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Friday, 15 September 2017

बिना हुनर के कैसी इंजीनियरिंग ?

न कौशल न विकास :क्या करें इस डिग्री-डिप्लोमा का
शशांक द्विवेदी
डिप्टी डायरेक्टर , मेवाड़ यूनिवर्सिटी, (राजस्थान )

पिछले दिनों एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि युवाओं में प्रतिभा का विकास होना चाहिए । उन्होंने डिग्री के बजाय योग्यता को महत्त्व देते हुए कहा था कि छात्रों को स्किल डेवलपमेंट पर ध्यान देना होगा । आज देश में बड़ी संख्या में इंजीनियर पढ़ लिख कर निकल तो रहें है लेकिन उनमे स्किलकी बहुत बड़ी कमी है इसी वजह से लाखों इंजीनियर हर साल बेरोजगारी का दंश झेल रहें है । इंडस्ट्री की जरुरत के हिसाब से उन्हें काम नहीं आता । एक रिपोर्ट के अनुसार हर साल देश में लाखों इंजीनियर बनते है लेकिन उनमें से सिर्फ 15 प्रतिशत को ही अपने काम के अनुरूप नौकरी मिल पाती है बाकी सभी बेरोजगारी का दंश झलने को मजबूर है । इसीलिए देश में इंजीनियरिंग का करियर तेजी से आकर्षण खो रहा है । देश के राष्ट्रीय कौशल विकास निगम के अनुसार सिविल, मैकेनिकल और इलेक्ट्रिक इंजीनियरिंग जैसे कोर सेक्टर के 92 प्रतिशत इंजीनियर और डिप्लोमाधारी रोजगार के लिए प्रशिक्षित नहीं हैं. इस सर्वे ने भारत में उच्च शिक्षा की शर्मनाक तस्वीर पेश की है । यह आंकड़ा चिंता बढ़ाने वाला भी है, क्योंकि स्थिति साल दर साल खराब ही होती जा रही है ।
देश में इंजीनियरिंग को नई सोच और दिशा देने वाले महान इंजीनियर भारत रत्न मोक्षगुण्डम् विश्वेश्वरैया की जयंती 15 सितम्बर को देश में इंजीनियरस डे या अभियंता दिवस के रूप में मनाया जाता है । मैसूर राज्य(वर्तमान कर्नाटक )के निर्माण में अहम भूमिका निभाने वाले मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया अपने समय के सबसे प्रतिभाशाली  इंजीनियर  थे । जिन्होंने बांध और सिंचाई व्यवस्था के लिए नए तरीकों का इजाद किया। उन्होंने आधुनिक भारत में सिंचाई की बेहतर व्यवस्था और नवीनतम तकनीक पर आधारित नदी पर बांध बनाए तथा पनबिजली परियोजना शुरू करने की जमीन तैयार की। सिंचाई एवं बाढ़ नियंत्रण की तकनीक में उनके योगदान को भूलाया नहीं जा सकता। आज से लगभग 100 साल पहले जब साधन और तकनीक इतनी ज्यादा उन्नत नहीं थी । विश्वेश्वरैया ने आम आदमी की समस्याओं को सुलझाने के लिए इंजीनियरिंग में कई तरह के इनोवेशन किये और व्यवहारिक तकनीक के माध्यम आम आदमी की जिंदगी को सरल बनाया । असल में इंजीनियर वह नहीं है जो सिर्फ मशीनों के साथ काम करें बल्कि वह है जो किसी भी क्षेत्र में अपने मौलिक विचारों और तकनीक के माध्यम मानवता की भलाई के लिए काम करे ।
देश और समाज के निर्माण में एक इंजीनियर की रचनात्मक भूमिका कैसे होनी चाहिए इस बात को विश्वेश्वरैया के प्रेरणादायक जीवन गाथा से जाना और समझा जा सकता है । विश्वेश्वरैया न केवल एक कुशल इंजीनियर थे  बल्कि देश के सर्वश्रेष्ठ योजना शिल्पी, शिक्षाविद् और अर्थशास्त्री भी थे । तत्कालीन सोवियत संघ (रूस) द्वारा वर्ष 1928 में तैयार पंचवर्षीय योजना से भी आठ वर्ष पहले 1920 में अपनी पुस्तक रिकंस्ट्रक्टिंग इंडिया में उन्होंने भारत में पंचवर्षीय योजना की परिकल्पना प्रस्तुत कर दिया था । 1935 में उनकी एक  पुस्तक प्लान्ड इकॉनामी फॉर इंडिया देश के विकास के लिए योजना बनाने के लिए बहुत महत्वपूर्ण थी । वह 98 वर्ष की उम्र में भी उन्होंने प्लानिंग पर एक पुस्तक लिखा । ईमानदारी और कर्त्तव्य के प्रति अपनी वचनबध्दता उनके जीवन की सबसे बड़ी विशेषता थी।  बंगलुरू स्थित हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स की स्थापना में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही ।
