चंद्रभूषण
चंद्रयान-3 को आज इसके लंबे सफर पर रवाना कर देने की तैयारियां पूरी कर ली गई हैं। लक्ष्य इसमें मौजूद लैंडर को 23 अगस्त के दिन चंद्रमा पर उतारने का है, ताकि चांद की सतह पर चहलकदमी करने वाला रोवर वहां 14 दिन लंबे एक चंद्र-दिन की रोशनी का भरपूर फायदा उठा सके।
चंद्रमा तक पहुंचने का इसका रास्ता ठीक वैसा ही होगा जैसा चंद्रयान-2 का था। प्रक्षेपण के बाद धीरे-धीरे अपना दायरा बढ़ाते हुए पृथ्वी की एक तीखी इलिप्टिकल कक्षा में पहुंचना, इस प्रक्रिया में पलायन वेग (एस्केप वेलॉसिटी) हासिल करके अपने सफर का मुख्य भाग सूरज के इर्दगिर्द पृथ्वी की कक्षा में तय करना, फिर चंद्रमा की एक बड़ी गोलाकार कक्षा में प्रवेश लेना और अंत में छोटी होती स्थिर कक्षा में पहुंच कर लैंडर को चंद्रमा पर उतारने की प्रक्रिया शुरू कर देना।
चंद्रयान-2 का एक काम चंद्रमा की कक्षा में ऑर्बिटर की स्थापना का भी था, जो इस बार नहीं करना है। 2019 में वहां स्थापित किया हुआ ऑर्बिटर आज भी चाक-चौबंद है। चंद्रयान-3 की सफलता में उसकी एक अहम भूमिका होगी। जितनी उत्सुकता चंद्रयान-3 को लेकर अभी भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में देखी जा रही है, वह अबतक विरले ही अंतरिक्ष अभियानों के हिस्से आई है। कारण यह कि चंद्रयान-2 मंजिल के बहुत करीब पहुंच कर पूर्ण सफलता से चूक गया था।
सबके मन में यह सवाल है कि इसरो अपनी उस नाकामी से क्या इतनी सीख ले पाया है कि चार साल के अंदर ही उसे कामयाबी में बदलकर दिखा दे? ऐसा हो गया तो यह एक असाधारण काम को किसी तुक्के में नहीं बल्कि डंके की चोट पर पूरा कर लेने जैसा होगा। बिल्कुल संभव है कि इस सफलता के बाद इसरो को चंद्र अभियानों के मामले में भी उतनी ही कुशल और भरोसेमंद संस्था माना जाने लगे, जितना अभी छोटे उपग्रहों की स्थापना के मामले में समझा जाता है। चंद्रमा को लेकर जैसी आपाधापी इधर पूरी दुनिया में देखी जा रही है, उसमें इस बात के कुछ अलग मायने होंगे।
आधी सदी का फासला और चीन
आगे बढ़ने से पहले एक बात का ध्यान रखना जरूरी है कि देश-विदेश में चंद्र अभियानों को लेकर मौजूद तमाम जानकारियों में भारी कन्फ्यूजन है। एक तल्ख हकीकत को सूचनाओं के इस अंबार में सचेत ढंग से छिपाया जाता रहा है। यह बात सुनने में बड़ी प्यारी लगती है कि चंद्रमा पर सॉफ्ट लैंडिंग, यानी सुरक्षित रूप में यान उतारने की उपलब्धि अभी तक सिर्फ अमेरिका, रूस और चीन ने हासिल की है, चंद्रयान-3 की सॉफ्टलैंडिंग कराकर भारत इस सूची में चौथा देश बन सकता है।
