Friday 14 July 2023

आशंकाओं की आंच में तपकर खड़ा है मिशन चंद्रयान-3

 चंद्रभूषण

चंद्रयान-3 को आज इसके लंबे सफर पर रवाना कर देने की तैयारियां पूरी कर ली गई हैं। लक्ष्य इसमें मौजूद लैंडर को 23 अगस्त के दिन चंद्रमा पर उतारने का है, ताकि चांद की सतह पर चहलकदमी करने वाला रोवर वहां 14 दिन लंबे एक चंद्र-दिन की रोशनी का भरपूर फायदा उठा सके। 

चंद्रमा तक पहुंचने का इसका रास्ता ठीक वैसा ही होगा जैसा चंद्रयान-2 का था। प्रक्षेपण के बाद धीरे-धीरे अपना दायरा बढ़ाते हुए पृथ्वी की एक तीखी इलिप्टिकल कक्षा में पहुंचना, इस प्रक्रिया में पलायन वेग (एस्केप वेलॉसिटी) हासिल करके अपने सफर का मुख्य भाग सूरज के इर्दगिर्द पृथ्वी की कक्षा में तय करना, फिर चंद्रमा की एक बड़ी गोलाकार कक्षा में प्रवेश लेना और अंत में छोटी होती स्थिर कक्षा में पहुंच कर लैंडर को चंद्रमा पर उतारने की प्रक्रिया शुरू कर देना। 

चंद्रयान-2 का एक काम चंद्रमा की कक्षा में ऑर्बिटर की स्थापना का भी था, जो इस बार नहीं करना है। 2019 में वहां स्थापित किया हुआ ऑर्बिटर आज भी चाक-चौबंद है। चंद्रयान-3 की सफलता में उसकी एक अहम भूमिका होगी। जितनी उत्सुकता चंद्रयान-3 को लेकर अभी भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में देखी जा रही है, वह अबतक विरले ही अंतरिक्ष अभियानों के हिस्से आई है। कारण यह कि चंद्रयान-2 मंजिल के बहुत करीब पहुंच कर पूर्ण सफलता से चूक गया था। 

सबके मन में यह सवाल है कि इसरो अपनी उस नाकामी से क्या इतनी सीख ले पाया है कि चार साल के अंदर ही उसे कामयाबी में बदलकर दिखा दे? ऐसा हो गया तो यह एक असाधारण काम को किसी तुक्के में नहीं बल्कि डंके की चोट पर पूरा कर लेने जैसा होगा। बिल्कुल संभव है कि इस सफलता के बाद इसरो को चंद्र अभियानों के मामले में भी उतनी ही कुशल और भरोसेमंद संस्था माना जाने लगे, जितना अभी छोटे उपग्रहों की स्थापना के मामले में समझा जाता है। चंद्रमा को लेकर जैसी आपाधापी इधर पूरी दुनिया में देखी जा रही है, उसमें इस बात के कुछ अलग मायने होंगे।

आधी सदी का फासला और चीन

आगे बढ़ने से पहले एक बात का ध्यान रखना जरूरी है कि देश-विदेश में चंद्र अभियानों को लेकर मौजूद तमाम जानकारियों में भारी कन्फ्यूजन है। एक तल्ख हकीकत को सूचनाओं के इस अंबार में सचेत ढंग से छिपाया जाता रहा है। यह बात सुनने में बड़ी प्यारी लगती है कि चंद्रमा पर सॉफ्ट लैंडिंग, यानी सुरक्षित रूप में यान उतारने की उपलब्धि अभी तक सिर्फ अमेरिका, रूस और चीन ने हासिल की है, चंद्रयान-3 की सॉफ्टलैंडिंग कराकर भारत इस सूची में चौथा देश बन सकता है। 

इससे ऐसा लगता है कि कम से कम तीन देशों के लिए तो चंद्रमा पर यान उतारना अब एक सामान्य बात हो गई होगी। सचाई यह है कि मानवजाति चंद्रमा पर सॉफ्ट लैंडिंग की तकनीक एक बार ईजाद करके जैसे भूल ही गई है। इससे यह षड्यंत्र सिद्धांत चल निकला कि चंद्रमा पर अपोलो कभी उतरा ही नहीं। तथ्यों पर जाएं तो चंद्रमा पर सुरक्षित तरीके से अपना अंतिम यान अमेरिका ने सन 1972 में उतारा था, जबकि रूस, या यूं कहें कि सोवियत संघ ने यह काम अंतिम बार 1976 में किया था। तब से लेकर अब तक गुजरी आधी सदी में ये दोनों देश टेलिस्कोप से या किसी खोजी उपग्रह की आंखों से ही चंद्रमा को निहारते आ रहे हैं। 

गहरे प्रेक्षण के लिए आम चलन किसी चीज को पूरे वेग से चंद्रमा की सतह पर गिराने का रहा है, जैसा चंद्रयान-1 के साथ हुआ था। इससे जो धूल और भाप उड़ती है, उसकी स्पेक्ट्रोग्राफी से चांद की बनावट को लेकर नतीजे निकाले जाते हैं। पृथ्वी के इस अकेले उपग्रह पर सॉफ्टलैंडिंग में अकेली महारत फिलहाल चीन को हासिल है, जिसने 2013 से 2020 के बीच यह काम तीन बार फूलप्रूफ ढंग से किया है। 

अमेरिका, रूस, चीन और भारत के अलावा चंद्रमा पर यान उतारने की कोशिश इजराइल ने भी की है, लेकिन 2019 में उसके यान बेरेशीट के लिए नतीजा अच्छा नहीं रहा। सतह पर पहुंचने से दो किलोमीटर पहले कमांड सेंटर से उसका संवाद टूट गया और लैंडर का कुछ पता नहीं चला।

फेल्योर बेस्ड मॉडल

इसरो का कहना है कि चंद्रयान-3 को लेकर उसकी तैयारी चंद्रयान-2 के उलट तरीके से की गई है। इसे फेल्योर बेस्ड मॉडल कहा जा रहा है, यानी किन-किन स्थितियों में क्या-क्या चीजें गड़बड़ हो सकती हैं, ऐसी आशंकाओं को सामने रखते हुए सारी तैयारियां की गई हैं। इसके अलावा लैंडिंग के लिए इलाका भी पहले से ज्यादा बड़ा, लगभग पचास गुना चुना गया है। 

चंद्रयान-2 द्वारा स्थापित ऑर्बिटर ने लैंडिंग के लिए निर्धारित इलाके की काफी ब्यौरेवार तस्वीरें पिछले चार साल में इसरो को मुहैया कराई हैं। अभी इन तस्वीरों के आधार पर लैंडिंग वाली जगह पर 28 सेंटीमीटर तक की लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई वाली चीजों का ब्यौरेवार खाका इसरो ने तैयार कर रखा है। लैंडर की बनावट ऐसी है कि उसका एक पाया दो मीटर ऊंची चट्टान पर पड़ जाए तो भी वह असंतुलित होकर ढह नहीं जाएगा। फिर भी उतराई के दौरान रफ्तार नियंत्रित रहे तो लैंडिंग के लिए जमीन जितनी समतल मिलेगी, लैंडर और रोवर की सुरक्षा के लिए उतना ही अच्छा रहेगा। 

याद रहे, चंद्रमा पर हवा बिल्कुल ही नहीं है, लिहाजा न पैराशूट काम करते हैं, न गुब्बारे, न ही ग्लाइडर नुमा कोई ढांचा। नीचे आने की रफ्तार और दिशा रॉकेटों से ही नियंत्रित करनी होती है। चंद्रयान-2 के लैंडर में इस काम के लिए पांच रॉकेट लगाए गए थे। चार कोनों पर और पांचवां बीच में। चंद्रयान-3 के लैंडर में बीच वाला रॉकेट हटा दिया गया है। चार रिवर्स रॉकेटों से ही इसकी रफ्तार को पांच हजार मील प्रति घंटा की रफ्तार से घटाकर लगभग शून्य गति से खटोले की तरह सतह पर उतार देना है। 

क्या मकसद सधेगा

चंद्रयान-3 मिशन के पीछे इसरो का पहला मकसद तो चंद्रमा पर सॉफ्टलैंडिंग और उसपर अपनी खोजी गाड़ी चलाने की क्षमता प्रदर्शित करना ही है, लेकिन इसके साथ भेजे जा रहे यंत्र आगे के महत्वाकांक्षी अभियानों के लिए कुछ बहुत जरूरी प्रेक्षण भी लेंगे। लैंडर को चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के पास, 70 डिग्री अक्षांश और 32 डिग्री देशांतर में उतारने का सबसे बड़ा उद्देश्य यह है कि यहां बर्फ मिलने की संभावना तुलनात्मक रूप से ज्यादा है। 

अमेरिका, रूस और चीन ने अपने यान चंद्रमा की भूमध्य रेखा के पास उतारे हैं जो कम्युनिकेशन की दृष्टि से अच्छी जगह है। चंद्रयान-2 के क्षेपण से पहले चीनी अंतरिक्ष विज्ञानियों ने चिंता जताई थी कि 70 डिग्री दक्षिण में रोशनी कम रहती है और संवाद भी कठिन हो जाता है। लेकिन चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के पास के इलाके संसाधनों की दृष्टि से काफी बेहतर हैं। हमेशा छाया में रहने वाली जगहें उधर ज्यादा हैं तो गैसीय संसाधनों की संभावना भी ज्यादा होगी।

चंद्रयान-3 की कोशिश चंद्रधूल का तात्विक अध्ययन करने के अलावा वहां मौजूद पत्थरों की क्रिस्टलीय संरचना समझने की रहेगी। सतह के पास वायुमंडल जैसा, या धूल-भाप और आवेशित कणों के घोल जैसा कुछ है या नहीं, यह जानने का प्रयास भी वह करेगा। इसके लिए जरूरी यंत्र लैंडर और रोवर में लगे हैं। इसके अलावा सूक्ष्म भूकंपीय तरंगों का प्रेक्षण लेना भी इस मिशन का एक मकसद है, जिनके अध्ययन से चंद्रमा की भीतरी सतहों और उसके केंद्र के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां मिल सकती हैं। 

