Saturday, 17 December 2022

गणित के क्षेत्र में एक अद्भूत खोज

 ""एक अद्भुत ख़ोज"" 


संस्कृत के विद्वानों को सदियों से छकाने वाली लगभग ढाई हजार साल पुरानी ऋषि पाणिनि की एक व्याकरण संबंधी पहेली को आखिरकार एक भारतीय छात्र ने सुलझा लिया है. यह कमाल कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे एक भारतीय छात्र 27 वर्षीय ऋषि राजपोपट ने कर दिखाया है. गुरुवार को सबमिट की गई उनकी पीएचडी रिसर्च में इसका खुलासा हुआ है.

ऋषि राजपोपट ने आचार्य पाणिनि द्वारा 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व बताए गए एक नियम को डिकोड करने में सफलता हासिल की. बता दें कि पाणिनी को संस्कृत व्याकरण का पितामह माना जाता है. 

ऋषि राजपोपट की थीसिस '"""इन पाणिनि, वी ट्रस्ट: डिस्कवरिंग द एल्गोरिथम फॉर रूल कंफ्लिक्ट रेजोल्यूशन इन द अष्टाध्यायी"""""' में पाणिनि की उस व्याकरण संबंधित पहेली का हल शामिल है.

यूनिवर्सिटी के मुताबिक, प्रमुख संस्कृत विशेषज्ञों ने राजपोपट की खोज को "क्रांतिकारी" बताया है. इसका मतलब यह हो सकता है कि ऋषि"""पाणिनि""" का व्याकरण अब पहली बार कंप्यूटर से सिखाया जाना मुमकिन हो जाए. राजपोपट की खोज पाणिनि व्याकरण के अनुरूप सही शब्दों का निर्माण करने के लिए किसी भी संस्कृत शब्द का "मूल" खोजना संभव बनाती है. पाणिनि के इस व्याकरण को व्यापक रूप से इतिहास की सबसे बड़ी बौद्धिक उपलब्धियों में से एक माना जाता है, जिसे अब राजपोपट की खोज के बाद समझना और आसान हो जाएगा. 

राजपोपट ने संस्कृत की इस व्याकरण संबंधी समस्या को केवल 9 महीने में हल कर दिखाया है. न्यूज एजेंसी पीटीआई को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा “नौ महीने इस समस्या को हल करने की कोशिश करने के बाद, मैं इसे छोड़ देने के लिए लगभग तैयार था. मैंने एक महीने के लिए किताबें बंद कर दीं और बस गर्मियों का आनंद लिया, मसलन- तैराकी, साइकिल चलाना, खाना बनाना, प्रार्थना करना और ध्यान करना. फिर, अचानक से मैं काम पर वापस चला गया और मिनटों के भीतर जैसे ही मैंने पन्ने पलटे तो ये पैटर्न उभरने लगे, फिर सब समझ में आने लगा. करने के लिए और भी बहुत कुछ था लेकिन मुझे पहेली का सबसे बड़ा हिस्सा मिल गया था." 

राजपोपट के पीएचडी सुपरवाइजर और संस्कृत के प्रोफेसर विन्सेंजो वर्गियानी ने कहा, "मेरे छात्र ऋषि ने इसे सुलझा लिया है, उन्होंने एक समस्या का असाधारण रूप से समाधान ढूंढ लिया है, जिसने सदियों से विद्वानों को परास्त किया हुआ है. यह खोज ऐसे समय में संस्कृत के अध्ययन में क्रांतिकारी बदलाव लाएगी जब भाषा में रुचि बढ़ रही है."

राजपोपट ने कहा, "भारत के कुछ सबसे प्राचीन ज्ञान संस्कृत से निकले हैं और हम अभी भी पूरी तरह से नहीं समझ पाए हैं कि हमारे पूर्वजों ने क्या हासिल किया. हमें यह विश्वास दिलाने की कोशिश की जाती है कि हम उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं, जो अन्य देशों के बीच अपनी बात कह सकें.मुझे उम्मीद है कि यह खोज भारत में छात्रों को आत्मविश्वास और गर्व से भर देगी और उम्मीद है कि वे भी महान चीजें हासिल कर सकते हैं."

पाणिनि की सबसे श्रेष्ठ रचना अष्टाध्यायी (Astadhyayi) में 4,000 नियम हैं, जिसके बारे में माना जाता है कि इसे एक भाषा मशीन की तरह काम करने के लिए लगभग 500 ईसा पूर्व लिखा गया था।

Monday, 31 October 2022

अक्ल को उम्र से क्या लेना

 चंद्रभूषण

उम्र के साथ अक्ल भी बढ़ती है, यह सर्वमान्य धारणा मुझे शुरू से परेशान करती आई है। आप से कोई एक-दो या दस-बीस साल बड़ा है, इस आधार पर बचपन में वह आपको पीटने का और बड़े होने पर अपने ‘ज्ञान’ का बोझा आप पर लादने का हकदार हो जाता है। अरे भले आदमी, ऐसा कुछ करने से पहले एक बार सोच तो लो कि तुम्हारी उम्र ने तुमको बुद्धिमान बनाया है या पहले से भी ज्यादा मूर्ख बना दिया है! 

ज्यादातर मामलों में मैं उलटे नतीजे पर ही पहुंचता रहा हूं। यानी यह कि उम्र बीतने के साथ समझ बढ़ना अपवाद स्वरूप ही देखने को मिलता है। लोगों के फैसले समय के साथ प्रायः एक क्रम में गलत से और ज्यादा गलत होते जाते हैं और वे खुद बेवकूफ से बेवकूफतर होते जाते हैं। 

मेरे प्राइमरी स्कूल के हेडमास्टर हर दूसरे-तीसरे दिन घर से झगड़ा करके  देर से स्कूल आया करते थे। बिना टीचर की क्लास में अगर वे हमें अपनी जगह से जरा भी हिलते-डुलते देख लेते तो धमकी भरे अंदाज में बाहर से ही पूछते, ‘ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना कब हुई थी?’ और किसी का जवाब सही या गलत होने की परवाह किए बगैर ‘दुखहरन’ नाम के मोटे डंडे से एक ही लपेटे में पूरी क्लास की धुनाई करते थे। 

स्कूल के संचालन को लेकर उनकी प्रतिबद्धता पर मेरे मन में कभी कोई सवाल नहीं पैदा हुआ। एक धुर देहाती स्कूल में बच्चों को अपनी क्षमता भर पढ़ाई करने के लिए तैयार करना कोई हंसी-खेल नहीं था। लेकिन बच्चों को सोचने या सांस लेने तक का मौका दिए बगैर घर का गुस्सा उन पर निकाल देना भी क्या कोई अक्लमंदी का काम था?

किस-किस की बात करूं? तीस-पैंतीस के होते-होते ज्यादातर लोग सिगरेट, तंबाकू, शराब जैसी कोई लत पकड़ लेते हैं, या जानलेवा हताशा में फंसने का कोई ठोस बहाना ढूंढ लेते हैं, या फिर आर्थिक सुरक्षा के नाम पर कोल्हू के बैल की तरह आंख मूंदकर किसी के हुक्म पर गोल-गोल घूमते रहने का हुनर साध लेते हैं। इनमें से किस चीज को आप बुद्धिमत्ता मानेंगे?

चालीस पार करते-करते लोगों में कोई न कोई सनक पैदा होने के लक्षण आप साफ देख सकते हैं, जो कई बार उनका पीछा आखिरी सांस तक नहीं छोड़ती। छोटी-छोटी बातों पर किसी से लड़ पड़ना, सालों पुराने रिश्ते पल भर में तबाह कर देना और फिर पछतावे में घुलते रहना। खुद को सबसे ऊंचा मानने का सुपीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स, या किसी काम का न मान पाने का इनफीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स। इस सब में कहां की बुद्धिमानी है?

