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Thursday, 14 September 2017

सबसे बुरे दौर में उच्च शिक्षा

शशांक द्विवेदी
डिप्टी डायरेक्टर, मेवाड़ यूनिवर्सिटी ,राजस्थान 
नवभारत टाइम्स 
देश में इस समय उच्च और तकनीकी शिक्षा के बुरे दिन आ चुके हैं । पिछले पाँच साल से उच्च शिक्षा का समूचा ढांचा चरमरा रहा था लेकिन किसी सरकार ने इसके लिए कुछ नहीं किया ।अब ये पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका है। पिछले दिनों उच्च और तकनीकी शिक्षा की सबसे बड़ी नियामक संस्था ऑल इंडिया काउंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन (एआईसीटीई) ने तय किया है कि जिन इंजिनियरिंग कॉलेजों में 30 प्रतिशत से कम दाखिले हो रहे हैं, उन्हें बंद किया जाएगा । फ़िलहाल देश भर में एआईसीटीई से संबद्ध 10,361 इंजीनियरिंग कॉलेज है जिनमें कुल 3,701,366 सीटें है(लगभ 37 लाख ) , अब इनमें करीब 27 लाख सीटें खाली हैं । जोकि बहुत बड़ा और भयावह आँकड़ा है , देश में उच्च शिक्षा के हालात इतने  बदतर हो चुके हैं कि एआईसीटीई ने तय किया है कि जिन कॉलेजों में पिछले 5 सालों में 30 पर्सेंट से कम सीटों पर दाखिले हुए हैं, उन्हें अगले सत्र से बंद किया जाएगा ।
पिछले दिनों रिलीज हुई फिल्म बाबुमोशय बंदूखबाज में एक डायलाग है कि आदमी की जिन्दगी में उसका किया हुआ जरुर उसके सामने आता है । ये डायलाग देश में उच्च शिक्षा की सबसे बड़ी नियामक संस्था एआईसीटीई पर पूरी तरह से फिट बैठता है , क्योंकि पहले तो इन्होने बिना ठीक से जांचे परखे ,गुणवत्ता की चिंता किये बगैर देश में हजारों हजार इंजीनियरिंग कॉलेज खोलनें के लाइसेंस दिए और बिना माँग आपूर्ति ,रोजगार का विश्लेषण किये बगैर 37 लाख सीटें कर दी ,अब जब उनमें से 27 लाख सीटें खाली रह गई तो इनके हाथ पैर फूल गए । तो यहाँ मुख्य सवाल तो एआईसीटीई से ही है कि इन्होने पहले कुछ क्यों नहीं किया ? जब तकनीकी शिक्षा का आधारभूत ढांचा चरमरा रहा था तब एआईसीटीई ने कोई ठोस कदम क्यों नही उठाया ? आखिर इतने बड़े पैमाने पर सीट खाली रहनें से और कालेजों के बंद होनें का सीधा असर देश की अर्थव्यवस्था पर ही तो पड़ेगा ।
ये बात सही है की देश में उच्च और तकनीकी शिक्षा की बुनियाद 2010 से ही हिलने लगी थी और 2014 तक लगभग 10 लाख सीटें खाली थी। लेकिन तीन साल पहले मोदी सरकार आने के बाद ये उम्मीद जगी थी की उच्च शिक्षा के लिए कुछ बेहतर होगा लेकिन धरातल पर कुछ खास नही हुआ । मतलब सिर्फ सरकार बदली लेकिन नीतियाँ लगभग वही रही और अब हालात ऐसे हो गएँ हैं  जिन्हें संभालना बहुत मुश्किल दिख रहा है । सरकार का सारा ध्यान हिंदुत्व के अजेंडे पर लगा रहा दुसरी तरफ देश में उच्च शिक्षा तेजी से अपनी साख खोती चली गयी ।  इस सत्र में तो ऐसे हालात हो गए कि आईआईटीज में भी छात्रों में रुचि कम होती दिखाई दे रही है। आईआईटीज  में 2017-18 सत्र के लिए 121 सीटें खाली रह गई हैं। पिछले चार साल में आईआईटी में इतनी सीटें कभी खाली नहीं रहीं। आईआईटी के निदेशक मानते हैं कि सीटें खाली रहने का कारण छात्रों को मनपसंद विकल्प न मिलना है।
देश में स्किल इंडिया के इतने हल्ले के बावजूद देश में अनस्किल्ड लोगों की संख्या और बेरोजगारी तेजी से बड़ी है इसी वजह से हाल में हुए केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार में कौशल विकास मंत्री को उनके नान परफार्मेंस की वजह से हटाया गया । रुढी को उनके पद से हटाया गया लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है कि कौन आया और कौन गया क्योंकि जब धरातल पर नीतियों का क्रियांवयन ही नहीं होगा तो योजनायें बनाने से क्या हासिल होगा ।
देश में फ़िलहाल जो माहौल है उसे देखकर तो यही लगता है कि उच्च शिक्षा के जो हालात है वो अभी और बदतर होंगें । हालत यह हो गयी है कि इंजीनियरिंग की जिस डिग्री को हासिल करना कभी नौकरी की गारंटी और पारिवारिक प्रतिष्ठा की बात मानी जाती थी, आज वह डिग्री छात्रों और अभिभावकों के लिए एक ऐसा बोझ बनती जा रही है जिसे न तो केवल घर पर रख सकते हैं और न ही फेंक सकते हैं। देश में यही हालत प्रबंधन के स्नातकों की है ,एसोचैम का ताजा सर्वे बता रहा है कि देश के शीर्ष 20 प्रबंधन संस्थानों को छोड़ कर अन्य हजारों संस्थानों से निकले केवल 7 फीसदी छात्र ही नौकरी पानें के काबिल हैं । यह आंकड़ा चिंता बढ़ानेवाला इसलिए भी है, क्योंकि स्थिति साल-दर-साल सुधरने की बजाय लगातार खराब ही होती जा रही है। 2007 में किये गये ऐसे सर्वे में 25 फीसदी, जबकि 2012 में 21 फीसदी एमबीए डिग्रीधारियों को नौकरी देने के काबिल माना गया था।
नियामक संस्थाओं और केंद्र सरकार का सारा ध्यान सिर्फ कुछ सरकारी संस्थानों पर ही रहता है । जबकि देश भर के  90 प्रतिशत युवा निजी विश्वविद्यालयों और संस्थानों से शिक्षा लेकर निकलते है और सीधी सी बात है अगर इन  90  प्रतिशत छात्रों पर कोई संकट होगा तो वो पूरे देश की अर्थव्यवस्था के साथ साथ सामाजिक स्तिथि को भी नुकसान पहुंचाएगा । सिर्फ  आईआईटी और आईआईएम की बदौलत विकसित भारत का सपना साकार नहीं हो सकता ।
कौशल विकास की जरुरत
असल में हमनें यह बात समझनें में बहुत देर कर दी की  अकादमिक शिक्षा की तरह ही बाजार की मांग के मुताबिक उच्च गुणवत्ता वाली स्किल की शिक्षा देनी भी जरूरी है। एशिया की आर्थिक महाशिक्त दक्षिण कोरिया ने स्किल डेवलपमेंट के मामले में चमत्कार कर दिखाया है और उसके चौंधिया देने वाले विकास के पीछे स्किल डेवलपमेंट का सबसे महत्वपूर्ण योगदान है। इस मामले में उसने जर्मनी को भी पीछे छोड़ दिया है। 1950 में दक्षिण कोरिया की विकास दर हमसे बेहतर नहीं थी। लेकिन इसके बादउसने स्किल विकास में निवेश करना शुरू किया। यही वजह है कि 1980 तक वह भारी उद्योगों का हब बन गया। उसके 95 प्रतिशत मजदूर स्किल्ड हैं या वोकेशनलीट्रेंड हैं, जबकि भारत में यह आंक़डा तीन प्रतिशत है। ऐसी हालत में भारत कैसे आर्थिक महाशिक्त बन सकता है ?
देश में इंजीनियरिंग और प्रबंधन कॉलेज लगातार बढ़े लेकिन उनकी गुणवत्ता नही बढीं , न ही इंडस्ट्री की बदलती जरूरतों के मुताबिक उनका पाठ्यक्रम अपग्रेड किया गया । हमें यह बात अच्छी तरह से समझनी होगी की “”स्किल इंडिया”” के बिना “”मेक इन इंडिया”” का सपना भी नहीं पूरा हो सकता । इसलिए इस दिशा में अब ठोस और समयबद्ध प्रयास करनें होंगे। इतनी बड़ी युवा आबादी से अधिकतम लाभ लेने के लिए भारत को उन्हें स्किल बनाना ही होगा जिससे युवाओं को रोजगार व आमदनी के पर्याप्त अवसर मिल सकें । सीधी सी बात है जब छात्र स्किल्ड होगें तो उन्हें रोजगार मिलेगा तभी उच्च और तकनीकी शिक्षा में व्याप्त मौजूदा संकट दूर हो पायेगा ।
मांग और पूर्ति में संतुलन बनाना जरूरी
आज यूजीसी और एआइसीटीइ से यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या उनके पास प्रबंधन और इंजीनियरिंग डिग्रीधारियों की वर्तमान और भावी मांग के संबंध में कोई तथ्यपरक व विश्वसनीय आंकड़ा है?
क्या भविष्य में नये संस्थान, कॉलेज व यूनिवर्सिटियां खोलते समय में यह ध्यान में रखा जायेगा कि एमबीए, इंजीनियरिंग, फार्मेसी, मेडिकल और डेंटल शिक्षा के कोर्सों की मांग और पूर्ति में संतुलन बना रहे? इसका विश्लेषण केंद्रीय मानव संसाधन विकास  मंत्रालय और देश की प्रमुख नियामक संस्थाओ को ठीक ढंग से करना पड़ेगा क्योंकि देश में उच्च शिक्षा को लेकर जो मौजूदा संकट है उसका एक प्रमुख कारण नियामक संथाओं का प्रभावी ढंग से काम न कर पाना भी है । अगर इन्होने शुरुआत में ही उच्च शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित की होती तो आज देश उच्च शिक्षा के संकट को नही झेल रहा होता।
(लेखक शशांक द्विवेदी राजस्थान के मेवाड़ यूनिवर्सिटी में डिप्टी डायरेक्टर हैं और  टेक्निकल टूडे पत्रिका के संपादक हैं)