वैज्ञानिक प्रेक्षण

एक जरूरी प्रेक्षण चंद्रमा की ताप चालकता को लेकर लिया जाना है, यानी सूरज की भीषण गर्मी वहां कितनी जल्दी कितनी गहराई तक पहुंच पाती है। चंद्रमा पर भविष्य में बनने वाली वैज्ञानिक बस्तियों का स्वरूप काफी कुछ इसी पर निर्भर करेगा। इस प्रेक्षण के लिए एक कील को चंद्रमा की सतह पर दस सेंटीमीटर गाड़ दिया जाएगा और सवा सौ डिग्री सेंटीग्रेड से भी ज्यादा तापमान वाले, चौदह दिन लंबे तीखे चंद्र-दिन में कील के हर हिस्से के तापमान का प्रेक्षण लेते हुए चंद्रमा की ताप चालकता को लेकर पहली बार कुछ नतीजे निकाले जाएंगे।

यहां चंद्रमा के दिन-रात को लेकर कुछ जरूरी बातों का जिक्र भी जरूरी है। यह आकाशीय पिंड अपनी धुरी पर घूमता ही नहीं। लिहाजा जैसे धरती के दिन-रात इसके अपनी धुरी पर घूमने पर निर्भर करते हैं, वैसा कुछ चंद्रमा के साथ नहीं है। जो हिस्सा सूरज के सामने पड़े वहां दिन और जो पीछे पड़े वहां रात। चंद्रमा पर रात के समय थर्मामीटर में पारा जीरो से बहुत नीचे, माइनस 173 डिग्री सेंटीग्रेड- कभी थोड़ा कम, कभी ज्यादा- तापमान दिखाता है। फिर रात बीतने पर धरती के चौदह दिनों जितना ही लंबा एक दिन वहां उगता है तो पारा धीरे-धीरे नहीं, बल्कि अचानक ही चढ़कर 127 डिग्री सेंटीग्रेड तक चला जाता है- सीधे 300 डिग्री सेंटीग्रेड की उछाल!

टेंपरेचर की यह रेंज इतनी बड़ी है कि कामकाजी दायरे में आने वाली धरती की ज्यादातर चीजें सिर्फ इसके सर्द-गर्म के असर में आकर बिल्कुल नाकारा और जब-तब भुरभुरी होकर रह जाती हैं। इससे भी बड़ी समस्या रेडिएशन की है। सौर ज्वालाओं के साथ आने वाले जानलेवा रेडिएशन से बचाने के लिए ओजोन लेयर जैसी कोई चीज तो वहां है ही नहीं, ऐसी कोई आड़ भी खोजना मुश्किल है, जहां छिपाकर मशीनों के सर्किट बचाए जा सकें। 

आर्टेमिस में इसरो

अभी जब 1930 के दशक में प्रायोगिक तौर पर थोड़े-थोड़े समय के लिए वैज्ञानिकों को चांद पर रखने की बात अमेरिका और चीन में चल रही है, तब पहला सवाल सबके सामने यही है कि वहां ये रहेंगे कहां और उनके उपकरण काम कैसे करेंगे? चंद्रयान-3 चंद्रमा की जमीन पर ऐसे सवालों को हल करने की शुरुआत करेगा और इस मामले में वह चीन के अलावा यकीनन बाकी पूरी दुनिया से आगे रहेगा। 

उसकी जुटाई हुई सूचनाओं का महत्व भारत के बाद किसी के लिए सबसे ज्यादा होगा तो वह है अमेरिका, जिसके नेतृत्व में चल रहा आर्टेमिस अभियान तकनीक और निवेश में काफी आगे होते हुए भी जमीनी नतीजों के मामले में बहुत पीछे है। थोड़ा ही पहले, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के समय इसरो को आर्टेमिस अभियान से जोड़ने को लेकर एक समझौता हुआ है। दुनिया की कई अंतरिक्ष एजेंसियां पहले से ही इस अभियान का हिस्सा हैं, लेकिन इसरो जैसी उपलब्धियां इनमें किसी के पास नहीं हैं। 

चंद्रयान-1 की कोशिशों से ही पहली बार चंद्रमा को संसाधनों की नजर से देखा गया, वरना अमेरिकियों ने तो उसे पत्थर और धूल का ढेर मानकर छोड़कर दिया था। इसरो की प्रतिष्ठा आर्टेमिस से जुड़ने के बाद और बढ़े, जुड़ाव की इस प्रक्रिया में मिलने वाली सूचनाएं और संसाधन अमेरिका के ही न मान लिए जाएं, भारत का भी इनपर बराबरी का अधिकार रहे, यह सुनिश्चित करना राजनीतिक नेतृत्व का काम है।


वापस चलें चांद की ओर

पृथ्वी से इतर किसी और अंतरिक्षीय पिंड पर इंसान के कदम पड़ने की अर्ध-शताब्दी पूरी होने को है। यह चमत्कार 20 जुलाई 1969 को नील आर्मस्ट्रांग और एडविन एल्ड्रिन के हिस्से आया था। फिर वियतनाम में फंसे अमेरिका ने इस काम पर आने वाले खर्चे का हिसाब लगाया और आमदनी के नाम पर सिर्फ कुछ कंकड़-पत्थर दर्ज करने के बाद चांद को उसके हाल पर छोड़ देने का फैसला किया। तब की दूसरी सक्षम शक्ति सोवियत संघ को भी यही लगा कि चांद की महंगी दौड़ उसे कोई फायदा नहीं देने वाली।

नतीजा यह कि इंसानों ने अपनी चंद्रयात्रा को दस्तावेजी अतीत की चीज बना दिया और अमेरिका में एक ऐसा षडयंत्र सिद्धांत चल निकला कि यह पूरी बात ही फर्जी है, अपोलो-11 की तस्वीरें वहीं नवादा रेगिस्तान में खींचकर दुनिया पर रौब गालिब करने के लिए जारी की गई हैं। हालत यह हुई कि चांद की दुर्लभ तस्वीरें, यहां तक कि सैंपल भी जहां-तहां कचरा पेटी में पड़े पाए जाने लगे। 

बहरहाल, उस ऐतिहासिक क्षण के पचास साल पूरे होने के मौके पर कई देशों ने चंद्रमा पर अपने खोजी यान भेजने की योजना घोषित की, जिनमें अमेरिका, रूस, चीन और अपना भारत तो है ही, जर्मनी, जापान, दक्षिण कोरिया और यूएई भी हैं। इस सूची से स्पष्ट है कि चांद के खोजी नौ देशों में पांच, यानी आधे से ज्यादा एशियाई हैं। 

सारे अभियानों का जोर चंद्रमा का ब्यौरेवार नक्शा तैयार करने, उपयोगी बेस कैंप की जगह तलाशने, वहां से ढेरों सैंपल लाने और 2020 का दशक बीतने तक इंसानों के लिए सुरक्षित ठिकाने खड़े करने पर है। इन कामों में अभी चीन सबसे आगे है, हालांकि रोबॉटिक्स की तरक्की के दम पर जापान का दावा भी भविष्य में मजबूत माना जा रहा है। क्या ही अच्छा रहे कि 2030 के दशक में जब हम दोबारा चांद पर जाएं तो वहां हमारी मौजूदगी किसी खास देश के बजाय धरती के नागरिक के रूप में दर्ज हो।

Saturday 6 May 2023

एक नई आउटसोर्सिंग क्रांति

 दरवाजा खटखटा रही है एक नई आउटसोर्सिंग क्रांति

चंद्रभूषण

भारत में इक्कीसवीं सदी की शुरुआत कुछ बड़े शहरों के किनारे वाले इलाकों में आई ‘कॉल सेंटर क्रांति’ से हुई थी। इसमें कई तरह के काम शामिल थे लेकिन ज्यादा बड़ा हिस्सा विकसित देशों से की गई आईटी सेवाओं की आउटसोर्सिंग का था। उस क्रांति को धूमिल पड़े कई साल गुजर चुके हैं। ज्यादा सस्ते श्रम के चलते उसका बड़ा हिस्सा बांग्लादेश और कुछ अन्य पिछड़े एशियाई-अफ्रीकी देशों में चला गया और कोविड काल ने उसपर पर्दा ही गिरा दिया। लेकिन आने वाले समय में हमें उसका दोहराव देखने को मिल सकता है। 

आउटसोर्सिंग से ही उपजी एक और तरह की क्रांति, और कुछ मायनों में आईटी सेक्टर से ही जुड़ी बड़े पैमाने की एक मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री देश का दरवाजा खटखटा रही है। जैसे लक्षण हैं, सेमीकंडक्टर उद्योग में कुछ नौकरियां 2027 तक देश में आने लगेंगी। ऐपल के गैजेट्स असेंबल करने वाली बड़ी ताइवानी इलेक्ट्रॉनिक मैन्युफैक्चरिंग कंपनी फॉक्सकॉन की कर्नाटक और तेलंगाना की राज्य सरकारों से बातचीत अपने अंतिम चरण में है। उम्मीद है कि दोनों में से किसी एक राज्य में यह साल बीतने तक उसका कारखाना खड़ा होने लगेगा। 

फॉक्सकॉन की ही वेदांता ग्रुप से हुई डील का ठिकाना महाराष्ट्र से उठकर गुजरात गया तो राजनीतिक विवाद शुरू हो गया। अभी हाल में वेदांता ग्रुप का बयान आया है कि 2023 की ही आखिरी तिमाही में वे अपना सेमीकंडक्टर प्लांट लगाने की शुरुआत करेंगे और 2027 तक इसमें कंप्यूटर चिप्स का उत्पादन शुरू हो जाएगा। इस उद्योग को टैक्स छूट और अन्य रूपों में दस अरब डॉलर का इंसेंटिव देने की घोषणा भारत सरकार ने 2021 में की थी। इन हलचलों के पीछे इसकी विशेष भूमिका है।

