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Wednesday, 21 October 2015

जलवायु परिवर्तन पर पेरिस शिखर सम्मलेन के पहले की कवायद

शशांक द्विवेदी
डिप्टी डायरेक्टर (रिसर्च), मेवाड़ यूनिवर्सिटी  
पेरिस शिखर वार्ता के पहले प्रधानमंत्री मोदी ने जलवायु परिवर्तन को दुनियाँ के लिए सबसे बड़ी चुनौती माना है और उन्होंने साफ़-सुथरी ऊर्जा के इस्तेमाल के लिए जो एक आक्रामक रूख दिखाया है । जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर शुरू से भारत का स्पष्ट रुख रहा है कि कार्बन उत्सर्जन के मामले में विकसित देश अपनी जिम्मेदारी ठीक से निभाए और सभी देश विकास को नुकसान पहुंचाए बिना जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ पक्के इरादे के साथ काम करें । इसी क्रम में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर भारत ने कार्बन उत्सर्जन में 33 से 35 फीसदी तक कटौती का स्पष्ट एलान कर दिया जो कि एक बड़ा कदम है  यह कटौती साल 2005 को आधार मान कर की जाएगी। इमिशन इंटेसिटी कार्बन उत्सर्जन की वह मात्रा है जो 1 डॉलर कीमत के उत्पाद को बनाने में होती है। सरकार ने यह भी फैसला किया है कि 2030 तक होने वाले कुल बिजली उत्पादन में 40 फीसदी हिस्सा कार्बनरहित ईंधन से होगा। यानी, भारत साफ सुथरी ऊर्जा (बिजली) के लिए बड़ा कदम उठाने जा रहा है। भारत पहले ही कह चुका है कि वह 2022 तक वह 1 लाख 75 हजार मेगावाट बिजली सौर और पवन ऊर्जा से बनाएगा। वातावरण में फैले ढाई से तीन खरब टन कार्बन को सोखने के लिए अतिरिक्त जंगल लगाए जाएंगे।
भारत ने यह भी साफ कर दिया है कि वह सेक्टर आधारित (जिसमें कृषि भी शामिल है) लिटिगेशन प्लान के लिए बाध्य नहीं है। इस साल के अंत में जलवायु परिवर्तन पर शिखर सम्मेलन फ्रांस की राजधानी पेरिस में हो रहा है। अमेरिका, चीन, यूरोपियन यूनियन जैसे देशों ने पहले ही अपने रोडमैप की घोषणा कर दी है। भारत का रोडमैप इन देशों के मुकाबले ज्यादा प्रभावी दिखता है।
पिछले दिनों अपनी अमेरिका की यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री और फ्रांस के राष्ट्रपति से भी मिलकर जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर भारत द्वारा सकारात्मक भूमिका निभाने के लिए अपनी प्रतिबद्धता दिखाई प्रधानमंत्री मोदी ने तीनों ही राष्ट्राध्यक्षों से कहा कि भारत इस मामले की अगुवाई करने को तैयार हैविश्लेषकों का कहना है इस साल के आख़िर में पेरिस में होने वाले जलवायु सम्मेलन से पहले राष्ट्रपति ओबामा इस मुद्दे पर एकमत कायम करने की कोशिश कर रहे हैंऔर अगर भारत इस मुहिम में उनके साथ आता है तो जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए एक बड़े समझौते की उम्मीद बनती हैन्यूयॉर्क में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मुलाक़ात के बाद अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था कि जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ जंग में आनेवाले कई दशकों तक भारत के नेतृत्व की बेहद अहम भूमिका होगी
विकासशील देश पर्यावरण के दुश्मन नहीं हैं 
जलवायु परिवर्तन पर पेरिस शिखर  सम्मेलन से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विकसित देशों से साफ तौर पर कहा कि विकासशील देश पर्यावरण के दुश्मन नहीं हैं। उन्होंने इस मनोवृत्ति को  बदलने पर जोर दिया कि विकास और प्रगति पारिस्थितिकी के प्रतिकूल हैं।  