इसलिए उम्र का कुल हासिल मुझे जब-तब मच्योरिटी जरूर लगती है- यानी जहां फंसने का चांस हो वहां हाथ ही न डालना। लेकिन इस कतराने वाली चालाकी का किसी के रचनात्मक बुद्धि-विवेक से कुछ खास सम्बन्ध मुझे नहीं दिखता। आम भगोड़ेपन से इतर मच्योरिटी का संदर्भ बहुत सीमित होता है। बस, पुराने तजुर्बे से संभावित गलतियों का अंदाजा हो जाना और उनके दोहराव से बच निकलना। 

आप अपनी खास नजर से दुनिया को देख सकें, नए-ताजे काम कर सकें, पुरानी हदें पार करने के रास्ते निकाल सकें, इसमें न तो उम्र का कोई योगदान है, न उम्रदार लोग इसमें आपकी कोई मदद कर पाएंगे। हां, नजर धुंधली करने या आपके पहिये में फच्चर फंसाने का एक भी मौका वे हाथ से बिल्कुल नहीं जाने देंगे। लिहाजा कभी जरूरी लगे तो उम्र और अक्ल को अलगाकर देखने की कोशिश की जानी चाहिए।

Saturday, 29 October 2022

बन रही है संचार की एक नई दुनिया

चंद्रभूषण

सैटेलाइट कम्युनिकेशन की एक नई दुनिया बननी शुरू हुई है। 23 अक्टूबर 2022, दिन रविवार को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने ब्रिटिश कंपनी वनवेब के लिए 36 कृत्रिम उपग्रह निर्धारित कक्षाओं में बड़ी कुशलता से स्थापित करके हमारे खित्ते में इस दुनिया की नींव रख दी है। वनवेब भारतीय कंपनी नहीं है लेकिन भारतीय उद्योगपति सुनील भारती मित्तल इसके चेयरमैन हैं और कंपनी में उनके शेयर भी सबसे ज्यादा हैं। उनका कहना है कि 2023 के मध्य से वनवेब अपने सैटेलाइट नेटवर्क के जरिये उन जगहों पर भी ब्रॉडबैंड इंटरनेट और सैटेलाइट कम्युनिकेशन की व्यवस्था करने लगेगी, जहां फिलहाल कोई भी लैंडलाइन या मोबाइल नेटवर्क उपलब्ध नहीं है। पहली नजर में यह कोई बड़ी बात नहीं लगती, लेकिन यह खेल यकीनन बहुत बड़ा है।

इंटरनेट समेत दूरसंचार की पूरी व्यवस्था अभी घर-घर पहुंचने वाले तार या दांव देखकर कहीं भी लगा दी गई सेल टावरों पर निर्भर करती है। ग्लोबल पैमाने पर इस काम के लिए समुद्र में केबल डाले जाते हैं। इसमें सैटेलाइटों की भूमिका आज भी काफी बड़ी होती है लेकिन इसके साथ दो मुश्किलें जुड़ी हैं। एक तो सूचनाओं की अपलोडिंग और डाउनलोडिंग बड़े स्तर का काम है और इसकी रफ्तार कम है, दूसरे इस काम में थोड़ा वक्त लग जाता है। बीच में कोरोना लॉकडाउन के वक्त जूम क्लास के हल्ले में बच्चों को जितनी समस्याओं का सामना करना पड़ा, सबको ठीक से ध्यान में रखा जाए, खासकर गांवों और कस्बों के बच्चों की समस्याओं को, तब सैटेलाइट कम्युनिकेशन के मायने बेहतर समझ में आएंगे। 

इसरो का मुकाम

दुर्गम से दुर्गम जगह में भी बिना किसी व्यवधान के 4जी स्पीड पर डेटा सप्लाई। इससे आगे बात इंटरनेट पर टीवी प्रसारण और चीजों के इंटरनेट (आईओटी) तक जाएगी, लेकिन बाद में। इसरो की उपलब्धि पर वापस लौटें तो भारत के ताकतवर रॉकेट जीएसएलवी मार्क-3 की यह पहली कमर्शियल उड़ान थी। ध्यान रहे, छोटे उपग्रह छोड़ने के मामले में पहले भी इसरो को दुनिया के एक पावरहाउस जैसा दर्जा हासिल रहा है। इस लाइन में साढ़े छह हजार करोड़ से ज्यादा का इंटरनेशनल कारोबार वह कोरोना की बंदिशें शुरू होने से पहले कर चुका था। लेकिन यह सारी की सारी लांचिंग भारत के छोटे रॉकेट पीएसएलवी (पोलर सैटेलाइट लांच वीइकल) के जरिये की गई थी, जो दो टन तक वजनी चीज को मध्यम ऊंचाई वाली कक्षा तक पहुंचा सकता है। 

पीएसएलवी की ख्याति इस मामले में सबसे सस्ती और सुरक्षित सवारी की बनी हुई है। लेकिन भारी रॉकेट जीएसएलवी (जियो स्टेशनरी सैटेलाइट लांच वीइकल) लंबे समय से इसरो के लिए एक समस्या बना हुआ था और बार-बार की विफलताओं से एक समय लगने लगा था कि रूस का साथ लिए बगैर इस क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की कोशिश कहीं पैसे की बर्बादी तो नहीं है। पिछले चार-पांच वर्षों में जीएसएलवी की महारत यकीनन बड़ी बात है। कुछ फर्क पीएसएलवी और जीएसलएवी की बुनियादी तकनीक में भी है, लेकिन उनकी ताकत में लगभग पांच गुने का अंतर है। 

धरती की नजदीकी- एक हजार किलोमीटर तक ऊंचाई वाली- कक्षाओं में जीएसएलवी 10 टन तक वजनी चीज पहुंचा सकता है और जियो स्टेशनरी यानी लगभग 30 हजार किलोमीटर ऊंची कक्षाओं में चार टन वजन का उपग्रह स्थापित कर सकता है। यह चीज इसरो की छवि दुनिया की सैटेलाइट लांचिंग इंडस्ट्री के एक बड़े खिलाड़ी जैसी बनाने के लिए काफी होनी चाहिए। वनवेब के साथ उसका 36-36 सैटेलाइटों की दो लांचिंग का कॉन्ट्रैक्ट एक हजार करोड़ रुपये से थोड़ा ज्यादा रकम में हुआ पड़ा है। एक अभी, एक अगले साल। यह संयोग रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते हाथ लगा। 

रूस की खाली जगह

रूसी अंतरिक्ष एजेंसी रोसकोसमोस ने यूरोपीय देशों के लिए सैटेलाइट लांचिंग से मना कर दिया। नतीजा यह कि, वनवेब के 36 सैटेलाइट रोसकोसमोस के पास ही जब्ती जैसी हालत में पड़े हैं। इसका अगला कदम यह है कि रूस ने कमर्शल सैटेलाइट लांचिंग के बाजार से खुद को अलग ही रखने का फैसला किया है। उसके एक आधिकारिक बयान में कहा गया कि सैटेलाइट कम्युनिकेशन पर लगने जा रही कुल पूंजी का चार फीसदी बजट ही उपग्रहों की लांचिंग पर खर्च होना है, लिहाजा उसे ज्यादा फायदे का धंधा उपग्रह छोड़ने के बजाय उपग्रह बनाने का लग रहा है। 

इस तरह दुनिया में सबसे प्रतिष्ठित रूस के सोयुज रॉकेटों के कमर्शल लांचिंग की होड़ से बाहर हो जाने के बाद भारत के जीएसएलवी के लिए मौके काफी बढ़ गए हैं। इससे जुड़ा कोई भी संदेह, कोई भी दुविधा जड़ से मिटा देने के लिए जीएसएलवी मार्क-3 का नाम बदलकर एलवीएम-3 (लांच वीइकल मार्क-3) कर दिया गया है। इस रॉकेट को एक बार छोड़ने का खर्चा 500 करोड़ रुपया है, यानी अभी इसका कारोबार ‘नो प्रॉफिट नो लॉस’ की स्थिति में है। इससे जुड़े पूंजी खर्च को भी लागत में शामिल कर लें तो वह करीब दस हजार करोड़ रुपया बैठता है। दूसरे शब्दों में कहें तो अंतिम रूप से मुनाफा कमाना अभी बहुत दूर की बात है।

लांचिंग बिजनेस में इसरो का मुकाबला कुछ अमेरिकी और यूरोपियन प्राइवेट कंपनियों से है। इलॉन मस्क की स्पेस एक्स, यूनाइटेड लांच एलायंस और एरियानस्पेस के नाम इनमें प्रमुख हैं। सरकारी कंपनियों में चीन और रूस की हालत बहुत मजबूत है लेकिन इंटरनेशनल मार्केट में इन दोनों देशों की कुछ खास गति कम से कम निकट भविष्य में तो नहीं दिखाई पड़ रही है। यानी इसरो के लिए गुंजाइश बड़ी है, बशर्ते वहां व्यापारिक बुद्धि को अवसर मिले।

एक लाख उपग्रह

इस खेल का पैमाना क्या है, इसे समझने के लिए एक तथ्य पर गौर करें कि बीते इतवार को की गई 36 सैटेलाइटों की लांचिंग वनवेब के प्रॉजेक्ट में चौदहवीं थी और इसके साथ ही उसके 462 उपग्रह धरती की लगभग 600 किलोमीटर ऊंची कक्षाओं में स्थापित हो गए। इस संख्या को अगले एक-दो वर्षों में ही उसे 648 तक ले जाना है। यह संख्या अगर आपको ज्यादा लग रही हो तो स्पेस-एक्स की घोषणा पर ध्यान दें, जिसकी ओर से सैटेलाइट कम्युनिकेशन के लिए 2025 तक 14 हजार से ज्यादा उपग्रह पृथ्वी की निकटवर्ती कक्षाओं में स्थापित करने का बयान काफी पहले आ चुका है। चीन में इस काम के लिए बनाई गई कंपनी भी लगभग 13 हजार कृत्रिम उपग्रह स्थापित करने का आवेदन कर चुकी है। 

