Monday 21 May 2012

उच्च शिक्षा पर विशेष

अनुदानों से ही नहीं सुधरेगी शिक्षा व्यवस्था
श में शिक्षा सुविधाओं की लचर स्थिति पर चिंता जताते हुए योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने शुक्रवार को कहा है कि केवल अनुदानों से देश में शिक्षा व्यवस्था में सुधार नहीं होगा। किसी भी अर्थपूर्ण परिवर्तन के लिए शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार आवश्यक है।
मिली जानकारी के मुताबिक,अहलूवालिया ने कहा है कि 12वीं पंचवर्षीय योजना में प्राथमिक, माध्यमिक शिक्षा के लिए अब तक की सबसे बड़ी राशि का प्रावधान किया गया है। लेकिन सिर्फ अनुदानों से व्यस्था में सुधार नहीं होगा, जब तक कि इसकी संरचनात्मक समस्याओं में सुधार नहीं किया जाता।
गौरतलब है कि 12वीं पंचवर्षीय योजना के तहत सरकार प्रौढ़ शिक्षा को पूरा करने, माध्यमिक शिक्षा को व्यापक बनाने और उच्च शिक्षा में वर्ष 2017 तक 20 प्रतिशत नामांकन बढ़ाने का लक्ष्य निर्धारित किया है, लेकिन अहलूवालिया ने कहा कि शिक्षा व्यवस्था में गुणवत्ता बड़ा मुद्दा है। हाल के कुछ अध्ययनों में पाया गया है कि पांचवीं कक्षा के छात्र दूसरी की पाठ्य पुस्तकें भी नहीं पढ़ पाते। यही स्थिति गणित विषय में है।
गुणवत्ता का यह अंतर सरकारी विद्यालयों में अधिक देखने को मिलता है। अहलूवालिया के मुताबिक, इस पर कभी ध्यान नहीं दिया गया कि हमारे देश में स्कूली शिक्षा में असमानता दूसरे विकासशील देशों की तुलना में कहीं अधिक है। शिक्षा में असमानता का यह कारण आय में बड़े अंतर को लेकर है। इसी तरह की चिंताएं उच्च शिक्षा तथा शीर्ष तकनीकी एवं चिकित्सा संस्थानों को लेकर भी है, जिसकी आलोचना कई जानेमाने शिक्षाविदों तथा उद्योगपतियों ने भी की है।
उन्होंने यह भी कहा कि शिक्षा में गुणवत्ता से समझौता किए बगैर देश में शैक्षणिक आधारभूत संरचना में विस्तार के लिए निजी क्षेत्र को इसकी अनुमति दिए जाने से सम्बंधित नियमों में कुछ परिवर्तन की आवश्यकता है। उनके अनुसार, इस वक्त निजी क्षेत्र को विस्तार की अनुमति जिन नियमों के तहत दी जाती है, वह बहुत अनुकूल नहीं है। शिक्षा के क्षेत्र में सुधार के लिए यश पाल समिति ने कई तरह के सुझाव दिए हैं। इनमें से एक सुझाव यह है कि उच्च शिक्षा के वास्ते एक आयोग स्थापित किया जाना चाहिए।
शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए यह जरूरी है कि हाल ही में सत्ता में आई सरकार यशपाल समिति के सुझावों पर अमल करे। नई सरकार के सत्ता संभलने के साथ ही यह उम्मीद जग गई है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव आएगा।
यश पाल समिति ने इस संबंध में अपने सुझाव पहले ही पेश कर दिए हैं। एक सुझाव यह है कि उच्च शिक्षा के लिए भारतीय प्रतिभूति विनिमय बोर्ड (सेबी) और चुनाव आयोग की तर्ज पर स्वतंत्र निकाय की स्थापना की जानी चाहिए।
समिति के सदस्यों का कहना है कि ज्यादा अच्छा होगा कि स्वतंत्र निकाय चुनाव आयोग के बजाए सेबी जैसा हो। यह निकाय उच्च शिक्षा आयोग (एचईसी) के नाम से जाना जाएगा और कुछ विस्तृत दिशा-निर्देशों के तहत यह संस्थानों व विश्वविद्यालयों को शैक्षणिक और वित्तीय मामलों में स्वतंत्रता उपलब्ध कराएगा।
ऐसे में एक सवाल यह उठता है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय का क्या होगा? अगर एचईसी की स्थापना हो जाएगी तो फिर मंत्रालय या विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआईसीटीई) और भारतीय चिकित्सा परिषद के लिए काफी कम जगह बचेगी।
अगर इन निकायों का अस्तित्व बना भी रहे, तब भी उनकी कोई शैक्षणिक भूमिका नहीं रहेगी। नई सरकार द्वारा गठित मंत्रालय को एचईसी की स्थापना का प्रबंध करना होगा और इस पर नियंत्रण के प्रलोभन से अपने आपको रोकना होगा। क्या नए शिक्षा मंत्री ऐसा करने में कामयाब हो पाएंगे?