प्रधानमंत्री ने सलाह दी कि विश्वभर में विकसित और विकासशील, दोनों तरह के देशों में पर्यावरण विषयों पर समान स्कूली पाठ्यक्रम होना चाहिए ताकि युवा पीढ़ी जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में समान लक्ष्यों के साथ आगे बढ़ सके। मोदी ने यह बात समान विचारों वाले विकासशील देशों के प्रतिनिधिमंडलों के प्रमुखों के साथ चर्चा करते हुए कही, जो पेरिस में इस साल के अंत में जलवायु परिवर्तन पर होने वाले सम्मेलन की तैयारियों के संदर्भ में यहां एक बैठक के लिए आए थे । पीएम मोदी ने कहा कि विश्व, जो अब जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से अच्छी तरह अवगत है को जलवायु न्याय के सिद्धांत के बारे में अवगत होना चाहिए। मोदी ने प्रतिनिधियों से कहा कि कुछ खास समूहों द्वारा, विकासशील देशों में भी, निर्मित इस माहौल का मुकाबला किए जाने की आवश्यकता है कि विकास और प्रगति पर्यावरण के दुश्मन हैं और इसलिए विकास और प्रगति पर चलने वाले सभी लोग दोषी हैं। उन्होंने कहा कि विश्व को यह मानने की जरूरत है कि विकासशील देश पर्यावरण के दुश्मन नहीं हैं। प्रधानमंत्री ने इस बात पर भी जोर दिया कि विकसित देश स्वच्छ प्रौद्योगिकी साझा करने के संबंध में अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करें और जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए विकासशील दुनिया की मदद करें। उन्होंने ऊर्जा खपत घटाने के लिए जीवनशैली में बदलाव का आह्वान किया।
फिलहाल जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर विकसित और विकासशील देशों के बीच मतभेद साफ़ नजर आ रहा है । लेकिन अधिकांश देश मोटे तौर पर इस बात से सहमत है कि सभी देशों को कार्बन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिए काम करना चाहिए। कार्बन  उत्सर्जन को ही लू, बाढ़, सूखा और समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी का कारण माना जा रहा है । क्योटो प्रोटोकाल के अंतर्गत केवल सर्वाधिक विकसित देशों को ही अपना उत्सर्जन कम करना था और यह एक मुख्य कारण था कि अमेरिका ने इसे स्वीकार करने से इन्कार कर दिया था।अमेरिका कहना था कि चीन और भारत जैसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था वाले देश हर हाल में इसका हिस्सा बनें। विकासशील देशों का यह तर्क सही  है कि जब वैश्विक भूमंडलीय तापवृद्धि (ग्लोबल वार्मिग) में ऐतिहासिक रूप से उनका योगदान पश्चिम के औद्योगिक-विकसित देशों की तुलना में न के बराबर है, तो उन पर इसे कम करने की समान जवाबदेही कैसे डाली जा सकती है? जबकि  लीमा में  क्योटो प्रोटोकोल से उलट धनी देश सबकुछ सभी पर लागू करना चाहते थे , खासकर उभरते हुए विकासशील देशों पर ।
कार्बन उत्सर्जन न रुका तो नहीं बचेगी दुनिया
पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र समर्थित इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने चेतावनी देते हुए कहा कि कार्बन उत्सर्जन न रुका तो नहीं बचेगी दुनिया । दुनिया को खतरनाक जलवायु परिवर्तनों से बचाना है तो जीवाश्म ईंधन के अंधाधुंध इस्तेमाल को जल्द ही रोकना होगा । आईपीसीसी ने कहा है कि साल 2050 तक दुनिया की ज्यादातर बिजली का उत्पादन लो-कार्बन स्रोतों से करना जरूरी है और ऐसा किया जा सकता है । इसके बाद बगैर कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (सीसीएस) के जीवाश्म ईंधन का 2100 तक पूरी तरह इस्तेमाल बंद कर देना चाहिए । संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने कहा, विज्ञान ने अपनी बात रख दी है । इसमें कोई संदेह नहीं है. अब नेताओं को कार्रवाई करनी चाहिए । हमारे पास बहुत समय नहीं है । संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने कहा कि , जैसा कि आप अपने बच्चे को बुखार होने पर करते हैं, सबसे पहले हमें तापमान घटाने की जरूरत है. इसके लिए तुरंत और बड़े पैमाने पर कार्रवाई किए जाने की जरूरत है ।
शिखर सम्मेलनों के अधूरे लक्ष्य
1992 में रियो डि जेनेरियो में अर्थ समिट यानी पृथ्वी सम्मेलन  से लेकर लीमा तक के शिखर सम्मेलनों के लक्ष्य अभी भी अधूरे हैं। आज आपसी विवादों के समाधान की जरूरत है। कटु सच्चाई यह है कि जब तक विश्व अपने गहरे मतभेदों को नहीं सुलझा लेता तब तक कोई भी वैश्विक कार्रवाई कमजोर और बेमानी सिद्ध होगी। आज जरुरत है ठोस समाधान की ,इसके लिए एक निश्चित समय सीमा में लक्ष्य तय होने चाहिए ।