अनुमान है कि 2030 तक 500 से 1000 किलोमीटर ऊंची कक्षाओं में लगभग एक लाख कृत्रिम उपग्रह दुनिया को फोन, इंटरनेट और टीवी की सेवाएं उपलब्ध करा रहे होंगे। संचार के इस बड़े खेल में शामिल होने का कोई संकेत अबतक न भारत सरकार की तरफ से आया है, न ही किसी भारतीय कंपनी की ओर से। ऐसे में बहुत ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है। हां, उपग्रह छोड़ने के कारोबार में हमारे इसरो ने मजबूती से हाथ जरूर डाल दिया है, जिसमें उसकी बड़ी से बड़ी सफलता की कामना की जानी चाहिए।

Friday, 30 September 2022

एंटी-ड्रोन गन चिमेरा

 रक्षा क्षेत्र में उपलब्धि

भारतीय कंपनी गोदरेज (Godrej) ने फ्रांसीसी कंपनी सरबेयर (CERBAIR) के साथ मिलकर एंटी-ड्रोन गन (Anti-Drone Gun) बनाया है. इस गन के पूरे सिस्टम को कोई भी जवान अपने साथ लेकर किसी भी जगह आ जा सकता है. इसका नाम है चिमेरा 100 (Chimera 100). 

चिमेरा गन की मदद से 4 से 5 किलोमीटर दूर से आ रहे ड्रोन, यूएवी आदि को डिटेक्ट किया जा सकता है. उसे मारा जा सकता है. यह एक कंप्लीट एंटी ड्रोन सौल्यूशन है।चिमेरा गन की मदद से आप अपनी तरफ आते हुए ड्रोन का रेडियो फ्रिक्वेंसी जाम कर देते हैं. यानी यह एंटी-ड्रोन गन दुश्मन के ड्रोन को सिग्नल को जाम कर देता है. जिससे उसे उड़ाने वाला का संपर्क टूट जाता है. इसके बाद ड्रोन खुद ब खुद नीचे गिर जाता है. यह ड्रोन को गिराने से पहले आपको अलर्ट कर देगा. अलर्ट आपके हाथ के रिमोट में बजने लगेगा. आते हुए ड्रोन की तस्वीर, मैप और लोकेशन भी पता चल जाएगा

इसे लेकर चलने वाले जवान के शरीर पर एक बैकपैक में पूरा सिस्टम लगा होता है. जिसका एंटीना दूर से ही आते हुए ड्रोन को डिटेक्ट कर लेता है. उसे पहचानता है कि वो ड्रोन है या अनमैन्ड एरियन व्हीकल. निगरानी वाला ड्रोन है या फिर हमला करने वाला. इसके बाद उसे ट्रैक करके उसे निष्क्रिय कर देता है. 

चिमेरा 100 एंटी ड्रोन गन की मदद से पाकिस्तानी और चीनी ड्रोन्स को मार गिराया जा सकता है. इसका उपयोग सियाचिन जैसे इलाकों में भी किया जा सकता है.

Saturday, 24 September 2022

आम लोगों तक कब पहुंचेगा जेनेटिक इलाज

चंद्रभूषण

ह्यूमन जीनोम प्रॉजेक्ट सन 2003 में पूरा हुआ। इंसान का जेनेटिक ढांचा पूरा का पूरा डिकोड कर लिया गया। मानव जीवन के बहुत लंबे, उलझे हुए सॉफ्टवेयर का कौन सा हिस्सा कोई काम कैसे पूरा करता है, इसकी एक मोटी समझ भी बन गई। फिर ऐसे दावों की भरमार देखने को मिली कि छोटी-मोटी चोट-चपेट या वायरल इनफेक्शन के अलावा जल्द ही कोई स्वास्थ्य समस्या शेष नहीं बचेगी। लोग अपनी जीनोम सीक्वेंसिंग कराकर रख लेंगे, डॉक्टर उसी हिसाब से सटीक प्रेस्क्रिप्शन लिख देंगे और अस्पतालों पर ताला पड़ जाएगा। लेकिन व्यवहार में इसका उलटा देखने को मिल रहा है।

हेल्थकेयर इंडस्ट्री और इससे जुड़े बीमे पर अब सिर्फ इनके मुनाफे से जोड़कर बातें होती हैं। बीमारी कैसी भी क्यों न हो, उसका इलाज दिनोंदिन टेढ़ा होता जा रहा है। नब्बे के दशक में ग्लोबलाइजेशन के साथ एक बड़ा बदलाव यह आया कि मेडिकल साइंस और मेडिकल ढांचे का जोर आम स्वास्थ्य समस्याओं से हटकर खास बीमारियों की तरफ हो गया। सरकारी अस्पतालों का बजट घटाने से पहले टीबी और मलेरिया जैसी बड़े दायरे की बीमारियों से जुड़े कम्यूनिटी मेडिसिन विभाग बंद कर दिए गए, जबकि निजी अस्पतालों में कैंसर मैनेजमेंट और दिल की बीमारियों वाले हिस्से अपनी फाइव स्टार सुविधा के लिए चर्चा में आने लगे। 

कोविड जैसी महामारी के झटके से भी यह रुझान नहीं पलटने वाला। अलबत्ता इधर इसमें एक नया उछाल यह दिख रहा है कि जीन थेरैपी का एक अलग क्लास बन रहा है, जिसमें एक इंसान के इलाज में लाखों डॉलर लगते हैं। इसका तो हिसाब लगाना भी एक आम हिंदुस्तानी के लिए खासा मुश्किल है।

* दुनिया भर में लगभग 7000 बीमारियों को ‘रेयर जेनेटिक डिजीज’ का दर्जा हासिल है, जिन्हें मेडिकल साइंस के धंधे में जुटे लोग फिलहाल सोने की खान मानकर चल रहे हैं। 

* ये बीमारियां कुछ गिने-चुने लोगों में ही मिलती हैं लेकिन ये ऐसी असाधारण भी नहीं हैं। ऑटिज्म, डाउन सिंड्रोम, थैलिसीमिया, कम उम्र में नजर गायब होना वगैरह। इनमें कुछेक का जेनेटिक इलाज इधर के सालों में खोज लिया गया है, हालांकि यह महंगा ही नहीं, मुश्किल भी है। 

* 2019 में ऐसी लगभग 1000 जीन थेरैपीज दुनिया में मौजूद थीं, जो जून 2022 तक 2000 हो गईं। ऐसी सरपट रफ्तार मेडिकल साइंस में शायद ही कभी देखने को मिली हो। 

* धंधे पर आएं तो वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के मुताबिक, जीन थेरैपी का ग्लोबल बाजार अभी 5.33 अरब डॉलर का है, लेकिन अगले पांच साल में, यानी 2027 तक इसके 19.88 अरब डॉलर तक पहुंच जाने का अनुमान है।

इस सोने की खान की खुदाई के लिए पैसा भी बरसने लगा है। पिछले साल, सन 2021 में 1308 डेवलपर जीन थेरैपी से जुड़ी तकनीकें विकसित करने में जुटे थे और उनकी कंपनियों ने 22.7 अरब डॉलर का निवेश जुटा रखा था। यह रकम 2019 की तुलना में 57 फीसदी ज्यादा थी। एक बात तय है कि इन इलाजों में अब कोई घपलेबाजी नहीं हो रही है। 

दस-बारह साल पहले रीढ़ से जुड़ी अपंगता के जेनेटिक ट्रीटमेंट में एक बड़ा घपला दक्षिण कोरिया से उठा था, लेकिन फिर ऐसे मामले नहीं सुनने में आए। थेरैपी सही होने के बावजूद सारे इलाज कामयाब ही होते हों, ऐसा नहीं है। लेकिन जितनी नाकामी किसी नई थेरैपी में देखने को मिलती है, उसके बरक्स कामयाबी के मामले यहां इतने ज्यादा हैं कि बीटा थैलिसीमिया के इलाज के लिए बंदे 28 लाख डॉलर लगाने को तैयार हैं। अभी ऐसी बीमारियों का जीवन भर इलाज चलता है। कोई लक्षण उभरने पर उससे निपटने के उपाय किए जाते हैं। इस थेरैपी के साथ एक अच्छी बात यह है कि एक ही बार में इलाज हो जाता है। 