इस मंत्रालय की बागडोर संभालने के लिए दो व्यक्तियों- प्रशासनिक सुधार आयोग के चेयरमैन वीरप्पा मोइली और पूर्व विज्ञान व तकनीकी मंत्री कपिल सिब्बल को संभावित उम्मीदवार के तौर पर देखा जा रहा है। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापक और यश पाल समिति के सलाहकार प्रोफेसर अपूर्वानंद कहते हैं - अगर वे संस्थान पर नियंत्रण रखेंगे तो फिर यह नया संस्थान नहीं कहलाएगा।
शिक्षाविदों को भरोसा है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह समिति की रिपोर्ट को गंभीरता से लेंगे। उन्हें उम्मीद है कि ओबीसी(अन्य पिछड़ा वर्ग) कोटा कमिटी और फिर प्रशासनिक सुधार आयोग की अध्यक्षता करने वाले मोइली जैसे व्यक्ति इसके लिए विधेयक लेकर आएंगे।
उच्च शिक्षा आयोग का नेतृत्व प्रधानमंत्री, उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और विपक्ष के नेता करेंगे और सहयोग के लिए शिक्षाविदों का एक बोर्ड होगा जो संस्थानों व विश्वविद्यालयों की गतिविधियों में हस्तक्षेप किए बिना शिक्षा से संबंधित मामलों की निगरानी करेगा।
अपूर्वानंद का कहना है कि आयोग के लिए सेबी रोल मॉडल हो सकता है। हालांकि समिति की रिपोर्ट में इस बारे में कुछ नहीं कहा गया है। अगर सेबी बाजार के लिए नियामक की तरह काम कर सकता है तो फिर शैक्षणिक संस्थानों के लिए सेबी की तरह नियामक क्यों नहीं हो सकता जो उन्हें आजादी दे सके और दिशा-निर्देश नहीं मानने पर तत्काल उनकी मान्यता समाप्त कर सकें।
समिति की मसविदा रिपोर्ट में अब तक इन दिशा-निर्देशों को शामिल नहीं किया गया है। कामकाज के प्रदर्शन से जुड़े संकेतक तय किए जाने बाकी हैं। इनमें इसे भी शामिल किया जा सकता है कि संस्थान कितने छात्रों को समावेशित कर रहा है या ज्ञान के सृजन में इसकी भूमिका कैसी है। संकेतकों को अनुदान से जोड़ा जा सकता है, यानी कि संकेतकों के अनुसार ही अनुदान तय होगा।
समिति ने विश्वविद्यालयों को भी फिर से पारिभाषित किया है। इसमें कहा गया है कि विश्वविद्यालय बनने के लिए शैक्षिक निकाय को विषयों की रूपरेखा में विस्तार करना होगा। अगर कोई संस्थान एकल विशेषता वाला संस्थान बना रहना चाहता है तो उसे डिप्लोमा देने वाले संस्थान के रूप में छोड़ दिया जाएगा, पर उसे दिशा-निर्देशों का कड़ाई से पालन करना होगा।
यहां डिप्लोमा देने वाले कई संस्थान हैं जिनकी अपने क्षेत्र (मसलन इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ मैनेजमेंट) में साख है और ये संस्थान एआईसीटीई या नैशनल असेसमेंट ऐंड एक्रिडिटेशन काउंसिल से मान्यता मिलने की बाबत ज्यादा चिंतित नहीं होते। निजी क्षेत्र में भी लॉ यूनिवर्सिटी ऑफ बेंगलुरु के अलावा ऐसे कई संस्थान हैं।
प्रोफेसर अपूर्वानंद ने कहा है कि जहां तक प्रशासन का सवाल है, आईआईएम रोल मॉडल हो सकता था। पाठयक्रम का मुद्दा ज्यादा गंभीर है। क्या यह विषय के संदर्भ, विकासशील ज्ञान या समाज के संदर्भ में होना चाहिए? या फिर यह महज परीक्षा की व्यवस्था के लिए होना चाहिए? ये कुछ सवाल हैं और इनका जवाब नई सरकार और इसके नए शिक्षा मंत्री के पास है।

उद्योगपति मुकेश अंबानी और अनिल अग्रवाल की राह पर चलते हुए अब एचसीएल के संस्थापक और अध्यक्ष शिव नाडर भी उच्च शिक्षा क्षेत्र में कदम रखने जा रहे हैं।

