Showing posts with label Space. Show all posts
Showing posts with label Space. Show all posts

Saturday, 20 April 2019

ब्लैक होल के खुलते राज

"अगले 20 साल में खुल जाएंगे ब्रह्मांड के कई बड़े राज"
खगोल विज्ञानी प्रियंवदा नटराजन से राजेश मित्तल की बातचीत

पिछले हफ्ते गुरुवार को ब्लैक होल की पहली तस्वीर जारी हुई। यह ब्लैक होल हमारी धरती से करीब 30 लाख गुना बड़ा है। इससे विराट ब्रह्मांड की अनसुलझी गुत्थियां फिर से चर्चा में आ गई हैं। आइए, पहले हम ब्रह्मांड यानी यूनिवर्स के बारे में अपनी बुनियादी समझ दोहरा लेते हैं और फिर इसके बारे में एक शीर्ष विज्ञानी से बातचीत करते हैं।

हमारी धरती सूरज के चारों ओर घूमती है। दूसरे 7 ग्रह भी सूरज के चक्कर लगाते हैं। सूरज, उसके आठों ग्रहों (प्लैनेट्स), उनके चंद्रमाओं आदि को मिलाकर हम सौरमंडल (सोलर सिस्टम) कहते हैं। हमारे सूरज जैसे ढेरों तारे हैं जो हमें रात में आसमान में दिखाई देते हैं। इन तारों के समूह को आकाशगंगा (गैलक्सी) कहते हैं। हमारी वाली आकाशगंगा का नाम मंदाकिनी (मिल्की वे) है जिसमें हमारी धरती, हमारे वाला सूरज, दूसरे कई तारे, उनके ग्रह, उपग्रह, धुएं और धूल के विशाल बादल आदि शामिल हैं। कई आकाशगगाएं मिलकर कलस्टर बनाती हैं। कई कलस्टरों से मिलकर सुपर कलस्टर बनता है। कई सुपर कलस्टर मिलकर ब्रह्मांड (यूनिवर्स) का निर्माण करते हैं।

ब्रह्मांड में जब हम बेहतरीन से बेहतरीन दूरबीन (टेलिस्कोप) से देखते हैं तो ज्यादा से ज्यादा 13.8 अरब प्रकाशवर्ष पुरानी आकाशगंगाओं के दर्शन हमें होते हैं। लेकिन इससे यह नतीजा निकालना गलत होगा कि यह ब्रह्मांड 13.8 अरब प्रकाशवर्ष बड़ा है। वजह, ब्रह्मांड लगातार फैल रहा है। इसलिए 13.8 अरब वर्ष पुरानी जो आकाशगगाएं हम देख रहे होते हैं, असल में वे आकाशगगाएं इस समय खिसक कर हमसे करीब 46.5 अरब प्रकाशवर्ष दूर जा चुकी होती हैं। यानी वर्तमान में ब्रह्मांड का फैलाव 46.5 अरब प्रकाशवर्ष (93 अरब प्रकाशवर्ष व्यास) तक हो चुका है। प्रकाशवर्ष वह पैमाना है जिसके जरिए हम लंबी दूरियां नापते हैं। प्रकाशवर्ष से इसलिए कि इस ब्रह्मांड में सबसे तेज रफ्तार रोशनी की है। रोशनी 1 सेकंड में करीब 3 लाख किलामीटर का फासला तय कर लेती है। एक साल में रोशनी जितनी दूरी तय करती है, उसे पैमाना बनाकर दूरी को प्रकाशवर्ष में नापा जाता है। तो 93 अरब प्रकाशवर्ष बड़ा ब्रह्मांड भी ब्रह्मांड की सीमा नहीं है। पूरा ब्रह्मांड हमें दिखाई देने वाले ब्रह्मांड से काफी बड़ा है। इसका कोई ओर-छोर नहीं। यह ब्रह्मांड अनंत है। ऐसा माना जाता है कि हमारे ब्रह्मांड जैसे भी ढेरों ब्रह्मांड हैं।

हमारे वाला ब्रह्मांड कैसे बना, इस बारे में अंतिम रूप से प्रमाणित तथ्य फिलहाल विज्ञान के पास नहीं हैं। कई थिअरी हैं। सबसे स्थापित थिअरी बिग बैंग को ब्रह्मांड का शुरुआती चरण मानती है। इसके मुताबिक, किसी वक्त ब्रह्मांड एक परमाणु से भी छोटा था। सूक्ष्म बिंदु में करीब 140 करोड़ साल पहले महाविस्फोट हुआ। इसे ही बिग बैंग कहते हैं। विस्फोट से बिंदु टुकड़े-टुकड़े होकर इधर-उधर छिटकने लगा। इसी से ब्रह्मांड की शुरुआत हुई। आकाशगंगाएं, तारे, ब्लैक होल, ग्रह आदि बने। लेकिन ब्रह्मांड के फैलने का सिलसिला अब भी लगातार जारी है। लगता था कि एक समय इसका फैलना बंद हो जाएगा और यह वापस एक बिंदु में समा जाएगा। लेकिन 1998 में हबल टेलीस्कोप की वजह से पता चला कि ब्रह्मांड जिस रफ्तार से यह फैल रहा है, वह रफ्तार भी लगातार बढ़ रही है। यानी कोई बाहरी ताकत है। वैज्ञानिकों का मानना है कि एेसा डार्क एनर्जी के कारण हो रहा है। यह डार्क एनर्जी हमारे आसपास हर जगह मौजूद है। पर यह हमें दिखाई नहीं देती। इसीलिए इसे हम डार्क कहते हैं। इसे हम न तो माप सकते हैं और न ही इसकी जांच कर सकते हैं। हां, इसका असर हमें महसूस होता है। यह खाली जगहों पर पाई जाती है।

दरअसल यह ब्रह्मांड जितना हमें दिखता है, वह समूचे ब्रह्मांड का सिर्फ 5 फीसदी हिस्सा ही है। बाकी 95 फीसदी अदृश्य है। इसमें से डार्क एनर्जी 68 फीसदी है। बाकी 27 फीसदी डार्क मैटर है जिसे सन 1933 में खोजा गया था। यह अणु-परमाणु से न बना होकर ऐसे जटिल और अनोखे कणों से बना है जिनके बारे में हमें अभी तक पता नहीं चला है। इस ब्रह्मांड में जितनी भी चीजें हमें दिखाई देती हैं, वे सब या तो खुद रोशनी फेंकती हैं या फिर रोशनी रिफ्लेक्ट करती हैं लेकिन डार्क मैटर ये दोनों ही काम नहीं करता। इसलिए इसे देखना मुमकिन नहीं। तभी यह डार्क मैटर कहलाता है। पर इसका असर दिखता है। दरअसल डार्क मैटर ही इतनी ताकतवर ग्रेविटी पैदा करता है कि हर आकाशगंगा के सभी तारे उसी आकाशगंगा में बंधे रहते हैं। वे इधर-उधर नहीं बिखरते।

कुल मिलाकर डार्क मैटर ब्रह्मांड को बांधे रखने का काम करता है जबकि डार्क एनर्जी ब्रह्मांड का लगातार विस्तार करती रहती है। इस वजह से हर आकाशगंगा का एक-दूसरे से फासला बढ़ता जाता है। इसी ब्रह्मांड में ब्लैक होल नाम की ऐसी चीज भी है जो अपने दायरे में आने वाली हर चीज को निगल जाती है। ऐसा उसकी ग्रैविटी के जबरदस्त खिंचाव के कारण होता है। इस पर भौतिकी के नियम लागू नहीं होते। ब्लैक होल के बाहरी हिस्से को इवेंट हॉराइज़न कहते हैं। ब्लैक होल की खोज सन 1964 में हुई थी। इसे हम अंतरिक्ष में बनी गहरी खाई भी कह सकते हैं। जैसे चादर में छेद, जैसे मौत का कुआं, जैसे कुप्पी की बनावट, जैसे पानी से भरी बाल्टी में हाथों से घुमाकर बनाया गया भंवर।

पूरे ब्रह्मांड में अलग-अलग आकार के ढेरों ब्लैक होल हैं, पर हमारे सौरमंडल में कोई ब्लैकहोल नहीं है। हां, हमारी आकाशगंगा के बीचोबीच एक विराट ब्लैक होल है जो हमारे सूर्य से करीब 1 करोड़ गुना बड़ा है।

ब्लैक होल कैसे बने, इस बारे में दो थिअरी हैं। एक थिअरी यह कि जब कोई विशाल तारा खत्म होने को होता है तो वह अपने अंदर ही सिमटने लगता है। कुछ वक्त बाद वह ब्लैक होल बन जाता है। दूसरी थिअरी यह कि ब्लैक होल बिग बैंग के बाद बना पहला आकाशीय पिंड है। सबसे पहले ब्लैक होल बना। ब्लैक होल से ही विभिन्न तारे बने। तारों से ग्रह, उपग्रह आदि बने।