लेकिन जरा इलाज के खर्चे के बारे में सोचिए। 28 लाख डॉलर यानी लगभग 25 करोड़ रुपये। और इसके लिए जिस तरह की प्रयोगशाला की जरूरत पड़ती है, वह भी हर जगह नहीं मिलती। इलाज के लिए सिर्फ एक इंजेक्शन काफी होता है, लेकिन इसमें दी जाने वाली दवा मरीज की जेनोम एडिटिंग करके बनाई जाती है। ऐसी एडिटिंग के उपकरण हर जगह नहीं मिलते और मरीज का रॉ और एडिटेड जेनेटिक मटीरियल बहुत दूर लाने-ले जाने का जोखिम नहीं उठाया जा सकता।

मेडिकल इंडस्ट्री की तरफ से अभी कोशिश यह चल रही है कि सरकारों को कन्विंस करके हेल्थ बीमा का कोई ऐसा ढांचा बनाया जाए, जिसमें सरकारें, रिसर्च कंपनियां और बीमा कंपनियां मिलकर करोड़ों रुपये के इलाज की गुंजाइश ठीक तरह बना दें, जैसे अभी लाखों रुपये के इलाज के लिए बनाए हुए हैं। इस काम में जोर-जबर्दस्ती भी नहीं की जा सकती क्योंकि कंपनियों को फायदा नहीं मिलेगा तो वे रेयर जेनेटिक बीमारियों का इलाज खोजने में इतनी बड़ी पूंजी क्यों लगाएंगी। लेकिन कुल मिलाकर शोध, निवेश और उपचार की यह दिशा ठीक नहीं लगती। 

ह्यूमन जेनोम प्रॉजेक्ट से दुनिया भर में मेडिकल साइंस को लेकर जो उम्मीदें जगी थीं, वे तो इस रास्ते पर चलकर कभी नहीं पूरी होने वाली। कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि पहला ह्यूमन जेनोम तैयार करने में तीन अरब डॉलर और तेरह साल लगे थे, लेकिन बीस साल भी नहीं हुए और अभी यह गिनती के कुछेक दिन लगाकर 100 डॉलर से भी कम खर्चे में तैयार हो जाता है। यह तो हुई जेनेटिक ढांचा पढ़ने की बात। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के जरिये इसकी गड़बड़ियां जल्दी पकड़ में आ सकती हैं, सो अभी दिखने वाले ऐसे इक्का-दुक्का चमत्कार आगे रोजमर्रा की बात हो जाएंगे। 

* क्रिस्पर-कैस 9, बेस एडिटिंग, प्राइम एडिटिंग जैसे गड़बड़ी दुरुस्त करने वाली तकनीकें अभी बहुत महंगी पड़ती हैं। लेकिन जिन समाजों में ऐसी बीमारियां ज्यादा हैं, वहां की सरकारें कोशिश करें तो अगले दस-पंद्रह सालों में इन्हें सस्ता बनाया जा सकता है। 

* इतना तय है कि ये उपाय न सिर्फ बीमारियों का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जाना रोक सकते हैं, बल्कि कुछ लाइलाज बीमारियों को इलाज के दायरे में ला सकते हैं। गरीब देशों की बड़ी बीमारी सिकल सेल एनीमिया से ऐसे ही निपटा जा सकता है

बहरहाल, सवाल सपना दिखाने का नहीं, सपने को हकीकत में बदलने का है। दुनिया भर में सरकारों की प्राथमिकता अभी बड़ी कंपनियों का रुख देखकर तय होने लगी है, जो अपनी तिमाही बोर्ड बैठक में मुनाफे की ग्रोथ दिखाने से आगे नहीं सोचतीं। जरूरत हर बीमारी, हर इलाज को इंसान की जेनेटिक बनावट की नजर से देखने की है। कौन सा एंटीबायोटिक किस व्यक्ति को कितना दिया जाना चाहिए, इसके लिए व्यक्तियों का जेनेटिक वर्गीकरण किया जाए।

इसके लिए सबकी जेनोम टेस्टिंग जरूरी न हो, ऐसे उपाय खोजे जाएं। किस व्यक्ति को कम उम्र में डायबिटीज हो सकती है, कैंसर या हार्ट डिजीज की आशंका किसमें ज्यादा है, ऐसे टेस्ट ईजाद करने का अजेंडा ह्यूमन जेनोम प्रॉजेक्ट पूरा होने के बाद नए ढंग से मेडिकल साइंस के सामने होना चाहिए था, पर यह आज भी दूर-दूर तक नहीं है। किस्सा ऐसे ही चला तो अगले दस-बीस साल अमेरिका-यूरोप में लाख-करोड़ डॉलर के इलाज वाली खबरें देखते ही निकल जाएंगे।

Thursday, 4 August 2022

गणना और गणितज्ञ

चंद्रभूषण

कंप्यूटर से भी तेज गणनाओं के लिए मशहूर रही शकुंतला देवी पर फिल्म बनाना जीवट का काम रहा होगा। इस मामले में सबसे अच्छी बात यह रही कि स्क्रिप्ट का आधार उनकी बेटी की किताब को बनाया गया, जिससे एक खास काम में असाधारण मानी गई इस बेचैन स्त्री के जीवन की जटिलता पर सबका ध्यान जा सका। भारत की शीर्ष गणितीय प्रतिभा श्रीनिवास रामानुजन को ऐसी कोई सुविधा नहीं प्राप्त थी, सो उनपर बनी हॉलीवुड की फिल्म बेहतर होते हुए भी शकुंतला देवी की तरह उनके जीवन की बारीकियों में नहीं जा सकी। 

उस फिल्म का अच्छा पहलू यह था कि कुछ दिलचस्पी हम रामानुजन के काम में भी ले सके, जबकि पर्दे पर शकुंतला देवी का चमत्कारी गुणा-भाग देखना दूसरी बार से ही बोर करने लगा था और पूरी फिल्म में ऐसे सीन हूबहू बहुत बार दोहराए गए। दर्शक भी सोच रहे होंगे कि 12 या 14 अंकों वाली दो संख्याओं का गुणा बार-बार देखने में भला किसी को कितना मजा आ रहा है, जो मुर्गे सी अकड़ी विद्या बालन तालियों पर तालियां बटोरती ही चली जा रही हैं! 

फिल्म की एक बड़ी गलती शकुंतला देवी को शुरू से आखिर तक मैथमेटिशियन (गणितज्ञ) बताना है। हो सकता है, उस समय कुछ अखबार उन्हें गणितज्ञ लिखते भी रहे हों। लेकिन तेज गणनाओं या एक नजर में किसी चीज का क्षेत्रफल या वजन बता देने का तमाशा मध्यकालीन यूरोप और अमेरिका में शहरी मध्यवर्ग के लिए मनोरंजन का एक जरिया हुआ करता था और यह तमाशा दिखाने वाले मैथमेटिशियन नहीं बल्कि ‘प्रॉडिगल कैलकुलेटर’ (चमत्कारिक संगणक) ही कहलाते थे।

जब-तब गणितज्ञों की दिलचस्पी भी उनमें होती थी, लेकिन उनका चमत्कार देखने के बजाय उनके काम का तरीका समझने में। हां, अगर इनमें से किसी में भी कुछ गणितीय प्रतिभा उन्हें दिख जाती थी तो उसे विकसित करने का पूरा प्रयास वे करते थे। गणनात्मक प्रतिभा और गणितीय मेधा में फर्क करना एक पेचीदा बात है, लेकिन दोनों की ठोस इंसानी शक्लें देखनी हों तो अपने यहां उन्हें हम शकुंतला देवी और श्रीनिवास रामानुजन की तस्वीरों में देख सकते हैं।

गणित की व्यापक परिभाषा पैटर्न पकड़ने और उनमें नियमों की तलाश करने के रूप में की जाती है है। ये पैटर्न संख्याओं के भी हो सकते हैं और बादलों की शक्ल या बाढ़ में पुल से गुजरने वाले पानी के भी। शकुंतला देवी अपनी गणनाओं में जो पैटर्न इस्तेमाल करती थीं, उनमें से कुछ उन्होंने बाद में शेयर किए, लेकिन गणितज्ञों की तो क्या कहें, आम आदमी के लिए भी ये किसी काम के नहीं निकले। इसके विपरीत रामानुजन का जोर पैटर्न्स में पैठे नियमों की तलाश पर था और आज भी चोटी के गणितज्ञ उनके सुझाए हुए किसी प्रमेय का प्रमाण खोजकर गौरवान्वित महसूस करते हैं। 

दुनियादारी की नजर से देखें तो पैसे-रुपये की जरूरत और कमाई के तरीकों से बेखबर रामानुजन मात्र साढ़े 32 साल की उम्र में टीबी के शिकार होकर परदेस में मरे, जबकि हर किसी पर शक करने वाली शकुंतला देवी ने अरबपति ज्योतिषी के रूप में साढ़े 83 की उम्र में प्राण त्यागे। बड़ी प्रतिभाओं का उपयोग पैसे के बजाय कुछ ज्यादा बड़ी चीजें पैदा करने में होना चाहिए, यह सोच भी अब कहां देखने को मिलती है!