वेदांता और टाटा इलेक्ट्रॉनिक्स, दोनों का कहना है कि वे भारत में ओसैट (आउटसोर्स्ड सेमीकंडक्टर असेंबली एंड टेस्ट) के ठिकाने भी खड़े करेंगे। इसमें तैयार हालत में मंगाए गए कंप्यूटर चिप्स को उपकरणों में लगाकर उनकी टेस्टिंग की जाती है। ताइवानी मीडिया के मुताबिक, दुनिया की सबसे बड़ी सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग कंपनी टीएसएमसी या पावरचिप सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग कॉरपोरेशन की ओर से भी भारत में ओसैट कारोबार खड़ा करने की पहल हो सकती है। 

सस्ते तकनीकी श्रम और मनमानी कार्यशर्तों के कारण हाल तक इस खास मिजाज की आउटसोर्सिंग में चीनियों का दबदबा था। फिर लगातार दो अमेरिकी राष्ट्रपतियों की कोशिश से चीन को सेमीकंडक्टर्स से जुड़े हर क्षेत्र में अलग-थलग कर दिए जाने के बाद भारत और विएतनाम ओसैट के धंधे पर अपनी दावेदारी जताने में जुट गए हैं।

अभी इलेक्ट्रॉनिक्स के दायरे में आने वाला ऐसा एक भी सामान खोजना मुश्किल है, जिसमें सेमीकंडक्टर्स की मुख्य भूमिका न हो। यह चीज वहां इंटीग्रेटेड सर्किट या चिप के रूप में मौजूद होती है। कंप्यूटरों को तो बात ही छोड़ें, मोबाइल फोन, टीवी, फ्रिज, एसी और थर्मामीटर तक में यह दिमाग जैसी भूमिका निभाती है। इमेज प्रॉसेसिंग से लेकर डेटा प्रॉसेसिंग और टेंप्रेचर कंट्रोल से लेकर सूचनाओं के साथ तरह-तरह के खिलवाड़ तक सारे काम सेमीकंडक्टर्स के ही सहारे होते हैं। 

इसके एक अकेले टुकड़े की भूमिका सिर्फ स्विच ऑन, स्विच ऑफ तक ही सीमित है। लेकिन अभी सेमीकंडक्टर्स का आकार छोटा होते-होते बाल की मोटाई के भी दस लाखवें हिस्से जितना हो गया है, लिहाजा ऐसे-ऐसे काम इनसे लिए जाने लगे हैं, जो पचीस साल पहले तक कल्पनातीत समझे जाते थे।

सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री के ब्यौरों में जाएं तो इसकी नींव सिलिकॉन वेफर पर खड़ी है, जिसके प्रॉडक्शन में चीन का दबदबा है। इससे जुड़े दिमागी काम की शुरुआत दुनिया के अलग-अलग ठिकानों पर होती है। सबसे ऊपर है, नए माइक्रो प्रॉसेसर डिजाइन करना, जो इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स के तहत आता है। अमेरिकी कंपनी इंटेल और ब्रिटिश कंपनी एआरएम इस क्षेत्र में छाई हुई हैं। दक्षिण कोरिया की सैमसंग का दबदबा डाइनेमिक रैंडम एक्सेस मेमोरी (ड्रैम) में कायम है। इंटीग्रेटेड सर्किट (आईसी) बनाने में इन दोनों चीजों की अहम भूमिका होती है। 

चिप डिजाइनिंग, यानी सिलिकॉन वेफर पर सर्किट्स का खाका खींचने में अमेरिकी कंपनियों क्वालकॉम, ब्रॉडकॉम और न्विडिया का बोलबाला है। यहां से आगे, चिप्स को भौतिक रूप देने में ताइवानी कंपनी टीएसएमसी सबसे आगे है। वह सिलिकॉन वेफर्स पर सर्किट्स की छपाई करके चिप का नक्शा बनाती है, जिसकी तय जगहों पर माइक्रो प्रॉसेसर और ड्रैम चिपकाए जाते हैं। इसके लिए जिन लिथोग्राफी (छापा) मशीनों का इस्तेमाल होता है, वे लगभग सारी की सारी नीदरलैंड्स की कंपनी एएसएमएल होल्डिंग द्वारा बनाई जाती हैं। लिथोग्राफी के लिए स्याही के तौर पर काम आने वाला केमिकल आर्गन फ्लोराइड (आर्फी) सारा का सारा जापानी बनाते हैं।

चिप बनकर तैयार हो जाए, फिर भी इसे सीधे काम में नहीं लाया जा सकता। दिमाग को कुछ करने के लिए एक शरीर भी चाहिए। शरीर, यानी चिप से चलने के लिए बनाया गया इलेक्ट्रॉनिक उपकरण। इसके लिए चिप को असेंबलिंग और टेस्टिंग के जिस चरण से गुजरना पड़ता है, उस ‘ओसैट’ का जिक्र ऊपर किया जा चुका है। भारत में बड़े पैमाने पर स्किल्ड रोजगार की उम्मीद फिलहाल ओसैट से ही है, बशर्ते- 1. चीन से विकसित देशों की सेटिंग कहीं दोबारा न बन जाए, और 2. आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) कहीं ओसैट का किस्सा ही न खत्म कर दे।  

यह बात भी समझने की है कि दुनिया भर में फैले इन अलग-अलग तरह के कामों में एक भी ऐसा नहीं है, जो बाकी कामों को उनके हाल पर छोड़कर अकेले दम पर जिंदा रह सके। एक जगह से आने वाले ऑर्डर से ही दूसरी जगह का प्रॉडक्शन वॉल्यूम तय होता है। 1995 में ग्लोबलाइजेशन न शुरू हुआ होता तो इतने बड़े पैमाने पर, इतने परफेक्शन के साथ काम करने वाली सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री खड़ी ही न हो पाती। अभी, जब ग्लोबलाइजेशन का खात्मा भी सबसे पहले इसी क्षेत्र में हो रहा है, तब आगे इसकी सेहत कैसी रहेगी, फिलहाल अंदाजे की बात है।

भारत में 2026 तक 80 अरब डॉलर का सेमीकंडक्टर मार्केट होने का अनुमान लगाया गया है। यह बाजार पूरा का पूरा हाथ में आ जाए, तो भारत की उभरती सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री यहां के लिए बहुत बड़ा कारोबार बन जाएगी। लेकिन ज्यादा नफीस किस्म के सेमीकंडक्टर हमारे यहां अगले कई वर्षों तक बाहर से इलेक्ट्रॉनिक सामानों में लगे-लगाए ही आएंगे, लिहाजा बाहर के बाजारों में दखल बनाना शुरू से ही इस उद्योग की रणनीति होनी चाहिए।

Saturday 15 April 2023

टाइम बचाने के AI टूल्स

 आर्टिफिशल इंटेलिजेंस ने हमारे बहुत-से काम आसान कर दिए हैं। अगर कोई कंटेंट लिखना हो या विडियो तैयार करना हो तो AI फटाफट यह काम कर देती है। इसके अलावा भी AI के ऐसे बहुत-से टूल्स हैं जिनसे हम अपना ढेर सारा वक्त बचा सकते हैं। एक्सपर्ट से बात करके जानकारी दे रही हैं रजनी शर्मा

जब से कंटेंट लिखने वाला चैटबॉट ChatGPT लॉन्च हुआ है, हर काम के लिए AI टूल्स तैयार होने लगे हैं। अब AI का इस्तेमाल सिर्फ इतना नहीं है कि यह हमें मनचाहा टेक्स्ट लिखकर दे। यह अब हमारी आवाज़ भी बन रही है। हमारे लिए विडियो भी बना रही है। इतना ही नहीं, बड़े विडियो को शॉर्ट करने का काम भी कर रही है। ऐसे काम, जिनके लिए हमें काफी तैयारी करनी पड़ती थी और स्टूडियो की जरूरत पड़ती थी, उसे AI टूल्स ने वाकई मिनटों का काम बना दिया है।

जब भाषा की बात हो...

grammar-gpt.com

अगर अपनी लिखी भाषा में कुछ गलतियां सुधारनी हो तो प्रफेशनल प्लैटफॉर्म के अलावा फ्री AI टूल्स का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। ऐसे में grammar-gpt.com पर जाएं। यह बिलकुल मुफ्त है। 

ऐसे करेगा काम: इसे ओपन करते ही वाक्य लिखने के लिए जगह दिखेगी। यहां कोई भी लाइन लिखें। अगर उस वाक्य में व्याकरण की गलती है तो उसे यह तुरंत बिलकुल सही लिखकर दिखा देगा। यह AI टूल  ChatGPT टेक्नॉलजी पर काम करता है। यह सिर्फ इंग्लिश में ही काम नहीं करता। अगर आप हिंदी में काम करते हैं और अपनी गलतियां सुधारना चाहते हैं, किसी वाक्य को सही तरीके से लिखना चाहते हैं तो यह तुरंत भाषा सुधार देगा। आप यहां टेक्स्ट कॉपी-पेस्ट भी कर सकते हैं। हमने कई वाक्य गलत लिखे और इसने उन्हें तुरंत सुधार दिया।

 AI4Bharat यह भी एक AI टूल है जो भारतीय भाषाओं के अनुवाद और उसकी गलतियां सुधारने में काम आ सकता है लेकिन फिलहाल यह ट्रायल फेज में है। 

जब आइकन खुद बनाने हों...

