शशांक द्विवेदी
डिप्टी डायरेक्टर, मेवाड़
यूनिवर्सिटी ,राजस्थान
नवभारत टाइम्स |
पिछले दिनों
रिलीज हुई फिल्म बाबुमोशय बंदूखबाज में एक डायलाग है कि “ आदमी की
जिन्दगी में उसका किया हुआ जरुर उसके सामने आता है “। ये डायलाग
देश में उच्च शिक्षा की सबसे बड़ी नियामक संस्था एआईसीटीई पर पूरी तरह से फिट बैठता
है , क्योंकि पहले
तो इन्होने बिना ठीक से जांचे परखे ,गुणवत्ता की चिंता किये बगैर देश में
हजारों हजार इंजीनियरिंग कॉलेज खोलनें के लाइसेंस दिए और बिना माँग –आपूर्ति ,रोजगार का
विश्लेषण किये बगैर 37 लाख सीटें कर
दी ,अब जब उनमें
से 27 लाख सीटें
खाली रह गई तो इनके हाथ पैर फूल गए । तो यहाँ मुख्य सवाल तो एआईसीटीई से ही है कि
इन्होने पहले कुछ क्यों नहीं किया ? जब तकनीकी शिक्षा का आधारभूत ढांचा
चरमरा रहा था तब एआईसीटीई ने कोई ठोस कदम क्यों नही उठाया ? आखिर इतने बड़े
पैमाने पर सीट खाली रहनें से और कालेजों के बंद होनें का सीधा असर देश की
अर्थव्यवस्था पर ही तो पड़ेगा ।
ये बात सही है की देश में उच्च और
तकनीकी शिक्षा की बुनियाद 2010 से ही हिलने
लगी थी और 2014 तक लगभग 10 लाख सीटें
खाली थी। लेकिन तीन साल पहले मोदी सरकार आने के बाद ये उम्मीद जगी थी की उच्च
शिक्षा के लिए कुछ बेहतर होगा लेकिन धरातल पर कुछ खास नही हुआ । मतलब सिर्फ सरकार
बदली लेकिन नीतियाँ लगभग वही रही और अब हालात ऐसे हो गएँ हैं जिन्हें संभालना बहुत मुश्किल दिख रहा है ।
सरकार का सारा ध्यान हिंदुत्व के अजेंडे पर लगा रहा दुसरी तरफ देश में उच्च शिक्षा
तेजी से अपनी साख खोती चली गयी । इस सत्र
में तो ऐसे हालात हो गए कि आईआईटीज में भी छात्रों में रुचि कम होती दिखाई दे रही
है। आईआईटीज में 2017-18 सत्र के लिए 121 सीटें खाली
रह गई हैं। पिछले चार साल में आईआईटी में इतनी सीटें कभी खाली नहीं रहीं। आईआईटी
के निदेशक मानते हैं कि सीटें खाली रहने का कारण छात्रों को मनपसंद विकल्प न मिलना
है।
देश में स्किल इंडिया के इतने हल्ले
के बावजूद देश में अनस्किल्ड लोगों की संख्या और बेरोजगारी तेजी से बड़ी है इसी वजह
से हाल में हुए केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार में कौशल विकास मंत्री को उनके नान
परफार्मेंस की वजह से हटाया गया । रुढी को उनके पद से हटाया गया लेकिन इससे क्या
फर्क पड़ता है कि कौन आया और कौन गया क्योंकि जब धरातल पर नीतियों का क्रियांवयन ही
नहीं होगा तो योजनायें बनाने से क्या हासिल होगा ।
देश में फ़िलहाल जो माहौल है उसे देखकर
तो यही लगता है कि उच्च शिक्षा के जो हालात है वो अभी और बदतर होंगें । हालत यह हो
गयी है कि इंजीनियरिंग की जिस डिग्री को हासिल करना कभी नौकरी की गारंटी और
पारिवारिक प्रतिष्ठा की बात मानी जाती थी, आज वह डिग्री छात्रों और अभिभावकों के
लिए एक ऐसा बोझ बनती जा रही है जिसे न तो केवल घर पर रख सकते हैं और न ही फेंक
सकते हैं। देश में यही हालत प्रबंधन के स्नातकों की है ,एसोचैम का
ताजा सर्वे बता रहा है कि देश के शीर्ष 20 प्रबंधन संस्थानों को छोड़ कर अन्य
हजारों संस्थानों से निकले केवल 7 फीसदी छात्र
ही नौकरी पानें के काबिल हैं । यह आंकड़ा चिंता बढ़ानेवाला इसलिए भी है, क्योंकि
स्थिति साल-दर-साल सुधरने की बजाय लगातार खराब ही होती जा रही है। 2007 में किये गये