Tuesday, 2 August 2022

दो चुम्बक एक दूसरे को क्यों आकर्षित करतें हैं ?

 सुशोभित

नोबेल पुरस्कार विजेता भौतिकविद रिचर्ड फ़ेनमान से एक बार किसी ने पूछा कि दो चुम्बक एक-दूसरे को क्यों आकर्षित करते हैं? सीधा-सा प्रश्न था, लेकिन फ़ेनमान ने इसका जो उत्तर दिया, वह सुनने जैसा है। फ़ेनमान ने कहा कि वॉट डु यू मीन, ऐसा क्यों होता है? मैं तुम्हें बतला सकता हूँ कि ऐसा कैसे होता है, लेकिन यह मत पूछो कि ऐसा क्यों होता है। क्यों का कोई उत्तर नहीं है। कैसे का उत्तर हो सकता है कि कैसे इलेक्ट्रोमैग्नेटिज़्म काम करता है, कैसे पदार्थ के भीतर एटम्स और एटम्स के भीतर सबएटॉमिक पार्टिकल्स का कॉन्फ़िगरेशन होता है और कैसे इलेक्ट्रॉन्स की पोज़िशनिंग मैग्नेटिज़्म को जन्म देती है। लेकिन ऐसा क्यों होता है, यह सवाल अप्रासंगिक है।

इससे आगे फ़ेनमान ने कहा, तुम मुझसे यह नहीं पूछते कि जब मैं मेज़ पर हाथ रखता हूँ तो मेरा हाथ उसके आर-पार क्यों नहीं चला जाता? जबकि वहाँ भी वही इलेक्ट्रोमैग्नेटिज़्म काम कर रहा है। लेकिन जब हम किसी चीज़ को वस्तुस्थिति की तरह स्वीकार कर लेते हैं तो फिर उसके बारे में प्रश्न नहीं करते। हम उन्हें टेकन-फ़ॉर-ग्रांटेड लेते हैं। ये चीज़ें कॉमन सेंस का निर्माण करती हैं, क्योंकि हम उनके अभ्यस्त होते हैं। जबकि ऐसी कोई परिघटना नहीं है, जिस पर कैसे और क्यों के प्रश्न नहीं थोपे जा सकते। जैसे कि अगर मैं तुमसे कहूँ कि एनी बर्फ़ पर फिसलकर गिर गई और अपनी हिप तुड़वा बैठी, जिसके बाद उसके पतिदेव उसे हस्पताल ले गए, तो आप कहेंगे कि ओह, बहुत बुरा हुआ! लेकिन आप यह नहीं पूछेंगे कि यह क्यों और कैसे हुआ। क्योंकि आप एक फ्रेमवर्क में सोच रहे हैं, जहाँ बहुत-सी चीज़ें पहले ही अंडरस्टुड हैं। लेकिन अगर कोई प्राणी दूसरे प्लैनेट से आएगा तो वो अनेक सवाल पूछेगा, जैसे एनी नीचे क्यों गिरी? तब उसको ग्रैविटी समझानी होगी। बर्फ़ पर वह क्यों फिसली? तब उसको पानी की विभिन्न अवस्थाएँ समझानी होंगी। उसे चोट क्यों लगी? इसका सम्बंध ह्यूमन एनॉटोमी से है। उसके पतिदेव उसे अस्पताल क्यों ले गए? इसका नाता मानवीय सम्बंधों से है, क्योंकि एक परिवार में रहने वाले मनुष्य एक-दूसरे की परवाह करते हैं। किन्तु अगर उस एलीयन ने पूछ लिया कि क्या एक परिवार में रहने वाले सभी मनुष्य एक-दूसरे की परवाह करते हैं, तो इसका उत्तर देना कठिन होगा। यानी जितना आप चीज़ों के भीतर जिज्ञासा से प्रवेश करते हैं, उतनी ही वे जटिल होती चली जाती हैं। लेकिन अगर आप चीज़ों को जस की तस स्वीकार कर लेते हैं तो आप उनके आधार पर बड़े आराम से अपनी आस्थाओं और मूल्यों का निर्माण कर सकते हैं और पूरा जीवन उनके घेरे में रहकर बिता सकते हैं। चुम्बक एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं और एनी को चोट लगने पर अस्पताल ले जाया गया- बात समाप्त हो गई- इसमें अब और क्या पूछना है?

लेकिन पूछना तो होता है। और जानना भी होता है। मसलन, यहीं आप देखें कि दो तरह की संरचनाएँ काम कर रही हैं। एक तो वे जो प्राकृतिक नियमों के अधीन हैं, जैसे ग्रैविटी, मनुष्य की देह, पानी की अवस्थाएँ। लेकिन कुछ संरचनाएँ मानव निर्मित भी हैं, जैसे परिवार, अस्पताल आदि। हर मनुष्य किन्हीं प्राकृतिक नियमों के अधीन है और चाहकर भी उनसे मुक्त नहीं हो सकता। किन्तु कुछ ऐसे मानव-निर्मित नियम, मूल्य, आस्थाएँ भी हैं, जिन्हें स्वयं मनुष्य ने आविष्कृत किया है, किन्तु वो इतने समय से उनका पालन कर रहा है कि अब वह भूल ही गया है कि ये उसकी ही करामातें हैं, प्रकृति में इनका कोई अस्तित्व नहीं था।

जैसे कि ईश्वर। मनुष्य से पहले ईश्वर नहीं था। यह बड़े मज़े की बात है, क्योंकि हम कहते हैं मनुष्य ईश्वर की संतान है। वास्तविकता यह है कि ईश्वर मनुष्य की संतान है, मनुष्य ने ईश्वर को जन्म दिया है। मनुष्य पृथ्वी पर 25 लाख सालों से है और पृथ्वी साढ़े चार अरब साल पुरानी है। जब मनुष्य पृथ्वी पर नहीं था, तब यहाँ ईश्वर भी नहीं था। प्रकृति ने अपनी ओर से ऐसे कोई स्ट्रक्चर्स नहीं बनाए हैं, जिन्हें आप मूर्ति या मंदिर या पवित्र पत्थर या स्थान कहें और अगर वे हैं भी तो उनकी ईश्वर के रूप में व्याख्या मनुष्य ने की है, प्रकृति ने नहीं की है। वह मनुष्य का अपना प्रोजेक्शन है। राष्ट्र, समाज, संस्कृति, परिवार, धन आदि भी इसी तरह से मनुष्य-निर्मित व्यवस्थाएँ हैं। एक काग़ज़ का टुकड़ा है। उस पर कुछ चिह्न अंकित कर दें तो वह धनराशि बन जाती है, मुद्रा बन जाती है, उसका मूल्य निश्चित हो जाता है, यह मूल्य अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में घटता-बढ़ता है। एक पत्थर पड़ा है, उसे तराशकर मूर्ति बना दें या किसी पवित्र माने जाने वाले स्थान पर प्रतिष्ठित कर दें तो अब करोड़ों लोग उसके लिए मरने-मारने पर आमादा हो जाएँगे। कपड़ा है। उस पर रंगों का संयोजन कर दें तो वह झण्डा बन जाएगा, उससे गौरव की भावनाएँ जुड़ जाएँगी। जबकि राष्ट्रीय प्रतीक बीसवीं सदी में ईजाद की गई व्यवस्थाएँ हैं, क्योंकि राष्ट्र-राज्य स्वयं एक आधुनिक राजनैतिक प्रबंध है। प्राकृतिक होना तो दूर, वे ऐतिहासिक भी नहीं हैं- जैसे परिवार की एक ऐतिहासिकता क़बीलाई दौर से अब तक बनी हुई है। यहाँ यह भी मज़े की बात है कि पृथ्वी पर कोई राजनैतिक सीमारेखाएँ नहीं हैं, यह मनुष्यों की कल्पना में है, किन्तु मनुष्यों का लगाव पृथ्वी से उतना नहीं है, जितना कि काल्पनिक सीमारेखाओं में बँधे राष्ट्र से होता है। हर नागरिक को यह भ्रम है कि उसका देश पृथक से एक संयोजन है और पृथ्वी से पृथक है।