autodraw.com

अगर आपको प्रफेशनल लगने वाले आइकन बनाने हैं लेकिन ड्रॉइंग अच्छी नहीं है या फिर आपके पास वक्त और पैसे दोनों की कमी है तो यह AI टूल आपके काम आएगा। यहां से बने आइकन अपने सोशल मीडिया अकाउंट्स पर भी इस्तेमाल कर सकते हैं। यह फ्री है और बिना लॉगइन सीधे इस्तेमाल कर सकते हैं। 

ऐसे करेगा काम: सबसे पहले वेबसाइट पर जाएं। अब खाली जगह पर कुछ भी ड्रॉ कर दें। उससे मिलते-जुलते आइकन अपने आप सजेशन में ऊपर ही दिखने लगेंगे। अब उनमें से जो सही लगे, उसे सिलेक्ट कर लें। आपका आइकन तैयार है। लेफ्ट में टेक्स्ट या कलर समेत कई ऑप्शन मिलेंगे। उनकी मदद से अपनी ड्रॉइंग को सुंदर बना सकते हैं।

 इसके अलावा khroma.co टूल भी देखें।

जब लिखे हुए को आवाज़ में बदलना हो...

ttsmaker.com

यहां किसी भी टेक्स्ट को स्पीच में बदल सकते हैं। यह मुफ्त है और इसका कमर्शल इस्तेमाल भी किया जा सकता है यानी यह कॉपीराइट फ्री है। इसका इस्तेमाल पॉडकास्ट, ब्लॉग, शॉर्ट विडियोज आदि में कर सकते हैं। अपने किसी भी विडियो में अगर आपको खुद की आवाज़ नहीं देनी तो यह AI वॉयस बहुत काम आ सकती है। इस आवाज़ को डाउनलोड करके प्रफेशनल विडियो तैयार कर सकते हैं। आवाज़ महिला या पुरुष की चुन सकते हैं। 

ऐसे करेगा काम: इसके लिए सबसे पहले वेबसाइट ओपन करें। यहां आपको शब्द लिखने के लिए खाली जगह दिखेगी। यहां सीधे लिखें या फिर पहले से लिखे टैक्स्ट को कॉपी कर लें। इसके बाद राइट साइड में दिए गए ऑप्शन से पहले भाषा चुनें। यहां इंग्लिश डिफॉल्ट भाषा मिलेगी। इसके बाद नीचे Voices का ऑप्शन मिलेगा, महिला या पुरुष की आवाज का चुनाव कर लें। ठीक उसके नीचे Input Verification code लिखा दिखेगा। यहां आपको दिए गए नंबर लिखने हैं।

इसके बाद more setting में जाकर आप ऑडियो फाइल का फॉर्मेट, वॉइस स्पीड आदि सेट कर सकते हैं। वॉइस फॉर्मेट mp3 सिलेक्ट कर सकते हैं। अब convert to speech पर क्लिक करें। कुछ ही मिनटों में ऑडियो फाइल तैयार हो जाएगी, जिसे आप डाउनलोड कर सकते हैं।

जब डिजाइन चाहिए बढ़िया...

designs.ai

यहां पर फिटनेस, एजुकेशन, फूड, फैशन आदि कैटिगरी की तैयार स्लाइड्स मिलती हैं। सोशल मीडिया, विज्ञापन, इवेंट्स मार्केटिंग, डॉक्युमेंट्स, प्रिंट आदि के लिए भी स्लाइड्स हैं। इसमें एनिमेशन भी जोड़ सकते हैं। लेकिन हर डाउनलोड के लिए 1 डॉलर (करीब 82 रुपये) लगेगा।

 usegalileo.ai टूल भी देख सकते हैं।


जब लिखना हो अजब-गजब...


अगर लव लव लेटर लिखना है या मार्केटिंग के लिए कॉपी, उसके लिए ChatGPT, BingAI और copy.ai तो हैं ही, आप jasper.ai पर भी जा सकते हैं। यह हमारे काम को कई गुना तेजी से निपटाता है। मान लें कि प्रॉडक्ट के लिए विज्ञापन लिखना है जो काफी क्रिएटिव काम होता है तो यहां लॉगइन करके चुनें कि Ads के लिए काम करना है। 5 दिन के लिए यह फ्री मिलता है।


जब प्रेजेंटेशन बनानी हो...

किसी भी प्रफेशनल को एक अच्छी प्रेजेंटेशन तैयार करने की जरूरत पड़ ही जाती है। खासकर अगर आपकी खुद की कंपनी है या आप किसी बड़ी कंपनी के लिए काम करते हैं। अपने बिजनेस को बढ़ाने के लिए बढ़िया प्रेजेंटेशन देना जरूरी होता है। इसके लिए अगर पुराने तरीके अपनाए जाएं तो वक्त काफी खर्च होता है। लेकिन कुछ AI टूल्स की मदद से यह काम जल्दी निपटा सकते हैं। ऐसा ही टूल है  presentations.ai यह शुरुआती 3 महीनों के लिए फ्री मिलता है। 

ऐसे करता है काम: सबसे पहले इसे ओपन करके लॉग इन करें। अब जो पेज खुलेगा उसमें यह बताएं कि आपका काम क्या है? यहां लीडरशिप, सेल्स, प्रॉडक्ट, मार्केटिंग, एचआर, इंजीनियरिंग, फाइनेंस, सपोर्ट और डिजाइन आदि ऑप्शन मिलेंगे, इनमें से किसी पर क्लिक करें। मान लें, आपने लीडरशिप को चुना है। इसके बाद continue पर क्लिक करें। 

इसके बाद यह बताना होगा कि आप कहां काम करते हैं, यहां अपनी वेबसाइट लिखनी होगी। 

अब सवाल पूछा जाएगा कि किस इंडस्ट्री के लिए काम करते हैं। यहां फीडबैक टूल्स सॉफ्टवेयर, डिजाइन सॉफ्टवेयर, 3D मॉडलिंग, प्रिंटिंग, अकाउंट डेटा मैनेजमेंट सॉफ्टवेयर आदि के ऑप्शन मिलेंगे। 

हमने यहां 3D प्रिंटिंग सॉफ्टवेयर को चुना। इसके बाद continue पर क्लिक करें। अब कई तरह के आइडिया पर प्रेजेंटेशन की templates मिल जाएंगी। यहां हमने Ad campaign ideas चुना और नीचे लिखे Generate पर क्लिक कर दिया। इसके बाद 12.8 सेकंड में ही प्रेजेंटेशन तैयार हो गई। पूरी 10 स्लाइड बन गईं जिसमें हमें कुछ नहीं लिखना पड़ा। पूरे कैंपेन के बारे में बेसिक बातें लिखी मिली। अगर कोई अपनी तरफ से कुछ चीजें जोड़ना चाहे तो कहीं भी किसी भी स्लाइड में बदलाव कर सकता है।


प्रेजेंटेशन के लिए ये टूल्स भी है:

slidesgo.com फ्री में गूगल स्लाइड्स और पावरपॉइंट templates चाहिए तो इस पर जा सकते हैं। मान लें आपको फूड पर स्लाइड्स चाहिए जो मार्केटिंग में इस्तेमाल करनी हैं तो सीधे डाउनलोड कर सकते हैं। इनका इस्तेमाल अपने ब्लॉग में भी कर सकते हैं। 

slides.com यहां प्रेजेंेटेशन तैयार करने के लिए कई ऑप्शन मिलते हैं।  

beautiful.ai यह मुफ्त नहीं है, इसका सालाना प्लान 12 डॉलर (करीब 972 रुपये) से शुरू होता है।

easy-peasy.ai इसमें मुफ्त में काम कर सकते हैं पर लिमिटेड ऑप्शन मिलेंगे। इसका प्लान 4.99 डॉलर (करीब 405 रुपये) प्रति माह से शुरू होता है। 

ये AI टूल्स भी हैं काम के

pictory.ai टेक्स्ट से शॉर्ट विडियो तैयार करता है।

mixo.io मिनटों में वेबसाइट का खाका खींच सकता है। इससे आइडिया लग जाएगा कि स्टार्टअप के लिए कैसी वेबसाइट हो सकती है। 

vidyo.ai बड़े विडियो को टुकड़ों में काटकर शॉर्ट विडियो में बदल सकता है।


साभार -संडे नवभारत टाइम्स 

Friday 31 March 2023

एआई के ताकतवर होनें के मायने

 क्या-क्या गुल खिलाएगी बातें बनाने वाली एआई

चंद्रभूषण

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, एआई, यानी कृत्रिम बुद्धि का मायने-मतलब पिछले दो-ढाई दशकों में लगातार बदलता आ रहा है। लेकिन इसका एक खास रूप- शब्द के आगे शब्द जोड़कर उपयोगी बातचीत कर लेना, सार्थक लेख लिख देना, कुछेक मुश्किलों का ठीक-ठाक हल सुझा देना- इधर दो महीनों से लगातार चर्चा में है। थोड़ा पीछे जाएं तो यह लहर पिछले छह महीनों से चल रही है, लेकिन इसमें बड़े ब्रांडों की धमक अभी हाल ही में सुनाई पड़ी है। नवंबर 2022 में ओपेनएआई नाम की अमेरिकी कंपनी ने चैटजीपीटी नाम से अपनी एक खास एआई लांच की। एक हलके में इसने जबर्दस्त कामयाबी पाई और कई साल पहले बनाया गया टिकटॉक का रिकॉर्ड बहुत बुरी तरह तोड़ते हुए दस करोड़ उपभोक्ता सिर्फ दो महीने में हासिल कर लिए। 