ब्लैक होल में गिरने के बाद चीज़ें कहां जाती हैं, इसका अभी तक पता नहीं चल पाया है। वजह यह कि ब्लैक होल रोशनी को अपने अंदर जज्ब कर लेता है। रिफ्लेक्ट नहीं करता। तभी उस पर रोशनी डालने पर भी घुप्प अंधेरे के अलावा दूसरा कुछ दिखाई नहीं देता। इसलिए ब्लैक होल का कोई फोटो सीधे-सीधे लेना मुमकिन ही नहीं। हाल में इसका पहला फोटो जिसे बताया गया है, वह दरअसल कंप्यूटर से बना एक वर्चुअल फोटो है जो 8 बड़ी रेडियो दूरबीनों से मिले डेटा के आधार पर बना है। फिर भी यह विज्ञान की बड़ी कामयाबी है। ब्लैक होल के बारे में कई जरूरी सवालों का जवाब मिलना अभी बाकी है। मसलन, ब्लैक होल में गिरी चीज़ें क्या किसी दूसरे डाइमेंशन में चली जाती हैं? क्या ब्लैक होल दूसरे डाइमेंशंस में जाने का दरवाज़ा है? कहीं हम किसी दूसरी दुनिया, किसी दूसरे ब्रह्मांड में तो नहीं पहुंच जाएंगे? जैसे ब्लैक होल हैं, वैसे ही क्या वाइट होल भी अंतरिक्ष में हैं?

इन्हीं तरह के सवालों के जवाब पाने के लिए स्विट्जरलैंड की सर्न लैब में इन दिनों कई प्रयोग हो रहे हैं। दुनिया की यह सबसे बड़ी लैब फ्रांस-स्विट्जरलैंड सीमा पर 27 किलोमीटर लंबी सुरंग में बनी हुई है। यहां अरबों डॉलर का खर्चा करके लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर नाम की महामशीन लगाई गई है। इसकी मदद से यह पता लगाया जाएगा कि ब्रह्मांड किन हालात में बना था। उन हालात को पैदा करके स्टडी करने की कोशिश की जा रही है। इस प्रयोग में भारत समेत दुनिया भर के करीब सौ देशों के हज़ारों वैज्ञानिक हिस्सा ले रहे हैं। सर्न लैब से ही गॉड पार्टिकल यानी हिग्स बोसोन होने के ठोस सबूत सन 2012 में मिले थे। आजकल यहां डार्क मैटर पर प्रयोग चल रहे हैं। उम्मीद है कि ब्रह्मांड से जुड़ी कई पहेलियां जल्दी ही सुलझ जाएंगी।

इंटरव्यू...............................

अनंत ब्रह्मांड की जटिल गुत्थियों को बारीकी से समझने के लिए राजेश मित्तल ने प्रियंवदा नटराजन से पिछले दिनों जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के दौरान बातचीत की। प्रियंवदा अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी में एस्ट्रॉनमी की प्रफेसर हैं। अपनी रिसर्च से उन्होंने ब्लैक होल और डार्क मैटर के बारे में दुनिया की समझ बढ़ाने में अहम योगदान किया है। पेश हैं उनसे बातचीत के खास हिस्सेः

Q. ब्रह्मांड के बारे में हमें अब तक क्या पता है और क्या नहीं पता?
A. हमें पता है कि ब्रह्मांड कैसे शुरू हुआ, वक्त बीतने के साथ किस तरह इसका विस्तार हुआ। हमें मालूम है कि इस ब्रह्मांड का सिर्फ 5 फीसदी हिस्सा ही नॉर्मल मैटर से बना है, 68 फीसदी हिस्सा डार्क एनर्जी है और 27 फीसदी डार्क मैटर। हमें यह भी पता है कि डार्क एनर्जी कार के एस्केलेटर की माफिक ब्रह्मांड फैलने की रफ्तार बढ़ा रही है। पर यह नहीं पता कि असल में यह है क्या। अगर यह पता चल जाए तो अतीत, वर्तमान और भविष्य की तमाम गुत्थियां खुल सकती हैं। आखिर में इस ब्रह्मांड का क्या होगा, यह इस बात पर तय होगा कि डार्क एनर्जी असल में क्या है । इसी तरह हमें डार्क मैटर का पता है कि यह ग्रैविटी पैदा करता है, पर यह जानकारी नहीं है कि डार्क मैटर बना किससे है।

Q. डार्क एनर्जी और डार्क मैटर की प्रकृति के अलावा और किन सवालों के जवाब कॉस्मोलजी फिलहाल खोज रही है?
A. बिग बैंग से पहले क्या था? किन हालात में बिग बैंग शुरू हुआ और क्यों? पहली आकाशगंगा कैसे बनी? पहला ब्लैक होल कैसे बना?

Q. इन सवालों का जवाब कब तक मिलने के आसार हैं?
A. उम्मीद है कि 20 बरस में। अभी हम सुनहरे दौर से गुज़र रहे हैं। आज हमारे पास सभी ज़रूरी उपकरण और डेटा हैं। हां, पूरे ब्रह्मांड की पहेली को सुलझाने में कई सदियां लग सकती हैं। सुलझेंगी या नहीं, यह भी पक्के तौर पर नहीं कह सकते।

Q. कॉस्मोलजी से जुड़ीं कौन-सी गलत धारणाएं आम प्रचलित हैं?
A. एक तो यह कि इस ब्रह्मांड का कोई केंद्र है। सचाई यह है कि ब्रह्मांड का कोई केंद्र नहीं है। दूसरी गलत धारणा यह है कि ब्रह्मांड कुछ और बनने के लिए फैल रहा है जबकि सचाई यह है कि ब्रह्मांड फैल तो रहा है लेकिन कुछ अलग बनने के लिए नहीं। अक्सर एक मिसाल दी जाती है गुब्बारे के फैलने की। ब्रह्मांड वैसे ही फैल रहा है, जैसे हवा भरने पर गुब्बारा फैलता जाता है। लेकिन यह तुलना एक सीमा तक ही सही है। गुब्बारा जैसे-जैसे फूलता है, वह बाहर हवा की जगह को घेरता है, पर ब्रह्मांड खुद में फैलता है। उसका विस्तार किसी बाहरी इलाके में नहीं होता।

Q. ब्रह्मांड लगातार फैलता ही जा रहा है लेकिन दिल्ली-मुंबई का फासला तो ज्यों का त्यों है?
A. ब्रह्मांड फैल तो रहा है, इससे आकाशगंगाओं के बीच की दूरी भी बढ़ रही है, लेकिन उनका आकार नहीं बढ़ रहा। ऐसे में हमारी वाली आकाशगंगा में स्थित दिल्ली-मुंबई में दूरी भी नहीं बदलेगी। इसे अच्छी तरह यों भी समझ सकते हैं कि आकाशगंगाएं बंद बक्सों की माफिक हैं। इन बक्सों के बीच दूरी तो बढ़ रही है, पर बक्सों का आकार उतना ही है।

Q. आजकल समानांतर ब्रह्मांड की भी बात हो रही है?
A. हां, इस थिअरी में माना जाता है कि हमारे ब्रह्मांड में जो कुछ भी है, उसका प्रतिरूप समानांतर ब्रह्मांडों में मौजूद है। हमारी ज़िंदगी में जो कुछ भी घट सकता है, वह सब दूसरे ब्रह्मांडों में घटित हो रहा है। मसलन, अभी राजेश यहां मेरा इंटरव्यू ले रहे हैं, किसी दूसरे ब्रह्मांड में मुमकिन है कि प्रियंवदा राजेश का इंटरव्यू ले रही हो और किसी तीसरे ब्रह्मांड में राजेश क्रिकेट खेल रहे हो सकते हैं। जितनी तरह की संभावनाएं हो सकती हैं, वे सब संभावनाएं दूसरे ब्रह्मांडों में वाकई हो रही हैं। लेकिन यह अभी आइडिया ही है। इसे अभी साबित नहीं किया जा सका है।