यह कैसे होता है, इसको समझें। मान लीजिये, आप एक विशाल भूखण्ड पर टहल रहे हैं। आप पूरा दिन उस पर आराम वे चलते हैं, कहीं कुछ नहीं होता। फिर वहाँ एक बड़ा-सा गोल घेरा खींच दिया जाता है। वहाँ एक क्रिकेट स्टेडियम बन जाता है। सीमाएँ खींच दी जाती हैं। पिच बनती हैं। पिच में क्रीज़ बनते हैं। नियम बाँधे जाते हैं कि बल्लेबाज़ और गेंदबाज़ इस क्रीज़ को लाँघ नहीं सकेंगे और उस सीमारेखा के पार गेंद जाने पर या इस पिच के बीच दौड़ लगाने पर रन माने जाएँगे। ये तमाम नियम मनुष्यों ने ही बनाए हैं और उन्हें उस भूखण्ड पर आरोपित किया है, जो निरंक था और देखा जाए तो अब भी है। उस स्टेडियम में विश्वकप का फ़ाइनल मुक़ाबला होता है। अंतिम गेंद पर दो रन चाहिए। बल्लेबाज़ पहला रन पूरा करके दूसरे के लिए दौड़ता है। वह बल्ला क्रीज़ पर टिकाता है और गिल्लियाँ उड़ा दी जाती हैं। क्या वह रनआउट हो गया है? बड़ी स्क्रीन पर दिखाया जा रहा है और निर्णय पेंडिंग है। अगर वह बल्लेबाज़ भारत का है और उसने सफलतापूर्वक रन पूरा कर लिया है तो भारत विश्वकप जीत जाएगा और सवा अरब लोग जश्न मनाएँगे, उससे राष्ट्रीय गौरव को जोड़ लेंगे और उस पर विश्व में उनकी श्रेष्ठता का सिद्धांत निर्भर होगा। बड़ी स्क्रीन पर बार-बार दिखाया जा रहा है कि मामला क़रीबी है और चंद सेंटीमीटर के भेद से कहानी इधर-उधर हो सकती है। तब मान लीजिये, आप घूमते-घामते उस जगह पर चले आएँ, जिन्होंने अतीत में उस भूखण्ड पर टहलते हुए पूरा दिन बिताया था तो आप इस सबसे चकित होंगे। आप कहेंगे कि मैं कई कोस उस भूमि पर उस दिन चला और कुछ भी नहीं हुआ, किन्तु आज चंद सेंटीमीटर के अंतर पर राष्ट्र-गौरव निर्भर है। मान लें कि बल्लेबाज़ ने रन पूरा कर लिया और भारत ने विश्वकप जीत लिया। जश्न मनाया गया, शोरगुल हुआ, पुरस्कार बाँटे गए। रात हुई। सब सो गए। तब अगर कोई व्यक्ति रात के अँधेरे में उस क्रिकेट-मैदान में प्रवेश कर जाए और उसी पिच पर टहले तो वह पाएगा यह तो वही निरा भूखण्ड है जैसा कि वह पहले था, लेकिन बीच में इसमें कुछ समीकरण गूँथ दिए गए थे, जिनके कारण इसके एक-एक इंच का महत्व हो गया था। इसे ही माया कहते हैं। यह धरती प्रकृति-निर्मित है और वे समीकरण मानव-निर्मित थे। और अलबत्ता मैच देखने में बड़ा मज़ा आया था, किन्तु सच यही है कि वह मनुष्य ने स्वयं रचा था। मनुष्य उसके नियमों का पालन करे ये ठीक है, पर उसको प्राकृतिक सत्य मानकर उसके अधीन हो जावे, इसकी कोई तुक नहीं बनती है।

अगर मनुष्य यह सोचना शुरू कर दें कि हमारे आसपास जितनी भी चीज़ें हैं, उनमें से कितनी प्रकृति-निर्मित हैं, कितनी मानव-निर्मित हैं और कितनी ऐसी हैं, जो प्राकृतिक होने के बावजूद मानव-निर्मित हैं- जैसे डोमेस्टिक एनिमल्स, जिनका मौजूदा स्वरूप मनुष्यों के आर्टिफ़िशियल सिलेक्शन का नतीजा है। या ईंट-गारे के मकान, जो स्वयं किन्हीं मोलेक्यूल्स और एटम्स से निर्मित संरचनाएँ थीं, जिन्हें मनुष्यों ने और परिष्कृत संरचनाओं के रूप में कंस्ट्रक्ट कर दिया। लेकिन तब भी ये केवल भौतिक संरचनाएँ हैं, धर्म, राष्ट्र, धन जैसी अभौतिक संरचनाओं के मुक़ाबले उनकी कोई बिसात नहीं, जो करोड़ों-अरबों लोगों को एक सूत्र में बाँधती हैं, जबकि उनका स्वयं का कोई अस्तित्व नहीं। दुनिया सत्यों के आधार पर नहीं, सामूहिक-भ्रमों के आधार पर संचालित होती है। एक बार आप किसी कल्पना पर सर्वसम्मति बना लें तो वह वास्तविकता बन जाती है- मनुष्यों के दिमाग़ के भीतर।

फ़ेनमान ने कहा था कि हमें क्यों का प्रश्न नहीं पूछना चाहिए, क्योंकि इसका कोई उत्तर नहीं है। लेकिन क्या और कैसे वाले प्रश्न निरन्तर पूछने चाहिए, ताकि क्यों की असम्भवता को और अच्छे-से परख सकें। मेरे हिसाब से तीन ही विद्याएँ श्रेष्ठ हैं- विज्ञान जो पदार्थ के स्वरूप का चिंतन करता है, साहित्य जो मनुष्य के मन-हृदय के आवेगों पर मनन करता है, और अध्यात्म जो चेतना की निर्मिति का दर्शन करता है। शेष सभी विद्याएँ इन तीन के समक्ष गौण हैं।

Sunday, 17 July 2022

इंटरस्टेलर में ग्रैविटी


सुशोभित

फ़िल्म इंटरस्टेलर में एक दु:साहसपूर्ण हाइपोथीसिस को प्रस्तुत किया गया था और वो ये थी कि ग्रैविटी हायर-डायमेंशंस में भी यात्रा कर सकती है। फ़िल्म का नायक कूपर एक ब्लैकहोल में प्रवेश करने के बाद स्वयं को एक चार-आयामी टैसेरेक्ट में पाता है। वह धरती से असंख्य प्रकाश-वर्ष दूर और बीसियों वर्षों के फ़ासले पर है, लेकिन ग्रैविटी के माध्यम से वह अपने अतीत से संवाद कर पाता है। समय यहाँ पर एक फ़िज़िकल डाइमेंशन की तरह है, जिसमें ठीक उसी तरह से यात्रा की जा सकती है, जैसे हम स्पेस के तीनों आयामों में आगे, पीछे, दाएँ, बाएँ, ऊपर, नीचे गति कर सकते हैं।

नोबेल पुरस्कार विजेता भौतिकविद् किप थोर्न इंटरस्टेलर के परामर्शदाता थे। वे आज ग्रैविटेशनल फ़िज़िक्स के दुनिया के सबसे बड़े जानकारों में से हैं। उन्होंने बाद में एक किताब भी लिखी, जिसका शीर्षक था- द साइंस ऑफ़ इंटरस्टेलर। वे अच्छी तरह जानते थे कि वे इस फ़िल्म में क्या दिखा रहे हैं। कूपर का ब्लैकहोल में प्रवेश कर ग्रैविटी के माध्यम से अपने अतीत से संवाद करना कोई फ़ंतासी नहीं थी, वो थ्योरिटिकल रूप से एक पुख्ता साइंस थी। अब प्रश्न उठता है कि उन्होंने ऐसा क्यों प्रदर्शित किया कि ग्रैविटी हायर-डायमेंशंस में इंटरेक्ट कर सकती है।

अव्वल तो हम यह समझ लें कि हमारा स्पेस तीन-आयामी है। जब हम किसी चित्र को देखते हैं तो एक दो-आयामी घटना को देख रहे होते हैं। जब हम परदे पर कोई फ़िल्म देखते हैं तो हम एक तीन-आयामी यथार्थ का दो-आयामी चित्रण देख रहे होते हैं, बशर्ते फ़िल्म थ्री-डायमेंशनल न हो, जिसे हम एक विशेष त्रिआयामी चश्मे से देख रहे हों। कार्ल सैगन ने अपने टीवी शो कॉसमॉस में ऐसे दो-आयामी प्राणियों की परिकल्पना की थी, जो एक फ़्लैट-यूनिवर्स में जी रहे हैं। वे आगे और पीछे जा सकते हैं, दाएँ और बाएँ जा सकते हैं, लेकिन वे कभी ऊपर और नीचे नहीं जा सकते, न ही ऊपर और नीचे के आयामों को कभी पर्सीव कर सकते हैं। मनुष्य वैसा कर सकते हैं। 