पिछले 13 महीनों के दौरान प्रकाशित आईपीसीसी की तीन रिपोर्टों में जलवायु परिवर्तन की वजहें, प्रभाव और संभावित हल का खाका रखा गया है । इस संकलन में इन तीनों को एक साथ पेश किया गया है कि ताकि 2015 के अंत तक जलवायु परिवर्तन पर पर एक नई वैश्विक संधि करने की कोशिशों में लगे राजनेताओं को जानकारी दी जा सके । हर वर्ष विश्व में पर्यावरण सम्मेलन होते है पर आज तक इनका कोई ठोस निष्कर्ष नही निकला है । जबकि दिलचस्प है कि दुनिया की 15 फीसदी आबादी वाले देश दुनिया के 40 फीसदी प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग कर रहे है। पिछले 2 दशक में पर्यावरण संरक्षण को लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 20  जलवायु सम्मेलन हो चुके है लेकिन अब तक कोई ठोस नतीजा नहीं निकला । लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए की पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन पर इस साल के अंत में  पेरिस में होने वाली शिखर बैठक में कुछ ठोस नतीजे सामने आये जिससे पूरी दुनियाँ को राहत मिल सके ।

Monday, 24 August 2015

प्रदूषण रोकने के लिए प्लास्टिक के घर

प्लास्टिक की बोतलों से बना एक घर? सुनने में अजीब सा लग सकता है लेकिन पहली बार वह अफ्रीका में ही दिख रहा है. विचार जर्मनी के आंद्रेयास फ्रोएजे का है जो प्लास्टिक से होने वाली पर्यावरण समस्या को दूर करना चाहते हैं.
दुनिया में उपयोग में आने वाला 80 फीसदी प्लास्टिक बहकर समुद्र में पहुंच जाता है. वह दुनिया का सबसे बड़ा कूड़ा भंडार हो गया है. प्लास्टिक की बोतलों को गलकर समाप्त होने में सैकड़ों साल लगते हैं. लेकिन आंद्रेयास फ्रोएजे का कहना है कि बेकार सा लगता यह कूड़ा मूल्यवान संसाधन हो सकता है. रास्ता एकदम आसान है और प्रभावी भी. प्लास्टिक की खाली बोतलों को बालू या राख से भरकर एक दूसरे के ऊपर जमा कर दिया जाता है और फिर गारे से चुन दिया जाता है. इस ढांचे को नाइलोन की रस्सी से पक्का किया जाता है ताकि वह गिरे नहीं. आंद्रेयास फ्रोएजे प्रशिक्षित राजमिस्त्री हैं और इस तरह से वह पर्यावरण की रक्षा करना चाहते हैं. साथ ही गरीबी में रहने वाले लोगों को घर में रहने की संभावना देना चाहते हैं.
अब तक 50
इस उद्देश्य से दस साल पहले फ्रोएजे ने होंडुरास में इको-टेक नाम की एक कंपनी बनाई. इस बीच इस कंपनी ने दुनिया भर में प्लास्टिक के करीब 50 मकान बनाए हैं. वे 7.3 की तीव्रता वाले भूकंप को भी झेलने में सफल रहे हैं. लेकिन अभी भी जब फ्रोएजे अपनी योजना पेश करते हैं तो उस पर लोगों की प्रतिक्रिया संयमित होती है.
फ्रोएजे कहते हैं, "शुरू में उत्साह से ज्यादा संशय होता है. लेकिन चूंकि यह कल्पना से परे है, इसलिए आकर्षक भी है." फ्रोएजे का कहना है कि प्लास्टिक की बोतल सामान्य ईंट से ज्यादा बोझ और धक्का सह सकती है.
एक साल पहले फ्रोएजे ने इस योजना को अफ्रीका ले जाने का फैसला किया. उगांडा में उन्होंने पानी का एक टैंक बनाया और नाइजीरिया में अक्षय उर्जा संस्थान डेयर के साथ एक परियोजना शुरू की. कादूना में प्लास्टिक की बोतलों से अफ्रीका का पहला घर बन रहा है. इसके लिए हाल में ट्रेनिंग पाए मिस्त्रियों को बोतलें होटलों, दूतावासों और सामान्य घरों से मिल रही हैं. इन घरों में बिजली सौर ऊर्जा से मिलेगी, घर का अपनी जलनिकासी पद्धति होगी और पीने का पानी साफ करने की मशीन भी होगी.
युवाओं का साथ
इस परियोजना का एक महत्वपूर्ण पहलू युवा लोगों का प्रशिक्षण है. डेयर संस्था के प्रमुख याह्या अहमद का कहना है कि युवा बेरोजगारी नाइजीरिया की एक बड़ी समस्या है, वह टिक टिक करता टाइम बम है. युवा लोग सरकार से निराश और असंतुष्ट हैं. स्कूल पास करना नौकरी की गारंटी नहीं है. लेकिन इस परियोजना की वजह से युवाओं को हिंसा से दूर रखने में मदद मिल रही है. याह्या अहमद कहते हैं, "हाल की हिंसक घटनाओं में हमारा कोई युवा शामिल नहीं था. लेकिन पहले वे सब उधमी रह चुके हैं. इसलिए यह एक सफलता है." संस्था का दूरगामी इरादा एक प्रशिक्षण केंद्र बनाने का है. प्लास्टिक के घरों के निर्माण के दौरान किशोरों को प्रशिक्षण दिया जाता है. अब तक इस परियोजना में 90 लोगों को काम मिला है, जिनके पास पहले न तो कोई काम था और न ही कोई ट्रेनिंग मिली थी. जनवरी में ये लोग एक स्कूल की इमारत बनाएंगे और साथ ही छात्रों को बोतलें भरने की ट्रेनिंग देंगे. इस परियोजना में भाग ले रहा एक किशोर कहता है, "मैं कभी नहीं सोचा था कि मैं इस तरह का काम कर सकता हूं. अब मुझे गर्व है कि अफ्रीका के कुछेक लोगों में हूं जिसे यह तकनीक आती है और मैं इसे दूसरों को बताऊंगा."

प्लास्टिक से घर बनाना ईंट गारे के मकान से सस्ता भी है. नाइजीरिया में एक ईंट की कीमत उतनी है जितनी एक आम मजदूर दिन भर में कमाता है. लेकिन इस तरह की परियोजनाओं के लिए धन जुटाना आसान नहीं. इको टेक की सफलता के बावजूद परियोजनाओं के लिए स्पॉन्सर पाना मुश्किल है. आमतौर पर गैर सरकारी कंपनियां और छोटी ग्राम पालिकाएं इसके लिए मदद देती हैं. याह्या अहमद को उम्मीद है कि पर्यावरण और विकास के लिए इसके महत्व को देखते हुए जल्द ही नाइजीरिया की सरकार भी मदद के लिए सामने आएगी.