Q. क्या हम बुलबुले है - न पूर्वजन्म और न ही पुनर्जन्म?
A. मेरा पूर्वजन्म में विश्वास नहीं है, न ही अगले जन्म में।सचाई यह है कि पूरे ब्रह्मांड के सामने हम अप्रासांगिक हैं। हमारी कोई औकात नहीं है। अंतरिक्ष से जब हमारा सूरज भी धूल के कण से भी छोटा नज़र आता है तो वहां हमारा वजूद क्या होगा। हमारे चारों तरफ पृथ्वी की तरह के करीब 5000 ग्रह हैं। कहीं न कहीं ज़िंदगी होगी और यह ज़िंदगी ज़रूरी नहीं कि हमारी तरह हो। बहुत ही प्राथमिक स्तर का जीवन भी हो सकता है मछली जैसा या हमसे उन्नत प्राणी भी हो सकते हैं। लेकिन अपने ग्रह के हिसाब से हम कुछ प्रभावी हैं। और कुछ नहीं तो हमारे पास विनाश की क्षमता है। अंधाधुंध विकास की होड़ में हम अपने ग्रह को बर्बाद कर रहे हैं।

Q. आपने तो दर्शन की भी पढ़ाई की है। यह ब्रह्मांड क्यों बना है? इसके पीछे क्या मकसद है?
A. मकसद खोजने में मेरी कोई रुचि नहीं। हम यहां क्षण भर के लिए हैं। इस ब्रह्मांड को किसी प्रयोजन की ज़रूरत नहीं है। वह है तो है। प्रयोजन तो इंसानों को ढूंढना चाहिए।

Q. तो इंसानों का प्रायोजन क्या होना चाहिए?
A. यह कि हम खुद को बस अपने और अपने परिवार तक ही सीमित न रखें। दुनिया के लिए भी कुछ करके जाएं। इस दुनिया पर कोई अच्छा असर डाल कर जाएं। दूसरों की मदद करें।

Q. आपने ऐसा क्या किया है जिससे आपको संतुष्टि मिली हो, जीवन की सार्थकता मिली हो?
A. मेरे मन में बस यह है कि मेरे किसी आइडिया पर मेरे बाद में भी काम हो। ब्रह्मांड की कोई पहेली जब भी कभी सुलझे, उसमें कुछ योगदान मेरा भी हो।

Q. आपका अब तक का योगदान क्या है?
A. डार्क मैटर की मैपिंग करने में मैंने कुछ योगदान किया है। बताया है कि यह डार्क मैटर कितने टुकड़ों में बंटा हुआ है, इसकी बारीकियां क्या हैं, ब्लैक होल कैसे फैलते हैं। इस पर भी काम कर रही हूं कि पहला ब्लैक होल कैसे बना।

Q. ब्रह्मांड पर आप जो रिसर्च कर रही हैं, उसमें टेलीस्कोप के अलावा और किन-किन टूल्स का इस्तेमाल होता है?
A. हम लोग कंप्यूटरों का इस्तेमाल करते हैं।

Q. आम कम्प्यूटर या कोई सुपर कंप्यूटर?
A. अपनी रिसर्च के लिए सुपर कंप्यूटर का भी इस्तेमाल करती हूं और एक आम लैपटॉप का भी। पेंसिल-पेपर का भी इस्तेमाल होता है। इसके अलावा हबल और चंद्रा टेलीस्कोप से मिले डेटा का विश्लेषण करती हूं।

Q. क्या भारत में भी इन सब चीजों पर रिसर्च हो रही है?
A. 10 साल पहले तक भारत इस क्षेत्र में पिछड़ा हुआ था। बेसिक रिसर्च पर पैसे खर्च नहीं किए जा रहे थे। दरअसल बेसिक रिसर्च का कोई फौरी फायदा नहीं होता। मानव जिज्ञासा शांत करने के लिए यह की जाती है।
लेकिन अब भारत में भी बेसिक रिसर्च पर काफी खर्चा किया जा रहा है। सभी अहम प्रोजेक्टों में भारत भाग ले रहा है। ब्लैक होल्स की स्टडी के लिए तीसरा लीगो डिटेक्टर भारत में ही बनाया जा रहा है जो 2025 में काम करने लगेगा। आजकल जो भी रिसर्च हो रही है, उसे कोई एक देश अपने बलबूते पर नहीं करता। कई देश मिलकर करते हैं।

Q. हाल में किसी संस्था ने दुनिया के सौ शीर्ष वैज्ञानिकों की सूची तैयार की है। उसमें बहुत कम महिला वैज्ञानिक हैं। विशुद्ध विज्ञान की रिसर्च में महिलाएं काफी कम हैं। ऐसा क्यों?
A. बाहर भी ऐसा ही है। सभी संस्थाएं पुरुषों ने बनाई हैं। उन्होंने दूसरों को आने नहीं दिया। लेकिन अब स्थिति बदल रही है। सचाई यह है कि प्रतिभा सबके पास है, सब लोग एक प्रतिभा, किसी तोहफे के साथ पैदा होते हैं।लेकिन कुछ लोग किस्मत वाले होते हैं जिन्हें अपने इस तोहफे का इस्तेमाल करने का पूरा मौका मिलता है।ज़्यादातर लोगों को यह मौका नहीं मिलता है। यह स्थिति बदलनी चाहिए। हर बच्चे में जो जन्मजात प्रतिभा है, उसे पहचान कर उसे बढ़ावा देना होगा, उसे विकसित करना होगा और उसे ऐसे मौके देने होंगे कि वह प्रतिभा का इस्तेमाल कर सके। तभी सारे समाज को लाभ होगा। प्रतिभा महिलाओं में ही नहीं, डिफरेंटली एबल्ड लोगों में भी है। इस दुनिया की समस्याओं को दूर करने के लिए हमें सबकी प्रतिभाओं की जरूरत है।

Q. कहा जाता है कि हमारे धर्मग्रंथों में, वेदों में सारा ज्ञान है?
A. हमारे धार्मिक ग्रंथों में जो कुछ लिखा है और जो विज्ञान कर रहा है, इन दोनों में कोई तुलना नहीं की जा सकती। मिसाल के तौर पर, कोई सवाल करे कि नीले रंग में कितना नमक है तो इसका कोई जवाब नहीं दिया जा सकता। रंग और स्वाद को मिक्स नहीं कर सकते। तमाम धर्मों में जो कहानियां हैं, वे सब कल्पना पर आधारित हैं।

Q. ऐसे कहा जाता है कि हमारी जो पुराने ऋषि-मुनि थे, वे धरती पर बैठे-बैठे दूसरे लोकों की सैर कर लिया करते थे, पूरा ब्रह्मांड वे यहीं बैठे-बैठे देख लेते थे?
A. ऐसा कुछ नहीं है। कोई विज्ञानी इसे नहीं मानता। पर दोनों की बात हम एक साथ करते हैं तो अपने पूर्वजों के ज्ञान की गरिमा घटाते हैं। हम इससे प्रेरणा लेनी चाहिए कि हमारे पूर्वजों के पास ऐसी गज़ब की कल्पनाशीलता थी।कल्पनाशीलता के इस्तेमाल से ही हम विज्ञान की गुत्थियां सुलझाते हैं।

