्रकारिता करने वाले अंग्रेजी के छह समाचार
पत्र निकलते हैं वहीं हिंदी का केवल एक। भारत में छह बिजनेस चैनल हैं, जिसमें चार अंग्रेजी के व दो हिंदी के। हिंदी के बिजनेस चैनलों व अखबारों
की सामग्री की गुणवत्ता में या तो कमी दिखाई देगी या अंग्रेजी से उधार ली हुई। ऐसा नहीं है कि विशेषज्ञता से परिपूर्ण सामग्री चाहने वाले पाठकों की कमी
है। किसी भी घटना व मुद्दे पर गहराई से जानने की इच्छा रखने वाला एक बड़ा पाठक
वर्ग है, लेकिन उसे उस स्तर की सामग्री नहीं मिल पाती है। इस
मामले में समाचार पत्र भी गंभीर नहीं दिखाई देते हैं। सबसे बड़ी बात उनके स्टाफ
में विशेषज्ञ पत्रकारों का कमी होना है। बड़ी-बड़ी समाचार संस्थाओं में भी भर्ती
प्रक्रिया के दौरान इस ओर ध्यान दिया नहीं दिया जाता है। उनकी नजर में journalist
एक generalist होता है। समय-समय बीट के
अनुसार संबंधित पत्रकारों को ट्रेनिंग के लिए भी कोई विशेष व्यवस्था नहीं होती है।
एक-एक करोड़ का सर्कुलेशन बताने वाले अखबारों का भी विशेषज्ञ लेखन के मामले में
कमोबेश यही हाल है। उनके यहां भी विशेषज्ञ पत्रकारों का घोर अभाव है। मैंनेजमेंट
भी इस ओर कोई ध्यान नहीं देता है, उनके अनुसार वे पत्रकारिता
में नहीं, बल्कि किसी भा तरह मुनाफा देने वाले खबरों के धंधे
में हैं। (ref-bhadas.com)
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