किंतु अगर कोई पाँचवाँ आयाम हो (क्योंकि चौथा आयाम समय है और हमारी अनुभूति के दायरे में है, अलबत्ता हम उसमें आगे या पीछे यात्रा नहीं कर सकते), या कोई छठा-सातवाँ, आठवाँ-नौवाँ-दसवाँ आयाम हो, तो उन्हें समझने में मनुष्य उसी तरह से असमर्थ होगा, जैसे वे दो-आयामी प्राणी ऊँचाई और गहराई को नहीं समझ पाते थे। स्टीफ़न हॉकिंग ने अपने बीबीसी ब्लैकहोल लेक्चर्स में कहा था कि ज्ञात-ब्रह्माण्ड किसी दस या ग्यारह आयामी स्पेस की चार-आयामी सतह भर है। हम इन उच्चतर-आयामों को कभी देख नहीं सकेंगे, क्योंकि लाइट उनमें गति नहीं कर सकती, अलबत्ता ग्रैविटी उन उच्चतर-आयामों में यात्रा कर सकती है। फ़िल्म इंटरस्टेलर में इसी थ्योरी को इस्तेमाल करके एक नाटकीय कहानी बुनी गई है। 

इसी से जुड़ी एक थ्योरी यह भी है कि वास्तव में ग्रैविटी उन उच्चतर-आयामों में हमारी तीन-आयामी दुनिया की तुलना में कहीं ज़्यादा प्रभावी रहती है। और चूँकि वो उन उच्च-आयामों में रिसती रहती है, इसीलिए वह हमारे द्वारा जानी गईं चार फ़ंडामेंटल फ़ोर्सेस में सबसे कमज़ोर फ़ोर्स है। ये चार फ़ंडामेंटल फ़ोर्स हैं- ग्रैविटेशनल फ़ोर्स, इलेक्ट्रोमैग्नेटिक फ़ोर्स, वीक न्यूक्लियर फ़ोर्स और स्ट्रॉन्ग न्यूक्लियर फ़ोर्स। इन चारों में स्ट्रॉन्ग न्यूक्लियर फ़ोर्स सबसे ताक़तवर और ग्रैविटी सबसे कमज़ोर है। जबकि यही वह ग्रैविटी है, जो अंतरिक्ष में ग्रहों और पिण्डों को बाँधे हुए है, उन्हें अपनी ओर्बिट में घुमा रही है, जो मनुष्यों को धरती पर टिकाए हुए है, जो समुद्र में ज्वार उत्पन्न करती है, और जिसे भेदने के लिए अत्यंत शक्तिशाली ऊर्जा की आवश्यकता है, जो एस्केप-वेलोसिटी कहलाई है। इसके बिना आप अंतरिक्ष में नहीं जा सकेंगे, ग्रैविटी आपको खींचकर धरती पर पटक देगी।

प्रश्न यह है कि ग्रैविटी दूसरे आयामों में भी प्रभावी है, इस मान्यता का आधार क्या है? स्ट्रिंग थ्योरी ने इसका एक हाइपोथेटिकल जवाब- क्योंकि समस्या भी हाइपोथेटिकल है- खोजने की कोशिश की है। 

स्ट्रिंग थ्योरी एक ऐसा थ्योरिटिकल-फ्रेमवर्क है, जो जनरल रेलेटिविटी और क्वांटम भौतिकी के अंतर्विरोधों को पाटने का काम करती है। स्ट्रिंग थ्योरी कहती है कि जिस तरह से लाइट (इलेक्ट्रोमैग्नेटिक फ़ोर्स) का क्वांटम पार्टिकल फ़ोटोन है, उसी तरह ग्रैविटी का भी एक क्वांटम पार्टिकल होता है, जिसे हम ग्रैविटोन कह सकते हैं। ये दोनों ही मास-लेस एलीमेंट्री पार्टिकल हैं। फ़ोटोन ओपन स्ट्रिंग्स हैं और ग्रैविटोन क्लोज़्ड-स्ट्रिंग्स हैं। ओपन स्ट्रिंग्स आयामों के परे यात्रा नहीं कर सकतीं, लेकिन क्लोज़्ड स्ट्रिंग्स ऐसा कर सकती हैं। यही कारण है कि लाइट दूसरे आयामों में नहीं जा सकती, जिससे हम उन्हें देख नहीं सकते, लेकिन ग्रैविटी वहाँ जा सकती है। इससे वह हमारे आयामों में भले कमज़ोर हो जाती हो लेकिन देखें तो वो हमारे और उच्चतर आयामों के बीच एक कड़ी भी है। एक सेतु।

ग्रैविटी एक रहस्यमयी शक्ति है, जिसे अभी तक पूरी तरह से समझा नहीं जा सका है। अब यह भी कहा जा रहा है कि जिस तरह ग्रैविटी दूसरे आयामों में यात्रा करती है, उसी तरह से वह दूसरे और उच्चतर आयामों के ग्रैविटोन्स को भी हमारे आयामों में ले आती है, जिससे हमें डार्क मैटर का अहसास होता है, लेकिन हम उसे पूरी तरह से पर्सीव नहीं कर सकते। हम एक त्रिआयामी स्पेस में जकड़े हुए हैं- ट्रैप्ड हैं- और चाहकर भी इस भौतिक बंधन को तोड़ नहीं सकते। आप यह भी कह सकते हैं कि कदाचित् उच्चतर आयामों के प्राणी ठीक इसी समय हमारे बीच मौजूद हैं, लेकिन हम उन्हें कभी देख या अनुभव नहीं कर सकेंगे। यह एक सुपरनेचरल हाइपोथीसिस है। एक सीमा के बाद विज्ञान रहस्यवाद बन ही जाता है।

इंटरस्टेलर का वह साँसें थमा देने वाला यादगार दृश्य है कि फ़िल्म का नायक कूपर दूसरे आयामों से ग्रैविटी के माध्यम से अपनी बेटी को वह क्वांटम डाटा सम्प्रेषित कर रहा है, जो उसने ब्लैकहोल के भीतर प्राप्त किया है। उसकी बेटी समय और स्पेस में उससे बेमाप दूरी पर मौजूद है, लेकिन उसके मैसेज को डिकोड कर लेती है। यह बेशक़ीमती डाटा धरती की रक्षा करने में सक्षम है। 

तब आप कह सकते हैं कि केवल ग्रैविटी ही डायमेंशंस के परे यात्रा नहीं करती- प्यार और लगाव जैसे इंसानी अहसास भी वैसी सुदूरगामी यात्राओं में सक्षम हैं- लेकिन उन अहसासों के बारे में बात करना यहाँ मुनासिब नहीं होगा। यह लेख साइंस के बारे में है और प्यार का कोई क्वांटम पार्टिकल अभी तक नहीं जाना गया है!


Saturday, 16 July 2022

आइंश्टाइन और प्लान्क

सुशोभित

बीसवीं सदी के आरम्भिक वर्षों में दो जर्मन वैज्ञानिकों के निमित्त भौतिकी के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण घटना घट रही थी। एक घटना का नाम था जनरल रेलेटिविटी- जो अल्बर्ट आइंश्टाइन के माध्यम से रूपायित हुई। दूसरी घटना का नाम था- क्वांटम थ्योरी- जो मक्स प्लान्क के माध्यम से अस्तित्व में आई।

जनरल रेलेटिविटी बड़ी से बड़ी चीज़ों के बारे में बात करती है, जैसे स्पेस, टाइम, ग्रैविटी, यूनिवर्स। क्वांटम थ्योरी छोटी से छोटी चीज़ों के बारे में बात करती है, जैसे एटम्स, सब-एटॉमिक पार्टिकल्स, एलीमेंट्री पार्टिकल, क्वार्क। परस्पर विरोधी दिशाओं में यात्रा करने वाली इन दोनों थ्योरियों की बुनियाद पर आधुनिक भौतिकी की इमारत टिकी है। अब जाकर स्ट्रिंग थ्योरी में इन दोनों का सुमेल हो रहा है और क्वांटम ग्रैविटी की अवधारणा सामने आ रही है। यहाँ स्टीफ़न हॉकिंग का नाम उल्लेखनीय है, जिन्होंने क्वांटम मैकेनिक्स के आधारभूत सिद्धांतों की मदद से जनरल रेलेटिविटी के विषयों को समझने की कोशिश की थी- जैसे ब्लैक होल जैसी भीमकाय एस्ट्रोफ़िज़िकल परिघटना को पार्टिकल साइंस के माध्यम से विवेचित करना और हॉकिंग रैडिएशन के सिद्धांत को प्रतिपादित करना।