संडे नवभारत टाइम्स से साभार

Monday, 24 December 2018

ग्रामीण भारत में आएगी इंटरनेट क्रांति

इंटरनेट कनेक्टिविटी के लिए गेम चेंजर है जीसैट-11

शशांक द्विवेदी 
एक बड़ी कामयाबी हासिल करते हुए भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी इसरो ने अब तक के सबसे वजनी सैटेलाइट का प्रक्षेपण कर दिया। दक्षिणी अमेरिका के फ्रेंच गुयाना के एरियानेस्पेस के एरियाने-5 रॉकेट से 5,854 किलोग्राम वजन वाले सबसे अधिक वजनीउपग्रह जीसैट-11 को लॉन्च किया गया। जीसैट-11 देशभर में ब्रॉडबैंड सेवाएं उपलब्ध कराने में अहम भूमिका निभाएगा। 
इस सैटेलाइट को इंटरनेट कनेक्टिविटी के लिए गेम चेंजर कहा जा रहा है। इसके काम शुरू करने के बाद देश में इंटरनेट स्पीड में क्रांति आ जाएगी। इसके जरिए हर सेकंड 100 गीगाबाइट से ऊपर की ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी मिलेगी। इसमें 40 ट्रांसपोर्डर कू-बैंड और का-बैंड फ्रीक्वेंसी में है जिनकी सहायता से हाई बैंडविथ कनेक्टिविटी 14 गीगाबाइट/सेकेंड डेटा ट्रांसफर स्पीड संभव है। इस सैटलाइट की खास बात है कि यह बीम्स को कई बार प्रयोग करने में सक्षम है, जिससे पूरे देश के भौगोलिक क्षेत्र को कवर किया जा सकेगा। इससे पहले के जो सैटलाइट लॉन्च किए गए थे उसमें ब्रॉड सिंगल बीम का प्रयोग किया गया था जो इतने शक्तिशाली नहीं होते थे कि बहुत बड़े क्षेत्र को कवर कर सकें। जीसैट-11 अगली पीढ़ी का हाई थ्रुपुट' संचार उपग्रह है और इसका जीवनकाल 15 साल से अधिक का है।
सैटलाइट के आपरेशनल होनें के बाद इससे देश में हर सेकंड 100 गीगाबाइट से ऊपर की ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी मिल सकेगी । ग्रामीण भारत में इंटरनेट क्रांति के लिहाज से यह प्रक्षेपण काफी महत्वपूर्ण है । इसरो प्रमुख के. सिवन के अनुसार जीसैट-11 भारत की बेहरीन अंतरिक्ष संपत्ति है।  यह भारत द्वारा निर्मित अब तक का  सबसे भारी, सबसे बड़ा  और सबसे शक्तिशाली उपग्रह है । यह अत्याधुनिक और अगली पीढ़ी का संचार उपग्रह है जिसे इसरो के आई-6के बस के साथ कंफिगर किया गया है।
फिलहाल जीसैट-11 के एरियन-5 से अलग होने के बाद कर्नाटक के हासन में स्थित इसरो की मास्टर कंट्रोल फैसिलिटी ने उपग्रह का कमांड और नियंत्रण अपने कब्जे में ले लिया गया है और इसरो के मुताबिक जीसैट-11 बिलकुल ठीक है। उपग्रह को फिलहाल जियोसिंक्रोनस ट्रांसफर ऑर्बिट में स्थापित किया गया है। आगे वाले दिनों में धीरे-धीरे करके चरणबद्ध तरीके से उसे जियोस्टेशनरी (भूस्थिर) कक्षा में भेजा जाएगा। जियोस्टेशनरी कक्षा की ऊंचाई भूमध्य रेखा से करीब 36,000 किलोमीटर होती है। अभी जीसैट-11 को जियोस्टेशनरी कक्षा में 74 डिग्री पूर्वी देशांतर पर रखा जाएगा। उसके बाद उसके दो सौर एरेज और चार एंटिना रिफ्लेक्टर भी कक्षा में स्थापित किए जाएंगे। कक्षा में सभी परीक्षण पूरे होने के बाद उपग्रह काम करने लगेगा।
फ्रेंच गुयाना से क्यों हुई जीसैट-11 की लॉन्चिंग?
जीसैट-11 के प्रक्षेपण पर एक अहम सवाल और भी लोगों के दिमाग में है कि फ्रेंच गुयाना से ही क्यों हुई जीसैट-11 की लॉन्चिंग? अगर भारत अब अपने सारे उपग्रह भेजने में सक्षम है तो फिर ऐसा क्यों किया गया  ? असल में कई बार इसरो अपने सैटेलाइट्स को लांच करने के लिए यूरोपियन स्पेस एजेंसी के जरिए फ्रेंच गुयाना के कोऊरू से भेजता है। जीसैट-11 इसका सबसे हालिया उदाहरण है। यह इसरो का बनाया अब तक का सबसे भारी उपग्रह था। वहाँ से लांचिंग की कई बड़ी वजहें हैं जिसमें सबसे प्रमुख यह है कि दक्षिण अमेरिका स्थित फ्रेंच गुयाना के पास लंबी समुद्री रेखा है, जो इसे रॉकेट लांचिंग के लिए और भी मुफीद जगह बनाती है। इसके अलावा फ्रेंच गुयाना एक भूमध्यरेखा के पास स्थित देश है, जिससे रॉकेट को आसानी से पृथ्वी की कक्षा में ले जाने में और मदद मिलती है। जियोस्टेशनरी कक्षा की ऊंचाई भूमध्य रेखा से करीब 36,000 किलोमीटर होती है। ज्यादातर रॉकेट पूर्व की ओर से छोड़े जाते हैं ताकि उन्हें पृथ्वी की कक्षा में स्थापित करने के लिए पृथ्वी की गति से भी थोड़ी मदद मिल सके। दरअसल पृथ्वी पश्चिम से पूर्व की ओर घूमती है। वैश्विक स्तर की सुविधाओं से युक्त होने, राकेट के लिए ईंधन आदि की पर्याप्तता आदि ऐसी वजहें हैं जिनके चलते भी इसरो अपने बेहद महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट्स के लांच के लिए फ्रेंच गुयाना को एक मुफीद लॉन्च साइट मानता रहा है।
हाल के वर्षों में इंटरनेट सेवा प्रदान करने के लिए जियोस्टेशनरी उपग्रह एक विकल्प के तौर पर उभरे हैं। जियोस्टेशनरी उपग्रह धरती की भूमध्यरेखा से 36,000 किलोमीटर ऊपर स्थित होते हैं यह बहुत बड़े क्षेत्र को कवर करते हैं। एक उपग्रह धरती के एक तिहाई हिस्से को कवर कर सकता है। इससे इंटरनेट सेवा प्रदाता (आईएसपी) को व्यापक भौगोलीय क्षेत्र में ग्राहक हासिल करने की छूट मिलती है । जियोस्टेशनरी उपग्रह हाई थ्रूपुट सेटेलाइट (एचटीएस) के जरिए स्पॉटबीम सेवा उच्च डेटा दर उपलब्ध करवातें हैं । आईएसपी और ग्राहक दोनों ही सेटेलाइट के जरिए एंटेना डिश लगा कर बिना तार के जुड़े होते हैं।वास्तव में ग्रामीण इलाकों में इंटरनेट कनेक्टिविटी बढ़ाने की जरूरत को बहुत गंभीरता से महसूस किया जा रहा है। इसके साथ ही सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और युवा कार्यबल के साथ भारत डिजिटल डिवाइड’ को दूर करने का संघर्ष कर रहा है। अब तक देश के लगभग ५० करोड़ लोग इंटरनेट से जुड़ चुके हैं। लेकिन अभी भी देश की आधे से ज्यादा आबादी इंटरनेट से दूर है ऐसे में हमें ग्रामीण इलाकों में इंटरनेट कनेक्टिविटी पर विशेष ध्यान देना होगा ।
इंटरनेट कनेक्टिविटी के साथ साथ भारत में इंटरनेट की स्पीड पर भी ध्यान देना होगा .देश की काफी बड़ी युवा आबादी आजकल मोबाईल में इंटरनेट का प्रयोग कर रही है लेकिन इंटरनेट स्पीड की समस्या यहाँ पर भी है। स्पीडटेस्ट वैश्विक सूचकांक में मोबाइल इंटरनेट की स्पीड के मामले में दुनिया में हमारा 109वां और फिक्स्ड ब्रॉडबैंड के मामले में 76वां स्थान बताता है कि अभी गुणवत्तापूर्ण इंटरनेट कनेक्टिविटी के लिए हमें लंबा रास्ता तय करना है। दुनिया की औसत मोबाइल इंटरनेट डाउनलोड स्पीड 20.28 एमबीपीएस है, जबकि हमारी 8.80 एमबीपीएस। हालांकि ब्रॉडबैंड डाउनलोड स्पीड के मामले में हमारी स्थिति थोड़ी सुधरी है। वैश्विक औसत 40.11 एमबीपीएस की तुलना में ब्रॉडबैंड में हमारी स्पीड अब 18.82 एमबीपीएस है। इस मोबाइल इंटरनेट सूचकांक में पड़ोसी देश म्यांमार 94वें, नेपाल 99वें और पाकिस्तान 89वें पायदान पर हैं। ऐसे में ब्रॉडबैंड स्पीड से कहीं अधिक भारत को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि अच्छी गुणवत्ता की मोबाइल इंटरनेट कनेक्टिविटी देश के तमाम उपभोक्ताओं को मिले, क्योंकि यह न सिर्फ एक लोकप्रिय माध्यम है, बल्कि विशेषकर गांवों में लोगों के ऑनलाइन होने का सुलभ तरीका भी। फिलहाल जीसैट-11 की सफल लांचिंग से अब यह उम्मीद जगी है कि इंटरनेट की कनेक्टिविटी के साथ साथ अब इंटरनेट की स्पीड के मामलें में भी भारत तरक्की करेगा   
फ़िलहाल हम अंतरिक्ष विज्ञान ,संचार तकनीक ,परमाणु उर्जा और चिकित्सा के मामलों में न सिर्फ विकसित देशों को टक्कर दे रहें है बल्कि कई मामलों में उनसे भी आगे निकल गएँ है । अंतरिक्ष में भारत के लिए संभावनाएं बढ़ रही है, इसने अमेरिका सहित कई बड़े देशों का एकाधिकार तोडा है। कुलमिलाकर जीसैट-11 भारत की मुख्य भूमि और द्वीपीय क्षेत्र में हाई-स्पीड डेटा सेवा मुहैया कराने में बड़ा मददगार साबित होगा। साथ ही चार संचार उपग्रहों के माध्यम से देश में 100 जीबीपीएस डेटा स्पीड मुहैया कराने का लक्ष्य रखा गया है। इस श्रेणी में जीसैट-11 तीसरा संचार उपग्रह है। संचार उपग्रह के मामले में भारी होने का मतलब है कि वो बहुत ताकतवर है और लंबे समय तक काम करने की क्षमता रखता है। साथ ही यह अब तक बने सभी सैटेलाइट में ये सबसे ज्यादा बैंडविथ साथ ले जाना वाला उपग्रह भी होगा। और इससे पूरे भारत में इंटरनेट की सुविधा मिल सकेगी खासकर ग्रामीण भारत में इसके जरिये इंटरनेट क्रांति संभव होगी जो देश के विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण है ।
(लेखक राजस्थान की मेवाड़ यूनिवर्सिटी में डायरेक्टर और टेक्निकल टूडे पत्रिका के संपादक हैं)