इससे ऐसा लगता है कि कम से कम तीन देशों के लिए तो चंद्रमा पर यान उतारना अब एक सामान्य बात हो गई होगी। सचाई यह है कि मानवजाति चंद्रमा पर सॉफ्ट लैंडिंग की तकनीक एक बार ईजाद करके जैसे भूल ही गई है। इससे यह षड्यंत्र सिद्धांत चल निकला कि चंद्रमा पर अपोलो कभी उतरा ही नहीं। तथ्यों पर जाएं तो चंद्रमा पर सुरक्षित तरीके से अपना अंतिम यान अमेरिका ने सन 1972 में उतारा था, जबकि रूस, या यूं कहें कि सोवियत संघ ने यह काम अंतिम बार 1976 में किया था। तब से लेकर अब तक गुजरी आधी सदी में ये दोनों देश टेलिस्कोप से या किसी खोजी उपग्रह की आंखों से ही चंद्रमा को निहारते आ रहे हैं।
गहरे प्रेक्षण के लिए आम चलन किसी चीज को पूरे वेग से चंद्रमा की सतह पर गिराने का रहा है, जैसा चंद्रयान-1 के साथ हुआ था। इससे जो धूल और भाप उड़ती है, उसकी स्पेक्ट्रोग्राफी से चांद की बनावट को लेकर नतीजे निकाले जाते हैं। पृथ्वी के इस अकेले उपग्रह पर सॉफ्टलैंडिंग में अकेली महारत फिलहाल चीन को हासिल है, जिसने 2013 से 2020 के बीच यह काम तीन बार फूलप्रूफ ढंग से किया है।
अमेरिका, रूस, चीन और भारत के अलावा चंद्रमा पर यान उतारने की कोशिश इजराइल ने भी की है, लेकिन 2019 में उसके यान बेरेशीट के लिए नतीजा अच्छा नहीं रहा। सतह पर पहुंचने से दो किलोमीटर पहले कमांड सेंटर से उसका संवाद टूट गया और लैंडर का कुछ पता नहीं चला।
फेल्योर बेस्ड मॉडल
इसरो का कहना है कि चंद्रयान-3 को लेकर उसकी तैयारी चंद्रयान-2 के उलट तरीके से की गई है। इसे फेल्योर बेस्ड मॉडल कहा जा रहा है, यानी किन-किन स्थितियों में क्या-क्या चीजें गड़बड़ हो सकती हैं, ऐसी आशंकाओं को सामने रखते हुए सारी तैयारियां की गई हैं। इसके अलावा लैंडिंग के लिए इलाका भी पहले से ज्यादा बड़ा, लगभग पचास गुना चुना गया है।
चंद्रयान-2 द्वारा स्थापित ऑर्बिटर ने लैंडिंग के लिए निर्धारित इलाके की काफी ब्यौरेवार तस्वीरें पिछले चार साल में इसरो को मुहैया कराई हैं। अभी इन तस्वीरों के आधार पर लैंडिंग वाली जगह पर 28 सेंटीमीटर तक की लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई वाली चीजों का ब्यौरेवार खाका इसरो ने तैयार कर रखा है। लैंडर की बनावट ऐसी है कि उसका एक पाया दो मीटर ऊंची चट्टान पर पड़ जाए तो भी वह असंतुलित होकर ढह नहीं जाएगा। फिर भी उतराई के दौरान रफ्तार नियंत्रित रहे तो लैंडिंग के लिए जमीन जितनी समतल मिलेगी, लैंडर और रोवर की सुरक्षा के लिए उतना ही अच्छा रहेगा।
याद रहे, चंद्रमा पर हवा बिल्कुल ही नहीं है, लिहाजा न पैराशूट काम करते हैं, न गुब्बारे, न ही ग्लाइडर नुमा कोई ढांचा। नीचे आने की रफ्तार और दिशा रॉकेटों से ही नियंत्रित करनी होती है। चंद्रयान-2 के लैंडर में इस काम के लिए पांच रॉकेट लगाए गए थे। चार कोनों पर और पांचवां बीच में। चंद्रयान-3 के लैंडर में बीच वाला रॉकेट हटा दिया गया है। चार रिवर्स रॉकेटों से ही इसकी रफ्तार को पांच हजार मील प्रति घंटा की रफ्तार से घटाकर लगभग शून्य गति से खटोले की तरह सतह पर उतार देना है।
क्या मकसद सधेगा