Wednesday, 12 March 2014

पीएचडी के मामले में भारत की स्तिथि

उच्च शिक्षा का आलम यह है कि छात्रों के पीएचडी करने के मामले में भारत चीन और अमेरिका से काफी पीछे है। शोध पत्रों और पेटेंट के मामले में भी भारत इन देशों से बहुत पीछे है।
भारत की तुलना में अमेरिका में 5 गुना अधिक छात्र पीएचडी करते है, जबकि चीन में सात गुना अधिक छात्र पीएचडी करते है। भारत में करीब 400 विश्वविद्यालय एवं डीम्ड विश्वविद्यालय हैं, लेकिन यहां हर साल पांच हजार छात्र ही पीएचडी करते हैं, जबकि अमेरिका में प्रतिवर्ष 25 हजार तथा चीन में प्रतिवर्ष 35 हजार छात्र पीएचडी करते हैं। संसद की प्राक्कलन समिति ने पिछले दिनों लोकसभा में प्रस्तुत अपनी 17वीं रिपोर्ट में देश में उच्च शिक्षा की हालत पर गहरी चिंता व्यक्त की है।
सांसद सी गुप्पुसामी की अध्यक्षता की समिति ने विश्वविद्यालयों में वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए सरकार ने एम एम शर्मा समिति की सिफारिशों को लागू करने के लिए 250 करोड़ रुपए की राशि को अपर्याप्त बताया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि समिति विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा वित्त पोषित विश्वविद्यालयों में अनुसंधान की गुणवत्ता और मात्रा के अपर्याप्त स्तर को देखकर चिंतित है। केवल पीएचडी के मामले में ही नहीं बल्कि शोध पत्रों तथा पेटेंट के मामले में भी हम अन्य देशों की तुलना में काफी पीछे है। वर्ष 2005 में भारत के पास 648 पेटेंट थे, जबकि चीन के पास 2452 तथा अमेरिका के पास 4511 और जापान के पास 25145 पेटेंट थे। अनुसंधान पत्रों के प्रकाशन में विश्व में भारत का हिस्सा मात्र 2.5 प्रतिशत है जबकि अमेरिका विश्व अनुसंधान पत्रों को 32 प्रतिशत प्रकाशित करता है।
समिति ने यह भी कहा है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के विश्वविद्यालयों में अनुसंधान कार्य को बढ़ावा देने के लिए टीचरों की गुणवत्ता बढ़ाने, अनुसंधान परियोजनाओं, अनुसंधान पुरस्कार, कनिष्ठ फेलोशिप देने आदि के कार्यक्रम शुरू होने के बाद भी अपेक्षित परिणाम सामने नहीं आए। समिति ने इस बात पर भी चिंता व्यक्त की है कि सरकार ने वैज्ञानिक अनुसंधान में सुधार के लिए एम एम शर्मा की सिफारिशों के क्रियान्वयन वास्ते मात्र 250 करोड़ रुपए निर्धारित किए हैं जो कि अपर्याप्त हैं। समिति ने कहा है कि अगले साल से यह राशि हर साल में 600 करोड़ रुपए होनी चाहिए। समिति ने यह भी कहा है कि सिफारिशों को लागू करने में प्रशासनिक विलंब के कारण लागत में आने वाली वृद्धि का भी ध्यान रखे और आवंटन राशि में उनके अनुसार वृद्धि करे।
समिति ने इस बात पर भी चिंता व्यक्त की है कि वर्तमान में यूजीसी सचिवालय में कुल स्वीकृत 806 पदों में 223 पद ही रिक्त हैं यानी कुल पदों का 28 प्रतिशत रिक्त है। समिति ने कहा है कि निकट भविष्य में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भारी वृद्धि होने की संभावना है, यह देखते हुए यूजीसी अपने वर्तमान संगठनात्मक ढांचे के रहते भविष्य का कार्यभार संभालने में सक्षम नहीं है। समिति ने कहा है कि यूजीसी राज्य स्तर पर अपने कार्यो के समन्वय के लिए प्रत्येक राज्य में कार्यालय खोले और कंप्यूटरीकृत प्रणाली विकसित करे।
समिति ने सकल घरेलू उत्पाद का कम से कम 2 प्रतिशत उच्च शिक्षा पर खर्च करने की सिफारिश की है। फिलहाल सकल घरेलू उत्पाद का केवल 0.4 प्रतिशत ही उच्च शिक्षा पर खर्च किया जाता है जबकि विकसित देशों सकल घरेलू उत्पाद का 1.5 प्रतिशत उच्च शिक्षा पर खर्च किया जाता है।