ऐसे सर्वे में 25 फीसदी, जबकि 2012 में 21 फीसदी एमबीए
डिग्रीधारियों को नौकरी देने के काबिल माना गया था।
नियामक संस्थाओं और केंद्र सरकार का
सारा ध्यान सिर्फ कुछ सरकारी संस्थानों पर ही रहता है । जबकि देश भर के 90 प्रतिशत युवा निजी विश्वविद्यालयों
और संस्थानों से शिक्षा लेकर निकलते है और सीधी सी बात है अगर इन 90
प्रतिशत छात्रों पर कोई संकट होगा तो वो पूरे देश की अर्थव्यवस्था के साथ
साथ सामाजिक स्तिथि को भी नुकसान पहुंचाएगा । सिर्फ आईआईटी और आईआईएम की बदौलत विकसित भारत का सपना
साकार नहीं हो सकता ।
कौशल विकास की
जरुरत
असल में हमनें यह बात समझनें में बहुत
देर कर दी की अकादमिक शिक्षा की तरह ही
बाजार की मांग के मुताबिक उच्च गुणवत्ता वाली स्किल की शिक्षा देनी भी जरूरी है।
एशिया की आर्थिक महाशिक्त दक्षिण कोरिया ने स्किल डेवलपमेंट के मामले में चमत्कार
कर दिखाया है और उसके चौंधिया देने वाले विकास के पीछे स्किल डेवलपमेंट का सबसे
महत्वपूर्ण योगदान है। इस मामले में उसने जर्मनी को भी पीछे छोड़ दिया है। 1950 में दक्षिण
कोरिया की विकास दर हमसे बेहतर नहीं थी। लेकिन इसके बादउसने स्किल विकास में निवेश
करना शुरू किया। यही वजह है कि 1980 तक वह भारी
उद्योगों का हब बन गया। उसके 95 प्रतिशत
मजदूर स्किल्ड हैं या वोकेशनलीट्रेंड हैं, जबकि भारत में यह आंक़डा तीन प्रतिशत
है। ऐसी हालत में भारत कैसे आर्थिक महाशिक्त बन सकता है ?
देश में इंजीनियरिंग और प्रबंधन कॉलेज
लगातार बढ़े लेकिन उनकी गुणवत्ता नही बढीं , न ही इंडस्ट्री की बदलती जरूरतों के
मुताबिक उनका पाठ्यक्रम अपग्रेड किया गया । हमें यह बात अच्छी तरह से समझनी होगी
की “”स्किल इंडिया”” के बिना “”मेक इन इंडिया”” का सपना भी
नहीं पूरा हो सकता । इसलिए इस दिशा में अब ठोस और समयबद्ध प्रयास करनें होंगे। इतनी
बड़ी युवा आबादी से अधिकतम लाभ लेने के लिए भारत को उन्हें स्किल बनाना ही होगा
जिससे युवाओं को रोजगार व आमदनी के पर्याप्त अवसर मिल सकें । सीधी सी बात है जब
छात्र स्किल्ड होगें तो उन्हें रोजगार मिलेगा तभी उच्च और तकनीकी शिक्षा में
व्याप्त मौजूदा संकट दूर हो पायेगा ।
मांग और
पूर्ति में संतुलन बनाना जरूरी
आज यूजीसी और एआइसीटीइ से यह सवाल
पूछा जाना चाहिए कि क्या उनके पास प्रबंधन और इंजीनियरिंग डिग्रीधारियों की
वर्तमान और भावी मांग के संबंध में कोई तथ्यपरक व विश्वसनीय आंकड़ा है?
क्या भविष्य में नये संस्थान, कॉलेज व
यूनिवर्सिटियां खोलते समय में यह ध्यान में रखा जायेगा कि एमबीए, इंजीनियरिंग, फार्मेसी, मेडिकल और
डेंटल शिक्षा के कोर्सों की मांग और पूर्ति में संतुलन बना रहे? इसका विश्लेषण
केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय और
देश की प्रमुख नियामक संस्थाओ को ठीक ढंग से करना पड़ेगा क्योंकि देश में उच्च
शिक्षा को लेकर जो मौजूदा संकट है उसका एक प्रमुख कारण नियामक संथाओं का प्रभावी
ढंग से काम न कर पाना भी है । अगर इन्होने शुरुआत में ही उच्च शिक्षा की गुणवत्ता
सुनिश्चित की होती तो आज देश उच्च शिक्षा के संकट को नही झेल रहा होता।
(लेखक शशांक द्विवेदी राजस्थान के मेवाड़ यूनिवर्सिटी में डिप्टी डायरेक्टर हैं और टेक्निकल टूडे पत्रिका के संपादक हैं)
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