मॅक्स प्लान्क को वर्ष 1918 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार दिया गया, क्वांटम थ्योरी के क्षेत्र में किए गए उनके कार्य के लिए (एनर्जी क्वांटा की खोज)। प्लान्क ने पाया था कि एनर्जी क्वांटम स्वभाव की होती है। मैटर की तरह लाइट में भी पार्टिकल्स होते हैं। ये ही पार्टिकल्स फ़ोटोन कहलाए। निष्कर्ष यह था कि लाइट भले ही एक इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव की तरह यात्रा करती हो, लेकिन किसी ऑब्जेक्ट से टकराने पर पार्टिकल्स के रूप में विच्छिन्न होती है। यानी लाइट के स्वभाव में एक अवर्णनीय दोहरापन है। आगे चलकर यह वेव-पार्टिकल द्वैत अनेक भौतिकविदों को सिर खपाने पर मजबूर करने वाला था।

आइंश्टाइन 1915 में जनरल रेलेटिविटी का प्रतिपादन कर चुके थे, लेकिन बड़े मज़े की बात है कि इसके लिए उन्हें भौतिकी का नोबेल पुरस्कार नहीं दिया गया। उन्हें भौतिकी का नोबेल दिया गया वर्ष 1921 में फ़ोटोइलेक्ट्रिक इफ़ेक्ट के नियमों की खोज के लिए।

यह जनरल रेलेटिविटी के बजाय क्वांटम मैकेनिक्स का विषय था और आइंश्टाइन वास्तव में प्लान्क के काम को ही आगे बढ़ा रहे थे। वास्तव में अनेक लोगों का यह भी मत है कि प्लान्क नहीं आइंश्टाइन ही क्वांटम थ्योरी के प्रतिपादक हैं।

गर्वीला भौतिकविद् उस नोबेल-विडम्बना पर मन ही मन व्यंग्य से मुस्करा बैठा होगा, क्योंकि यह सम्भव ही नहीं है कि आइंश्टाइन प्लान्क से प्रतिस्पर्द्धा नहीं रखते हों और स्वयं को उनसे अधिक प्रतिभाशाली नहीं समझते हों, ये और बात है कि प्लान्क अनेक मायनों में आइंश्टाइन के मेंटर थे। उन्होंने 1905 में युवा अल्बर्ट को फ़िज़िक्स जर्नल में अपने तीन महत्वपूर्ण पेपर्स प्रकाशित करवाने में मदद की। तब अल्बर्ट बेर्न के एक स्विस पेटेंट ऑफ़िस में नामालूम से कर्मचारी भर थे, लेकिन उन पेपर्स के प्रकाशन को आज भौतिकी की दुनिया में आइंश्टाइन के मिरेकल-ईयर ('एनस मिरेबिलिस') की तरह याद किया जाता है। इतना ही नहीं, प्लान्क ने 1913 में व्यक्तिगत तौर से आइंश्टाइन को बर्लिन आमंत्रित किया और उन्हें प्रोफ़ेसर का काम दिलाया। 

आप कह सकते हैं कि प्लान्क के सहयोग के बिना अल्बर्ट के लिए स्वयं को जर्मन-वैज्ञानिकों की मुख्यधारा में स्थापित कर पाना सरल नहीं होता। बर्लिन में प्लान्क और आइंश्टाइन के बीच गहरी मैत्री स्थापित हुई, अलबत्ता जब वे मिलते तो भौतिकी से ज़्यादा संगीत के बारे में बातें करते थे। वे दोनों म्यूज़िशियन भी थे, लेकिन दोनों में बहुत अंतर था। प्लान्क जहाँ राष्ट्रवादी थे, वहीं अल्बर्ट के मन में जर्मन राष्ट्र के प्रति लगाव या निष्ठा नहीं थी। वे स्वयं को विश्व-नागरिक समझते थे। साथ ही, जहाँ अल्बर्ट अज्ञेयवादी थे, वहीं प्लान्क के मन में लूथरियन चर्च के प्रति अडिग आस्था थी। प्लान्क की एप्रोच परम्परावादी थी, वहीं आइंश्टाइन रचनात्मक-विद्रोही थे और चीज़ों के प्रति कहीं नवोन्मेषी दृष्टि रखते थे।

यह मज़े की बात है कि प्लान्क और आइंश्टाइन दोनों ही क्वांटम थ्योरी के प्रति सहज नहीं थे- जबकि दोनों ने ही अपने प्रयत्नों से उसे सुस्थापित किया था। उन्हें नोबेल पुरस्कार भी क्वांटम प्रयोगों के लिए ही दिया गया। लेकिन हाइज़ेनबर्ग के अनसर्टेन्टिटी प्रिंसिपल को वे स्वीकार नहीं कर पाते थे। प्लान्क के बारे में कहा जाता है कि एनर्जी क्वांटा की खोज उनसे हो गई थी, वह उनका अभिप्रेत नहीं था। यही कारण है कि प्लान्क को अकसर एक 'अनिच्छुक विद्रोही' कहा जाता है। जबकि आइंश्टाइन समझते थे कि वे फ़ोटोइलेक्ट्रिक इफ़ेक्ट के बजाय जनरल रेलेटिविटी के लिए नोबेल के हक़दार थे। तो जहाँ एक द्वैत प्लान्क और आइंश्टाइन के बीच था, वहीं एक दूसरा द्वैत क्वांटम भौतिकी के साथ उस समय की प्रचलित भौतिकी के बीच भी था, जिसमें ये दोनों वैज्ञानिक एक छोर पर साथ खड़े थे। कहीं न कहीं, प्लान्क और आइंश्टाइन दोनों न्यूटन के क्लॉकवर्क-यूनिवर्स की प्रत्याशा रखते थे और नियमों को भंग करने वाले अराजक क्वांटम-व्यवहार को अस्वीकार करते थे।

1933 में जब नात्सी पार्टी सत्ता में आई तो आइंश्टाइन जर्मनी छोड़कर अमेरिका चले गए, लेकिन प्लान्क भरसक साहस से जर्मनी में बने रहे। उन्होंने दूसरे वैज्ञानिकों से भी अनुरोध किया कि इस मुश्किल समय में अपने देश का साथ न छोड़ें। यानी आइंश्टाइन ने अपने स्वभाव के अनुरूप व्यवहार किया, प्लान्क ने अपने स्वभाव के। जर्मनी में प्लान्क पूरे समय नात्सी-विज्ञान- जिसे दोयचे-फीजिक कहा जाता था- से संघर्ष करते रहे और आइंश्टाइन, हाइज़ेनबर्ग, फ्रित्स हैबर जैसे यहूदी वैज्ञानिकों के पक्ष में तक़रीरें करने से उन्होंने कभी संकोच नहीं किया। यह बात नात्सियों को अखर गई। दण्डस्वरूप 1936 में कैसर विल्हेल्म सोसायटी के प्रेसिडेंट के रूप में उनके कार्यकाल को समाप्त कर दिया गया। 1945 में उनके बेटे एरविन की नात्सी पुलिस के द्वारा हत्या भी कर दी गई थी।

1946 में दूसरे विश्व युद्ध के समापन के बाद जब रॉयल सोसायटी ऑफ़ लंदन ने आधुनिक भौतिकी के पितामह सर आइज़ैक न्यूटन की 300वीं जन्म-जयंती मनाई, तो जर्मनी से एक ही वैज्ञानिक को न्योता दिया गया- मक्स प्लान्क। आइंश्टाइन तब अमेरिकी नागरिक थे। जब 88 वर्ष के प्लान्क ने सभागार में प्रवेश किया तो सबने खड़े होकर करतलध्वनि से उनका स्वागत किया। अपने मित्र और मेंटर का वैसा भावभीना अभिवादन होते देख अल्बर्ट मन ही मन मुस्कराए तो होंगे।

1929 का एक चित्र है। प्लान्क के सम्मान में बर्लिन की जर्मन फ़िज़िकल सोसायटी ने प्रतिवर्ष एक स्वर्ण पदक देने का निर्णय लिया था, जिसे प्लान्क मेडल कहा जाता है। पहले प्लान्क मेडल के सुयोग्य पात्र के रूप में अल्बर्ट आइंश्टाइन- भला और कौन?- को चुना गया। स्वयं प्लान्क ने यह पदक आइंश्टाइन को सौंपा। उनकी दृष्टि आइंश्टाइन के चेहरे पर थी, लेकिन आइंश्टाइन कहीं और देख रहे थे। प्लान्क के चेहरे से एक लगावपूर्ण उदारता झलक रही थी- एक पूर्वपेक्षा थी- जबकि आइंश्टाइन के मुखमण्डल पर निरपेक्ष मुस्कराहट खेल रही थी और साथ ही एक उदासीनता और अन्य-भाव। प्लान्क-आइंश्टाइन द्वैत को रूपायित करने वाला इससे अर्थपूर्ण रूपक कोई दूसरा नहीं हो सकता था।


[ लोकप्रिय विज्ञान पर अगले माह प्रतिश्रुति प्रकाशन से प्रकाशित होने जा रही मेरी पुस्तक का एक अंश ]