इसके लिए अरबपति नाडर ने नोएडा के बाहरी इलाके में विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय निर्माण के लिए 300 एकड़ जमीन खरीदी है। सूत्रों के अनुसार, विश्वविद्यालय निर्माण पर 300 करोड़ रुपये का खर्च आएगा।
जानकारों के मुताबिक, 'हर कंपनी इस बात का ध्यान रख रही है कि मन-मुताबिक कर्मचारी चाहिए, तो दूसरे संस्थानों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता है। साथ ही कॉरपोरेट सेक्टर चाहता है कि भारत के उच्च शिक्षा क्षेत्र के विकास में उसका भी योगदान हो। यही वजह है कि इस क्षेत्र की ओर से भागीदारी बढ़ रही है।'ऐसा माना जा रहा है कि पूर्व केंद्रीय सचिव टीएसआर सुब्रमण्यम इस मामले में नाडर  को सलाह दे रहे हैं। हालांकि यह पहली बार नहीं है, जब नाडर  ने शिक्षा के क्षेत्र में दखल दिया हो। चेन्नई में नाडर एसएसएन संस्थान चलाते हैं जहां इंजीनियरिंग, बायोमेडिकल इंजीनियरिंग, आईटी, प्रबंधन संबंधित शिक्षा और शोध का काम होता है।
नाडर की योजना इस बार आवासीय विश्वविद्यालय बनाने की है, जहां विश्व स्तरीय सुविधाएं उपलब्ध होंगी। सूत्रों के मुताबिक, नाडर की योजना है कि 2009 से विश्वविद्यालय में पढ़ाई शुरू की जा सके। एक अन्य सूत्र ने बताया कि आने वाले समय में शिक्षा क्षेत्र में तेजी से विकास का होगा।
फिलहाल इस क्षेत्र में निवेश सीमित है, पर रिटर्न काफी अच्छे दिख रहे हैं। यही वजह है कि कारोबारी इसमें दिलचस्पी ले रहे हैं। देश का उच्च शिक्षा क्षेत्र फिलहाल 1,00,000 करोड़ रुपये का है और उम्मीद है कि अगले तीन से पांच सालों में इसमें तीन गुना बढ़ोतरी होगी।


विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में कैंपस स्थापित करने की अनुमति देकर भारतीय उच्च शिक्षा को विदेशी प्रतिस्पर्धा के लिए खोलने से कुछ उसी तरह का असर हो सकता है जैसा कि 1991 के उदारीकरण के बाद हमारी अर्थव्यवस्था में देखने को मिला था।
इस कदम का पूर्ण आकलन इस बाबत कानून बनाए जाने के बाद ही किया जा सकता है। सबसे अच्छी संभावना यह हो सकती है कि इससे भारत में विश्व स्तर की बेहतरीन शिक्षा सुलभ होगी और प्रतिस्पर्धा का सामना करने के वास्ते भारतीय उच्च शिक्षा को सुधार के लिए मजबूर होना पड़ेगा।
सबसे खराब संभावना यह हो सकती है कि देश में विश्व के दूसरे दर्जे के संस्थानों का प्रवेश हो सकता है और वह भी मात्र ऐसे क्षेत्रों में जहां भारी कमाई की गुंजाइश होगी, वे अग्रणी राष्ट्रीय संस्थानों से अच्छे प्राध्यापकों को अपने संस्थान में ले जा सकते हैं और इससे गुणवत्ता या मात्रा (सीट) पर शायद ही कोई असर पड़े। विश्व स्तर के अग्रणी संस्थानों में से कुछ ने कहा है कि वे भारत में प्रवेश की हड़बड़ी में नहीं हैं।
सरकारी कदम के बारे में  परस्पर विरोधी दो धारणाओं को आईआईएम अहमदाबाद के दो निदेशकों ने बेहतर तरीके से रेखांकित किया है। वर्तमान अधिकारी इस पर निराशा की झलक दे रहे हैं जबकि पूर्व अधिकारी आशा जता रहे हैं। निराशा का आधार यह है कि सबसे अच्छे राष्ट्रीय संस्थान असमान मुकाबले में फंस जाएंगे।