अंतरिक्ष में भारत की बढ़ती धमक


शशांक द्विवेदी 
इसरो ने एक बार फिर अंतरिक्ष में इतिहास रचते हुए भारत सहित 9 देशों के 31 उपग्रहों को पोलर सैटलाइट लॉन्च वीइकल (पीएसएलवी) सी-43 के जरिए लॉन्च कर दिया । इस प्रक्षेपण की खास बात यह है कि इसरो ने दो साल में चौथी बार 30 से ज्यादा सैटेलाइट लॉन्च किए। जनवरी 2017 में 104 उपग्रह लॉन्च कर इसरो ने रिकॉर्ड बनाया था।
ग्लोबल सैटेलाइट मार्केट में भारत की हिस्सेदारी बढ़ रही है। अभी यह इंडस्ट्री 200 अरब ड़ालर से ज्यादा की है । फ़िलहाल इसमें अमेरिका की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा है जबकि भारत की हिस्सेदारी अब लगातार साल दर साल बढ़ रही है । सैटेलाइट ट्रांसपोंडर को लीज पर देने,  भारतीय और विदेशी क्लाइंटस को रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट की सेवाओं को देने के बदले में हुई कमाई से इसरो का राजस्व लगातार बढ़ रहा है । एक साथ कई उपग्रहों के प्रक्षेपण के सफल होने से दुनिया भर में छोटी सैटेलाइट लॉन्च कराने के मामले में इसरो पहली पसंद बन जाएगा, जिससे देश को आर्थिक तौर पर फायदा होगा।  पीएसएलवी की यह 45वीं उड़ान थी जिसमें एक माइक्रो और 29 नैनो सैटेलाइट शामिल हैं। पोलर सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल (पीएसएलवी) की इस साल में यह छठी उड़ान थी। इसमें भारत के सबसे ताकतवर इमेजिंग सैटेलाइट हाइसइस के अलावा अमेरिका (23 उपग्रह) और ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, कोलंबिया, फिनलैंड, मलयेशिया, नीदरलैंड और स्पेन (प्रत्येक का एक उपग्रह) के उपग्रहों का प्रक्षेपण किया गया । इसरो के अनुसार इन उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए उसकी वाणिज्यिक इकाई (एंट्रिक्स कारपोरेशन लिमिटेड) के साथ करार किया गया है।
कुछ साल पहले एक समय ऐसा भी था जब अमेरिका ने भारत के उपग्रहों को लाँच करने से मना कर दिया था। आज स्तिथि ये है कि अमेरिका सहित तमाम देश खुद भारत से अपने उपग्रहों को प्रक्षेपित करवा रहें हैं ।
कम लागत और बेहतरीन टेक्नोलॉजी की वजह से आज दुनियाँ के कई देश इसरों के साथ व्यावसायिक समझौता करना चाहतें है। अब पूरी दुनिया में सैटलाइट के माध्यम से टेलीविजन प्रसारण , मौसम की भविष्यवाणी और दूरसंचार का क्षेत्र बहुत तेज गति से बढ़ रहा है और चूंकि ये सभी सुविधाएं उपग्रहों के माध्यम से संचालित होती हैं इसलिए उपग्रहों को अंतरिक्ष में स्थापित करने की मांग में तेज बढ़ोतरी हो रही है। हालांकि इस क्षेत्र में चीन, रूस, जापान आदि देश प्रतिस्पर्धा में हैं, लेकिन यह बाजार इतनी तेजी से बढ़ रहा है कि यह मांग उनके सहारे पूरी नहीं की जा सकती। ऐसे में व्यावसायिक तौर पर यहाँ भारत के लिए बहुत संभावनाएं है । कम लागत और सफलता की गारंटी इसरो की सबसे बड़ी ताकत है जिसकी वजह से स्पेस इंडस्ट्री में आने वाला समय भारत के एकाधिकार का होगा ।
हालिया प्रक्षेपित हाइपर स्पेक्ट्रल इमेजिंग उपग्रह (हाइसइस) को 44.4 मीटर लंबे और 230 टन वजनी पीएसएलवी सी-43  से रॉकेट से छोड़ा गया है । पृथ्वी की निगरानी के लिए इसरो ने हाइसइस को विशेष रूप से तैयार किया है । हाइसइस पृथ्वी की मैग्नेटिक फील्ड का भी अध्ययन करेगा, साथ ही सतह का भी अध्ययन करेगा। एक विशेष चिप की मदद से तैयार किया गया ऑप्टिकल इमेजिंग डिटेक्टर ऐरे रणनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जाएगा। हाइसइस की मदद से पृथ्वी धरती के चप्पे-चप्पे पर नजर रखना आसान हो जाएगा. अब धरती से 630 किमी दूर अंतरिक्ष से पृथ्वी पर मौजूद वस्तुओं के 55 विभिन्न रंगों की पहचान आसानी से की जा सकेगी। इस उपग्रह का उद्देश्य पृथ्वी की सतह के साथ इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पैक्ट्रम में इंफ्रारेड और शॉर्ट वेव इंफ्रारेड फील्ड का अध्ययन करना है। हाइपर स्पेक्ट्रल इमेजिंग या हाइस्पेक्स इमेजिंग की एक खूबी यह भी है कि यह डिजिटल इमेजिंग और स्पेक्ट्रोस्कोपी की शक्ति को जोड़ती है। हाइस्पेक्स इमेजिंग अंतरिक्ष से एक दृश्य के हर पिक्सल के स्पेक्ट्रम को पढ़ने के अलावा पृथ्वी पर वस्तुओं, सामग्री या प्रक्रियाओं की अलग पहचान भी करती है। इससे पर्यावरण सर्वेक्षण, फसलों के लिए उपयोगी जमीन का आकलन, तेल और खनिज पदार्थों की खानों की खोज आसान होगी।
असल में इतने सारे उपग्रहों को एक साथ अंतरिक्ष में छोड़ना आसान काम नहीं है। इन्हें कुछ वैसे ही अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किया जाता है जैसे स्कूल बस बच्चों को क्रम से अलग-अलग ठिकानों पर छोड़ती जाती हैं।  बेहद तेज गति से चलने वाले अंतरिक्ष रॉकेट के साथ एक-एक सैटेलाइट के प्रक्षेपण का तालमेल बिठाने के लिए बेहद काबिल तकनीशियनों और इंजीनियरों की जरुरत पड़ती है। अंतरिक्ष प्रक्षेपण के बेहद फायदेमंद बिजनेस में इसरो को नया खिलाड़ी माना जाता है। इस कीर्तिमान के साथ सस्ती और भरोसेमंद लॉन्चिंग में इसरो की ब्रांड वेल्यू में इजाफा होगा। इससे लॉन्चिंग के कई और कॉन्ट्रेक्ट एजेंसी की झोली में गिरने की उम्मीद है।
कम लागत और लगातार सफल लांचिंग की वजह से दुनियाँ का हमारी स्पेस टेक्नॉलाजी पर भरोसा बढ़ा है तभी अमेरिका सहित कई विकसित देश अपने सैटेलाइट की लाँचिंग भारत से करा रहें है । फ़िलहाल हम अंतरिक्ष विज्ञान ,संचार तकनीक ,परमाणु उर्जा और चिकित्सा के मामलों में न सिर्फ विकसित देशों को टक्कर दे रहें है बल्कि कई मामलों में उनसे भी आगे निकल गएँ है । अंतरिक्ष बाजार में भारत के लिए संभावनाएं बढ़ रही है ,इसने अमेरिका सहित कई बड़े देशों का एकाधिकार तोडा है ।  असल में, इन देशों को हमेशा यह लगता रहा है कि भारत यदि अंतरिक्ष के क्षेत्र में इसी तरह से सफ़लता हासिल करता रहा तो उनका न सिर्फ  उपग्रह प्रक्षेपण के क़ारोबार से एकाधिकार छिन जाएगा बल्कि मिसाइलों की दुनिया में भी भारत इतनी मजबूत स्थिति में पहुंच सकता है कि बड़ी ताकतों को चुनौती देने लगे। पिछले दिनों दुश्मन मिसाइल को हवा में ही नष्ट करनें की क्षमता वाली इंटरसेप्टर मिसाइल का सफल प्रक्षेपण इस बात का सबूत है कि भारत  बैलेस्टिक मिसाइल रक्षा तंत्र के विकास में भी बड़ी कामयाबी हासिल कर चुका है . दुश्मन के बैलिस्टिक मिसाइल को हवा में ही ध्वस्त करने के लिए भारत ने सुपरसोनिक इंटरसेप्टर मिसाइल बना कर दुनियाँ के विकसित देशों की नींद उड़ा दी है ।
अरबों डालर का मार्केट होनें की वजह से भविष्य में अंतरिक्ष में प्रतिस्पर्धा बढेगी । इसमें और प्रगति करके इसका बड़े पैमाने पर वाणिज्यिक उपयोग भी संभव है । ऐसे में भारत अंतरिक्ष विज्ञान में नई सफलताएं हासिल कर विकास को अधिक गति दे सकता है । जोकिन देश में गरीबी दूर करने  और विकसित भारत के सपने को पूरा करने में इसरो काफ़ी मददगार साबित हो सकता है । कुलमिलाकर एक साथ कई उपग्रहों के सफलतापूर्वक प्रक्षेपण से इसरों को बहुत व्यावसायिक फायदा होगा जो भविष्य में  इसरों के लिए संभावनाओं के नयें दरवाजें खोल देगी जिससे भारत को निश्चित रूप से बहुत फ़ायदा पहुंचेगा ।
अब समय आ गया है जब इसरो व्यावसायिक सफ़लता के साथ साथ अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा की तरह अंतरिक्ष अन्वेषण पर भी ज्यादा ध्यान दे। इसरो को अंतरिक्ष अन्वेषण और शोध के लिए दीर्घकालिक रणनीति बनानी होगी ।क्योंकि जैसे जैसे अंतरिक्ष के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा बढेगी अंतरिक्ष अन्वेषण बेहद महत्वपूर्ण होता जाएगा। इस काम इसके लिए सरकार को इसरो का सालाना बजट भी बढ़ाना पड़ेगा जो फिलहाल नासा के मुकाबले काफ़ी कम है । भारी विदेशी उपग्रहों को अधिक संख्या में प्रक्षेपित करने के लिए अब हमें पीएसएलवी के साथ साथ जीएसएलवी रॉकेट का भी उपयोग करना होगा । पीएसएलवी अपनी सटीकता के लिए दुनियाँ भर में प्रसिद्द है लेकिन ज्यादा भारी उपग्रहों के लिए जीएसएलवी का प्रयोग करना होगा।मानवयुक्त अंतरिक्ष अभियान पर भी इसरो को जल्द काम शुरू करना होगा ।
(लेखक राजस्थान की मेवाड़ यूनिवर्सिटी में डायरेक्टर और टेक्निकल टूडे पत्रिका के संपादक हैं)

