शशांक द्विवेदी
डिप्टी डायरेक्टर
(रिसर्च), मेवाड़ यूनिवर्सिटी
पेरिस शिखर वार्ता के पहले प्रधानमंत्री
मोदी ने जलवायु परिवर्तन को दुनियाँ के लिए सबसे बड़ी चुनौती माना है और उन्होंने
साफ़-सुथरी ऊर्जा के इस्तेमाल के लिए जो एक आक्रामक रूख दिखाया है । जलवायु
परिवर्तन के मुद्दे पर शुरू से भारत का स्पष्ट रुख रहा है कि कार्बन उत्सर्जन के
मामले में विकसित देश अपनी जिम्मेदारी ठीक से निभाए और सभी देश विकास को नुकसान
पहुंचाए बिना जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ पक्के इरादे के साथ काम करें । इसी क्रम में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर भारत ने कार्बन उत्सर्जन में 33 से 35 फीसदी तक कटौती का स्पष्ट एलान कर दिया
जो कि एक बड़ा कदम है । यह कटौती साल 2005 को आधार मान कर की जाएगी। इमिशन
इंटेसिटी कार्बन उत्सर्जन की वह मात्रा है जो 1 डॉलर कीमत के उत्पाद को बनाने में होती है। सरकार ने यह भी फैसला किया है कि 2030 तक होने वाले कुल बिजली उत्पादन में
40 फीसदी हिस्सा कार्बनरहित ईंधन से
होगा। यानी, भारत
साफ सुथरी ऊर्जा (बिजली) के लिए बड़ा कदम उठाने जा रहा है। भारत पहले ही कह चुका है
कि वह 2022
तक वह 1 लाख 75 हजार मेगावाट बिजली सौर और पवन ऊर्जा से बनाएगा। वातावरण
में फैले ढाई से तीन खरब टन कार्बन को सोखने के लिए अतिरिक्त जंगल लगाए जाएंगे।
भारत ने यह भी साफ कर दिया है कि वह सेक्टर आधारित (जिसमें कृषि भी शामिल है) लिटिगेशन प्लान के लिए बाध्य नहीं है। इस साल के अंत में जलवायु परिवर्तन पर शिखर सम्मेलन फ्रांस की राजधानी पेरिस में हो रहा है। अमेरिका, चीन, यूरोपियन यूनियन जैसे देशों ने पहले ही अपने रोडमैप की घोषणा कर दी है। भारत का रोडमैप इन देशों के मुकाबले ज्यादा प्रभावी दिखता है।
भारत ने यह भी साफ कर दिया है कि वह सेक्टर आधारित (जिसमें कृषि भी शामिल है) लिटिगेशन प्लान के लिए बाध्य नहीं है। इस साल के अंत में जलवायु परिवर्तन पर शिखर सम्मेलन फ्रांस की राजधानी पेरिस में हो रहा है। अमेरिका, चीन, यूरोपियन यूनियन जैसे देशों ने पहले ही अपने रोडमैप की घोषणा कर दी है। भारत का रोडमैप इन देशों के मुकाबले ज्यादा प्रभावी दिखता है।
पिछले दिनों अपनी अमेरिका की यात्रा के दौरान
प्रधानमंत्री मोदी ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री और फ्रांस के राष्ट्रपति से भी
मिलकर जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर भारत द्वारा सकारात्मक भूमिका निभाने के लिए
अपनी प्रतिबद्धता दिखाई । प्रधानमंत्री
मोदी ने तीनों ही राष्ट्राध्यक्षों से कहा कि भारत इस मामले की अगुवाई करने को
तैयार है। विश्लेषकों
का कहना है इस साल के आख़िर में पेरिस में होने वाले जलवायु सम्मेलन से पहले
राष्ट्रपति ओबामा इस मुद्दे पर एकमत कायम करने की कोशिश कर रहे हैं। और अगर भारत इस मुहिम में उनके साथ आता है
तो जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए एक बड़े समझौते की उम्मीद बनती है। न्यूयॉर्क में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मुलाक़ात के बाद अमरीकी
राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था कि जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ जंग में आनेवाले
कई दशकों तक भारत के नेतृत्व की बेहद अहम भूमिका होगी।
विकासशील देश पर्यावरण के दुश्मन नहीं हैं
जलवायु परिवर्तन पर
पेरिस शिखर सम्मेलन से पहले प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी ने विकसित देशों से साफ तौर पर कहा कि विकासशील देश पर्यावरण के
दुश्मन नहीं हैं। उन्होंने इस मनोवृत्ति को
बदलने पर जोर दिया कि विकास और प्रगति पारिस्थितिकी के प्रतिकूल हैं। प्रधानमंत्री ने सलाह दी कि विश्वभर में विकसित
और विकासशील, दोनों तरह के देशों में पर्यावरण विषयों पर समान स्कूली पाठ्यक्रम होना चाहिए
ताकि युवा पीढ़ी जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में समान लक्ष्यों के साथ आगे बढ़
सके। मोदी ने यह बात समान विचारों वाले विकासशील देशों के प्रतिनिधिमंडलों के
प्रमुखों के साथ चर्चा करते हुए कही, जो पेरिस में इस साल के अंत में जलवायु परिवर्तन पर
होने वाले सम्मेलन की तैयारियों के संदर्भ में यहां एक बैठक के लिए आए थे । पीएम मोदी
ने कहा कि विश्व, जो अब जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से अच्छी तरह अवगत है को जलवायु न्याय के
सिद्धांत के बारे में अवगत होना चाहिए। मोदी ने प्रतिनिधियों से कहा कि कुछ खास