उसके पास न तो इस बात की स्वायत्तता है कि क्या करने की दरकार है और न ही सबसे अच्छे प्राध्यापकों को संस्थान में बनाए रखने के लिए उनके पास संसाधन है। संक्षेप में, विदेशी संस्थानों का प्रभावी तरीके से मुकाबला करने के लिए भारतीय संस्थानों को लेवल प्लेइंग फील्ड की दरकार है। उन्हें यह जरूर मिलेगा।
मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल से उम्मीद है कि वह व्यापक स्वायत्तता देंगे, लेकिन मुद्दा यह है कि मंत्री का आना-जाना लगा रहेगा और ऐसे में ऐसी संस्थागत व्यवस्था बनाए जाने की दरकार है जो यह सुनिश्चित करे कि राजनेता-नौकरशाह का गठजोड़ उस पर पंजा न मार दे जिसे कि इसने एक समय छोड़ दिया था।
संसाधनों के मुद्दे को सुलझाना ज्यादा मुश्किल हो सकता है। अच्छे प्राध्यापक हासिल करने के लिए वैसे संस्थानों को बेहतर भुगतान करना होगा जिनके पास पहले ही बड़ी संख्या में रिक्त पद हैं। चूंकि बढ़ते घाटे को पूरा करने की सरकार की क्षमता सीमित है, इसलिए ज्यादा शुल्क वैसे उवल भविष्य वाले युवाओं का मार्गदर्शन नहीं कर सकता, जो सबसे अच्छी शिक्षा के लिए इसका भार सहन करने में असक्षम हों। इसके दो निदान हैं।
पहला, फीस बढ़ाइये पर सहायता व सस्ते शिक्षा ऋण का दायरा भी बढ़ाइये ताकि पूरी व्यवस्था कुल मिलाकर संसाधन के मामले में ठीक-ठाक रहे। दूसरा, अकादमिक वातावरण में सुधार लाइये, खास तौर पर शोध के मामले में क्योंकि अच्छे वेतन से सबसे अच्छी प्रतिभा वाले शिक्षक आकर्षित होते हैं। सीधे तौर यह पूरी तरह संस्थानों के नेतृत्व के पाले में है।
आईआईएम-ए के निदेशक यह भी महसूस करते हैं कि कोटे के साथ जीवित रहने से भारतीय संस्थानों को नुकसान हो रहा है। विदेशी संस्थान भी सहायता न पाने वाले घरेलू निजी संथान से अलग नहीं होंगे, जिन्हें कोटे को स्वीकार करने को बाध्य नहीं किया जा सकता।

ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना को जब सार्वजनिक किया गया तो बजट परिव्यय में चार गुना बढ़ोतरी की वजह से शिक्षा क्षेत्र के लिए इसे वरदान के तौर पर माना गया।
सरकार द्वारा परिव्यय में बढ़ोतरी, अतिरिक्त हायर इंस्टीटयूट्स की स्थापना, 2015 तक ग्रॉस एनरॉलमेंट रेशियो (जीईआर) 36 फीसदी की बढ़ोतरी पर जोर दिए जाने, कॉलेजों में शिक्षा की गुणवत्ता के लिए ठोस कदम उठाए जाने और फैकल्टी के विकास के प्रस्तावित तरीकों आदि की वजह से हायर एजूकेशन सेगमेंट को स्पष्ट लाभार्थी माना गया है।
सरकार ने सही कदम उठा कर शिक्षाविदों का उत्साह और बढ़ा दिया है। सरकार ने उच्च शिक्षा के लिए समग्र योजना बजट में 2000 करोड़ रुपये तक की बढ़ोतरी कर इसे 9600 करोड़ रुपये कर दिया है। आईआईटी और एनआईटी के लिए 2,113 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं जिसमें नए आईआईटी और एनआईटी के लिए 450 करोड़ रुपये की राशि भी शामिल है।
ये कदम शिक्षाविदों में यह विश्वास पैदा करते हैं कि सरकार अब अपने वादों को पूरा करेगी। उनकी चिंताएं निराधार नहीं हैं। सैम पित्रोदा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय ज्ञान आयोग (एनकेसी) ने यह स्वीकार किया कि भारत में उच्च शिक्षा में जो संकट है, वह गहराई तक मौजूद है। लेकिन यह प्रत्यक्ष तौर पर नहीं दिखता है क्योंकि इसमें उत्कृष्टता, प्रतिभाशाली लोगों का एक बड़ा वर्ग भी मौजूद है।