Wednesday, 17 January 2018

साल 2017 में इसरो ,भावी मिशन और इसरो की चुनौतियाँ


साल 2017 इसरो के लिए कैसा रहा और आगे 2018 में उसके क्या भावी मिशन है ,भविष्य में क्या
 चुनौतियाँ है उसके लिए ,इस पर एक खास रिपोर्ट 

शशांक द्विवेदी
डिप्टी डायरेक्टर, मेवाड़ यूनिवर्सिटी ,राजस्थान 

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के लिए 2017 एक के बाद एक कई उपलब्धियों वाला साल रहा। फरवरी में उसने एक साथ 104 उपग्रहों का प्रक्षेपण कर नया इतिहास रचा तो 24 साल में पहली बार पीएसएलवी का कोई मिशन विफल रहने से कुछ चिंताएं भी उभरीं।  साल की शुरुआत धमाकेदार रही
104 उपग्रह छोड़कर बनाया विश्व कीर्तिमान
इसरो ने 15 फरवरी को एक साथ एक मिशन में और एक ही प्रक्षेपणयान से 104 उपग्रह छोड़कर विश्व कीर्तिमान बना दिया। इससे पहले उसने पिछले साल एक साथ 20 उपग्रहों का प्रक्षेपण किया था। दुनिया के किसी अन्य देश ने अब तक एक साथ 100 उपग्रह अंतरिक्ष में नहीं भेजे हैं। इसमें कार्टोसैट-2 मुख्य उपग्रह था जबकि 101 विदेशी समेत कुल 103 छोटे एवं सूक्ष्म उपग्रह थे। इस मिशन में सबसे चुनौतीपूर्ण काम था सभी उपग्रहों को इस प्रकार उनकी कक्षा में स्थापित करना कि वे एक-दूसरे से न टकराएं। इसरो ने इस काम को बखूबी अंजाम देकर यह साबित कर दिया कि उपग्रह प्रक्षेपण में उसने महारत हासिल कर ली है। इस मिशन से वैश्विक स्तर पर वाणिज्यिक प्रक्षेपण में उसकी साख और मजबूत हुई है तथा भविष्य में इस मद से देश के विदेशी मुद्रा अर्जन में तेजी आयेगी।
जीएसएलवी एमके-3 डी-1 का किया सफल प्रक्षेपण
05 जून, 2017 को इसरो ने जीएसएलवी प्रक्षेपण यान के अगले संस्करण जीएसएलवी एमके-3 डी-1 का सफल प्रक्षेपण किया। इस यान से 3,136 टन वजन वाले जीसैट-19 उपग्रह का प्रक्षेपण किया गया। इसरो द्वारा छोड़ा गया यह अब तक का सबसे भारी उपग्रह है। इस मिशन की सफलता के साथ ही भारत ने चार टन तक के वजन वाले उपग्रह को भूस्थैतिक कक्षा में स्थापित करने की दक्षता प्राप्त कर ली है। इससे पहले दो टन या इससे ज्यादा वजन के उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए हम विदेशों पर निर्भर थे।  इसरो ने 23 जून को एक साथ 31 उपग्रहों का प्रक्षेपण कर एक बार फिर साबित कर दिया कि वह एक साथ कई उपग्रह छोडऩे में अपना कौशल तथा अनुभव बढ़ाता जा रहा है। भारत ने अंतरिक्ष विज्ञान में अपनी सफलता के जश्न में पड़ोसी देशों को भी शामिल करते हुए 05 मई को दक्षेस देशों का साझा उपग्रह साउथ एशिया सैटेलाइट जीसैट-9 लांच किया। यह जीएसएलवी की लगातार चौथी सफल उड़ान रही। इसरो का कहना है कि अब जीएसएलवी भी लगातार सफल प्रक्षेपण करते हुए विश्वसनीय प्रक्षेपण यानों की श्रेणी में शामिल हो चुका है।
पीएसएलवी के 41वें मिशन ने इसरो को दिया झटका
लगातार 24 साल तक बिना किसी विफलता के अचूक प्रक्षेपण यान के रूप में स्वयं को स्थापित कर चुके पीएसएलवी के 41वें मिशन ने इसरो के विश्वास को इस साल बड़ा झटका दिया। पीएसएलवी सी-39 ने 31 अगस्त को आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से उड़ान भरी। इस मिशन के जरिए नेविगेशन उपग्रह आईआरएनएसएस-1एच को उप-भू स्थैतिक कक्षा में स्थापित किया जाना था। यह प्रक्षेपण विफल रहा। इसरो ने बताया कि शाम सात बजे प्रक्षेपण यान ने उड़ान भरी थी। प्रक्षेपण पूरी तरह योजना के अनुसार रही, लेकिन इसका हीट शील्ड प्रक्षेपण यान से अलग नहीं हो सका। इस कारण अंतरिक्ष में पहुंचकर उपग्रह हीट शील्ड के अंदर ही प्रक्षेपण यान से अलग हुआ। इसरो का कहना है कि वह हीट शील्ड के अलग नहीं होने के कारणों का विस्तृत विश्लेषण कर रहा है। इस विफलता के बाद इसरो ने साल के आखिरी चार महीने में किसी भी मिशन को अंजाम नहीं दिया है। पीएसएलवी की 20 सितंबर 1993 के बाद की यह पहली विफलता है
इसरो ने इस साल दिया सात मिशन को अंजाम
इस साल इसरो ने कुल सात मिशन को अंजाम दिया जिनमें से छह सफल रहे। इसके अलावा जीसैट-17 का प्रक्षेपण एरियन-5 वीए-238 से किया गया। साल के दौरान जीसैट-17 समेत इसरो ने उसके अपने आठ और 130 विदेशी उपग्रह छोड़े। इसमें आईआरएनएसएस-1एच का प्रक्षेपण विफल रहा।  आने वाले वर्ष में इसरो ने अपने प्रक्षेपणों की सालाना संख्या बढ़ाने का लक्ष्य रखा है। साथ ही उसने चंद्रयान-2 की भी तैयारी की है जिसका प्रक्षेपण मार्च 2018 तक होने की उम्मीद है।
इसरो के भविष्य के मिशन