Tuesday, 18 February 2014

उच्च शिक्षा का गिरता स्तर

एक समय था जब शिक्षा के क्षेत्र में भारतीय उप महाद्वीप का दुनियाभर में परचम लहराता था। नालंदा और तक्षशिला जैसे दो उच्च शिक्षा के केन्द्र उत्कृष्ट शिक्षण के चुनिंदा प्रतीकों में से थे। एक तरह से वे दुनिया के पहले अन्तरराष्ट्रीय शिक्षण संस्थान थे। किंतु इतिहास परिवर्तनशील होता है। कालांतर में भारतीय उच्च शिक्षा की उत्कृष्टता सिर्फ याद रखने की चीज रह गई। मुगलों, और फिर अंग्रेजों के शासन में शिक्षा के लिहाज से वैसा कुछ उल्लेखनीय नहीं रहा। हां, बीसवीं सदी में कुछ शिक्षण संस्थान जरूर बने, लेकिन तब वे वैश्विक नहीं माने जा सकते थे।
स्वाधीनता के बाद उच्च तकनीकी शिक्षा की अपरिहार्यता को ध्यान में रखते हुए भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों की परिकल्पना की गई एवं उनकी बुनियाद रखते वक्त ही यह तय किया गया कि ये संस्थान विश्वस्तरीय हों। ऐसा हुआ भी। तब से लेकर आज तक उच्च तकनीकी शिक्षा के उत्कृष्ट केन्द्रों के रूप में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान अपना विशिष्ट स्थान बनाये हुए हैं। लेकिन पता नहीं क्यों, संप्रग सरकार के 2004 में सत्ता में आने के बाद से लगातार इन उत्कृष्ट शिक्षण केन्द्रों के साथ कुछ ऐसे प्रयोगों का प्रयास हो रहा है जो किसी भी सूरत में बहुत सुखद परिणाम देते नहीं दिखाई देते।
गरिमा से छेड़छाड़ क्यों?
अपनी किंचित कमियों के बावजूद भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों की अपनी एक गरिमा है। भारत के कुछ गिने-चुने वैश्विक प्रतीकों में आई.आई.टी. भी है। फिर क्यों उन स्थापित संस्थानों के साथ छेड़छाड़ की जा रही है? बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के साथ भी इस सरकार ने जो किया है वह सर्वथा निंदनीय है। विश्वविद्यालय से आईटी विभाग को अलग करके वहां संप्रग सरकार ने अपनी अपरिपक्व सोच का ही प्रदर्शन किया है।
इसी तरह की सोच वाली यह सरकार मानती है कि आईआईटी की प्रवेश प्रक्रिया में कुछ दोष है। शायद यह एक प्रकार से अभिजात्य वर्ग के पक्ष में झुकी हुई है और बारहवीं के परीक्षा परिणाम पर ज्यादा केन्द्रित नहीं है। क्या सचमुच ऐसा है? नहीं, यह इस सरकार की अपनी सोच है और कोई सर्वेक्षण या शोध ऐसा नहीं दिखाता है। जहां तक अभिजात्य वर्ग के प्रति झुकाव का प्रश्न है तो यह साबित करने के लिए बिहार के सुपर 30 का प्रयोग ही काफी है। बारहवीं की पढ़ाई का जहां तक प्रश्न है तो उसके लिए भी पर्याप्त आंकड़ा और तथ्यों की आवश्यकता है। रहा सवाल संयुक्त प्रवेश परीक्षा के क्लिष्ट होने का तो इसमें दोष क्या है? आईआईटी को स्थापित ही तकनीकी शिक्षण के उत्कृष्ट केन्द्र के रूप में किया गया था। स्वाभाविक है कि जो उन संस्थानों में प्रवेश के लिए सर्वथा उपयुक्त हो वही चयनित हो। तभी इन की उत्कृष्टता बनी रहेगी। इसके अलावा राष्ट्रीय स्तर पर जो अन्य अभियांत्रिकी पाठ्यक्रमों के लिए प्रवेश परीक्षाएं होती हैं उनके द्वारा चयनित छात्रों और आईआईटी के लिए आयोजित संयुक्त प्रवेश परीक्षा द्वारा चयनित छात्रों में जो फर्क है वह स्पष्ट तौर पर साबित करता है कि दोनों परीक्षाओं में बुनियादी अंतर है।
एक और प्रस्ताव पर भी चर्चा करनी चाहिए जो बारहवीं की परीक्षा के परिणामों को पचास फीसदी मान देने की वकालत करता है। इस प्रस्ताव में दो खामियां हैं। पहली तो यह कि प्रतियोगी परीक्षाओं में ऐसा करना तर्कपूर्ण नहीं है। दूसरे, देश भर में बारहवीं की परीक्षा के बीसियों बोर्ड हैं जो राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर संचालित हैं। हर बोर्ड का स्तर अलग है, मूल्यांकन पद्धति अलग है। गुणवत्ता के लिहाज से इनमें भिन्नता होनी स्वाभाविक है। तो आखिर यह कैसे निर्धारित होगा कि दो भिन्न बोर्डों से उत्तीर्ण विद्यार्थी एक ही स्तर के होंगे? ये ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर ढूंढना आसान नहीं है।
संस्थानों की स्वायत्तता
दरअसल शिक्षा का जहां तक प्रश्न है तो शायद ही कोई ऐसा विकसित देश होगा जहां शिक्षा के क्षेत्र में इतनी ज्यादा असमानता होगी। हमारे देश में शिक्षा राज्य का विषय है और इसलिए उसमें राज्यों के अपने अधिकार हैं। उनको ध्यान में रखकर ही शिक्षा के क्षेत्र में परिवर्तन करना श्रेयस्कर रहेगा। एक धारणा यह भी है कि शिक्षा के क्षेत्र में जितना ज्यादा प्रयोग हमारे देश में हुआ है उतना शायद ही कहीं हुआ हो। उसी का परिणाम है कि कुछ एक राष्ट्रीय संस्थानों को छोड़कर बाकी सभी संस्थानों की उत्कृष्टता पर प्रश्नचिन्ह लगा है।
नीति वही जो सुखद हो
