अस्तित्व का संकट
रिपोर्ट कहती है कि एशिया में गर्म दिन बढ़ सकते हैं
या फिर सर्द दिनों की संख्या में भी इजाफा हो सकता है। एकाएक भारी बारिश की घटनाएँ
हो सकती हैं या फिर अचानक से बादल फट सकते हैं
अर्थशास्त्री ईएफ शूमाकर की १९७३ में प्रकाशित
किताब "स्माल इज ब्यूटीफुल" में उन्होंने बड़े-बड़े उद्योगों की बजाय छोटे
उद्योगों की तरफ दुनिया का ध्यान खींचा था। उनका सुझाव था कि प्राकृतिक संसाधनों
का कम से कम उपयोग और ज्यादा से ज्यादा उत्पादन होना चाहिए। शूमाकर का मानना था कि
प्रदूषण को झेलने की प्रकृति की भी एक सीमा होती है। सत्तर के शुरूआती दशक में
उनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया गया। जलवायु परिवर्तन पर बने इंटरगवर्नमेंटल पैनल
ऑन क्लाइमेट चेंज यानी आईपीसीसी की ताजा रिपोर्ट दरअसल शूमाकर की चिंताओं को ही
आगे बढ़ा रही है। इस रिपोर्ट के मुताबिक मौसम जिस तेजी से करवट ले रहा है, उससे पूरी दुनिया पर ही असर पड़ रहा
है। लेकिन विकास की तेज दौड़ में जिस तरह एशिया आगे बढ़ रहा है, उससे सबसे ज्यादा खतरा एशियाई मुल्कों को ही है। आईपीसीसी की ताजा रिपोर्ट
कहती है कि एशिया में गर्म दिन बढ़ सकते हैं या फिर सर्द दिनों की संख्या में भी इजाफा
हो सकता है। एकाएक भारी बारिश की घटनाएँ हो सकती हैं या फिर अचानक से बादल फट सकते
हैं। रिपोर्ट में सबसे ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि न्यूनतम और अधिकतम दोनों
तापमान में खासी गिरावट आ सकती है। जिसका पारिस्थितिकी तंत्र पर तो असर पड़ेगा ही,
मानव समेत तमाम जंतुओं और पेड़-पौधों की जिंदगी पर भी असर पड़े बिना
नहीं रह सकेगा। लिहाजा बेहतर तो यह है कि एशिया के देश वक्त रहते चेतना शुरू कर
दें।
प्रकृति में आ रहे बदलाव की वजह से लगातार आपदाएँ भी आ रही हैं। ऐसे में आपदा नियंत्रण और प्रबंधन तंत्र पर भी दबाव बढ़ सकता है। लेकिन दुर्भाग्यवश एशिया में चीन और जापान को छोड़ दें तो इस दिशा में दूसरे देश ज्यादा सचेत नजर नहीं आते। फिर विकास की दौड़ में तेजी से आगे बढ़ने के लिए लगातार प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहे हैं। इतना ही नहीं, ऊर्जा का अनापशनाप इस्तेमाल भी कर रहे हैं। वैसे ये सारे आरोप विकसित देशों पर कहीं ज्यादा है।
योरप में आए औद्योगीकरण के बाद ऊर्जा का जिस तरह इस्तेमाल बढ़ा, उसने भविष्य के लिए कहीं ज्यादा खतरे उत्पन्ना किए। इन खतरों का शूमाकर को ध्यान था, शायद यही वजह है कि उन्होंने कहा था कि पिछली चार-पाँच शताब्दियों में प्रकृति एवं उपलब्ध संसाधनों के प्रति मानवीय दृष्टिकोण में आए दार्शनिक परिवर्तन ने दुनिया के सामने अस्तित्व का संकट बढ़ाया है। भारतीय संस्कृति भी ज्यादा उपभोग की संस्कृति का निषेध करती रही है। गाँंधीजी भी उसी परंपरा को आगे बढ़ाना चाहते थे। बहरहाल आईपीसीसी की रिपोर्ट ने भविष्य के लिए जो भयावह तस्वीर खींची है, उससे बचाव का रास्ता तत्काल गाँंधीवादी दर्शन के सहारे नहीं ढूँढने जा सकता। ऐसे में सबसे ज्यादा जरूरत इस बात की है कि एशियाई देशों की सरकारें चेतें और अपने नागरिकों को एक बेहतर भविष्य देने के लिए जरूरी उपाय करें। एशिया में तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के चलते चीन और भारत पर यह जिम्मेदारी कहीं ज्यादा है।
प्रकृति में आ रहे बदलाव की वजह से लगातार आपदाएँ भी आ रही हैं। ऐसे में आपदा नियंत्रण और प्रबंधन तंत्र पर भी दबाव बढ़ सकता है। लेकिन दुर्भाग्यवश एशिया में चीन और जापान को छोड़ दें तो इस दिशा में दूसरे देश ज्यादा सचेत नजर नहीं आते। फिर विकास की दौड़ में तेजी से आगे बढ़ने के लिए लगातार प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहे हैं। इतना ही नहीं, ऊर्जा का अनापशनाप इस्तेमाल भी कर रहे हैं। वैसे ये सारे आरोप विकसित देशों पर कहीं ज्यादा है।
योरप में आए औद्योगीकरण के बाद ऊर्जा का जिस तरह इस्तेमाल बढ़ा, उसने भविष्य के लिए कहीं ज्यादा खतरे उत्पन्ना किए। इन खतरों का शूमाकर को ध्यान था, शायद यही वजह है कि उन्होंने कहा था कि पिछली चार-पाँच शताब्दियों में प्रकृति एवं उपलब्ध संसाधनों के प्रति मानवीय दृष्टिकोण में आए दार्शनिक परिवर्तन ने दुनिया के सामने अस्तित्व का संकट बढ़ाया है। भारतीय संस्कृति भी ज्यादा उपभोग की संस्कृति का निषेध करती रही है। गाँंधीजी भी उसी परंपरा को आगे बढ़ाना चाहते थे। बहरहाल आईपीसीसी की रिपोर्ट ने भविष्य के लिए जो भयावह तस्वीर खींची है, उससे बचाव का रास्ता तत्काल गाँंधीवादी दर्शन के सहारे नहीं ढूँढने जा सकता। ऐसे में सबसे ज्यादा जरूरत इस बात की है कि एशियाई देशों की सरकारें चेतें और अपने नागरिकों को एक बेहतर भविष्य देने के लिए जरूरी उपाय करें। एशिया में तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के चलते चीन और भारत पर यह जिम्मेदारी कहीं ज्यादा है।
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