मंगल यान और चंद्रयान -1 की सफलता के साथ साथ  अंतरिक्ष में प्रक्षेपण का शतक लगाने के बाद इसरो  कुछ और महत्वपूर्ण मिशनों पर कार्य तेज करने जा रहा है। इनमें पहला कदम है साल 2018 की पहली तिमाही में दुसरे चन्द्र अभियान को कार्यान्वित करते हुए चंद्रमा की सतह पर एक रोवर उतारना ,दूसरा मिशन है मानवयुक्त अंतरिक्ष अभियान यानि अंतरिक्ष में मानव मिशन भेजना । और  तीसरा  मिशन सूर्य के अध्ययन के लिए आदित्य उपग्रह का प्रक्षेपण करना है। मंगल की कक्षा में सफलतापूर्वक मंगलयान के पहुंचने के बाद इसरो के वैज्ञानिक सभी भविष्य के अभियानों की सफलता को लेकर काफी आश्वस्त हैं।
दूसरें चंद्र अभियान की तैयारी में इसरो
अंतरिक्ष तकनीक में कामयाबी की एक नई कहानी लिखने के लिए भारत तेजी से आगे बढ़ रहा है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) साल 2018 की पहली तिमाही में बड़े मानवरहित अभियान के तहत चंद्रमा पर दूसरा मिशन 'चंद्रयान-2' भेजने जा रहा है। इसरो के चेयरमैन एस किरण कुमार के अनुसार चंद्रमा की धरती पर स्पेसक्रॉफ्ट की लैंडिंग को लेकर परीक्षण चल रहा है और अगले साल 2018 तक चंद्रयान-2 अभियान लॉन्च हो जाने की उम्मीद है। इसरो इसके लिए एक विशेष इंजन विकसित करेगा जो लैंडिंग को कंट्रोल कर सके। फिलहाल इसका अभ्यास किया जा रहा है जिसके लिए चंद्रमा की सतह जैसी आकृति और वातावरण बनाकर प्रयोग जारी है। फिलहाल इस अभियान को लेकर कई तरह के परीक्षण इसरो कर रहा है और चंद्रमा के लिए जाने वाला सैटेलाइट भी तैयार है। चंद्रयान-2 नई तकनीकी से तैयार किया गया है जो चंद्रयान-1 से काफी एंडवांस है और इसको जीएसएलवी-एमके-2 के जरिए लॉन्च किया जाएगा।  गौरतलब है कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 2003 में भारत की ओर से चंद्रयान-1 अभियान की घोषणा की थी और इसे 2008 में भेजा गया था ।  भारत की ओर से चंद्रमा के लिए यह पहला सफल अभियान था ।
भारत पिछले कई वर्षो से रूस के सहयोग से इस अभियान को अंजाम तक पहुंचाने में जुटा था, लेकिन रूस से समय सीमा के अंदर तकनीकी सहयोग नहीं मिल पाने के कारण अब इस अभियान में भारत पूरी तरह से अपनी स्वदेशी तकनीक का प्रयोग करेगा। पहले यह अभियान इसरो और रूसी अंतरिक्ष एजेंसी (रोसकोसमोस) द्वारा संयुक्त रूप से किया जाना था जिसमें तय किया गया था कि ऑर्बिटर तथा रोवर की मुख्य जिम्मेदारी इसरो की होगी तथा रोसकोसमोस लैंडर के लिए जिम्मेदार होगा। लेकिन अब यह पूरा अभियान इसरो ही संभालेगा। जिसमें आर्बिटर ,रोवर तथा लैंडर तीनों ही इसरो डिजाइन करेगा ।
इसरो का मानवयुक्त अंतरिक्ष कार्यक्रम
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) इतिहास रचने के लिए एक और कदम बढ़ाने जा रहा है। 05 जून, 2017 को इसरो ने अपने सबसे भारी रॉकेट जीएसएलवी मार्क-3 को सफ़ल प्रक्षेपण कर बड़ी कामयाबी हासिल की थी  । इसरो द्वारा निर्मित यह अब तक का सबसे वजनी सेटेलाईट है, जिसका वजन 3,136 किलो है। इस सेटेलाईट की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसे और रॉकेट के मुख्य और सबसे बड़े क्रायोजेनिक इंजन को इसरो के वैज्ञानिकों ने भारत में ही विकसित किया है। खास बात यह है कि इसके सफल प्रक्षेपण से भारत मानवयुक्त अंतरिक्ष अभियान करनें में सक्षम हो गया है ।
जीएसएलवी मार्क-3 की सफलता के बाद इसरो का इंसान को अंतरिक्ष में भेजने का सपना कर पायेगा । अभी अमेरिका और रूस ही अपने दम पर स्पेस में इंसान को भेज पाए हैं। मार्क-3 के साथ भेजे गए क्रू मॉड्यूल के सफल टेस्ट से भारत को उम्मीदें बंधी हैं। चंद्रयान-1 और मंगल यान की कामयाबी के बाद भारत की निगाहें अब आउटर स्पेस पर हैं। इसरो ग्रहों की तलाश और उनके व्यापक अध्ययन के लिए मानव युक्त अंतरिक्ष मिशन भेजने की योजना बना रहा है। मानव स्पेसफ्लाइट कार्यक्रम का उद्देश्य पृथ्वी की निचली कक्षा के लिए दो में से एक चालक दल को ले जाने और पृथ्वी पर एक पूर्व निर्धारित गंतव्य के लिए सुरक्षित रूप से उन्हें वापस जाने के लिए एक मानव अंतरिक्ष मिशन शुरू करने की है कार्यक्रम इसरो द्वारा तय चरणों में लागू करने का प्रस्ताव है वर्तमान में, पूर्व परियोजना गतिविधियों क्रू मॉड्यूल ,पर्यावरण नियंत्रण और लाइफ सपोर्ट सिस्टम, क्रू एस्केप सिस्टम, आदि महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकियों के विकास पर इसरो काम कर रहा हैयोजना के अनुसार अंतरिक्ष में जाने वाली इसरो की पहली मानव फ्लाईट में दो यात्री होंगे। फ़िलहाल यह फ्लाईट अंतरिक्ष में सौ से नौ सौ किलोमीटर ऊपर तक ले जाने की योजना है  ।