वास्तविकता यह है कि अभी हमें मीलों सफर तय करना है। इस पर विचार कीजिए। 1.4 करोड़ छात्रों और 5 लाख से अधिक शिक्षकों के साथ भारतीय उच्च शिक्षा दुनिया में तीसरे स्थान पर है। लेकिन उच्च शिक्षा के लिए भारत की जीईआर फिलहाल लगभग 11 फीसदी है जो 23 फीसदी के वैश्विक औसत या विकसित देशों के 55 फीसदी की तुलना में काफी कम है।
देश की आबादी (18-24 वर्ष के उम्र वर्ग के बीच) का महज 7 फीसदी हिस्सा ही उच्च शिक्षा के क्षेत्र से संबद्ध है जो एशिया के औसत से आधा है। इसके अलावा भारत में शहरी जीईआर ग्रामीण जीईआर (7.51) की तुलना में लगभग तीन गुना अधिक है। भारत में शहरी जीईआर 22.56 है। महिलाओं के लिए, यह चार गुना अधिक है।
अगर सरकार जीईआर के अपने अपेक्षित आंकड़ों के नजदीक पहुंचना चाहती है तो इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए परिव्यय और विश्वविद्यालयों की संख्या, दोनों में इजाफा करना होगा। भारत को 2012 तक जीईआर के 15 फीसदी के लक्ष्य को हासिल करने के लिए कम से कम 1500 विश्वविद्यालयों की जरूरत है।
फिलहाल भारत में विश्वविद्यालयों की संख्या लगभग 430 है। अगर इस लक्ष्य को हासिल कर लिया जाता है तो 2012 तक अनुमानित रूप से 60 लाख छात्र जुड़ जाएंगे। फिलहाल छात्रों का यह आंकड़ा लगभग 1.5 करोड़ है।
नई दिल्ली स्थित नैशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजूकेशनल प्लानिंग ऐंड एडमिनिस्ट्रेशन के प्रोफेसर सुधांशु भूषण का कहना है कि अगर हम मान कर चलते हैं कि 18 से 24 वर्ष के उम्र वर्ग की एक लाख आबादी के लिए 10 कॉलेज हैं तो 2012 तक देश को 14,302 कॉलेजों की जरूरत पड़ेगी। 11वीं पंचवर्षीय योजना में अतिरिक्त 2602 कॉलेज निहित हैं।
हालांकि शिक्षकों के खाली पदों को लेकर स्थिति चिंताजनक है। कॉलेजों की संख्या बढ़ने पर यह समस्या और गहरा जाएगी। सरकारी विश्वविद्यालयों में खाली पदों का कुल स्तर 58 फीसदी है। लेक्चरर एवं रीडर्स के लिए शिक्षकों के अभाव की समस्या ज्यादा गंभीर है। अगर आपूर्ति एवं मांग में अंतर अधिक है तो जीईआर बढ़ाए जाने की सरकार की महत्त्वाकांक्षी योजना पूरी तरह विफल साबित हो सकती है।



विदेशी शैक्षणिक संस्थान विधेयक, 2010 को अगर उच्च शिक्षा में मौजूदा खामियों के साथ पारित कर दिया जाता है तो इससे उच्च शिक्षा का स्तर गिरेगा और शिक्षण व्यवस्था में भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा मिलेगा।
पूर्व मंत्रियों की तरह ही कपिल सिब्बल ने भी उच्च शिक्षा क्षेत्र में सुधार लाने के लिए ईमानदार कोशिशें की हैं, मगर वह दुर्भाग्यवश इस विधेयक को उतना आकर्षक नहीं बना पाए हैं कि विदेशी विश्वविद्यालय भारत में उच्च शिक्षा को बेहतर बनाने में दिलचस्पी लें और 21 फीसदी का सकल पंजीकरण अनुपात (जीईआर) हासिल करें।
भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली दुनिया की सबसे बड़ी प्रणालियों में से एक है। मुल्क में इस वक्त करीब 430 विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षा के 22 हजार संस्थान हैं। मुल्क का उच्च शिक्षा में जीईआर करीब 12 फीसदी का है, जबकि वैश्विक औसत 23.2 फीसदी का है। विकसित मुल्कों में यह आंकड़ा 54.6 फीसदी और एशियाई मुल्कों में 22 फीसदी का है।