भारत में प्रतिबंधित और छोटे वीडियो पर आधारित चीनी सोशल मीडिया कंपनी टिकटॉक को इस मुकाम तक पहुंचने में नौ महीने लगे थे। चैटजीपीटी का सिलसिला आगे बढ़ाते हुए माइक्रोसॉफ्ट ने अपने सर्च इंजन बिंग को चैटजीपीटी पर ही आधारित ‘बिंगचैट’ सुविधा के साथ बीती 7 फरवरी को नए सिरे से लांच किया, जबकि गूगल ने अभी 21 मार्च को ‘बार्ड’ नाम से अपनी एआई शुरू की, जिसके लिए फिलहाल आपका एक वेटिंग लिस्ट का हिस्सा बनना जरूरी है। बीच में 14 मार्च को ओपेनएआई कंपनी ने अपने चैटजीपीटी का नया संस्करण भी लांच किया है, जो पिछले तीन वर्षों से तैयार किए जाए रहे जीपीटी-4 पर आधारित है। यह सुविधा फिलहाल स-शुल्क है और इसके लिए हर महीने आपको 20 डॉलर अदा करने पड़ेंगे। इस गोरखधंधे की तह में जाने से पहले कुछ भारी-भरकम शब्दों का मतलब समझा जाए।

जीपीटी का फुल फॉर्म है ‘जेनरेटिव प्री-ट्रेंड ट्रांसफॉर्मर’। हिंदी में इसका उल्था करना बेमतलब होगा, लिहाजा इसके अर्थ को लेकर ही कुछ अंदाजा लगाया जाए। यह कि इस सॉफ्टवेयर को एक निश्चित शब्द-भंडार में से सही शब्दों का चयन करते हुए सवालों का सबसे सटीक, सबसे प्रासंगिक जवाब तैयार करने के लिए प्रशिक्षित किया गया है। ध्यान रहे, गूगल सर्च या बिंग की तरह इसका काम इंटरनेट पर पहले से मौजूद जवाबों को खोजकर उनका लिंक चिपका देना नहीं है। जीपीटी का काम कोई भी जवाब बिल्कुल नए सिरे से बनाना है, जिसके लिए वह अपने पास मौजूद सूचना भंडार से सूचनाएं उठा सकता है, या इंटरनेट से जुड़ा होने की स्थिति में उसकी सेवाएं भी ले सकता है। 

तीन एआई का फर्क

चैटजीपीटी का नया संस्करण बहुत ताकतवर होते हुए भी इंटरनेट से नहीं जुड़ा है। प्रॉसेसिंग के लिए उसके पास अंतिम सूचनाएं 2021 तक की ही हैं। इसका फायदा यह है कि उसके जवाब बाकियों से ज्यादा साफ हैं। रही बात जीपीटी के संस्करणों में फर्क की तो इसका तीसरा संस्करण जीपीटी-3 सिर्फ 3000 शब्दों से काम चलाता था जबकि चौथा जीपीटी-4 पचीस हजार शब्दों पर खड़ा है। ध्यान रहे, इस तरह के चैटबॉट सिर्फ ओपेनएआई कंपनी ही बना रही है, जिसमें अमेरिका की कई बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनियों ने अपनी पूंजी लगा रखी है। शब्द से शब्द जोड़ने का यह काम कितना मुश्किल है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दुनिया का पांचवें नंबर का सबसे शक्तिशाली सुपरकंप्यूटर ओपेनएआई ने इंसानी भाषा में शब्दों के पैटर्न पर काम करने के लिए लगा रखा है। 

इसके बनाए चैटबॉट्स का इस्तेमाल अभी सबसे आगे बढ़कर सर्च इंजन चलाने वाली दो मुख्य कंपनियों गूगल और माइक्रोसॉफ्ट ने किया है। उन्होंने इसकी ट्रेनिंग अपने-अपने ढंग से कराई है। माइक्रोसॉफ्ट का बिंगचैट और गूगल का बार्ड, दोनों जिस प्लैटफॉर्म पर बनाए गए हैं, वह जीपीटी-3.5 है, यानी जीपीटी-3 और जीपीटी-4 के बीच का संस्करण। इसमें बिंगचैट के तीन रूप हैं- बैलेंस्ड, क्रिएटिव और प्रेस्सी। तीनों के नतीजे अलग-अलग आते हैं। लेकिन बार्ड और बिंगचैट के बीच कॉन्सेंप्ट के स्तर पर सबसे बड़ा फर्क इनकी ट्रेनिंग के डेटाबेस से आता है। बिंगचैट को मुख्यतः सूचनाओं की खोज के लिए गढ़ा गया है जबकि बार्ड की ट्रेनिंग इंसानी बातचीत के डेटाबेस पर आधारित है। 

इस फर्क के चलते निजी बातचीत के लिए बार्ड बहुत उम्दा चैटबॉट साबित हो सकता है, जबकि किसी खोजबीन या एक कैटेगरी की कुछ मिलती-जुलती चीजों की आपसी तुलना के आधार पर नतीजे निकालने के लिए बिंगचैट को बेहतर पाया जा रहा है। रही बात ओपेनएआई द्वारा सीधे जारी चैटजीपीटी की तो उसकी बुनियाद ही इन दोनों से आगे की है तो ज्यादातर मामलों में इसके नतीजे भी बेहतर आना स्वाभाविक है।

खेल बिगाड़ने का खेल

एक बात तय है कि अभी यह अपने क्षेत्र में बिल्कुल शुरुआती स्तर की टेक्नॉलजी है। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि माइक्रोसॉफ्ट ने सिर्फ गूगल का खेल बिगाड़ने के लिए अपना बिंगचैट इतनी जल्दी बाजार में ला दिया। गूगल सर्च से उसका बाजार छीनने की उसकी दो कोशिशें, इंटरनेट एक्सप्लोरर और बिंग बेकार साबित हो चुकी हैं। उसे उम्मीद है कि बिंगचैट के बल पर इस लड़ाई में वह शायद कुछ नया कर ले जाएगी। रही बात गूगल की तो बार्ड को लेकर उसकी एक लंबी योजना थी। लैम्डा यानी ‘लैंग्वेज मॉडल फॉर डायलॉग अप्लीकेशंस’ अलग-अलग क्षेत्र में अलग-अलग मूड के मुताबिक बातचीत की दिशा तय करने का कार्यक्रम था। 

कहना मुश्किल है कि बतौर एक प्रॉडक्ट ‘बार्ड’ के बाजार की होड़ में उतर आने के बाद लैम्डा का काम निर्धारित रास्ते पर बढ़ पाएगा या नहीं। भाषा इंसान की सबसे बड़ी खोज है। इसपर सुदूर अतीत की छाप मौजूद है तो सुदूर भविष्य की संभावनाएं भी इसी में खोजी जा सकती हैं। भाषा में किए जाने वाले काम की कोई सीमा नहीं है, लेकिन जिस समय में हम जी रहे हैं उसकी मुख्यधारा इससे कुछ तुरंता सेवाएं लेने की ही है। गूगल के लैम्डा का खोजी दायरा इससे कहीं ज्यादा बड़ा रहा है। याद करें तो पिछले साल लैम्डा पर काम कर रहे उसके एक सीनियर सॉफ्टवेयर इंजीनिर ब्लेक लेमॉइन ने इस चैटबॉट को एक सचेतन प्राणी, सेंटिएंट बीइंग बता दिया था। 

एक सोशल साइट पर यह आर्टिकल प्रकाशित होने के साथ ही हल्ला उठा कि रोबॉट और मैट्रिक्स जैसी कुछ चर्चित हॉलिवुड फिल्मों में जिस तरह कृत्रिम बुद्धि को मानवता पर कब्जा करते दिखाया गया है, कहीं वैसा ही कोई काम अपनी लैब में गूगल ने तो नहीं कर डाला है। पादरी बनने का प्रशिक्षण ले चुके कट्टर ईसाई मिजाज वाले ब्लेक लेमॉइन ने न सिर्फ लैम्डा के साथ अपनी बातचीत को सार्वजनिक कर दिया था बल्कि इसे एक रिपब्लिकन सीनेटर को सौंप दिया था, ताकि ‘नैतिकता के आधार पर’ लैम्डा को ‘गंदी-संदी’ बातचीत के लिए प्रशिक्षित करने से रोका जा सके। 

ऐसे में गूगल ने प्रोफेशनल गोपनीयता के मुद्दे पर ब्लेक को बाहर का दरवाजा दिखा दिया। मिजाज से ही विरोधाभासी यह सॉफ्टवेयर इंजीनियर अभी पता नहीं क्या कर रहा है, लेकिन हाल में जारी उसके एक बयान में लैम्डा को उसके दोनों प्रतिद्वंद्वियों से कहीं बेहतर बताया गया। समस्या यह है कि अभी छप रही सारी तुलनाएं बार्ड, बिंगचैट और नए चैटजीपीटी द्वारा तैयार किए गए छोटे लेखों की हैं और इनका आधार यह है कि वे कितने उपयोगी और सटीक हैं। इसकी जड़ में यह नुकसान छिपा है कि इस तकनीक की संभावनाएं कहीं सिकुड़ती न चलीं जाएं।

Saturday 17 December 2022

गणित के क्षेत्र में एक अद्भूत खोज

 ""एक अद्भुत ख़ोज"" 


संस्कृत के विद्वानों को सदियों से छकाने वाली लगभग ढाई हजार साल पुरानी ऋषि पाणिनि की एक व्याकरण संबंधी पहेली को आखिरकार एक भारतीय छात्र ने सुलझा लिया है. यह कमाल कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे एक भारतीय छात्र 27 वर्षीय ऋषि राजपोपट ने कर दिखाया है. गुरुवार को सबमिट की गई उनकी पीएचडी रिसर्च में इसका खुलासा हुआ है.

ऋषि राजपोपट ने आचार्य पाणिनि द्वारा 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व बताए गए एक नियम को डिकोड करने में सफलता हासिल की. बता दें कि पाणिनी को संस्कृत व्याकरण का पितामह माना जाता है. 

ऋषि राजपोपट की थीसिस '"""इन पाणिनि, वी ट्रस्ट: डिस्कवरिंग द एल्गोरिथम फॉर रूल कंफ्लिक्ट रेजोल्यूशन इन द अष्टाध्यायी"""""' में पाणिनि की उस व्याकरण संबंधित पहेली का हल शामिल है.