Tuesday, 22 April 2014

जलवायु परिवर्तन की वजह से भारत में खाद्यान संकट

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट
पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन के लिये बने अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की नयी रिपोर्ट ने दुनिया भर में चेतावनी की घंटी बजा दी है। इस रिपोर्ट को
जापान में जारी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पहले से ही सभी महाद्वीपों और महासागरों में विस्तृत रुप ले चुका है। रिपोर्ट के अनुसार जलवायु गड़बड़ी के कारण एशिया को बाढ़, गर्मी के कारण मृत्यु, सूखा तथा पानी से संबंधित खाद्य की कमी का सामना करना पड़ सकता है। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले भारत जैसे देश जो मानसून पर ही निर्भर हैं के लिये यह काफी खतरनाक हो सकता है। रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन की वजह से दक्षिण एशिया में गेंहू की पैदावार पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। वैश्विक खाद्य उत्पादन धीरे-धीरे घट रहा है। एशिया में तटीय और शहरी इलाकों में बाढ़ की वृद्धि से बुनियादी ढाँचे, आजीविका और बस्तियों को काफी नुकसान हो सकता है। ऐसे में मुंबई, कोलकाता, ढाका जैसे शहरों पर खतरे की संभावना बढ़ सकती है। जलवायु परिवर्तन से खतरे वास्तविक हैं, इस बात को आईपीसीसी कार्य समूह दो के रिपोर्ट में स्पष्ट किया गया है। जलवायु परिवर्तन 2014: प्रभाव, अनुकूलन और जोखिमशीर्षक से जारी इस रिपोर्ट में  रिपोर्ट जारी किया गया है। इस रिपोर्ट के आने के बाद अब यह स्पष्ट है कि कोयला और उच्च कार्बन उत्सर्जन से भारत के विकास और अर्थव्यवस्था पर धीरे-धीरे खराब प्रभाव पड़ेगा और देश में जीवन स्तर सुधारने में प्राप्त उपलब्धियां नकार दी जायेंगी। हाल ही में महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में करीब 12 लाख हेक्टेयर में हुये ओला वृष्टि से गेहू, कॉटन, ज्वार, प्याज जैसे फसल खराब हो गये थे। ये घटनाएँ भी आईपीसीसी की अनियमित वर्षा पैटर्न को लेकर किए गये भविष्यवाणी की तरफ ही इशारा कर रहे हैं।
आईपीसीसी ने इससे पहले भी समग्र वर्षा में कमी तथा चरम मौसम की घटनाओं में वृद्धि की भविष्यवाणी की थी। इस रिपोर्ट में भी गेहूं के उपर खराब प्रभाव पड़ने की भविष्यवाणी की गयी है। इसलिये भारत सरकार को इस समस्या से उबरने के लिये सकारात्मक कदम उठाने होंगे।
नयी सरकार को तुरंत ही इस पर कार्रवायी करते हुये स्वच्छ ऊर्जा संक्रमण से जुड़ी योजनाओं को लाना चाहिए
आपीसीसी रिपोर्ट में पाया गया है कि जलवायु परिवर्तन आदमी की सुरक्षा के लिये खतरा है क्योंकि इससे खराब हुये भोजन-पानी का खतरा बढ़ जाता है जिससे अप्रत्यक्ष रूप से विस्थापन और हिंसक संघर्ष का जोखिम बढ़ता है।
तेल रिसाव और कोयला आधारित पावर प्लांट,सामूहिक विनाश के हथियार हैं। इनसे खतरनाक कार्बन उत्सर्जन का खतरा होता है। हमारी शांति और सुरक्षा के लिये हमें इन्हें हटा कर अक्षय ऊर्जा की तरफ कदम बढ़ाना अब हमारी जरुरत और मजबूरी दोनों बन गया है .
पिछले कुछ सालों पर्यवारण संबंधी इस तरह की रिपोर्ट और चेतावनी आने के बावजूद पर्यावरण का मुद्दा हमारे देश के राजनीतिक दलों के एजेंडे में शामिल ही नहीं है.
देश में लोकसभा के चुनाव चल रहें है लेकिन अधिकांश राजनीतिक दलों ने अपने घोषणापत्र में पर्यावरण संबंधी किसी भी मुद्दे को जगह देना जरूरी नहीं समझा .देश में हर जगह ,हर तरफ हर पार्टी विकास की बातें करती है लेकिन ऐसे विकास का क्या फायदा जो लगातार विनाश को आमंत्रित करता है .ऐसे विकास को क्या कहें जिसकी वजह से सम्पूर्ण मानवता का अस्तित्व ही खतरे में पढ़ गया हो . ग्रीनपीस इंडिया ने भारतीय नेताओं से रिपोर्ट में दिये गये चेतावनी पर ध्यान देने की मांग की है। उसने कहा है कि नयी सरकार सितंबर में संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून के साथ आयोजित जलवायु सम्मेलन में गंभीर प्रस्तावों के साथ भाग ले जो दुनिया और भारत को स्वच्छ तथा सुरक्षित ऊर्जा के लक्ष्य को प्राप्त करने में मदद करे।

कुछ ही दिनों में भारत फिर से वोट डालने वाला है और नयी सरकार भी जलवायु परिवर्तन से भारत को होने वाले जोखिम से बेखबर नहीं हो सकता है

की इस   गयी 

Thursday, 3 October 2013

पर्यावरण की औद्योगिक संभावनाओं की तलाश

अनिल पी जोशी, पर्यावरणविद
दुनिया के विकास की बढ़ती गति का पीछा बिगड़ता पर्यावरण भी कर रहा है। यह भी नहीं भूलना चाहिये कि फिलहाल दुनिया का ऐसा कोई भी देश नही है जो आपदा और बिगड़ते पर्यावरण की मार न झेल रहा हो। पिछले दो वर्षों की ही जानकारी उठा ली जाए तो चाहे वे चीन हो या अमेरिका या फिर जापान सब ही ने किसी न किसी रूप में आपदाओं को झेला है। हाल ही में भारत के उत्तराखंड व अमेरिका के कोलरोडो ने अत्यधिकरूप में बाढ़ के प्रकोप को झेला है। इस सबके बावजूद हम अभी भी यह मानने को तैयार नहीं कि तमाम आपदाएं हमारी ही करतूतों का परिणाम हैं। यही वजह है कि विकास की वर्तमान शैली कभी बदलने वाली नहीं है।