सरकार इसे बढ़ाकर 2017 तक 21 फीसदी तक लाना चाहती है। सरकार ने 2011-12 तक जीईआर को 15 फीसदी के स्तर तक लाने का लक्ष्य रखा है। इसके लिए विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में 2.1 करोड़ छात्रों को एडमिशन देने की जरूरत है।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इसमें निजी और गैर सहायता प्राप्त उच्च शिक्षण संस्थानों की हिस्सेदारी 51 फीसदी की होगी। जाहिर सी बात है कि सरकार सिर्फ अपने बूते पर जीईआर के लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकती है। इसके लिए उसे निजी क्षेत्र से भी भागीदारी चाहिए होगी।
कैबिनेट के इस विधेयक को मंजूरी देने के बाद सिब्बल का कहना था कि, 'यह एक मील का पत्थर साबित होगा। इससे प्रतिस्पध्र्दा बढ़ेगी और गुणवत्ता में भी सुधार आएगा। टेलीकॉम सेक्टर से भी बड़ी क्रांति हमारा इंतजार कर रही है।' उच्च शिक्षा में निजी निवेश कंपनियां को फायदा कमाने का अधिकार नहीं है। फिर भी ये छात्रों से मोटी रकम फीस के रूप में वसूल कर रही हैं।
हालांकि, निजी निवेश से उच्च शिक्षा काफी सुधरने के आसार हैं क्योंकि इनसे लोगों की उच्च शिक्षा तक पहुंच बढ़ेगी और प्रतिस्पध्र्दा से शिक्षा के स्तर में सुधार आएगा। हालांकि, मुल्क में सचमुच कैंपस स्थापित करने की इच्छुक विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए सरकार ने बहुत थोड़ी सी रियायत दी है।
भारत में आने के लिए इन विश्वविद्यालयों को कम से कम 51 फीसदी पूंजी का निवेश करना पड़ेगा। इसके अलावा, 49 फीसदी के लिए उन्हें ऐसे किसी साझेदार की जरूरत होगी, जो मुनाफा कमाने का इच्छुक न हो। यह काम किसी भी सूरत में आसान नहीं है। ऊपर से इसके यूजीसी कानून, 1956 के तहत सिर्फ मानद विश्वविद्यालय का तमगा दिया जा सकता है।
साथ ही, एनसीएचईआर विधेयक के तहत वे अपना कुलपति भी नियुक्त नहीं कर सकते। भारत में उच्च शिक्षा जटिल कानूनों में फंसी रही है। वैसे, कई लोगों का मानना है कि इस विधेयक की वजह से सरकार हर साल मुल्क से बाहर जाने वाली 7.5 अरब डॉलर की उस रकम बचाने में कामयाब होगी, जो 5 लाख देसी छात्र विदेशी संस्थानों में उच्च शिक्षा हासिल करने में खर्च करते हैं।
वे सिर्फ विदेशी डिग्री के लिए नहीं, बल्कि वहां की संस्कृति और वातावरण को समझने के लिए विदेश जाते हैं। साथ ही, उन्हें वर्क परमिट की भी चिंता होती है, जो वहां पढ़ाई करने से उन्हें आसानी से मिल सकती है। ये चीजें उन्हें देश में चल रही विदेशी यूनिवर्सिटी से नहीं मिल सकती है। 
विदेशी शिक्षण संस्थान (प्रवेश व परिचालन नियमन) विधेयक, 2010 की हमारे साथ-साथ ज्यादातर देसी संस्थानों ने तारीफ की है। स्वस्थ प्रतिस्पध्र्दा मुल्क के विकास के लिए काफी अच्छी बात होती है। हमने टेलीकॉम, आईटी और ऑटो जैसे कई क्षेत्रों में इसके फायदे को देखा है।
मेरे मुताबिक यह उच्च शिक्षण संस्थानों के लिए भी ताजा हवा के झोंके की तरह आएगी। वैसे, मैंने अब तक इस विधेयक के संशोधित मसौदे को नहीं देखा और मेरी बातों का आधार मीडिया में इसके बाबत छपी खबरें हैं। मुझे लगता है कि यह सही दिशा में उठाया गया एक सही कदम है।
हालांकि, सरकार को यह बात सुनिश्चित करनी चाहिए कि सिर्फ अव्वल दर्जे के विदेशी विश्वविद्यालयों को ही भारत में कैंपस स्थापित करने की इजाजत दी जाए। इससे देसी संस्थान को भी वैश्विक मानकों के स्तर पर आने में मदद मिलेगी। यूनिवर्सिटी को कैंपस स्थापित करने की इजाजत देने की प्रक्रिया भी पारदर्शी और पक्षपात रहित होनी चाहिए।