चंद्रयान-3 मिशन के पीछे इसरो का पहला मकसद तो चंद्रमा पर सॉफ्टलैंडिंग और उसपर अपनी खोजी गाड़ी चलाने की क्षमता प्रदर्शित करना ही है, लेकिन इसके साथ भेजे जा रहे यंत्र आगे के महत्वाकांक्षी अभियानों के लिए कुछ बहुत जरूरी प्रेक्षण भी लेंगे। लैंडर को चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के पास, 70 डिग्री अक्षांश और 32 डिग्री देशांतर में उतारने का सबसे बड़ा उद्देश्य यह है कि यहां बर्फ मिलने की संभावना तुलनात्मक रूप से ज्यादा है।
अमेरिका, रूस और चीन ने अपने यान चंद्रमा की भूमध्य रेखा के पास उतारे हैं जो कम्युनिकेशन की दृष्टि से अच्छी जगह है। चंद्रयान-2 के क्षेपण से पहले चीनी अंतरिक्ष विज्ञानियों ने चिंता जताई थी कि 70 डिग्री दक्षिण में रोशनी कम रहती है और संवाद भी कठिन हो जाता है। लेकिन चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के पास के इलाके संसाधनों की दृष्टि से काफी बेहतर हैं। हमेशा छाया में रहने वाली जगहें उधर ज्यादा हैं तो गैसीय संसाधनों की संभावना भी ज्यादा होगी।
चंद्रयान-3 की कोशिश चंद्रधूल का तात्विक अध्ययन करने के अलावा वहां मौजूद पत्थरों की क्रिस्टलीय संरचना समझने की रहेगी। सतह के पास वायुमंडल जैसा, या धूल-भाप और आवेशित कणों के घोल जैसा कुछ है या नहीं, यह जानने का प्रयास भी वह करेगा। इसके लिए जरूरी यंत्र लैंडर और रोवर में लगे हैं। इसके अलावा सूक्ष्म भूकंपीय तरंगों का प्रेक्षण लेना भी इस मिशन का एक मकसद है, जिनके अध्ययन से चंद्रमा की भीतरी सतहों और उसके केंद्र के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां मिल सकती हैं।
वैज्ञानिक प्रेक्षण
एक जरूरी प्रेक्षण चंद्रमा की ताप चालकता को लेकर लिया जाना है, यानी सूरज की भीषण गर्मी वहां कितनी जल्दी कितनी गहराई तक पहुंच पाती है। चंद्रमा पर भविष्य में बनने वाली वैज्ञानिक बस्तियों का स्वरूप काफी कुछ इसी पर निर्भर करेगा। इस प्रेक्षण के लिए एक कील को चंद्रमा की सतह पर दस सेंटीमीटर गाड़ दिया जाएगा और सवा सौ डिग्री सेंटीग्रेड से भी ज्यादा तापमान वाले, चौदह दिन लंबे तीखे चंद्र-दिन में कील के हर हिस्से के तापमान का प्रेक्षण लेते हुए चंद्रमा की ताप चालकता को लेकर पहली बार कुछ नतीजे निकाले जाएंगे।
यहां चंद्रमा के दिन-रात को लेकर कुछ जरूरी बातों का जिक्र भी जरूरी है। यह आकाशीय पिंड अपनी धुरी पर घूमता ही नहीं। लिहाजा जैसे धरती के दिन-रात इसके अपनी धुरी पर घूमने पर निर्भर करते हैं, वैसा कुछ चंद्रमा के साथ नहीं है। जो हिस्सा सूरज के सामने पड़े वहां दिन और जो पीछे पड़े वहां रात। चंद्रमा पर रात के समय थर्मामीटर में पारा जीरो से बहुत नीचे, माइनस 173 डिग्री सेंटीग्रेड- कभी थोड़ा कम, कभी ज्यादा- तापमान दिखाता है। फिर रात बीतने पर धरती के चौदह दिनों जितना ही लंबा एक दिन वहां उगता है तो पारा धीरे-धीरे नहीं, बल्कि अचानक ही चढ़कर 127 डिग्री सेंटीग्रेड तक चला जाता है- सीधे 300 डिग्री सेंटीग्रेड की उछाल!