आज से कई दशक पहले गाँधी जी ने कहा था की देश की समग्र उन्नति और आर्थिक विकास के लिए तकनीकी शिक्षा का गुणवत्ता पूर्ण होना बहुत जरुरी है उन्होंने इसको प्रभावी बनाने के  लिए कहा था की कॉलेज में हाफ-हाफ सिस्टम होना चाहिए मतलब की आधे समय में किताबी ज्ञान दिया जाये और आधे समय में उसी ज्ञान का व्यावहारिक पक्ष बताकर उसका प्रयोग सामान्य जिन्दगी में कराया जाये । भारत में तो गाँधी जी की बाते ज्यादा सुनी नहीं गई पर चीन ने उनके इस प्रयोग को पूरी तरह से अपनाया  और आज स्तिथि यह है की चीन  उतपादन की दृष्टि में चीन भारत से बहुत आगे है ,भारतीय बाजार चीनी सामानों से भरे पड़े है दिवाली ,रक्षाबंधन हमारे देश के प्रमुख त्यौहार है पर आज बाजार में सबसे ज्यादा पटाखे और राखिया चीन की ही बनी हुई मिलती है ।
वास्तव में हम अपने ज्ञान को बहुत ज्यादा व्यावहारिक नहीं बना पाए है । नंबर होड़ युक्त शिक्षा प्रणाली ने मौलिकता को ख़त्म कर दिया । इस तरह की मूल्यांकन और परीक्षा प्रणाली नई सोच और मौलिकता के लिए ठीक नहीं है। आज तकनीकी शिक्षा में खासतौर पर इंजीनियरिंग में इनोवेशन की जरुरत है सिर्फ रटें रटाए ज्ञान की बदौलत हम विकसित राष्ट्र बनने का सपना साकार नहीं कर सकते । देश की आतंरिक और बाहरी चुनौतियों से निपटने के लिए हमें दूरगामी रणनीति बनानी पड़ेगी । क्योंकि भारत  पिछले छह दशक के दौरान अपनी अधिकांश प्रौद्योगीकीय जरूरतों की पूर्ति दूसरे देशों से कर रहा है । हमारे घरेलू उद्योगों ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज करायी है इसलिए देश  की जरूरतों को पूरा करने के लिए भारतीय उद्योग के कौशल संसाधनों एवं प्रतिभाओं का बेहतर उपयोग करना जरुरी है । क्योंकि आयातित टेक्नोलॉजी  पर हम  ब्लैकमेल का शिकार भी हो सकते  है।  
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय हमारा इंजीनियरिंग व प्रौद्योगिकी ढाँचा न तो विकसित देशों जैसा मजबूत था और न ही संगठित। इसके बावजूद   प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हमने काफी कम समय में बड़ी उपलब्धियाँ हासिल की । स्वतंत्रता के बाद भारत का प्रयास यही रहा है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के माध्यम से आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन भी लाया जाए। जिससे देश के जीवन स्तर में संरचनात्मक सुधार हो सके । इस उद्देश्य में  हम कुछ  हद तक सफल भी रहें है लेकिन अभी भी इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी को आम जन मानस से पूरी तरह से जोड़ नहीं पाये है ।
आज देश को विश्वेसरैया जैसे इंजीनियरों की जरुरत है जो देश को एक नई दिशा दिखा सके क्योंकि आज के आधुनिक विश्व में विज्ञान,तकनीक और इंजीनियरिंग के क्रमबद्ध विकास के बिना विकसित राष्ट्र का सपना नहीं सच किया जा सकता । इसके लिए देश में इंजीनियरिंग की पढाई को और आकर्षक ,व्यवहारिक और रोजगारपरक बनाने की जरुरत है ।