अहम बात यह है कि मुल्क में आने वाले विश्वविद्यालय वही पाठयक्रम अपनाएं, वही गुणवत्ता रखें और वही डिग्री दें, जो वे अपने मुल्क में देती हैं। नियमन के ढांचे में डयूल डिग्री और क्रेडिट्स की पोर्टेबिलिटी का ख्याल रखा जाना चाहिए। कुछ लोगों के मुताबिक ये संस्थान ज्यादा वेतन देंगे, तो अच्छे अध्यापक उनकी ओर जा सकते हैं।
मेरी मानें तो कुछ अध्यापक ऐसा जरूर करेंगे, लेकिन ज्यादातर अपने पुराने संस्थानों से ही जुड़े हुए रहेंगे। दरअसल, ज्यादा प्राध्यापकों ने अपनी पसंद से अध्यापन के पेशे को चुना है और उन्हें मोटी कमाई का कोई लालच नहीं रहता। सही अकादमिक और शोध वातावरण अहम होते हैं और इन्हें बेहतरीन संस्थान की स्थापना में लंबा वक्त लगेगा।
कुछ लोगों को लगता है कि विदेशी संस्थानों द्वारा यहां कैंपस खोले जाने से देसी छात्रों का पलायन रुक जाएगा। हालांकि, मेरे मुताबिक ये संस्थान तभी छात्रों का पलायन रोकने में कामयाब होंगे, जब वे एक उचित फीस निर्धारित करेंगे। नहीं तो छात्रों का पलायन बदस्तूर जारी रहेगा। उल्टे वही छात्र इन संस्थानों में एडमिशन लेंगे, जो विदेशों में जाकर विदेशी संस्थानों में नामांकन नहीं हासिल कर पाए।
इसके अलावा, विधेयक के इस पहलू पर अब भी लोग चिंतित हैं कि इसके तहत इन विदेशी संस्थानों को अपनी फीस निर्धारित करने का अधिकार होगा। साथ ही, इनके एडमिशन की भी अपनी प्रक्रिया होगी। अगर सचमुच ऐसी बात है, तो यह अधिकार देसी संस्थानों को भी मिलना चाहिए।
ये सरकार का दायित्व है कि वह सबके लिए एक जैसे नियम बनाए, चाहे वह देसी हो या विदेशी। अगर इन विदेशी संस्थानों को मुनाफा कमाने का अधिकार होगा, तो यह अधिकार देसी संस्थानों को भी मिलना चाहिए। अगर विदेशी संस्थानों में कोटा प्रणाली लागू नहीं होगी, तो देसी संस्थानों को भी इससे राहत मिलनी चाहिए। इस क्षेत्र में सबके लिए एक जैसे कायदे-कानून होने चाहिए।
सरकार को उच्च शिक्षा में जीईआर में इजाफा करने में अच्छी खासी मेहनत करनी पड़ सकती है। सरकारी योजना के मुताबिक मौजूदा 12 फीसदी के स्तर से बढ़ाकर वह इसे 2020 तक 30 फीसदी के स्तर तक लेकर जाना चाहती है।
सरकार सिर्फ अपने बूते पर जीईआर के लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकती है। इसीलिए इसमें उसे विदेशी के साथ-साथ देसी उच्च शिक्षण संस्थानों की भी मदद लेनी ही पड़ेगी।

आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि उच्च शिक्षा के लिए भारत को वैश्विक हब के रूप में विकसित किए जाने की दरकार है। इस बाबत समीक्षा में विस्तार से बताया गया है कि किस तरह ये चीजें हमारी अर्थव्यवस्था के विकास में मदद कर सकती हैं।