इस समय हमारी सबसे बड़ी चुनौती पर्यावरण के उन विभिन्न घटको की वापसी है जिन्हें हम खो चुके हैं। इसका एक ही रास्ता दिखता है कि पारिस्थितिकी विकास को भी रोजगार का दर्जा दिया जाए। मसलन जगंल, पानी, मिट्टी, हवा को भी औद्योगिक उत्पाद की तरह ही देखें। जब मिनरल वाटर व रसायनिक खाद औद्योगिक उत्पाद हो सकते है तो प्राकृतिक घटकों के संरक्षण व उत्पादों को भी उद्योग समझने में ही हमारा भला होगा। मसलन जहां खेती नहीं होती वहां हम वन लगाकर, वनों को बनाए रखते हुए उसके उत्पादों के कारोबार को प्रोत्साहित किया जा सकता है। मनरेगा जैसी योजना पर्यावरण के हित में मील का पत्थर साबित हो सकती है।

वैसे भी मनरेगा गावों की सड़क, वन, पानी आदि की व्यवस्था में वर्तमान में भागीदारी कर रही है। इसी योजना के अंर्तगत वनीकरण जल, मिट्टी के संरक्षण आदि को लंबी अवधि के लिये जोड़ दिया जाए तो बेहतरी के आसार निश्चित रूप से बढ़ जाएंगे। इसी तरह मानसून का वो पानी जो हर साल बहकर चला जाता है उसे मनरेगा के जरिये जल खेती कर सरंक्षित किया जा सकता है। साथ ही इस जल के कारोबार का एक मॉडल भी तैयार हो सकता है। इसी तरह मिट्टी के सरक्षण आदि से भी यही किया जा सकता है और इससे रोजगार के नए तरह के अवसर भी पैदा होंगे। इसका महत्व इस तरह से भी समझा जा सकता है कि जब हम किसी वृक्ष का, जल का या मिट्टी का संरक्षण करते हैं तो एक तरह से राष्ट्र की संपत्ति का संरक्षण भी करते हैं, बल्कि उसमें वृद्धि ही करते हैं।

पर्यावरण के प्रति हमारी पिछली निष्ठुरताओं का बस अब यही एक रास्ता है। हम जब तक अपने पर्यावरण को रोजगार परक नहीं बनाएगें तब तक हमें सफलता नही मिलने वाली और कम से कम अब जब संसाधनो की कमी का आभास होने लगा है और बढ़ती बेरोजगारी भी हमें दुविधा में डाल रही है तो इन दोनो को जोड़कर हम रोजगार की नई जमीन तो बनाएंगे ही साथ ही देश के लिए नई संपदा का निर्माण भी करेंगे। आपदाओं से मुक्ति का रास्ता भी इसी से निकलेगा।

Sunday, 13 May 2012

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट पर सवाल



भारत में जो ग्रीन हाउस गैसें उत्सर्जित भी हो रही हैं तो वे अल्पकालिक असर वाली हैं, विकसित देशों की तरह वह दीर्घकालिक दुष्प्रभावों वाली नहीं।
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की एक रिपोर्ट की निष्पक्षता पर भारत सरकार ने सवाल खड़ा किया है। वन प्लानेट टू शेयर : सस्टेनिंग ह्यूमन प्रोगेस इन ए चेंजिंग क्लाइमेट नामक गुरुवार को प्रकाशित रिपोर्ट में एशिया-प्रशांत क्षेत्र के देशों को बढ़ती समृद्घि और कार्बन के बढ़ते उत्सर्जन में संतुलन बनाए रखने का सुझाव दिया गया है। रिपोर्ट का कहना है कि आर्थिक समृद्घि और बढ़ते उत्सर्जन में संतुलन बना पाने में इन देशों की कामयाबी या नाकामी का असर परोक्ष तौर पर दुनिया को भुगतना होगा। रिपोर्ट में कहा गया है कि करोड़ों लोगों को गरीबी से निकालने के लिए एशिया-प्रशांत क्षेत्र के देशों को आर्थिक प्रगति करते रहना चाहिए, लेकिन उन्हें जलवायु में आ रहे बदलावों के प्रति भी जिम्मेदार होना होगा। इसमें कड़े शब्दों में कहा गया है कि पहले विकास और फिर सफाई का विकल्प की अब गुंजाइश नहीं बची है। इस रिपोर्ट में भारत के तीन बड़े शहरों मुंबई, कोलकाता और बेंगलूर एशिया प्रशांत के दूसरे महानगरों के मुकाबले प्रदूषण स्तर को काबू में रखने को लेकर फिसड्डी साबित हुए हैं। इस रिपोर्ट में अपने इन चमकते शहरों की रेटिंग औसत से भी नीचे की दी गई है। रिपोर्ट में सिर्फ दिल्ली को ही "औसत" दर्जा हासिल हुआ है। गुरुवार को प्रकाशित इस रिपोर्ट में एशिया प्रशांत इलाके के २२ शहरों को ग्रीन रैंकिंग दी गई है। शहरों को औसत, औसत से नीचे और औसत से ऊपर की श्रेणी में रखा गया है। इस रैकिंग के लिए शहरों से हो रहे प्रति व्यक्ति कार्बन डाई ऑक्साइड गैस के उत्सर्जन के साथ ही ऊर्जा, परिवहन, जल, हवा की गुणवत्ता, जमीन का इस्तेमाल, इमारतें, कचरा, शौचालय सुविधा के साथ पर्यावरणीय समस्याएँ शामिल हैं। भारत सरकार का कहना है कि पूर्वाग्रहग्रस्त इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पहले साफ करो और फिर विकास करो। मंत्रालय को इसी पर आपत्ति है। मंत्रालय का कहना है कि भारत जैसे देशों में गरीबी हटाना और लोगों का जीवन स्तर सुधारना पहली प्राथमिकता है और इसी आधार पर यहाँ आर्थिक विकास कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। भारत में जो ग्रीन हाउस गैसें उत्सर्जित भी हो रही हैं, वे अल्पकालिक असर वाली हैं, विकसित देशों की तरह दीर्घकालिक दुष्प्रभावों वाली नहीं। पर्यावरण मंत्रालय का कहना है कि इस रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने उसकी आपत्तियों और सुझावों का ध्यान नहीं रखा है। यह रिपोर्ट विकसित देशों के नजरिए से तैयार की गई है। संयुक्त राष्ट्र और उससी जुड़ी पर्यावरण या मानव विकास के लिए काम कर रही संस्थाओं पर विकसित देशों के मानदंडों पर काम करने और नीतियाँ बनाने का आरोप पहले भी लगता रहा है। वैसे हमारे देश का खाया-अघाया तबका भी उन्हें ही सही मानता रहा है। देश में अभी भी गरीबों की हालत बहुत बेहतर नहीं है। उनकी हालत सुधारने के लिए बहुत कुछ किया जाना जरूरी है। चीन भी शायद इसी वजह से ऐसी रिपोर्टों को लगातार या तो नजरंदाज करता रहा है या फिर खारिज करता रहा है। अंतरराष्ट्रीय भूमिका के चलते भारत के लिए ऐसा कर पाना संभव नहीं है लेकिन उसे बात कहने और अपने गरीबों का हक वाजिब मौकों पर जताने का अधिकार है। 