टेंपरेचर की यह रेंज इतनी बड़ी है कि कामकाजी दायरे में आने वाली धरती की ज्यादातर चीजें सिर्फ इसके सर्द-गर्म के असर में आकर बिल्कुल नाकारा और जब-तब भुरभुरी होकर रह जाती हैं। इससे भी बड़ी समस्या रेडिएशन की है। सौर ज्वालाओं के साथ आने वाले जानलेवा रेडिएशन से बचाने के लिए ओजोन लेयर जैसी कोई चीज तो वहां है ही नहीं, ऐसी कोई आड़ भी खोजना मुश्किल है, जहां छिपाकर मशीनों के सर्किट बचाए जा सकें।
आर्टेमिस में इसरो
अभी जब 1930 के दशक में प्रायोगिक तौर पर थोड़े-थोड़े समय के लिए वैज्ञानिकों को चांद पर रखने की बात अमेरिका और चीन में चल रही है, तब पहला सवाल सबके सामने यही है कि वहां ये रहेंगे कहां और उनके उपकरण काम कैसे करेंगे? चंद्रयान-3 चंद्रमा की जमीन पर ऐसे सवालों को हल करने की शुरुआत करेगा और इस मामले में वह चीन के अलावा यकीनन बाकी पूरी दुनिया से आगे रहेगा।
उसकी जुटाई हुई सूचनाओं का महत्व भारत के बाद किसी के लिए सबसे ज्यादा होगा तो वह है अमेरिका, जिसके नेतृत्व में चल रहा आर्टेमिस अभियान तकनीक और निवेश में काफी आगे होते हुए भी जमीनी नतीजों के मामले में बहुत पीछे है। थोड़ा ही पहले, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के समय इसरो को आर्टेमिस अभियान से जोड़ने को लेकर एक समझौता हुआ है। दुनिया की कई अंतरिक्ष एजेंसियां पहले से ही इस अभियान का हिस्सा हैं, लेकिन इसरो जैसी उपलब्धियां इनमें किसी के पास नहीं हैं।
चंद्रयान-1 की कोशिशों से ही पहली बार चंद्रमा को संसाधनों की नजर से देखा गया, वरना अमेरिकियों ने तो उसे पत्थर और धूल का ढेर मानकर छोड़कर दिया था। इसरो की प्रतिष्ठा आर्टेमिस से जुड़ने के बाद और बढ़े, जुड़ाव की इस प्रक्रिया में मिलने वाली सूचनाएं और संसाधन अमेरिका के ही न मान लिए जाएं, भारत का भी इनपर बराबरी का अधिकार रहे, यह सुनिश्चित करना राजनीतिक नेतृत्व का काम है।
वापस चलें चांद की ओर
पृथ्वी से इतर किसी और अंतरिक्षीय पिंड पर इंसान के कदम पड़ने की अर्ध-शताब्दी पूरी होने को है। यह चमत्कार 20 जुलाई 1969 को नील आर्मस्ट्रांग और एडविन एल्ड्रिन के हिस्से आया था। फिर वियतनाम में फंसे अमेरिका ने इस काम पर आने वाले खर्चे का हिसाब लगाया और आमदनी के नाम पर सिर्फ कुछ कंकड़-पत्थर दर्ज करने के बाद चांद को उसके हाल पर छोड़ देने का फैसला किया। तब की दूसरी सक्षम शक्ति सोवियत संघ को भी यही लगा कि चांद की महंगी दौड़ उसे कोई फायदा नहीं देने वाली।
नतीजा यह कि इंसानों ने अपनी चंद्रयात्रा को दस्तावेजी अतीत की चीज बना दिया और अमेरिका में एक ऐसा षडयंत्र सिद्धांत चल निकला कि यह पूरी बात ही फर्जी है, अपोलो-11 की तस्वीरें वहीं नवादा रेगिस्तान में खींचकर दुनिया पर रौब गालिब करने के लिए जारी की गई हैं। हालत यह हुई कि चांद की दुर्लभ तस्वीरें, यहां तक कि सैंपल भी जहां-तहां कचरा पेटी में पड़े पाए जाने लगे।
बहरहाल, उस ऐतिहासिक क्षण के पचास साल पूरे होने के मौके पर कई देशों ने चंद्रमा पर अपने खोजी यान भेजने की योजना घोषित की, जिनमें अमेरिका, रूस, चीन और अपना भारत तो है ही, जर्मनी, जापान, दक्षिण कोरिया और यूएई भी हैं। इस सूची से स्पष्ट है कि चांद के खोजी नौ देशों में पांच, यानी आधे से ज्यादा एशियाई हैं।
सारे अभियानों का जोर चंद्रमा का ब्यौरेवार नक्शा तैयार करने, उपयोगी बेस कैंप की जगह तलाशने, वहां से ढेरों सैंपल लाने और 2020 का दशक बीतने तक इंसानों के लिए सुरक्षित ठिकाने खड़े करने पर है। इन कामों में अभी चीन सबसे आगे है, हालांकि रोबॉटिक्स की तरक्की के दम पर जापान का दावा भी भविष्य में मजबूत माना जा रहा है। क्या ही अच्छा रहे कि 2030 के दशक में जब हम दोबारा चांद पर जाएं तो वहां हमारी मौजूदगी किसी खास देश के बजाय धरती के नागरिक के रूप में दर्ज हो।