इसमें कहा गया है कि विकासशील के साथ-साथ अमेरिका जैसे विकसित देशों के छात्रों के लिए भारत एक ऐसी कीमत पर शिक्षा की पेशकश कर सकता है जो अमेरिका में चुकाई जाने वाली फीस के मुकाबले काफी कम हो और इसके वह लाभ भी हासिल कर सकता है। इस बाबत छात्रों के लिए वीजा नियमों में बदलाव की जरूरत होगी। इसके अलावा स्वास्थ्य व शिक्षा जैसे सामाजिक क्षेत्रों में उपलब्ध संसाधन और जरूरत के बीच की खाई पाटने के लिए समीक्षा में पब्लिक-प्राइवेट पाटर्नरशिप की सिफारिश की गई है। इंडोनेशिया, श्रीलंका, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों के मुकाबले मानव विकास के मामले में भारत अभी भी मध्यम दर्जे में शामिल है जबकि इन देशों की रैंकिंग कहीं ऊंची है। समीक्षा में सामाजिक-आर्थिक विकास के बाबत अंतरराज्यीय तुलना भी की गई है। इसमें झारखंड जहां प्राथमिक शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात के मामले में बेहतर प्रदर्शन करने वाला है, वहीं बिहार का स्थान गुजरात के बाद दूसरा है।

कानपुर में आयोजित अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन सम्मेलन में दुनिया के कुछ शीर्ष शिक्षाविदों ने शिरकत की। आयोजन में वैश्विक उच्च शिक्षा से संबंधित तमाम पहलुओं पर चर्चा की गई। समारोह में मुख्य वक्तव्य देते हुए ब्रिस्टल लॉ स्कूल की कुलपति एवं कार्यकारी डीन प्रोफेसर जेन हैरिंगटन ने वैश्विक स्तर पर उच्च शिक्षा क्षेत्र के आकार,उसके महत्त्व और उससे जुड़ी उन चुनौतियों को रेखांकित किया जिनसे पार पाकर विद्यार्थी भविष्य में कारोबारी क्षेत्र का नेतृत्व कर सकेंगे।
जेन ने वैश्विक उच्च शिक्षा क्षेत्र के विकास के समक्ष चुनौतियों, उससे जुड़े अवसरों तथा विकल्पों की भी बात की। उन्होंने तकनीकी रूप से सक्षम शिक्षण पर जोर देते हुए बताया कि कैसे यह राष्ट्रीय सीमाओं को पार कर उच्च शिक्षा के फलक को परिवर्तित कर सकता है। बीते सप्ताह आयोजित सम्मेलन में वित्तीय विश्लेषण एवं बाजार तथा विपणन एवं ग्राहक उन्मुखीकरण नामक दो सत्र भी आयोजित किए गए। सम्मेलन के पहले दिन विभिन्न विद्वानों ने तकरीबन 26 शोधपत्र प्रस्तुत किए। इन शोध पत्रों को न केवल एक अंतरराष्ट्रीय जर्नल में प्रकाशित किया जाएगा और बाद में इन्हें एक पुस्तक का रूप दिया जाएगा।
सम्मेलन के दूसरे दिन आरंभिक सत्र में 'ग्लोबल बिजनेस होराइजंस चैलेंज्स ऐंड अपॉच्र्युनिटीज' विषय पर चर्चा हुई। इस सत्र में वहां मौजूद विद्वानों ने प्रबंधन संबंधी उन चुनौतियों के बारे में चर्चा की जिनका सामना भारत को मौजूदा परिदृश्य में करना पड़ रहा है। दिन के दूसरे सत्र में बातचीत का विषय रहा मानव संसाधन और संगठन। दूसरे दिन के प्रमुख वक्तव्य में आईटीएम विश्वविद्यालय गुडग़ांव के स्कूल ऑफ मैनेजमेंट के डीन डॉ. गौर सी साहा ने कहा कि भारतीय कारोबारी जगत को प्रतिस्पर्धा, नई पहलों के प्रबंधन, बढ़ती श्रम लागत, महंगाई और बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में अप्रत्याशित चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा
 है। उन्होंने जोर देकर कहा कि देश के जीडीपी में विनिर्माण क्षेत्र का योगदान कम है और नीति
निर्माताओं को इस पर ध्यान देना चाहिए और जरूरी रणनीति तैयार करनी चाहिए। सम्मेलन केे दूसरे दिन सभी सत्रों में मिलाकर 24 शोध पत्र प्रस्तुत किए गए।
अग्रणी प्रबंधन संस्थान जीएचएस-आईएमआर द्वारा आयोजित इस सम्मेलन में शिक्षा क्षेत्र से जुड़े उपरोक्त विद्वानों के अलावा भारत समेत ब्रिटेन, जोर्डन, अमेरिका के विभिन्न बड़े शक्षण संस्थानों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया।


9 comments:

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