यदि शिक्षा पर अब तक के सबसे चर्चित और व्यापक दस्तावेजों में से एक, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 की चर्चा करें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि उसमें शैक्षणिक संस्थानों की स्वायत्तता पर बल दिया गया था और यह आशय था कि इससे उत्कृष्टता आएगी। उस नई शिक्षा नीति के दस्तावेज में यह माना गया था आईआईटी व अन्य राज्य व राष्ट्रीय स्तर के तकनीकी संस्थानों में व्यापक फर्क है एवं आईआईटी संस्थान उत्कृष्टता के प्रतीक हैं। इस नीति दस्तावेज में इस संस्थान के राष्ट्रीय विकास में योगदान को स्वीकारा गया था तो आईआईटी को आज एक नये नजरिये से देखने की क्या आवश्यकता है? जिस संस्थान के विद्यार्थियों का विकसित देश भी लोहा मानते हैं उसे उत्कृष्टता की एक अलग श्रेणी में न रखने की कवायद क्यों? यदि बदलाव ही चाहिए तो वह हमारे अन्य संस्थानों की उत्कृष्टता बढ़ाने की दिशा में हो। हर विद्यार्थी आईआईटी के योग्य नहीं होता और इसलिए आईआईटी का एक अलग वर्ग रहे तो ही बेहतर। अवसर की समानता का यह अर्थ नहीं कि असमान को समान बनाने का प्रयास किया जाए। प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से उस फर्क की पहचान होनी चाहिए जोकि आज तक होता आ रहा था। कहीं ऐसा तो नहीं कि नई पद्धति आईआईटी की विशिष्टता को ही कमतर कर दे? इस पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। सभी प्रश्नों के मान बराबर हों, यह तो ठीक है, लेकिन सभी उत्तरों के मान बराबर कैसे हो सकते हैं? 
पूर्व अफ्रीकी राष्ट्रपति नेल्सन मण्डेला ने एक बार कहा था कि ‘‘शिक्षा वह हथियार है जिसके माध्यम से हमदुनिया को अहिंसक ढंग से परिवर्तित कर सकते हैं’’ । उच्च शिक्षा ऊर्जा घर हैं, क्योंकि विश्वविद्यालयों का प्रमुखकार्य शोध एवं उन्नत तकनीक की खोज करना है ।
कोठारी आयोग ने यह सुझाव दिया था कि भारत को अपने सकल घरेलू उत्पाद का कम से कम 6 प्रतिशत शिक्षापर व्यय करना चाहिए । किन्तु यह हमारे लिए दुर्भाग्य ही है कि भारत सरकार आज भी शिक्षा पर अपने सकलघरेलू उत्पाद का मात्र 3.23 प्रतिशत ही व्यय कर रही है । शिक्षा पर बजट के इस 3.23 प्रतिशत की राशी के 50प्रतिशत को प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा पर व्यय किया जाता है । सवाल यह है कि उच्च एवं तकनीकी शिक्षापर सकल घरेलू उत्पाद का केवल 1.62 प्रतिशत व्यय करने पर इसका कितना विकास होगा और उच्च शिक्षा कीगुणवत्त कैसी होगी?
भारत सरकार के मानव विकास मंत्री ने यह स्पष्ट किया है कि भारत में कुल 22 करोड़ विद्यार्थी पढने जाते हैं,जिनमें से मात्र 13 प्रतिशत छात्र ही उच्च शिक्षा पाने के लिए कालेजों में दाखिला लेते हैं । यह साफ तौर परदर्शाता है कि भारत सरकार अपने शिक्षा क्षेत्र के प्रति गंभीरता का दिखावा मात्र कर रही है, जबकि वास्तव मेंइसकी सुनियोजित तरीके से अनदेखी की जा रही है । एक ओर, जहां निजी संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों को देशमें  प्रवेश की खुली छूट की जा रही है, वहीं दूसरी ओर, सरकारी शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर दिन-ब-दिन गिरताचला जा रहा है ।
शिक्षा के निजीकरण की नीति अपनाकर छात्रों के साथ सरेआम खिलवाड़ किया जा रहा है । आज सरकार बड़ीमुश्किल से भारत के हरेक राज्य में एक-एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय खेल पाई है, जबकी भारत की उच्च शिक्षाको 40-50 प्रतिशत दर पर ले जाने के लिए देश में लगभग 1000 विश्वविद्यालय स्थापित करने होंगे । 11वींपंचवर्षीय योजना में 350 माडल कालेज खोले जाने की घोषणा की गई थी, जिनमें अब तक केवल 19 कालेजों कीस्थापना हुई है । ये लक्ष्य कैसे प्राप्त होंगे? क्या इन संस्थानों की स्थापना हो पाएगी? इन प्रश्नों का सरकार केपास कोई उत्तर नहीं है ।
इंजीनियरिंग एवं मेडिकल के 80 प्रतिशत संस्थान दक्षिण भारत में स्थिति हैं । इनमें से अधिकांश निजी क्षेत्रों केद्वारा संचालित हैं । इनकी प्रवेश फीस ही इतनी है कि अपने बच्चों का इन कालेजों में प्रवेश कराने के लिए गरीब,निम्न मध्यम वर्ग के लोगों को अपनी जिंदगी भर की कमाई दांव पर लगानी होगी । ये संस्थान आम आदमी कोकेन्द्र में रखकर नहीं, बल्की अभिजात्य लोगों के लिए स्थापित किए गए हैं । उच्च शिक्षा की व्यावसायिकमानसिकता के कारण आम आदमी अपने को ठगा सा महसूस करता है । उच्च शिक्षा में विदेशी संस्थानों केनिवेश एवं स्थापना की नीति से आम भारतीय यह सोचने के लिए मजबूर हो गया है कि क्या हमारा देशअमेरिका, इंग्लैण्ड व अन्य यूरोपीय देशों की जरूरतों को पूरा करने का साधन बन कर रह गया है । दूसरे शब्दों मेंजिनका पेट भरा है, उन्हें सरकार और भोजन दे रही है, जो भूखे हंै, उनके लिए कोई व्यवस्था नहीं है ।
उच्च तिथा शिक्षा के क्षेत्र में भारत कितना पिछडा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उत्कृष्टविश्वविद्यालयों की अन्तराष्ट्रीय सूची में 200वें स्थान पर भी नहीं है । इस सूची में 72 विश्वविद्यालयों के साथअमेरिका पहले क्रम पर, 29 विश्वविद्यालयों के साथ ब्रिटेन दूसरे क्रम पर, दक्षिण कोरिया तीसरे क्रम पर, चीनछठवें क्रम पर, कनाडा नौवें क्रम पर और नीदरलैंड दसवें क्रम पर है ।
आखिर भारत शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी कैसे हो सकता है जब यहां शिक्षा पर आवंटित राशि कामनवेल्थ खेलों केलिए खर्च की गई राशि के आधे से भी कम है? सबसे बड़ी समस्या यह है कि शिक्षा का रोजगार से कोई संबंध नहींहै । अनेक देशों में शिक्षा को रोजगार से जोड़ा गया है। देश एवं औद्योगिक स्ंास्थानों की मांग के अनुसार उच्चशिक्षा में कौशल का विकास किया जाता है । मगर हमारे देश के विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों से डिग्रिधारीबेरोजगारों की फौज सड़क जिन्दगी की तलाश में जीवन गंवा रही है ।