इसरो का 'आदित्य'
मार्स मिशन के बाद सन मिशन
मंगल अभियान और चंद्रयान 1 की सफ़लता के बाद इसरो के वैज्ञानिको अब सन मिशन की तैयारी कर रहें है सूर्य कॅरोना का अध्ययन एवं धरती पर इलेक्ट्रॉनिक संचार में व्यवधान पैदा करने वाली सौर-लपटों की जानकारी हासिल करने के लिए भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) आदित्य-1 उपग्रह छोड़ेगा। इसका प्रक्षेपण वर्ष 2012-13 में होना था मगर अब इसरो ने इसका नया प्रक्षेपण कार्यक्रम तैयार किया है।.
आदित्य-1 उपग्रह  सोलर ' कॅरोनोग्राफ’ यन्त्र की मदद से सूर्य के सबसे भारी भाग का अध्यन करेगा। इससे कॉस्मिक किरणों, सौर आंधी, और विकिरण के अध्यन में मदद मिलेगी। 
 अभी तक वैज्ञानिक सूर्य के
कॅरोना का अध्यन केवल सूर्यग्रहण के समय में ही कर पाते थे। इस मिशन की मदद से सौर वालाओं और सौर हवाओं के अध्ययन में जानकारी मिलेगी कि ये किस तरह से धरती पर इलेक्ट्रिक प्रणालियों और संचार नेटवर्क पर असर डालती है। इससे सूर्य के कॅरोना से धरती के भू चुम्बकीय क्षेत्र में होने वाले बदलावों के बारे में घटनाओं को समझा जा सकेगा। इस सोलर मिशन की मदद से तीव्र और मानव निर्मित उपग्रहों और अन्तरिक्षयानों को बचाने के उपायों के बारे में पता लगाया जा सकेगा। इस उपग्रह का वजन 200  किग्रा होगा । ये उपग्रह सूर्य कॅरोना का अध्ययन कृत्रिम ग्रहण द्वारा करेगा। इसका अध्ययन काल 10 वर्ष रहेगा। ये नासा द्वारा सन 1995 में प्रक्षेपित 'सोहो' के बाद सूर्य के अध्ययन में सबसे उन्नत उपग्रह होगा
शुक्र ग्रह पर भी है नजर 
मंगल के अलावा इसरो के वैज्ञानिकों की नजर शुक्र ग्रह पर भी टिकी है. विशेषज्ञ शुक्र ग्रह पर स्पेस मिशन को खासा अहम मानते हैं क्योंकि धरती के बेहद करीब होने के बावजूद इस ग्रह के बारे में बेहद कम जानकारी उपलब्ध है. हालांकि शुक्र ग्रह का मिशन महज ऑर्बिटर भेजने तक सीमित हो सकता है. अब तक सिर्फ अमेरिका, रूस, यूरोपीय स्पेस एजेंसी और जापान ही शुक्र ग्रह तक कामयाब मिशन लॉन्च कर पाए हैं. 
सैटेलाईट लॉन्च सिस्टम की क्रांति  
फिलहाल इसरो छोटे सैटेलाईट लॉन्च वीइकल को तैयार करने में जुटा है, जिसे सिर्फ तीन दिनों में असेंबल किया गया जा सकेगा। पीएसएलवी जैसे रॉकेट्स को तैयार करने में आमतौर पर 30 से 40 दिन लग जाते हैं, ऐसे में इसरो का यह प्रयास सैटलाइट लॉन्चिंग की दिशा में बड़ी क्रांति जैसा होगा। यही नहीं इस रॉकेट को तैयार करने में पीएसएलवी की तुलना में 10 फीसदी राशि ही खर्च होगी।
दुनिया भर में लॉन्च वीकल की मैन्युफैक्चरिंग कॉस्ट फिलहाल 150 से 500 करोड़ रुपये तक होती है। यह 2018 के अंत या फिर 2019 की शुरुआत तक तैयार हो सकता है। इस वीइकल की कीमत पीएसएलवी के मुकाबले 10 फीसदी ही होगा। हालांकि यह रॉकेट 500 से 700 किलो तक के सैटलाइट्स को ही लॉन्च कर सकेगा।'

ज्यादा उपग्रह प्रक्षेपित करनें का लक्ष्य
अभी भी हमारे पास संचार प्रणाली के मद्देनजर कम सैटेलाइट हैं, इसलिए इसरो सैटेलाइट लॉन्च करने की प्रकिया को दोगुना करने के प्रयास में है। अभी हम एक साल में 8 से 10 सेटेलाइट लॉन्च करते हैं। 2018 तक ये 20 के करीब होगा। हमारा टारगेट अगले 5 साल में 60 सैटेलाइट लॉन्च करने का है।
रेल दुर्घटनाओं से सुरक्षित करेगा इसरो 
मानवरहित रेल फाटकों पर हर साल कई हादसे होते हैं। इन हादसों में कई जानें भी जाती हैं लेकिन अभी तक इसके लिए रेलवे कोई ठोस कदम नहीं उठा पाया है। रेलवे अब इन फाटकों को सुरक्षित करने के लिए भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी इसरो के साथ काम कर रहा है।

इसरो कि चुनौतियाँ 
अब समय आ गया है जब इसरो व्यावसायिक सफ़लता के साथ साथ अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा और चीन की तरह अंतरिक्ष अन्वेषण पर भी ज्यादा ध्यान दे । इसरो को अंतरिक्ष अन्वेषण और शोध के लिए दीर्घकालिक रणनीति बनानी होगी । क्योकि जैसे जैसे अंतरिक्ष के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा बढेगी अंतरिक्ष अन्वेषण बेहद महत्वपूर्ण होता जाएगा । इस काम इसके लिए सरकार को इसरो का सालाना बजट भी बढ़ाना पड़ेगा जो फिलहाल अमेरिका और चीन के मुकाबले काफ़ी कम है। भारी विदेशी उपग्रहों को अधिक संख्या में प्रक्षेपित करने के लिए अब हमें पीएसएलवी के साथ साथ जीएसएलवी रॉकेट का भी उपयोग करना होगा। पीएसएलवी अपनी सटीकता के लिए दुनियाँ भर में प्रसिद्द है लेकिन ज्यादा भारी उपग्रहों के लिए जीएसएलवी का प्रयोग करना होगा।

महत्वपूर्ण तथ्य 
इसरो का कामयाबी भरा सफ़र
Ø  आज से लगभग 42 साल पहले उपग्रहों का साइकिल और बैलगाड़ी से शुरू हुआ इसरो का सफर आज उस मक़ाम पर पहुँच गया है जहाँ भारत अंतरिक्ष के क्षेत्र में दुनियाँ के सबसे शक्तिशाली पांच देशों में से एक है .
Ø  वर्ष 1969 में प्रसिद्ध वैज्ञानिक विक्रम साराभाई के निर्देशन में राष्ट्रीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन का गठन हुआ था. 
Ø  19 अप्रैल, 1975 को इसरो द्वारा  स्वदेश निर्मित उपग्रह आर्यभट्ट का सफल प्रक्षेपण 
Ø  15 फरवरी, 2017 को इसरो ने एक साथ 104 सैटेलाईट लाँच करके अंतरिक्ष की दुनियाँ में इतिहास रच दिया था . पीएसएलवी की 39वीं उड़ान में इसरो ने एक मिशन में सबसे ज़्यादा 104 सैटेलाइट भेजने का विश्व रिकॉर्ड बनाया  .
Ø  व्यावसायिक उपग्रह प्रक्षेपण का सारा काम इसरो की  कममर्शियल विंग ' एंट्रिक्स कॉरपोरेशन' संचालित करती है . इस सफ़लता से उसे और प्रोजेक्ट  मिलने की उम्मी‍द है.
Ø  भारत में सैटेलाइट्स की कमर्शियल लॉन्चिंग दुनियाँ में सबसे सस्ती पड़ती है। भारत के जरिए सैटेलाइट लॉन्च करना अमेरिका, चीन, जापान और यूरोप से कई गुना तक सस्ता पड़ता है।
Ø  विशेषज्ञों के अनुसार इस सफलता के बाद दुनियाँ भर में छोटी सैटेलाइट लॉन्च  कराने के मामले में इसरो पहली पसंद बन जाएगा, जिससे देश को आर्थिक तौर पर फायदा होगा. विदेशी सैटेलाइट इतनी कम कीमत में लॉन्च करने के कारण अमेरिकी प्राइवेट लॉन्च इंडस्ट्री के लिए इसरो सीधा प्रतिद्वंदी बन गया है.
Ø  लगभग 200 अरब ड़ालर का है ग्लोबल सैटेलाइट मार्केट  फ़िलहाल  इसमें अमेरिका की हिस्सेदारी 41% की है। जबकि भारत की हिस्सेदारी 4% से भी कम है। जो अब लगातार साल दर साल बढ़ रही है ।
Ø  भारत जल्द ही शुक्र और मंगल ग्रहों पर उतरने की तैयारी कर रहा है। इस मिशन को बजट-2017 में जगह दी गई है। इसरो का फंड भी 23% बढ़ाया है।
Ø  इसरो अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा की जेट प्रोपल्सन लेबोरेटरी के साथ संयुक्त रूप से दोहरी फ्रिक्वेंसी (एल एंड एस बैंड) वाली सिंथेटिक एपर्चर रडार (एसएआर) इमेजिंग सैटेलाइट 'नासा-इसरो सिंथेटिक एपर्चर सैटेलाइट' (निसार) के निर्माण पर काम कर रही है, जिसके 2021 तक पूरा होने की उम्मीद है.
Ø  इसरो ने स्वदेश निर्मित जीएसएलवी सीरीज के 2 से 2.5 टन वहन कैपेसिटी वाले एक और रॉकेट 'जीएसएलवी मार्क 2' को ग्लोबल मार्केट में बिक्री के लिए पेश किया. इसके अलावा स्वनिर्मित पीएसएलवी में खुद डेवलप किए गए मल्टीपल बर्न तकनीक का कमर्शियल इस्तेमाल किया.
Ø  इसरो ने दो नेविगेशन सैटेलाइटों की डिजाइन तैयार करने के लिए अल्फा डिजायन टेक्नोलॉजी लिमिटेड के साथ एक अनुबंध करने के साथ सेटेलाइट उत्पादन के नए फेज की शुरुआत की.


(लेखक शशांक द्विवेदी राजस्थान के मेवाड़ विश्वविद्यालय में उपनिदेशक हैं और  टेक्निकल टूडे पत्रिका के संपादक हैं)