Friday, 11 May 2012

खतरनाक है प्लास्टिक


एटम बम से अधिक खतरनाक है प्लास्टिक

आंध्र प्रदेश आधारित दो गैर-सरकारी संगठन द्वारा दायर जनहित याचिकाओं की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस जीएस सिंघवी और जस्टिस एसजे मुखोपाध्याय की बेंच ने देश में प्लास्टिक थैलियों के अनियंत्रित उपयोग और उनके निपटारे के तरीके पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि प्लास्टिक की थैलियां और अन्य सामान ङीलों, तालाबों, सीवेज सिस्टम आदि को अवरुद्ध कर रहे हैं। प्लास्टिक के सामानों के कारण भावी पीढ़ी के समक्ष एटम बम से बड़ा खतरा खड़ा हो गया है। जनहित याचिका में अदालत का ध्यान इस बात की ओर आकृष्ट किया गया था कि प्लास्टिक थैलियां के गैर-जिम्मेदाराना तरीके से निपटान का नतीजा है कि गायों के पेट से 30 से 60 किलो तक प्लास्टिक की थैलियां निकाली हैं। इन गैर सरकारी संगठनों ने अदालत से अनुरोध किया है कि उन नगर निगम क्षेत्रों में प्लास्टिक थैलियों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाए जाएं, जहां कचरा संग्रहण की त्वरित व्यवस्था नहीं है और कचरा निपटान की आधुनिक व्यवस्था नहीं रखते हैं। उनका कहना है कि यथाशीघ्र कचरा उठाने की व्यवस्था के अभाव में गाय और अन्य पशु कचरे के डिब्बों और कचरा घर में खाने की चीजों के साथ प्लास्टिक की थैलियां निगल जाते हैं। यद्यपि इन एनजीओ ने प्लास्टिक की थैलियों को लेकर खड़ी हो रही एक खास किस्म की समस्या की ओर अदालत का ध्यान आकृष्ट किया था, परंतु अदालत ने प्लास्टिक थैलियों के अंधाधुंध उपयोग से बढ़ रहे खतरे पर विचार किया।
अदालत का मानना है कि प्लास्टिक की थैलियों और प्लास्टिक के सामान के अनियंत्रित उपयोग के कारण प्रकृति, पर्यावरण, सम्पूर्ण मानव जाति और सभी जीव-जंतुओं के लिए भयंकर खतरा खड़ा हो रहा है। खास बात यह है कि प्लास्टिक थैलियां और प्लास्टिक सामान के बढ़ते चलन को लेकर एनजीओ के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण के समर्थकों और प्रकृति प्रेमियों द्वारा व्यक्त की जाती रही चिन्ताओं की ओर आज तक सरकार चलाने वालों की ओर से एक शब्द भी सुनने को नहीं मिल सका। प्लास्टिक का इतिहास काफी पुराना है। पहले यह जैव व्युत्पन्न सामग्री थी, लेकिन कालान्तर में रसायन तकनीक के विकास के चलते पूरी तरह से सिंथेटिक मॉलीक्यूल्स वाला प्लास्टिक आ गया। 1856 में बिरमिंघम का पाकेर्साइन प्लास्टिक सामग्री प्रस्तुत करने वाले एलेंक्जेंडर पार्केस ने 1862 की ग्रेट इंटरेनशनल एक्जीबिशन में पार्के साइन के लिए कांस्य पदक से सम्मानित किया गया था। तब लोगों ने कल्पना नहीं की होगी यह खोज इतने आगे बढ़ जाएगी, उसके नये रूप सामने आते जाएंगे और एक दौर ऐसा भी आएगा जब प्लास्टिक से संभावित खतरों से लोगों को आगाह करना जरूरी लगने लगेगा।
हालांकि शुद्ध प्लास्टिक में आमतौर पर अल्प विषाक्तता होती है। लेकिन कुछ प्लास्टिकों में मिलाये जाने वाले अन्य तत्वों और यौगिकों के कारण उनमें विषाक्तता आ जाती है। यूरोपीय संघ ने प्लास्टिक में डीई एचपी और कुछ अन्य यौगिकों के मिलाने पर प्रतिबंध लगा रखा है। कारण यह है कि ऐसे प्लास्टिक कंटेनरों में रखी गई खाद्य सामग्री मानव स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं पाई गई है। जहां प्लास्टिक के सामान को मानव स्वास्थ्य के लिए खराब माना गया है वहीं इससे पर्यावरणीय मुद्दे भी जुड़ गए हैं।
प्लास्टिक का जीवन लंबा होता है। इसका अवक्रमण बहुत धीमी गति से होता है।
1950 से अब तक एक अरब टन से अधिक प्लास्टिक बगैर उचित निपटान के यूं ही फेंका जा चुका है। यह सैकड़ों-हजारों सालों तक बना रहेगा। इसके छोटे-छोटे टुकड़ों को खाने की वस्तु समझकर खाने वाली मछलियां और पक्षी हर दिन मर रहे हैं। गत दिवस एक रिपोर्ट पढ़ने को मिली थी, जिसके अनुसार उत्तर पूर्वी प्रशांत महासागर में पिछले 40 सालों में प्लास्टिक कचरे की मात्रा में सीधे 100 गुना वृद्धि हुई है। प्लास्टिक कचरा हम मनुष्यों ने ही समुद्र में पहुंचाया है। अब चुनौती यह है कि प्लास्टिक पर अपनी निर्भरता कैसे कम की जाए ताकि हमारी भावी पीढ़ी एटम बम से खतरनाक प्लास्टिक से बची रहे। एक बड़ा कदम बगैर की ना-नुकुर के प्लास्टिक थैलियों के उत्पादन और बिक्री पर प्रतिबंध लगाने का उठाना होगा। प्लास्टिक थैलियों की मोटाई के आधार पर उससे जुड़े खतरे की घट-बढ़ के मूर्खतापूर्ण तर्को को सिरे से खारिज करना जरूरी है।
दूसरा फैसला उपयोग किये जा चुके प्लास्टिक की री-साइकिलिंग पर जोर देने का होना चाहिए। वैज्ञानिकों का दावा है कि री-साइकिलिंग से प्लास्टिक की गुणवत्ता कम हो जाती है। इस दावे में दम है परंतु रास्ता तो खोजना ही होगा।लेखक -अनिल बिहारी 