आज हम विद्यार्थियों एवं नई पीढ़ी का यह परम कर्तव्य है कि हम इस देश को इन मक्कारों से बचाएं वराष्ट्र-निर्माण में सहयोग करें । आज शिक्षित एवं कौशलयुक्त मानव शक्ति के अभाव में हमारा देश निर्जीव सापडा है, उसमें हम सभी मिलकर नए प्राण फूंकने का प्रयास करें ।

Wednesday, 13 November 2013

कब संकट मुक्त होगी उच्च शिक्षा

हरिवंश चतुर्वेदी, निदेशक, बिमटेक
विश्वविद्यालयों की ग्लोबल रैंकिंग में जब हमारे विश्वविद्यालयों के नाम दिखाई नहीं देते, तो समूचा देश भारत की उच्च शिक्षा के बारे में आत्मग्लानि महसूस करता है। कभी-कभी इन ग्लोबल रैंकिंगों में आईआईटी या आईआईएम के नाम दिखाई देते हैं, तो हमें खुशी होती है कि कम से कम इंजीनियरिंग और प्रबंध शिक्षा में तो हमारी पहचान विश्वस्तरीय है। उच्च शिक्षा में हमारी शिखर संस्थाएं चमकती दिखाई देती हैं, लेकिन इस पिरामिड में धरातल के विश्वविद्यालय व कॉलेज बेरौनक होते जा रहे हैं। ज्यादातर युवकों को दाखिला देने वाले इन संस्थानों पर सवालिया निशान गहरे होते जा रहे हैं। देश में उच्च शिक्षा पाले वाले विधार्थियों में 58 प्रतिशत निजी क्षेत्र के अनुदानित या गैर-अनुदानित संस्थानों में पढ़ते हैं, जबकि 42 प्रतिशत सरकारी संस्थानों के विद्यार्थी हैं। ज्यादातर निजी कॉलेज राज्य विश्वविद्यालयों से संबद्ध होते हैं और इनमें प्रवेश, पाठ्यक्रम व परीक्षाएं इन्हीं विश्वविद्यालयों द्वारा संचालित होते हैं। देश की सरकारी  यूनिवर्सिटियों व कॉलेजों में पढ़ने वाले कुल 80 लाख विद्यार्थियों में से सिर्फ छह प्रतिशत केंद्र सरकार से पोषित संस्थानों में पढ़ते हैं। बाकी 94 प्रतिशत राज्यों के विश्वविद्यालयों या कॉलेजों में शिक्षा पाते हैं।
भारतीय अर्थव्यवस्था और समाज के रूपांतरण में उच्च शिक्षा के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता। आने वाले दशकों में अगर हमें विश्व स्तर पर अमेरिका व चीन का मुकाबला करना है, तो उच्च शिक्षा में कुछ बुनियादी सुधार करने होंगे। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार, वर्ष 2020 तक 20 से 24 वर्ष के आयु वर्ग में भारत में 11.6 करोड़ और चीन में 9.4 करोड़ श्रमिक व कर्मचारी होंगे। वर्ष 2020 में भारत की औसत आयु 29 वर्ष होगी और 15 से 59 वर्ष के आयु वर्ग में हमारी 60 प्रतिशत आबादी होगी। अगर हम इस ‘डेमोग्राफिक-डिविडेंड’ को भुनाना चाहते हैं, तो निस्संदेह हमें भारत की उच्च शिक्षा की गुणवत्ता और सार्थकता को प्राथमिकता देनी होगी। सिर्फ केंद्रीय विश्वविद्यालयों व केंद्रीय संस्थानों को मजबूत बनाने से यह संभव नहीं होगा, हमें राज्यों के विश्वविद्यालयों व कॉलेजों की हालत भी सुधारनी पड़ेगी।
आज 316 राज्य विश्वविद्यालय और 13,024 अनुदानित कॉलेज जिस संकट का सामना कर रहे हैं, उसका मुख्य कारण है, उन्हें मिलने वाले वित्तीय अनुदानों का लगातार कम होते जाना। पिछली तीन पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान जहां केंद्रीय विश्वविद्यालयों व संस्थानों को मिलने वाले वित्तीय अनुदान तेजी से बढ़े हैं, वहीं राज्य विश्वविद्यालयों को मिलने वाले अनुदान उस अनुपात में नहीं बढ़े। नौवीं पंचवर्षीय योजना और 11वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान केंद्रीय विश्वविद्यालयों को मिलने वाला वित्तीय अनुदान 2,272 करोड़ रुपये से बढ़कर 34,784 करोड़ रुपये हो गया, जो लगभग 15 गुना था। दूसरी ओर, राज्य विश्वविद्यालयों को मिलने वाला अनुदान 1,724 करोड़ रुपये से सिर्फ तीन गुना बढ़ा और 5,342 करोड़ रुपये ही हो पाया। केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है, ‘उच्च शिक्षा के लिए सरकारी सहायता में कमी, नतीजतन फीस बढ़ाने के उपाय और उच्च शिक्षा में निजी क्षेत्र की तीव्र बढ़ोतरी  उच्च शिक्षा की उपलब्धता, गुणवत्ता, समानता और कार्य कुशलता के लिए गंभीर समस्याएं पैदा कर रही है।’
इसके लिए राज्य सरकारें भी कम दोषी नहीं हैं। पूरे देश में राज्यों के सकल घरेलू उत्पाद का सिर्फ पांच प्रतिशत उच्च शिक्षा पर खर्च होता है। उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और झारखंड जैसे राज्यों का सकल नामांकन अनुपात (जीईआर) भी कम है और उच्च शिक्षा पर प्रतिशत खर्च भी कम है। दूसरी ओर, तामिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल, गोवा, त्रिपुरा जैसे राज्यों का प्रति विद्यार्थी खर्च और जीईआर, दोनों राष्ट्रीय औसत से बेहतर है। राज्यों के विश्वविद्यालय सिर्फ वित्तीय संकट का ही सामना नहीं कर रहे हैं, बल्कि राजनीतिक हस्तक्षेप, संबद्ध कॉलेज प्रणाली का बोझ, अकुशल प्रशासन, जवाबदेही के अभाव और निरंकुश नौकरशाही जैसी समस्याएं भी इन्हें निष्प्रभावी बना रही हैं।
संबद्ध कॉलेज प्रणाली वैसे तो ब्रिटिश शासन की ही देन है, लेकिन पिछले 30 वर्षों में इन कॉलेजों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। सन् 1975 के आसपास राज्य विश्वविद्यालयों में संबद्ध कॉलेजों की संख्या 50-75 के बीच होती थी। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अनुसार, आज देश में 20 ऐसे राज्य विश्वविद्यालय हैं, जहां पर संबद्ध कॉलेजों की संख्या 400 से 900 तक हैं। उस्मानिया यूनिवर्सिटी, हैदराबाद में 901, पुणे यूनिवर्सिटी में 811 और राजस्थान यूनिवर्सिटी में 735 संबद्ध कॉलेज हैं। इनकी संख्या में बेतहाशा वृद्धि से हालांकि राज्य विश्वविद्यालयों की आय भी तेजी से बढ़ी है, किंतु इन विश्वविद्यालयों का ज्यादातर समय परीक्षाएं संचालित करने और परीक्षाफल घोषित करने में ही खर्च होता है। इससे शोध-अनुसंधान और शैक्षणिक गुणवत्ता सुधारने पर ध्यान देना इनके लिए मुश्किल होता जा रहा है।
यशपाल कमेटी और राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने संबद्ध कॉलेजों के बोझ से राज्य विश्वविद्यालयों को मुक्त कराने के लिए यह सुझाव दिया था कि अच्छे नतीजे दिखाने वाले कॉलेजों को ‘स्वशासी’ बना देना चाहिए। ये कॉलेज अपना पाठ्यक्रम और परीक्षाएं खुद संचालित करें। इस समय देश में 400 से अधिक स्वायत्त कॉलेज हैं। इनमें से कुछ सुप्रतिष्ठित कॉलेजों को तो विश्वविद्यालय का दर्जा भी दिया जा सकता है। प्रेसीडेंसी कॉलेज, कलकत्ता इसका अच्छा उदाहरण है, जिसे अब राज्य विश्वविद्यालय बना दिया गया है। राज्य विश्वविद्यालयों और उनसे संबद्ध कॉलेजों को मौजूदा खस्ता हाल से उबारने के लिए हाल ही में मानव संसाधन मंत्रालय ने राष्ट्रीय उच्च शिक्षा अभियान (रूसा) नामक नई योजना शुरू की है। रूसा के अंतर्गत 12वीं और 13वीं पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान 98,138 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे, जिसमें केंद्र सरकार का हिस्सा 69,675 करोड़ रुपये होगा और बाकी राज्य सरकारों को देना होगा। शुरू में रूसा के तहत 316 राज्य विश्वविद्यालयों और 13,024 मौजूदा कॉलेजों को लाया जाएगा।
अगले नौ वर्षों में इसके  तहत राज्य सरकारों को 278 नए विश्वविद्यालयों और 388 नए कॉलेजों की स्थापना, 266 कॉलेजों को मॉडल कॉलेज बनाने के लिए मदद दी जाएगी। मंत्रालय का कहना है कि रूसा के अंतर्गत राज्य विश्वविद्यालयों को वित्तीय सहायता देने की एक नई प्रणाली का इस्तेमाल किया जाएगा। अच्छे नतीजे दिखाने वाले विश्वविद्यालयों व कॉलेजों को वित्तीय मदद दी जाएगी। जहां कुछ शिक्षाविद और राज्य सरकारें इस घोषणा से उत्साहित हैं, वहीं कुछ लोगों का कहना है कि इसकी असली परीक्षा केंद्र व राज्य सरकारों के स्तर पर प्रभावी क्रियान्वयन में होगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि रूसा का हश्र शिक्षा के अधिकार (आरटीई), सर्वशिक्षा अभियान और पूर्ण साक्षरता अभियान की तरह निराशाजनक न हो।

Wednesday, 23 May 2012

बच्चों को सिस्टम बनाता है तोता रटंत


आज हमारे देश में दोहरी शिक्षा प्रणाली है। एक ग्रामीण तथा गरीब बच्चों को सरकारी विद्यालयों में मिलने वाली काम चलाऊ शिक्षा और दूसरी जो बड़े शहरों में महँगे विद्यालयों में मिलने वाली ताम-झाम से परिपूर्ण दिखावटी शिक्षा। इतना ही नहीं, आज शिक्षा अधिकार नहीं बल्कि कुछ लोगों का विशेषाधिकार बन गई है। ऐसे में सिर्फ कोचिंग क्लासेज की आलोचना करने से क्या होगा?



आज हमारे देश में दोहरी शिक्षा प्रणाली है। एक ग्रामीण तथा गरीब बच्चों को सरकारी विद्यालयों में मिलने वाली काम चलाऊ शिक्षा और दूसरी जो बड़े शहरों में महँगे विद्यालयों में मिलने वाली ताम-झाम से परिपूर्ण दिखावटी शिक्षा। इतना ही नहीं, आज शिक्षा अधिकार नहीं बल्कि कुछ लोगों का विशेषाधिकार बन गई है। ऐसे में सिर्फ कोचिंग क्लासेज की आलोचना करने से क्या होगा?