यूनिवर्सिटी के मुताबिक, प्रमुख संस्कृत विशेषज्ञों ने राजपोपट की खोज को "क्रांतिकारी" बताया है. इसका मतलब यह हो सकता है कि ऋषि"""पाणिनि""" का व्याकरण अब पहली बार कंप्यूटर से सिखाया जाना मुमकिन हो जाए. राजपोपट की खोज पाणिनि व्याकरण के अनुरूप सही शब्दों का निर्माण करने के लिए किसी भी संस्कृत शब्द का "मूल" खोजना संभव बनाती है. पाणिनि के इस व्याकरण को व्यापक रूप से इतिहास की सबसे बड़ी बौद्धिक उपलब्धियों में से एक माना जाता है, जिसे अब राजपोपट की खोज के बाद समझना और आसान हो जाएगा. 

राजपोपट ने संस्कृत की इस व्याकरण संबंधी समस्या को केवल 9 महीने में हल कर दिखाया है. न्यूज एजेंसी पीटीआई को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा “नौ महीने इस समस्या को हल करने की कोशिश करने के बाद, मैं इसे छोड़ देने के लिए लगभग तैयार था. मैंने एक महीने के लिए किताबें बंद कर दीं और बस गर्मियों का आनंद लिया, मसलन- तैराकी, साइकिल चलाना, खाना बनाना, प्रार्थना करना और ध्यान करना. फिर, अचानक से मैं काम पर वापस चला गया और मिनटों के भीतर जैसे ही मैंने पन्ने पलटे तो ये पैटर्न उभरने लगे, फिर सब समझ में आने लगा. करने के लिए और भी बहुत कुछ था लेकिन मुझे पहेली का सबसे बड़ा हिस्सा मिल गया था." 

राजपोपट के पीएचडी सुपरवाइजर और संस्कृत के प्रोफेसर विन्सेंजो वर्गियानी ने कहा, "मेरे छात्र ऋषि ने इसे सुलझा लिया है, उन्होंने एक समस्या का असाधारण रूप से समाधान ढूंढ लिया है, जिसने सदियों से विद्वानों को परास्त किया हुआ है. यह खोज ऐसे समय में संस्कृत के अध्ययन में क्रांतिकारी बदलाव लाएगी जब भाषा में रुचि बढ़ रही है."

राजपोपट ने कहा, "भारत के कुछ सबसे प्राचीन ज्ञान संस्कृत से निकले हैं और हम अभी भी पूरी तरह से नहीं समझ पाए हैं कि हमारे पूर्वजों ने क्या हासिल किया. हमें यह विश्वास दिलाने की कोशिश की जाती है कि हम उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं, जो अन्य देशों के बीच अपनी बात कह सकें.मुझे उम्मीद है कि यह खोज भारत में छात्रों को आत्मविश्वास और गर्व से भर देगी और उम्मीद है कि वे भी महान चीजें हासिल कर सकते हैं."

पाणिनि की सबसे श्रेष्ठ रचना अष्टाध्यायी (Astadhyayi) में 4,000 नियम हैं, जिसके बारे में माना जाता है कि इसे एक भाषा मशीन की तरह काम करने के लिए लगभग 500 ईसा पूर्व लिखा गया था।

Monday 31 October 2022

अक्ल को उम्र से क्या लेना

 चंद्रभूषण

उम्र के साथ अक्ल भी बढ़ती है, यह सर्वमान्य धारणा मुझे शुरू से परेशान करती आई है। आप से कोई एक-दो या दस-बीस साल बड़ा है, इस आधार पर बचपन में वह आपको पीटने का और बड़े होने पर अपने ‘ज्ञान’ का बोझा आप पर लादने का हकदार हो जाता है। अरे भले आदमी, ऐसा कुछ करने से पहले एक बार सोच तो लो कि तुम्हारी उम्र ने तुमको बुद्धिमान बनाया है या पहले से भी ज्यादा मूर्ख बना दिया है! 

ज्यादातर मामलों में मैं उलटे नतीजे पर ही पहुंचता रहा हूं। यानी यह कि उम्र बीतने के साथ समझ बढ़ना अपवाद स्वरूप ही देखने को मिलता है। लोगों के फैसले समय के साथ प्रायः एक क्रम में गलत से और ज्यादा गलत होते जाते हैं और वे खुद बेवकूफ से बेवकूफतर होते जाते हैं। 

मेरे प्राइमरी स्कूल के हेडमास्टर हर दूसरे-तीसरे दिन घर से झगड़ा करके  देर से स्कूल आया करते थे। बिना टीचर की क्लास में अगर वे हमें अपनी जगह से जरा भी हिलते-डुलते देख लेते तो धमकी भरे अंदाज में बाहर से ही पूछते, ‘ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना कब हुई थी?’ और किसी का जवाब सही या गलत होने की परवाह किए बगैर ‘दुखहरन’ नाम के मोटे डंडे से एक ही लपेटे में पूरी क्लास की धुनाई करते थे। 

स्कूल के संचालन को लेकर उनकी प्रतिबद्धता पर मेरे मन में कभी कोई सवाल नहीं पैदा हुआ। एक धुर देहाती स्कूल में बच्चों को अपनी क्षमता भर पढ़ाई करने के लिए तैयार करना कोई हंसी-खेल नहीं था। लेकिन बच्चों को सोचने या सांस लेने तक का मौका दिए बगैर घर का गुस्सा उन पर निकाल देना भी क्या कोई अक्लमंदी का काम था?

किस-किस की बात करूं? तीस-पैंतीस के होते-होते ज्यादातर लोग सिगरेट, तंबाकू, शराब जैसी कोई लत पकड़ लेते हैं, या जानलेवा हताशा में फंसने का कोई ठोस बहाना ढूंढ लेते हैं, या फिर आर्थिक सुरक्षा के नाम पर कोल्हू के बैल की तरह आंख मूंदकर किसी के हुक्म पर गोल-गोल घूमते रहने का हुनर साध लेते हैं। इनमें से किस चीज को आप बुद्धिमत्ता मानेंगे?

चालीस पार करते-करते लोगों में कोई न कोई सनक पैदा होने के लक्षण आप साफ देख सकते हैं, जो कई बार उनका पीछा आखिरी सांस तक नहीं छोड़ती। छोटी-छोटी बातों पर किसी से लड़ पड़ना, सालों पुराने रिश्ते पल भर में तबाह कर देना और फिर पछतावे में घुलते रहना। खुद को सबसे ऊंचा मानने का सुपीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स, या किसी काम का न मान पाने का इनफीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स। इस सब में कहां की बुद्धिमानी है?

इसलिए उम्र का कुल हासिल मुझे जब-तब मच्योरिटी जरूर लगती है- यानी जहां फंसने का चांस हो वहां हाथ ही न डालना। लेकिन इस कतराने वाली चालाकी का किसी के रचनात्मक बुद्धि-विवेक से कुछ खास सम्बन्ध मुझे नहीं दिखता। आम भगोड़ेपन से इतर मच्योरिटी का संदर्भ बहुत सीमित होता है। बस, पुराने तजुर्बे से संभावित गलतियों का अंदाजा हो जाना और उनके दोहराव से बच निकलना। 

आप अपनी खास नजर से दुनिया को देख सकें, नए-ताजे काम कर सकें, पुरानी हदें पार करने के रास्ते निकाल सकें, इसमें न तो उम्र का कोई योगदान है, न उम्रदार लोग इसमें आपकी कोई मदद कर पाएंगे। हां, नजर धुंधली करने या आपके पहिये में फच्चर फंसाने का एक भी मौका वे हाथ से बिल्कुल नहीं जाने देंगे। लिहाजा कभी जरूरी लगे तो उम्र और अक्ल को अलगाकर देखने की कोशिश की जानी चाहिए।

Saturday 29 October 2022

बन रही है संचार की एक नई दुनिया

चंद्रभूषण

सैटेलाइट कम्युनिकेशन की एक नई दुनिया बननी शुरू हुई है। 23 अक्टूबर 2022, दिन रविवार को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने ब्रिटिश कंपनी वनवेब के लिए 36 कृत्रिम उपग्रह निर्धारित कक्षाओं में बड़ी कुशलता से स्थापित करके हमारे खित्ते में इस दुनिया की नींव रख दी है। वनवेब भारतीय कंपनी नहीं है लेकिन भारतीय उद्योगपति सुनील भारती मित्तल इसके चेयरमैन हैं और कंपनी में उनके शेयर भी सबसे ज्यादा हैं। उनका कहना है कि 2023 के मध्य से वनवेब अपने सैटेलाइट नेटवर्क के जरिये उन जगहों पर भी ब्रॉडबैंड इंटरनेट और सैटेलाइट कम्युनिकेशन की व्यवस्था करने लगेगी, जहां फिलहाल कोई भी लैंडलाइन या मोबाइल नेटवर्क उपलब्ध नहीं है। पहली नजर में यह कोई बड़ी बात नहीं लगती, लेकिन यह खेल यकीनन बहुत बड़ा है।

इंटरनेट समेत दूरसंचार की पूरी व्यवस्था अभी घर-घर पहुंचने वाले तार या दांव देखकर कहीं भी लगा दी गई सेल टावरों पर निर्भर करती है। ग्लोबल पैमाने पर इस काम के लिए समुद्र में केबल डाले जाते हैं। इसमें सैटेलाइटों की भूमिका आज भी काफी बड़ी होती है लेकिन इसके साथ दो मुश्किलें जुड़ी हैं। एक तो सूचनाओं की अपलोडिंग और डाउनलोडिंग बड़े स्तर का काम है और इसकी रफ्तार कम है, दूसरे इस काम में थोड़ा वक्त लग जाता है। बीच में कोरोना लॉकडाउन के वक्त जूम क्लास के हल्ले में बच्चों को जितनी समस्याओं का सामना करना पड़ा, सबको ठीक से ध्यान में रखा जाए, खासकर गांवों और कस्बों के बच्चों की समस्याओं को, तब सैटेलाइट कम्युनिकेशन के मायने बेहतर समझ में आएंगे। 