(लेखक शशांक द्विवेदी चितौड़गढ, राजस्थान में मेवाड़ यूनिवर्सिटी में डिप्टी डायरेक्टर हैं और  टेक्निकल टूडे पत्रिका के संपादक हैं। 12 सालों से विज्ञान विषय पर लिखते हुए विज्ञान और तकनीक पर केन्द्रित विज्ञानपीडिया डॉट कॉम के संचालक है  । एबीपी न्यूज द्वारा विज्ञान लेखन के लिए सर्वश्रेष्ठ ब्लॉगर का सम्मान हासिल कर चुके शशांक को विज्ञान संचार से जुड़ी देश की कई संस्थाओं ने भी राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया है। वे देश के प्रतिष्ठित समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में लगातार लिख रहे हैं।)

Thursday, 25 June 2015

डिजिटल इंडिया और महंगा इंटरनेट



शशांक दि्वेदी डिप्टी डॉयरेक्टर(रिसर्च), मेवाड़ विश्वविद्यालय
"हिंदुस्तान " के संपादकीय पेज पर 25जून2015 को प्रकाशित
"HINDUSTAN"
पिछले दिनों 1.1 लाख करोड़ रुपये की 2जी -3जी स्पेक्ट्रम नीलामी से सरकार का खजाना तो भर गया, लेकिन इसकी कीमत आम आदमी को अपनी जेब से चुकानी पड़ रही है। हाल में देश की सभी बड़ी दूरसंचार कंपनियों ने इंटरनेट पैक की दरें 40 से 100 फीसदी तक बढ़ा दी हैं। पिछले एक साल में कई बार इंटरनेट डेटा पैक की दरें बढ़ाई हैं, जिसका सीधा असर आम आदमी की जेब पर पड़ा है। स्पेक्ट्रम नीलामी के बाद उद्योग संगठनों ने यह संकेत दिए थे कि डाटा इस्तेमाल की दरों में बढ़ोतरी होगी, क्योंकि ऑपरेटरों को सरकार को करीब 1करोड़ रुपये का भुगतान करना है। ये भुगतान अब आम आदमी, खासकर युवा वर्ग अपनी जेब से कर रहा है। और यह सब तब हो रहा है, जब दुनिया भर में मुफ्त वाई-फाई सेवा के लिए कोशिशें जारी हैं।
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जब सरकार देश में डिजिटल इंडिया का सपना देख रही है, तब इंटरनेट के उपभोक्ताओं के लगातार बढ़ने से ये कीमतें कम होनी चाहिए थीं। क्या इन बढ़ी हुई कीमतों के साथ डिजिटल इंडिया प्रोग्राम के तहत इंटरनेट को गांव-गांव पहुंचाया जाएगा? अंतरराष्ट्रीय दूरसंचार संघ यानी आईटीयू की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में इंटरनेट 60 से ज्यादा देशों से महंगा है। आईटीयू के अनुसार किफायती ब्रॉडबैंड देने वाले देशों की सूची में भारत 93वें स्थान पर है, जबकि मोबाइल इंटरनेट के मामले में 67वें स्थान पर। एशियाई देशों से ही तुलना करें, तो भारत में इंटरनेट मॉरीशस, माल्टा व पड़ोसी श्रीलंका से भी महंगा है, जबकि महत्वाकांक्षी डिजिटल इंडिया प्रोग्राम की सफलता सुनिश्चित करने के लिए इंटरनेट दरों का कम होना जरूरी है।
सूचना प्रौद्योगिकी की दुनिया में भारत को एक ताकत के रूप में देखा जाता है, लेकिन भारत में चीजें उतनी तेज गति से आगे नहीं बढ़ रहीं, जितनी बढ़नी चाहिए। एक तरफ देश में इंटरनेट इस्तेमाल करने की दर बहुत ज्यादा है, वहीं दूसरी तरफ औसत इंटरनेट स्पीड बहुत कम है। टेलीकॉम कंपनियां जितनी स्पीड का दावा करती हैं, उससे काफी कम स्पीड उपभोक्ता को मिलती है। कहने को देश में इंटरनेट कनेक्शन की स्पीड 24 एमबीपीएस तक पहुंच गई है, लेकिन इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों को ये सेवाएं उसी रफ्तार से नहीं मिलतीं।
हाई स्पीड इंटरनेट और बेहतर सेवा के लिए 3-जी जैसी तकनीक देश के हर हिस्से में अब भी मौजूद नहीं है। इंटरनेट की उपयोगिता सिर्फ लोगों को तकनीकी आधार पर जोड़ने या सूचनाएं देने तक सीमित नहीं रही, बल्कि इसने हमारे जीवन को ज्यादा सुविधाजनक और बेहतर बनाने में भी योगदान दिया है। अनगिनत सेवाओं व सुविधाओं को आम आदमी तक पहुंचाया है। अब इसे आगे बढ़ाते हुए सरकार बहुत से प्रशासनिक कामकाज की लागत घटा सकती है। हम स्मार्ट सिटी बसाने जा रहे हैं, अगर ये बने, तो ये सबसे महंगी इंटरनेट सेवा मुहैया करने वाले स्मार्ट सिटी होंगे।