अमेरिकी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार जनरल वेसले क्लार्क ने कहा था कि अगर किसी इच्छुक व्यक्ति के पास आईआईटी की डिग्री हो तो उसे तुरंत अमेरिकी नागरिकता मिल जाएगी। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी) के छात्रों का अंतरराष्ट्रीय बाजार में महत्व का अंदाजा इस अमेरिकी नेता के इस बयान से लगाया जा सकता है। भारत के युवा वर्ग में अमेरिकी वीसा की चाहत एक सपने की तरह जेहन में मचलता रही है। आईआईटी की डिग्री उन्हें यह अवसर आसानी से उपलब्ध कराती है।

माइक्रोसॉफ्ट के मुखिया बिल गेट्स ने एक साक्षात्कार में पूछे गए प्रश्नों के जवाब देते हुए कहा था कि आईआईटियन बतौर सॉफ्टवेयर इंजीनियर उनकी पहली पसंद है लेकिन कुछ दिन पहले जब न्यूयार्क में आईआईटी के भूतपूर्व छात्रों द्वारा आयोजित पीएएन आईआईटी कार्यक्रम में इंफोसिस के संस्थापक एनआर नारायणमूर्ति ने यह कहकर कि आजकल आईआईटी के ८० फीसद छात्र स्तरहीन होते हैं, देश के सामने एक गंभीर प्रश्न खड़ा किया है।

नारायणमूर्ति के अनुसार स्तरहीनता का कारण कोचिंग है और छात्र कोचिंग द्वारा रटंत विद्या के दम पर ही आईआईटी का सफर तय कर रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि नारायणमूर्ति की बात में कुछ हद तक सच्चाई है लेकिन उन्होंने जो वजह बताई है वह वजह इतनी आसान नहीं है कि कोचिंग क्लासेज पर रटंत विद्या के बढ़ावा देने का आरोप लगाकर पल्ला झाड़ लिया जाए। अगर सच में इस प्रश्न का जवाब पाने का प्रयास किया जाए तो देश की शिक्षा व्यवस्था की कई खामियाँ सामने उभर कर आएँगी।

नारायणमूर्ति सिर्फ २० फीसद छात्रों को स्तरीय बताते हैं तो उन्हें भी जरूर मालूम होना चाहिए कि वे २० फीसद छात्र भी किसी न किसी कोचिंग का सहारा लेते ही हैं। आईआईटी की संयुक्त प्रवेश परीक्षा को पूरी दुनिया के कठिनतम परीक्षाओं में से एक समझा जाता है। लगभग पाँच लाख परीक्षार्थी आईआईटी प्रवेश परीक्षा में अपनी किस्मत आजमाते हैं और सफलता का दर मात्र दो फीसद से भी कम है। अमेरिका जैसे संपन्ना देशों में भी आईआईटी में दाखिले को हॉर्वर्ड, एमआईटी और येल जैसे विश्वविद्यालय के दाखिले से कठिन समझा जाता है और अब स्थिति यह हो गई है कि इतनी प्रतिष्ठित परीक्षा में सफल होने के लिए रट्टा मारने की जरूरत पड़ रही है और कोचिंग संस्थान चाँदी कूट रहे हैं।

आखिर आईआईटी क्यों ऐसे प्रश्नों को पूछने में अक्षम हो रहा है जो रटंत विद्या पर आधारित नहीं हों? क्या प्रश्न बनाने वाली टीम सच में इतनी कमजोर हो चुकी है कि छात्रों को बजाय सृजनात्मक क्षमता की जाँच किए रटंत विद्या पर आधारित प्रश्नों को पूछ कर छात्रों को कोचिंग पर लाखों रुपए खर्च करने पर मजबूर कर रही है। इस तरह के सवालों को पूछकर आईआईटी क्या उन गरीब बच्चों के साथ एक भद्दा मजाक नहीं कर रही है जिनके पास कोचिंग पर खर्च करने के लिए पैसे नहीं हैं? जाहिर है कि प्रश्न बनाने वाले प्रश्न बनाते समय इस बात की कोई परवाह नहीं करते कि उनके प्रश्नों को हल करने के लिए तोता रटंत होना जरूरी हो जाता है।

आईआईटी के प्रश्नकर्ताओं की टीम आज इतनी लापरवाह हो चुकी है कि पिछले साल हिन्दी में पूछे गए प्रश्न ही अटपटे हो गए थे। यहीं नहीं, इस वर्ष तो १८ अंकों के प्रश्न ही गलत पूछ दिए गए। आनन-फानन में आईआईटी को औसत मार्किंग करनी पड़ी यानी जिसने प्रश्नों का हल नहीं किया वह भी १८ अंक का मालिक बन बैठा। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आईआईटी में रिजल्ट के समय जो रैंक दिए जाते हैं उसमें एक अंक के अंतराल पर सैकड़ों छात्र खड़े होते हैं। ऐसे में सभी अभ्यर्थियों को एकमुश्त १८ नंबर दे देने का आखिर क्या औचित्य हो सकता है?

आज हमारे देश में दोहरी शिक्षा प्रणाली है। एक ग्रामीण तथा गरीब बच्चों को सरकारी विद्यालयों में मिलने वाली कामचलाऊ शिक्षा और दूसरी जो बड़े शहरों में महँगे विद्यालयों में मिलने वाली तामझाम से परिपूर्ण दिखावटी शिक्षा। इतना ही नहीं, आज शिक्षा अधिकार नहीं बल्कि कुछ लोगों का विशेषाधिकार बन गई है। सिर्फ कहने के लिए ही शिक्षा सबके लिए है लेकिन वास्तव में शिक्षा पर धनी वर्ग का वर्चस्व हो गया है। गरीब के लिए तो गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पाना महज एक कल्पना ही है।

अब तो शिक्षा खरीदने की चीज भर बनकर रह गई है। अगर आपके पास पैसे हैं तो अपने बच्चों के लिए शिक्षा को खरीद सकते हैं, वरना मन मसोसने के सिवा आपके पास कोई विकल्प नहीं है। आज बच्चों को स्कूल के स्तर से ही रटवाया जा रहा है। उदाहरण के तौर पर बच्चे जानते हैं कि त्रिभुज का क्षेत्रफल क्या होगा, लेकिन क्यों होगा, यह नहीं जानते हैं। यहाँ तक कि जोड़-घटाव, गुणा तथा भाग की प्रकिया को तो जानते हैं, लेकिन यह प्रक्रिया क्यों अपनाई जाती है और इसका प्रमाण क्या है, यह नहीं जानते हैं। इस तरह रट्टा लगवाने की प्रक्रिया बच्चों के दिमाग में शुरुआत में ही डाल दी जाती है। अब भला उन गरीब छात्रों की छटपटाहट को कौन समझेगा जो बेचारे अपने दम पर कड़ी मेहनत करके प्लस टू तक की पढ़ाई करते हैं लेकिन उन्हें झटका उस वक्त लगता है और कोचिंग नहीं कर पाने के कारण गरीबी का अहसास होता है, जब आईआईटी प्रवेश परीक्षा में पूछे गए प्रश्नों और प्लस के सिलेबस की गहरी खाई को बगैर कोचिंग के पाट पाने में अक्षम हो जाते हैं। सच कहा जाए तो आईआईटी का सिलेबस ही इस तरह का बनाया गया है कि छात्रों के लिए कोचिंग करना अपरिहार्य बन गया है।

बावजूद इसके कोई भी छात्र आईआईटी में कोचिंग पर भारी खर्च और घंटों कड़ी मेहनत बतौर इसकी कीमत चुकाता है। सफल छात्र जब आईआईटी में जाता है तो उसके सुनहरे सपने उस वक्त चकनाचूर हो जाते हैं और वह निराश हो जाता है, जब वह यह देखता है कि उसके शिक्षक विषय पढ़ाने में कोई रुचि नहीं ले रहे हैं और ज्यादातर प्रोफेसर विषयों को रुचिकर ढंग से पढ़ाने का प्रयास
आनंद कुमार