कब जागेंगे हम ?


यूनाइटेड स्टेट्स फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज की ताजा  रिपोर्ट

हर व्यक्ति के लिए पानी की उपलब्धता १६५४ क्यूबिक मीटर है। २०५० तक ११४० क्यूबिक मीटर रह जाएगी। १९५१ में भारतीयों के पास प्रति व्यक्ति ५१७७ क्यूबिक मीटर पानी की उपलब्धता थी। यहाँ पानी की कमी महज ६५ साल में करीब एक तिहाई हो गई है।एक शोध की रिपोर्ट ने करवट लेते मौसम और उससे उपजी चिंताओं की तरफ दुनिया का ध्यान दिलाने की कोशिश की है। यूनाइटेड स्टेट्स फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज की रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर कार्बन उत्सर्जन मौजूदा दर से ही जारी रहा तो २०३० तक भारत के तापमान में १.५ डिग्री सेल्सियस से लेकर २.० डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोतरी हो सकती है। इससे मिट्टी की नमी में कमी तो आएगी ही, धरती पर मौजूदा जल की उपलब्धता में भी कमी आएगी। इस शोध में शामिल सार्वजनिक क्षेत्र के १७ संस्थानों के २०० वैज्ञानिकों की राय है कि इससे खेती की पैदावार में कमी आएगी और इसका सबसे ज्यादा असर मौसमी सब्जियों और फलों पर पड़ेगा। हमारे देश में पानी की उपलब्धता के चलते ही आलू, प्याज के साथ ही मौसमी सब्जियों का खासा उत्पादन होता है। सूखे की स्थिति में इनके उत्पादन में भारी कमी आती रही है। इस साल भी कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे राज्यों के कुछ हिस्सों में सूखे की वजह से प्याज की पैदावार में गिरावट आई है। अगर रिपोर्ट के आकलन के मुताबिक ही मौसम में बदलाव आता है तो आशंका ये है कि आलू, प्याज और टमाटर के उत्पादन में सबसे ज्यादा गिरावट आएगी। 

इस रिपोर्ट का मानना है कि अगर हालात ऐसे ही बिगड़ते रहे और मौसम में बदलाव आता रहा तो भारत की पहचान रहे आम जैसे फल के उत्पादन में भी कमी आ सकती है। अंगूर और सेब का उत्पादन भी कम हो सकता है। इस रिपोर्ट के मुताबिक जहाँ आज देश में हर व्यक्ति के लिए पानी की उपलब्धता १६५४ क्यूबिक मीटर है। वह २०५० तक ११४० क्यूबिक मीटर ही रह जाएगी। १९५१ में भारतीयों के पास प्रति व्यक्ति ५१७७ क्यूबिक मीटर पानी की उपलब्धता थी। जाहिर है कि हमारे यहाँ पानी की कमी महज पैंसठ साल में करीब एक तिहाई हो गई है।