समूहों द्वारा, विकासशील देशों में भी,
निर्मित इस माहौल का मुकाबला किए जाने की आवश्यकता है कि विकास और प्रगति
पर्यावरण के दुश्मन हैं और इसलिए विकास और प्रगति पर चलने वाले सभी लोग दोषी हैं।
उन्होंने कहा कि विश्व को यह मानने की जरूरत है कि विकासशील देश पर्यावरण के
दुश्मन नहीं हैं। प्रधानमंत्री ने इस बात पर भी जोर दिया कि विकसित देश स्वच्छ
प्रौद्योगिकी साझा करने के संबंध में अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करें और जलवायु
परिवर्तन से लड़ने के लिए विकासशील दुनिया की मदद करें। उन्होंने ऊर्जा खपत घटाने
के लिए जीवनशैली में बदलाव का आह्वान किया।
फिलहाल जलवायु
परिवर्तन के मुद्दे पर विकसित और विकासशील देशों के बीच मतभेद साफ़ नजर आ रहा है । लेकिन
अधिकांश देश मोटे तौर पर इस बात से सहमत है कि सभी देशों को कार्बन उत्सर्जन पर
अंकुश लगाने के लिए काम करना चाहिए। कार्बन
उत्सर्जन को ही लू,
बाढ़, सूखा और समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी का कारण माना जा रहा है । क्योटो
प्रोटोकाल के अंतर्गत केवल सर्वाधिक विकसित देशों को ही अपना उत्सर्जन कम करना था
और यह एक मुख्य कारण था कि अमेरिका ने इसे स्वीकार करने से इन्कार कर दिया
था।अमेरिका कहना था कि चीन और भारत जैसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था वाले देश हर
हाल में इसका हिस्सा बनें। विकासशील देशों का यह तर्क सही है कि जब वैश्विक भूमंडलीय तापवृद्धि (ग्लोबल
वार्मिग) में ऐतिहासिक रूप से उनका योगदान पश्चिम के औद्योगिक-विकसित देशों की
तुलना में न के बराबर है,
तो उन पर इसे कम करने की समान जवाबदेही कैसे डाली जा सकती है? जबकि लीमा में क्योटो प्रोटोकोल से उलट धनी देश सबकुछ सभी पर
लागू करना चाहते थे , खासकर उभरते हुए विकासशील देशों पर ।
कार्बन उत्सर्जन न रुका तो नहीं बचेगी दुनिया
पिछले दिनों संयुक्त
राष्ट्र समर्थित इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने चेतावनी देते
हुए कहा कि कार्बन उत्सर्जन न रुका तो नहीं बचेगी दुनिया । दुनिया को खतरनाक
जलवायु परिवर्तनों से बचाना है तो जीवाश्म ईंधन के अंधाधुंध इस्तेमाल को जल्द ही
रोकना होगा । आईपीसीसी ने कहा है कि साल 2050 तक दुनिया की ज्यादातर बिजली का उत्पादन लो-कार्बन
स्रोतों से करना जरूरी है और ऐसा किया जा सकता है । इसके बाद बगैर कार्बन कैप्चर
एंड स्टोरेज (सीसीएस) के जीवाश्म ईंधन का 2100 तक पूरी तरह इस्तेमाल बंद कर देना चाहिए । संयुक्त
राष्ट्र के महासचिव ने कहा,
विज्ञान ने अपनी बात रख दी है । इसमें कोई संदेह नहीं है. अब नेताओं को
कार्रवाई करनी चाहिए । हमारे पास बहुत समय नहीं है । संयुक्त राष्ट्र के महासचिव
ने कहा कि , जैसा कि आप अपने बच्चे को बुखार होने पर करते हैं, सबसे पहले हमें तापमान घटाने की जरूरत है. इसके लिए तुरंत और बड़े पैमाने पर
कार्रवाई किए जाने की जरूरत है ।
शिखर सम्मेलनों के अधूरे लक्ष्य
1992 में रियो डि जेनेरियो में अर्थ समिट यानी पृथ्वी
सम्मेलन से लेकर लीमा तक के शिखर
सम्मेलनों के लक्ष्य अभी भी अधूरे हैं। आज आपसी विवादों के समाधान की जरूरत है।
कटु सच्चाई यह है कि जब तक विश्व अपने गहरे मतभेदों को नहीं सुलझा लेता तब तक कोई
भी वैश्विक कार्रवाई कमजोर और बेमानी सिद्ध होगी। आज जरुरत है ठोस समाधान की ,इसके लिए एक निश्चित समय सीमा में लक्ष्य तय होने चाहिए ।
पिछले 13 महीनों के दौरान प्रकाशित आईपीसीसी की तीन रिपोर्टों में जलवायु परिवर्तन की
वजहें, प्रभाव और संभावित हल का खाका रखा गया है । इस संकलन में इन तीनों को एक साथ
पेश किया गया है कि ताकि 2015 के अंत तक जलवायु परिवर्तन पर पर एक नई वैश्विक संधि करने की कोशिशों में लगे
राजनेताओं को जानकारी दी जा सके । हर वर्ष विश्व में पर्यावरण सम्मेलन होते है पर
आज तक इनका कोई ठोस निष्कर्ष नही निकला है । जबकि दिलचस्प है कि दुनिया की 15 फीसदी आबादी वाले देश दुनिया के 40 फीसदी प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग कर रहे है।
पिछले 2 दशक में पर्यावरण संरक्षण को लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 20
जलवायु सम्मेलन हो चुके है लेकिन अब तक कोई ठोस
नतीजा नहीं निकला । लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए की पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन पर
इस साल के अंत में पेरिस में होने वाली
शिखर बैठक में कुछ ठोस नतीजे सामने आये जिससे पूरी दुनियाँ को राहत मिल सके ।