Thursday, 17 May 2012

आईआईटी को लेकर इतना भी क्या रोना-गाना

शशांक द्विवेदी  
21 Oct 2011,नवभारत टाइम्स  तकनीकी शिक्षा की गुणवत्ता और आईआईटी को लेकर एक बार फिर बहस शुरू हो चुकी है। पिछले दिनों इनफोसिस के मानद चेयरमैन एन आर नारायण मूर्ति ने न्यू यॉर्क में आईआईटी सम्मेलन में सैकड़ों पूर्व आईआईटी छात्रों को संबोधित करते हुए कहा कि हाल के वर्षों में आईआईटी में प्रवेश पाने वाले छात्रों की गुणवत्ता में काफी गिरावट आई है। इसके लिए उन्होंने कोचिंग संस्थानों को जिम्मेदार ठहराया। इससे पहले उद्योग एवं व्यापार जगत की प्रमुख संस्था फिक्की ने भी उच्च शिक्षा एवं तकनीकी शिक्षा के गिरते स्तर पर चिंता जताते हुए मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल को पत्र लिखा था। इसमें कहा गया था कि उद्योग जगत के 65 फीसद हिस्से को कुशल स्नातक नहीं मिल रहे हैं। इसके भी पहले वरिष्ठ शिक्षाविद यशपाल और जयराम रमेश ने आईआईटी पर तल्ख टिप्पणियां की थीं।

कॉर्पोरेट टेक्नॉलजी
गौर से देखें तो ये सारी चिंताएं पूरी तरह कॉर्पोरेट जगत से ही जुड़ी हुई हैं। तकनीकी शिक्षा के बुनियादी और व्यावहारिक पक्ष से किसी का कोई लेना-देना नहीं है। तभी वे कह रहे है कि हमें आईआईटी स्नातकों को फिर से काम की ट्रेनिंग देनी पड़ रही है । उनका सीधा सा मतलब है कि आईआईटी ऐसे स्नातक पैदा करे जिनका कॉर्पोरेट के लोग पहले दिन से ही भरपूर दोहन कर सकें। बुनियादी तकनीकी और विज्ञान से आज देश में कोई नहीं जुड़ना चाहता। आईआईटी के अधिकांश छात्र बी.टेक. करने के बाद अमेरिका में बसना चाहते हैं। उनकी एक बड़ी तादाद प्रशासनिक सेवा में कार्य करना पसंद करती है। कभी दुनिया भर में होने वाले शोध कार्य में भारत का योगदान नौ फीसद था। आज यह घटकर महज 2.3 फीसद रह गया है।

वर्ल्ड क्लास मिथ
देश में इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक को लें तो यह तकरीबन पूरी की पूरी आयातित है। इनमें 50 फीसद तो बिना किसी बदलाव के ज्यों की त्यों और 45 फीसद थोड़ा-बहुत हेर-फेर के साथ के साथ इस्तेमाल होती है। इस तरह विकसित तकनीक के लिए हम पूरी तरह आयात पर निर्भर हैं। कहा जा रहा है कि देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है लेकिन ये प्रतिभाएं क्या केवल विदेशों में नौकरी या मजदूरी करने वाली हैं? शिक्षा व शोध के अभाव को भूलकर कई बार कहा जाता है कि आईआईएम और आईआईटी में काफी तनख्वाह दिलवाने वाली पढ़ाई होती है। दूसरे लोग भी यह देखते हैं कि किस संस्थान के छात्रों को कितने पैसे की नौकरी ऑफर हुई। यह पूरी सोच ही गलत है और इससे बाहर निकलने की जरूरत है। आईआईटीज में अच्छे छात्र आते हैं, क्योंकि वे कड़ी प्रतिस्पर्द्धा से निकलकर आते हैं। उन्हें खुली जगह मिलनी चाहिए, लेकिन उन्हें एक संकीर्ण दायरे में डालने की कोशिश होती है।

विज्ञान में उच्च स्तरीय शोध के लिए जो भारतीय संस्थान जाने जाते हैं, उनमें प्रमुख रूप से इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेज (आईआईएससी), टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (टीआईएफआर) तथा भाभा अटॉमिक रिसर्च सेंटर (बीएआरसी) जैसे केंद्रों का उल्लेख किया जा सकता है। आईआईटी का नाम इसमें नहीं आता। आईआईएससी, टीआईएफआर और बीएआरसी में शोध करनेवाले विद्यार्थी आईआईटी डिग्रीधारक नहीं बल्कि उन तमाम विश्वविद्यालयों से निकले होते हैं जो अभावों से जूझते हुए भी शोध को आगे ले जानेवाले हमारे सबसे बड़े स्त्रोत हैं। दुखद है कि इनकी गुणवत्ता के विकास के लिए हमने कोई राष्ट्रीय नीति नहीं बनाई है।

आर्थिक उदारीकरण के बाद जब से उच्च शिक्षा का व्यावसायीकरण होने लगा है, कॉर्पोरेट जगत के लोग ही तय करते हैं कि अमुक विश्वविद्यालय या शोध संस्थान वर्ल्ड क्लास है या नहीं। उन्होंने ही तय किया है कि आईआईटी का विद्यार्थी वर्ल्ड क्लास है। उनके अनुसार आईआईटी का महत्व इसलिए है कि वह अमेरिका और दूसरे बड़े औद्योगिक राष्ट्रों के लिए आवश्यक वर्कफोर्स मुहैया कराता है। बुनियादी विज्ञान विषयों की उपेक्षा कर सॉफ्टवेयर प्रशिक्षण को महत्व भी इसीलिए दिया जा रहा है। जबकि अमेरिका बुनियादी विज्ञान विषयों की प्रगति का पूरा ध्यान रखता है। उसकी नीति है कि तकनीकी मजदूर तो वह भारत से ले जाए पर विज्ञान और टेक्नॉलजी के ज्ञान पर नियंत्रण स्वयं रखे। चीन में भी शिक्षा का व्यवसायीकरण हुआ है, पर बुनियादी विज्ञान और टेक्नॉलजी की प्रगति का उसने पूरा ध्यान रखा है। भारत को चीन से सीखना चाहिए, क्योंकि वर्ल्ड क्लास बनने के लिए बुनियादी विज्ञान का विकास जरूरी है।

कॉर्पोरेट व्यवस्था के समर्थक विशेषज्ञ उसी मॉडल को बनाने में जुटे हैं जिससे कॉर्पोरेट को लाभ होता हो। यह निराशाजनक ही है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हमारी सारी अपेक्षाएं मात्र आईआईटी और कुछ गिने-चुने विश्वविद्यालयों से ही होती है। दूसरे देशों में ऐसा नहीं है। इसी प्रकार देश भर के छात्रों का दबाव दिल्ली के कुछ गिने-चुने महाविद्यालयों पर होता है। देश में इस समय 25 हजार से भी अधिक महाविद्यालयों के विकास के लिए कोई राष्ट्रीय योजना नहीं है।उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाकर हमें संपूर्ण विकास की ओर ध्यान देना होगा।

अपने हों मापदंड
कॉर्पोरेट निर्धारित वर्ल्ड क्लास मापदंडों के पीछे न भागकर हमें राष्ट्र की समस्याओं के अनुकूल मापदंड बनाने होंगे। नई तकनीक के विकास में जो मौलिक काम हो रहे हैं, उन्हें बढ़ावा देना होगा। देश में बड़ी संख्या में छोटे-छोटे लेकिन उपयोगी आविष्कार हुए हैं। ऐसे आविष्कारों के बारे में अकसर छपता रहता है लेकिन उस ओर सरकार कम ध्यान देती है। इससे नई तकनीक के विकास को प्रोत्साहन नहीं मिल पाता है। तकनीकी शिक्षा के समग्र विकास और पूरे उच्च शिक्षा तंत्र को मजबूत बनाने के लिए सरकार को पहल करनी पड़ेगी। साथ में इसके लिए एक राष्ट्रीय नीति भी होनी चाहिए, जिसे पूरे देश में कड़ाई से लागू करके ही हम वास्तविक अर्थों में तकनीकी शिक्षा को एक नई दिशा दे पाएंगे। 
http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/10430557.cms