इसरो का मुकाम

दुर्गम से दुर्गम जगह में भी बिना किसी व्यवधान के 4जी स्पीड पर डेटा सप्लाई। इससे आगे बात इंटरनेट पर टीवी प्रसारण और चीजों के इंटरनेट (आईओटी) तक जाएगी, लेकिन बाद में। इसरो की उपलब्धि पर वापस लौटें तो भारत के ताकतवर रॉकेट जीएसएलवी मार्क-3 की यह पहली कमर्शियल उड़ान थी। ध्यान रहे, छोटे उपग्रह छोड़ने के मामले में पहले भी इसरो को दुनिया के एक पावरहाउस जैसा दर्जा हासिल रहा है। इस लाइन में साढ़े छह हजार करोड़ से ज्यादा का इंटरनेशनल कारोबार वह कोरोना की बंदिशें शुरू होने से पहले कर चुका था। लेकिन यह सारी की सारी लांचिंग भारत के छोटे रॉकेट पीएसएलवी (पोलर सैटेलाइट लांच वीइकल) के जरिये की गई थी, जो दो टन तक वजनी चीज को मध्यम ऊंचाई वाली कक्षा तक पहुंचा सकता है। 

पीएसएलवी की ख्याति इस मामले में सबसे सस्ती और सुरक्षित सवारी की बनी हुई है। लेकिन भारी रॉकेट जीएसएलवी (जियो स्टेशनरी सैटेलाइट लांच वीइकल) लंबे समय से इसरो के लिए एक समस्या बना हुआ था और बार-बार की विफलताओं से एक समय लगने लगा था कि रूस का साथ लिए बगैर इस क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की कोशिश कहीं पैसे की बर्बादी तो नहीं है। पिछले चार-पांच वर्षों में जीएसएलवी की महारत यकीनन बड़ी बात है। कुछ फर्क पीएसएलवी और जीएसलएवी की बुनियादी तकनीक में भी है, लेकिन उनकी ताकत में लगभग पांच गुने का अंतर है। 

धरती की नजदीकी- एक हजार किलोमीटर तक ऊंचाई वाली- कक्षाओं में जीएसएलवी 10 टन तक वजनी चीज पहुंचा सकता है और जियो स्टेशनरी यानी लगभग 30 हजार किलोमीटर ऊंची कक्षाओं में चार टन वजन का उपग्रह स्थापित कर सकता है। यह चीज इसरो की छवि दुनिया की सैटेलाइट लांचिंग इंडस्ट्री के एक बड़े खिलाड़ी जैसी बनाने के लिए काफी होनी चाहिए। वनवेब के साथ उसका 36-36 सैटेलाइटों की दो लांचिंग का कॉन्ट्रैक्ट एक हजार करोड़ रुपये से थोड़ा ज्यादा रकम में हुआ पड़ा है। एक अभी, एक अगले साल। यह संयोग रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते हाथ लगा। 

रूस की खाली जगह

रूसी अंतरिक्ष एजेंसी रोसकोसमोस ने यूरोपीय देशों के लिए सैटेलाइट लांचिंग से मना कर दिया। नतीजा यह कि, वनवेब के 36 सैटेलाइट रोसकोसमोस के पास ही जब्ती जैसी हालत में पड़े हैं। इसका अगला कदम यह है कि रूस ने कमर्शल सैटेलाइट लांचिंग के बाजार से खुद को अलग ही रखने का फैसला किया है। उसके एक आधिकारिक बयान में कहा गया कि सैटेलाइट कम्युनिकेशन पर लगने जा रही कुल पूंजी का चार फीसदी बजट ही उपग्रहों की लांचिंग पर खर्च होना है, लिहाजा उसे ज्यादा फायदे का धंधा उपग्रह छोड़ने के बजाय उपग्रह बनाने का लग रहा है। 

इस तरह दुनिया में सबसे प्रतिष्ठित रूस के सोयुज रॉकेटों के कमर्शल लांचिंग की होड़ से बाहर हो जाने के बाद भारत के जीएसएलवी के लिए मौके काफी बढ़ गए हैं। इससे जुड़ा कोई भी संदेह, कोई भी दुविधा जड़ से मिटा देने के लिए जीएसएलवी मार्क-3 का नाम बदलकर एलवीएम-3 (लांच वीइकल मार्क-3) कर दिया गया है। इस रॉकेट को एक बार छोड़ने का खर्चा 500 करोड़ रुपया है, यानी अभी इसका कारोबार ‘नो प्रॉफिट नो लॉस’ की स्थिति में है। इससे जुड़े पूंजी खर्च को भी लागत में शामिल कर लें तो वह करीब दस हजार करोड़ रुपया बैठता है। दूसरे शब्दों में कहें तो अंतिम रूप से मुनाफा कमाना अभी बहुत दूर की बात है।

लांचिंग बिजनेस में इसरो का मुकाबला कुछ अमेरिकी और यूरोपियन प्राइवेट कंपनियों से है। इलॉन मस्क की स्पेस एक्स, यूनाइटेड लांच एलायंस और एरियानस्पेस के नाम इनमें प्रमुख हैं। सरकारी कंपनियों में चीन और रूस की हालत बहुत मजबूत है लेकिन इंटरनेशनल मार्केट में इन दोनों देशों की कुछ खास गति कम से कम निकट भविष्य में तो नहीं दिखाई पड़ रही है। यानी इसरो के लिए गुंजाइश बड़ी है, बशर्ते वहां व्यापारिक बुद्धि को अवसर मिले।

एक लाख उपग्रह

इस खेल का पैमाना क्या है, इसे समझने के लिए एक तथ्य पर गौर करें कि बीते इतवार को की गई 36 सैटेलाइटों की लांचिंग वनवेब के प्रॉजेक्ट में चौदहवीं थी और इसके साथ ही उसके 462 उपग्रह धरती की लगभग 600 किलोमीटर ऊंची कक्षाओं में स्थापित हो गए। इस संख्या को अगले एक-दो वर्षों में ही उसे 648 तक ले जाना है। यह संख्या अगर आपको ज्यादा लग रही हो तो स्पेस-एक्स की घोषणा पर ध्यान दें, जिसकी ओर से सैटेलाइट कम्युनिकेशन के लिए 2025 तक 14 हजार से ज्यादा उपग्रह पृथ्वी की निकटवर्ती कक्षाओं में स्थापित करने का बयान काफी पहले आ चुका है। चीन में इस काम के लिए बनाई गई कंपनी भी लगभग 13 हजार कृत्रिम उपग्रह स्थापित करने का आवेदन कर चुकी है। 

अनुमान है कि 2030 तक 500 से 1000 किलोमीटर ऊंची कक्षाओं में लगभग एक लाख कृत्रिम उपग्रह दुनिया को फोन, इंटरनेट और टीवी की सेवाएं उपलब्ध करा रहे होंगे। संचार के इस बड़े खेल में शामिल होने का कोई संकेत अबतक न भारत सरकार की तरफ से आया है, न ही किसी भारतीय कंपनी की ओर से। ऐसे में बहुत ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है। हां, उपग्रह छोड़ने के कारोबार में हमारे इसरो ने मजबूती से हाथ जरूर डाल दिया है, जिसमें उसकी बड़ी से बड़ी सफलता की कामना की जानी चाहिए।

Friday 30 September 2022

एंटी-ड्रोन गन चिमेरा

 रक्षा क्षेत्र में उपलब्धि

भारतीय कंपनी गोदरेज (Godrej) ने फ्रांसीसी कंपनी सरबेयर (CERBAIR) के साथ मिलकर एंटी-ड्रोन गन (Anti-Drone Gun) बनाया है. इस गन के पूरे सिस्टम को कोई भी जवान अपने साथ लेकर किसी भी जगह आ जा सकता है. इसका नाम है चिमेरा 100 (Chimera 100). 

चिमेरा गन की मदद से 4 से 5 किलोमीटर दूर से आ रहे ड्रोन, यूएवी आदि को डिटेक्ट किया जा सकता है. उसे मारा जा सकता है. यह एक कंप्लीट एंटी ड्रोन सौल्यूशन है।चिमेरा गन की मदद से आप अपनी तरफ आते हुए ड्रोन का रेडियो फ्रिक्वेंसी जाम कर देते हैं. यानी यह एंटी-ड्रोन गन दुश्मन के ड्रोन को सिग्नल को जाम कर देता है. जिससे उसे उड़ाने वाला का संपर्क टूट जाता है. इसके बाद ड्रोन खुद ब खुद नीचे गिर जाता है. यह ड्रोन को गिराने से पहले आपको अलर्ट कर देगा. अलर्ट आपके हाथ के रिमोट में बजने लगेगा. आते हुए ड्रोन की तस्वीर, मैप और लोकेशन भी पता चल जाएगा

इसे लेकर चलने वाले जवान के शरीर पर एक बैकपैक में पूरा सिस्टम लगा होता है. जिसका एंटीना दूर से ही आते हुए ड्रोन को डिटेक्ट कर लेता है. उसे पहचानता है कि वो ड्रोन है या अनमैन्ड एरियन व्हीकल. निगरानी वाला ड्रोन है या फिर हमला करने वाला. इसके बाद उसे ट्रैक करके उसे निष्क्रिय कर देता है. 

चिमेरा 100 एंटी ड्रोन गन की मदद से पाकिस्तानी और चीनी ड्रोन्स को मार गिराया जा सकता है. इसका उपयोग सियाचिन जैसे इलाकों में भी किया जा सकता है.