देश के एक ५९ फीसद जिले कम बारिश की समस्या से जूझ रहे हैं। ऐसे में गौर करने की बात यह है कि भविष्य में आज के मुकाबले ना सिर्फ अनाज बल्कि फल और सब्जियों की ज्यादा जरूरत पड़ेगी। लिहाजा तब उत्पादन बढ़ाना होगा लेकिन मौसम की मार की वजह से ये घटता ही नजर आ रहा है। हम वक्त रहते ही चेत जाएँं तो अच्छा। देश की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा अब भी सब्जियों और फलों की कमी से जूझ रहा है। २०३० में जब जनसंख्या में आज की तुलना में बीस से तीस करोड़ का इजाफा होगा और पानी की उपलब्धता कम होगी तो निश्चित है कि संकट बड़े होंगे। प्राचीन भारतीय मनीषा की अगर दुनिया में आज साख है तो उसकी वजह यही है कि उसे अपनी भावी पीढ़ियों और समाज की चिंता थी और उसे बचाने के लिए उसने पहले ही उपाय कर रखे थे। बेहतर होगा कि हम आज ही कड़े कदम उठाएँ, नहीं तो हमारी भावी पीढ़ियों के साथ जो गुजरेगा, उसके लिए वे हमें कभी माफ नहीं कर पाएँगी।

Sunday, 6 May 2012

अस्तित्व का संकट


अस्तित्व का संकट
रिपोर्ट कहती है कि एशिया में गर्म दिन बढ़ सकते हैं या फिर सर्द दिनों की संख्या में भी इजाफा हो सकता है। एकाएक भारी बारिश की घटनाएँ हो सकती हैं या फिर अचानक से बादल फट सकते हैं
अर्थशास्त्री ईएफ शूमाकर की १९७३ में प्रकाशित किताब "स्माल इज ब्यूटीफुल" में उन्होंने बड़े-बड़े उद्योगों की बजाय छोटे उद्योगों की तरफ दुनिया का ध्यान खींचा था। उनका सुझाव था कि प्राकृतिक संसाधनों का कम से कम उपयोग और ज्यादा से ज्यादा उत्पादन होना चाहिए। शूमाकर का मानना था कि प्रदूषण को झेलने की प्रकृति की भी एक सीमा होती है। सत्तर के शुरूआती दशक में उनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया गया। जलवायु परिवर्तन पर बने इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज यानी आईपीसीसी की ताजा रिपोर्ट दरअसल शूमाकर की चिंताओं को ही आगे बढ़ा रही है। इस रिपोर्ट के मुताबिक मौसम जिस तेजी से करवट ले रहा है, उससे पूरी दुनिया पर ही असर पड़ रहा है। लेकिन विकास की तेज दौड़ में जिस तरह एशिया आगे बढ़ रहा है, उससे सबसे ज्यादा खतरा एशियाई मुल्कों को ही है। आईपीसीसी की ताजा रिपोर्ट कहती है कि एशिया में गर्म दिन बढ़ सकते हैं या फिर सर्द दिनों की संख्या में भी इजाफा हो सकता है। एकाएक भारी बारिश की घटनाएँ हो सकती हैं या फिर अचानक से बादल फट सकते हैं। रिपोर्ट में सबसे ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि न्यूनतम और अधिकतम दोनों तापमान में खासी गिरावट आ सकती है। जिसका पारिस्थितिकी तंत्र पर तो असर पड़ेगा ही, मानव समेत तमाम जंतुओं और पेड़-पौधों की जिंदगी पर भी असर पड़े बिना नहीं रह सकेगा। लिहाजा बेहतर तो यह है कि एशिया के देश वक्त रहते चेतना शुरू कर दें। 

प्रकृति में आ रहे बदलाव की वजह से लगातार आपदाएँ भी आ रही हैं। ऐसे में आपदा नियंत्रण और प्रबंधन तंत्र पर भी दबाव बढ़ सकता है। लेकिन दुर्भाग्यवश एशिया में चीन और जापान को छोड़ दें तो इस दिशा में दूसरे देश ज्यादा सचेत नजर नहीं आते। फिर विकास की दौड़ में तेजी से आगे बढ़ने के लिए लगातार प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहे हैं। इतना ही नहीं, ऊर्जा का अनापशनाप इस्तेमाल भी कर रहे हैं। वैसे ये सारे आरोप विकसित देशों पर कहीं ज्यादा है। 

योरप में आए औद्योगीकरण के बाद ऊर्जा का जिस तरह इस्तेमाल बढ़ा, उसने भविष्य के लिए कहीं ज्यादा खतरे उत्पन्ना किए। इन खतरों का शूमाकर को ध्यान था, शायद यही वजह है कि उन्होंने कहा था कि पिछली चार-पाँच शताब्दियों में प्रकृति एवं उपलब्ध संसाधनों के प्रति मानवीय दृष्टिकोण में आए दार्शनिक परिवर्तन ने दुनिया के सामने अस्तित्व का संकट बढ़ाया है। भारतीय संस्कृति भी ज्यादा उपभोग की संस्कृति का निषेध करती रही है। गाँंधीजी भी उसी परंपरा को आगे बढ़ाना चाहते थे। बहरहाल आईपीसीसी की रिपोर्ट ने भविष्य के लिए जो भयावह तस्वीर खींची है, उससे बचाव का रास्ता तत्काल गाँंधीवादी दर्शन के सहारे नहीं ढूँढने जा सकता। ऐसे में सबसे ज्यादा जरूरत इस बात की है कि एशियाई देशों की सरकारें चेतें और अपने नागरिकों को एक बेहतर भविष्य देने के लिए जरूरी उपाय करें। एशिया में तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के चलते चीन और भारत पर यह जिम्मेदारी कहीं ज्यादा है।