हताशा की ओर धकेलती तकनीकी शिक्षा



हताशा की ओर धकेलती तकनीकी शिक्षा
शशांक द्विवेदी   
14 Dec 2011,नवभारत टाइम्स 
तकनीकी शिक्षा के मौजूदा सत्र में इस बार पूरे देश में 2 लाख से ज्यादा यानी करीब 30 फीसदी सीटें खाली रह गईं। अकेले उत्तर प्रदेश में 70 हजार और राजस्थान में 17 हजार सीटें खाली रहीं। यह पहली बार हो रहा है कि एक तरफ तो सरकार उच्च शिक्षा के बाजारीकरण पर जुटी है , दूसरी तरफ लोगों का रुझान इस तरफ कम हो रहा है। आज देश में हजारों इंजीनियरिंग कॉलेज खुल गए हैं और लगातार खुल भी रहे हैं। लोगों को यह एक अच्छा व्यवसाय नजर आने लगा है। पर क्या इन संस्थानों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की गारंटी दी जा सकती है ? हालत यह है कि एक ओर देश की उच्च और तकनीकी शिक्षा पर सवाल उठ रहे हैं , दूसरी ओर सरकार इसे और ज्यादा मुनाफा कमाने का साधन बनाने में जुटी है।

मुनाफे का धंधा
पिछले दिनों योजना आयोग ने इस संबंध में अपना ताजा दृष्टिकोण पत्र जारी किया है। इसके मुताबिक 1 अप्रैल 2012 से शुरू हो रही 12 वीं पंचवर्षीय योजना में उच्च शिक्षा , खासकर तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र को बड़ी भूमिका देने के लिए अनुकूल स्थितियां बनाने की जरूरत है। अभी इस दृष्टिकोण पत्र पर सरकार की मुहर नहीं लगी है , लेकिन यह सुझाव पिछले वर्षों में उच्च शिक्षा के बारे में चली चर्चा के अनुरूप ही है। विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपनी शाखा खोलने की इजाजत के साथ भी यह बात जुड़ी है कि वे मुनाफे की संभावना दिखने पर ही यहां आएंगे।

नई जाति प्रथा
शिक्षा मंडी में क्रय - विक्रय की वस्तु बनती जा रही है। इसे बाजार में निश्चित शुल्क से अधिक धन देकर खरीदा जा सकता है। परिणामस्वरूप शिक्षा में एक भिन्न प्रकार की जाति प्रथा जन्म ले रही है। धन के आधार पर आईआईटी , एमबीए , सीए , एमबीबीएस आदि उपाधियों के लिये प्रवेश पा लेने वाले उच्च भावना और धनाभाव के कारण इससे वंचित छात्र हीनभावना से ग्रस्त रहते हैं। हम अपने ज्ञान को व्यावहारिक नहीं बना पाए हैं। नंबरों की होड़ वाली शिक्षा प्रणाली में तो बस रटे गए ज्ञान का मूल्यांकन लिखित परीक्षाओं के माध्यम से होता है। यह प्रणाली बच्चों को तनावग्रस्त करती है और वांछित सफलता न मिलने पर खुद को नुकसान पहुंचाने वाले अप्रिय कदम उठाने के लिए बाध्य करती है।

नैशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक 2006 से 2010 के बीच छात्रों की आत्महत्याएं 26 प्रतिशत बढ़ गईं। 2006 में 5857 का यह आंकड़ा 2010 में 7379 तक पहुंच गया। वास्तविकता में यह संख्या इससे भी ज्यादा हो सकता है। आत्महत्या करने वाले छात्रों में सबसे ज्यादा संख्या देश के प्रमुख मेट्रो शहरों बेंगलूरु , दिल्ली और मुंबई की है।

पिछलें कुछ सालों से आत्महत्या की सर्वाधिक घटनाएं आईआईटी कॉलेजों में सामने आई हैं। मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने लोकसभा में वरुण गांधी के सवाल के लिखित जवाब में बताया कि 2008 से 2010 देश के सभी आईआईटी तथा उच्च तकनीकी संस्थानों में कुल 24 छात्रों ने इस प्रकार का आत्मघाती कदम उठाया। इन सभी मामलों की जांच करने वाली समितियों ने पाया कि अवसाद , पढ़ाई के बोझ और सहपाठियों के प्रदर्शन के दबाव में आकर छात्रों ने यह कदम उठाया। आईआईटी कानपुर में पिछले 5 सालों के भीतर हुई 9 छात्रों की आत्महत्या के मामले ने यहां की ग्रेडिंग प्रणाली और शिकायत निवारण तंत्र पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है।

आत्महत्याओं के कारण तलाशते हुए कभी इनकी बुनियादी वजहों पर बात नहीं की जाती। ज्यादा से ज्यादा वेतन वाली नौकरियों को ही सफलता के आदर्श के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया गया है। जबकि हकीकत यह है कि यही प्रतिष्ठा छात्रों को अवसाद की ओर धकेल रही है। आईआईटी में आने से पहले छात्रों की पृष्ठभूमि पर गौर करें तो इसे बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। शहरी मध्यवर्गीय परिवार मीडिया में आईआईटी से निकलने वाले छात्रों का ऊंचा पैकेज देखकर कर अपने बच्चे को इंजीनियर बनाने का सपना पालने लगते हैं। बच्चा दसवीं कक्षा से ही अपने माता - पिता के सपनों का बोझ ढोने लगता है। स्कूल से कोचिंग , कोचिंग से स्टडी रूम का चक्र उसके स्वाभाविक विकास को एक खास दिशा में मोड़ देता है।

प्रवेश परीक्षाओं से लेकर सिलेबस तक में जो भी बदलाव किए जा रहे हैं , उन सबका एक ही मकसद है। दुनिया के बाजार के लिए भारत में पेशेवर लोगों की फौज कैसे तैयार की जाए। सरकार को इस बात से कोई लेना - देना नहीं है कि उसके कदमों से देश का या देश की जनता का क्या फायदा होने वाला है। इस कदम से होगा क्या ? इससे तकनीकी ज्ञान की सस्ती फौज ही हम तैयार कर पाएंगे , तकनीकी क्षेत्र में नया कुछ नहीं कर पाएंगे।

कॉरपोरेट की फिक्र
पिछले दिनों इनफोसिस के मानद चेयरमैन एनआर नारायण मूर्ति तथा उद्योग एवं व्यापार जगत की सर्वोच्च संस्था फिक्की ने देश में उच्च एवं तकनीकी शिक्षा के गिरते स्तर पर चिंता जताई थी। इनका कहना है कि उद्योग जगत के 65 फीसदी हिस्से को इससे सही स्नातक नहीं मिल रहे हैं , न ही यहां से निकलने वाले छात्र उद्योगपतियों की कसौटी पर खरे उतर पा रहे हैं। असल में उनकी पूरी चिंता कॉरपोरेट से जुड़ी हुई है। तकनीकी शिक्षा के बुनियादी और व्यावहारिक पक्ष से उनका कोई लेन - देना नहीं है। वे कह रहे है कि हमें तकनीकी स्नातकों को कार्यकुशल करना पड़ता है , यानी उन्हें कुछ महीनों की ट्रेनिंग देनी पड़ती है , जो इंडस्ट्री के लोग नहीं चाहते। उनका सीधा सा मतलब है कि आईआईटी ऐसे स्नातक पैदा करे जिनका कॉरपोरेट के लोग पूरा दोहन कर सके। आज जरूरत है ऐसे तकनीकी ज्ञान की जो वास्तविकता के धरातल पर टिका हो और जिसे हम अपने देश की परिस्थितियों के हिसाब से प्रयोग कर सके। इसके लिए कॉरपोरेट निर्धारित मापदंडों के पीछे न भागकर हमें राष्ट्र की समस्याओं के अनुकूल मापदंड बनाने होंगे। 
http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/11095820.cms