Saturday 24 September 2022

आम लोगों तक कब पहुंचेगा जेनेटिक इलाज

चंद्रभूषण

ह्यूमन जीनोम प्रॉजेक्ट सन 2003 में पूरा हुआ। इंसान का जेनेटिक ढांचा पूरा का पूरा डिकोड कर लिया गया। मानव जीवन के बहुत लंबे, उलझे हुए सॉफ्टवेयर का कौन सा हिस्सा कोई काम कैसे पूरा करता है, इसकी एक मोटी समझ भी बन गई। फिर ऐसे दावों की भरमार देखने को मिली कि छोटी-मोटी चोट-चपेट या वायरल इनफेक्शन के अलावा जल्द ही कोई स्वास्थ्य समस्या शेष नहीं बचेगी। लोग अपनी जीनोम सीक्वेंसिंग कराकर रख लेंगे, डॉक्टर उसी हिसाब से सटीक प्रेस्क्रिप्शन लिख देंगे और अस्पतालों पर ताला पड़ जाएगा। लेकिन व्यवहार में इसका उलटा देखने को मिल रहा है।

हेल्थकेयर इंडस्ट्री और इससे जुड़े बीमे पर अब सिर्फ इनके मुनाफे से जोड़कर बातें होती हैं। बीमारी कैसी भी क्यों न हो, उसका इलाज दिनोंदिन टेढ़ा होता जा रहा है। नब्बे के दशक में ग्लोबलाइजेशन के साथ एक बड़ा बदलाव यह आया कि मेडिकल साइंस और मेडिकल ढांचे का जोर आम स्वास्थ्य समस्याओं से हटकर खास बीमारियों की तरफ हो गया। सरकारी अस्पतालों का बजट घटाने से पहले टीबी और मलेरिया जैसी बड़े दायरे की बीमारियों से जुड़े कम्यूनिटी मेडिसिन विभाग बंद कर दिए गए, जबकि निजी अस्पतालों में कैंसर मैनेजमेंट और दिल की बीमारियों वाले हिस्से अपनी फाइव स्टार सुविधा के लिए चर्चा में आने लगे। 

कोविड जैसी महामारी के झटके से भी यह रुझान नहीं पलटने वाला। अलबत्ता इधर इसमें एक नया उछाल यह दिख रहा है कि जीन थेरैपी का एक अलग क्लास बन रहा है, जिसमें एक इंसान के इलाज में लाखों डॉलर लगते हैं। इसका तो हिसाब लगाना भी एक आम हिंदुस्तानी के लिए खासा मुश्किल है।

* दुनिया भर में लगभग 7000 बीमारियों को ‘रेयर जेनेटिक डिजीज’ का दर्जा हासिल है, जिन्हें मेडिकल साइंस के धंधे में जुटे लोग फिलहाल सोने की खान मानकर चल रहे हैं। 

* ये बीमारियां कुछ गिने-चुने लोगों में ही मिलती हैं लेकिन ये ऐसी असाधारण भी नहीं हैं। ऑटिज्म, डाउन सिंड्रोम, थैलिसीमिया, कम उम्र में नजर गायब होना वगैरह। इनमें कुछेक का जेनेटिक इलाज इधर के सालों में खोज लिया गया है, हालांकि यह महंगा ही नहीं, मुश्किल भी है। 

* 2019 में ऐसी लगभग 1000 जीन थेरैपीज दुनिया में मौजूद थीं, जो जून 2022 तक 2000 हो गईं। ऐसी सरपट रफ्तार मेडिकल साइंस में शायद ही कभी देखने को मिली हो। 

* धंधे पर आएं तो वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के मुताबिक, जीन थेरैपी का ग्लोबल बाजार अभी 5.33 अरब डॉलर का है, लेकिन अगले पांच साल में, यानी 2027 तक इसके 19.88 अरब डॉलर तक पहुंच जाने का अनुमान है।

इस सोने की खान की खुदाई के लिए पैसा भी बरसने लगा है। पिछले साल, सन 2021 में 1308 डेवलपर जीन थेरैपी से जुड़ी तकनीकें विकसित करने में जुटे थे और उनकी कंपनियों ने 22.7 अरब डॉलर का निवेश जुटा रखा था। यह रकम 2019 की तुलना में 57 फीसदी ज्यादा थी। एक बात तय है कि इन इलाजों में अब कोई घपलेबाजी नहीं हो रही है। 

दस-बारह साल पहले रीढ़ से जुड़ी अपंगता के जेनेटिक ट्रीटमेंट में एक बड़ा घपला दक्षिण कोरिया से उठा था, लेकिन फिर ऐसे मामले नहीं सुनने में आए। थेरैपी सही होने के बावजूद सारे इलाज कामयाब ही होते हों, ऐसा नहीं है। लेकिन जितनी नाकामी किसी नई थेरैपी में देखने को मिलती है, उसके बरक्स कामयाबी के मामले यहां इतने ज्यादा हैं कि बीटा थैलिसीमिया के इलाज के लिए बंदे 28 लाख डॉलर लगाने को तैयार हैं। अभी ऐसी बीमारियों का जीवन भर इलाज चलता है। कोई लक्षण उभरने पर उससे निपटने के उपाय किए जाते हैं। इस थेरैपी के साथ एक अच्छी बात यह है कि एक ही बार में इलाज हो जाता है। 

लेकिन जरा इलाज के खर्चे के बारे में सोचिए। 28 लाख डॉलर यानी लगभग 25 करोड़ रुपये। और इसके लिए जिस तरह की प्रयोगशाला की जरूरत पड़ती है, वह भी हर जगह नहीं मिलती। इलाज के लिए सिर्फ एक इंजेक्शन काफी होता है, लेकिन इसमें दी जाने वाली दवा मरीज की जेनोम एडिटिंग करके बनाई जाती है। ऐसी एडिटिंग के उपकरण हर जगह नहीं मिलते और मरीज का रॉ और एडिटेड जेनेटिक मटीरियल बहुत दूर लाने-ले जाने का जोखिम नहीं उठाया जा सकता।

मेडिकल इंडस्ट्री की तरफ से अभी कोशिश यह चल रही है कि सरकारों को कन्विंस करके हेल्थ बीमा का कोई ऐसा ढांचा बनाया जाए, जिसमें सरकारें, रिसर्च कंपनियां और बीमा कंपनियां मिलकर करोड़ों रुपये के इलाज की गुंजाइश ठीक तरह बना दें, जैसे अभी लाखों रुपये के इलाज के लिए बनाए हुए हैं। इस काम में जोर-जबर्दस्ती भी नहीं की जा सकती क्योंकि कंपनियों को फायदा नहीं मिलेगा तो वे रेयर जेनेटिक बीमारियों का इलाज खोजने में इतनी बड़ी पूंजी क्यों लगाएंगी। लेकिन कुल मिलाकर शोध, निवेश और उपचार की यह दिशा ठीक नहीं लगती। 

ह्यूमन जेनोम प्रॉजेक्ट से दुनिया भर में मेडिकल साइंस को लेकर जो उम्मीदें जगी थीं, वे तो इस रास्ते पर चलकर कभी नहीं पूरी होने वाली। कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि पहला ह्यूमन जेनोम तैयार करने में तीन अरब डॉलर और तेरह साल लगे थे, लेकिन बीस साल भी नहीं हुए और अभी यह गिनती के कुछेक दिन लगाकर 100 डॉलर से भी कम खर्चे में तैयार हो जाता है। यह तो हुई जेनेटिक ढांचा पढ़ने की बात। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के जरिये इसकी गड़बड़ियां जल्दी पकड़ में आ सकती हैं, सो अभी दिखने वाले ऐसे इक्का-दुक्का चमत्कार आगे रोजमर्रा की बात हो जाएंगे। 

* क्रिस्पर-कैस 9, बेस एडिटिंग, प्राइम एडिटिंग जैसे गड़बड़ी दुरुस्त करने वाली तकनीकें अभी बहुत महंगी पड़ती हैं। लेकिन जिन समाजों में ऐसी बीमारियां ज्यादा हैं, वहां की सरकारें कोशिश करें तो अगले दस-पंद्रह सालों में इन्हें सस्ता बनाया जा सकता है। 

* इतना तय है कि ये उपाय न सिर्फ बीमारियों का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जाना रोक सकते हैं, बल्कि कुछ लाइलाज बीमारियों को इलाज के दायरे में ला सकते हैं। गरीब देशों की बड़ी बीमारी सिकल सेल एनीमिया से ऐसे ही निपटा जा सकता है

बहरहाल, सवाल सपना दिखाने का नहीं, सपने को हकीकत में बदलने का है। दुनिया भर में सरकारों की प्राथमिकता अभी बड़ी कंपनियों का रुख देखकर तय होने लगी है, जो अपनी तिमाही बोर्ड बैठक में मुनाफे की ग्रोथ दिखाने से आगे नहीं सोचतीं। जरूरत हर बीमारी, हर इलाज को इंसान की जेनेटिक बनावट की नजर से देखने की है। कौन सा एंटीबायोटिक किस व्यक्ति को कितना दिया जाना चाहिए, इसके लिए व्यक्तियों का जेनेटिक वर्गीकरण किया जाए।

इसके लिए सबकी जेनोम टेस्टिंग जरूरी न हो, ऐसे उपाय खोजे जाएं। किस व्यक्ति को कम उम्र में डायबिटीज हो सकती है, कैंसर या हार्ट डिजीज की आशंका किसमें ज्यादा है, ऐसे टेस्ट ईजाद करने का अजेंडा ह्यूमन जेनोम प्रॉजेक्ट पूरा होने के बाद नए ढंग से मेडिकल साइंस के सामने होना चाहिए था, पर यह आज भी दूर-दूर तक नहीं है। किस्सा ऐसे ही चला तो अगले दस-बीस साल अमेरिका-यूरोप में लाख-करोड़ डॉलर के इलाज वाली खबरें देखते ही निकल जाएंगे।