Wednesday, 10 September 2014

अभी सिर्फ सपना है डिजिटल इंडिया

शशांक द्विवेदी, असिस्टेंट प्रोफेसर, सेंट मार्गरेट इंजीनियरिंग कॉलेज
" हिंदुस्तान " के संपादकीय पेज पर  लेख 
Hindustan
सरकार ने एक लाख करोड़ रुपये लागत की विभिन्न परियोजनाओं वाले डिजिटल इंडिया कार्यक्रम को मंजूरी दे दी है। लक्ष्य है, देश के हर गांव को इंटरनेट से जोड़ना, ऐसी व्यवस्था करना कि सारे सरकारी काम इंटरनेट पर ही हो जाएं, और यह सुनिश्चित करना है कि सरकारी सेवाएं नागरिकों को इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से उपलब्ध हों। यह 19वीं सदी की पुरानी प्रशासन प्रणाली को आधुनिक बनाने की दिशा में पहला बड़ा कदम साबित हो सकता है। इसके पीछे यह धारणा है कि पुराने डिलिवरी सिस्टम से देश को नई गति नहीं दी जा सकती। 80 के दशक में हमने पहली पीढ़ी की संचार क्रांति के बीज बोए थे, जब सिर्फ 20 लाख फोन थे और लोगों को लैंडलाइन कनेक्शन पाने के लिए कई-कई साल इंतजार करना पड़ता था।

इस समय देश में 90 करोड़ मोबाइल फोन हैं और लगभग 20 करोड़ से अधिक लोग इंटरनेट से जुड़े हैं। हालांकि आबादी के घनत्व के हिसाब से देखें, तो यह संख्या काफी कम है। अब भी देश के बहुत बड़े हिस्से, खासकर गांवों में इंटरनेट के लिए कोई आधारभूत ढांचा नहीं बना है। शिक्षा के क्षेत्र में आधुनिक तकनीक अभी नहीं पहुंची है। देश के अधिकांश ग्रामीण व सरकारी स्कूलों में पिछली सदी की बुनियादी सुविधाएं भी नहीं हैं। स्कूल अभी क्लास रूम, ब्लैक बोर्ड और अध्यापकों की कमी से जूझ रहे हैं, उनसे ई-शिक्षा की उम्मीद नहीं की जा सकती। सवाल इंटरनेट के इन्फ्रास्ट्रक्चर से आगे जाकर लोगों की माली हालत से जुड़ता है। यह सब तब हो सकता है, जब अधिक से अधिक लोगों के पास कंप्यूटर हों, उन्हें चलाने के लिए बिजली हो, इंटरनेट कनेक्शन के लिए जरूरी धन हो और इंटरनेट के इस्तेमाल के लिए जरूरी जागरूकता हो और सचमुच में ऐसी व्यवस्थाएं ऑनलाइन उपलब्ध हों कि इंटरनेट का इस्तेमाल उन्हें फायदे का सौदा लगे। बेशक, भारत में प्रति व्यक्ति आय तेजी से बढ़ रही है और पिछले एक दशक में वह लगभग ढाई गुना हो चुकी है। कंप्यूटर रखने वाले लोगों की संख्या भी काफी बढ़ी है, लेकिन इसे सब तक पहुंचाने की मंजिल अभी बहुत दूर है। गांव-कस्बे तो दूर, अभी बड़े शहरों में भी सबकी पहुंच कंप्यूटर तक नहीं है। भारत को पूरी दुनिया में आईटी ताकत के रूप में देखा जाता है, लेकिन इस ताकत का वास्तविक आधार बहुत विस्तृत नहीं है।

हमारे सामने कुलजमा चुनौतियां दो तरह की हैं। एक तो जो वर्ग कंप्यूटर तक पहुंच रखता है, उसके लिए इंटरनेट आदि को उपयोगी बनाना। उसके इन्फ्रास्ट्रक्चर का लगातार विकास करना। इंटरनेट स्पीड के मामले में आईटी सुपरपावर कहलाने वाला यह देश कई विकासशील देशों से भी पीछे है। दूसरी चुनौती तेज आर्थिक विकास की है, जिससे ज्यादा लोगों को रोजगार और ऐसी माली हालत दी जा सके कि वे अपना आर्थिक स्तर बढ़ाते हुए कंप्यूटर और इंटरनेट इस्तेमाल करने वाले वर्ग में शामिल हो सकें।
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Wednesday, 7 August 2013

कितनी कारगर है राष्ट्रीय साइबर सुरक्षा नीति


Hindustan
पूरे  विश्व में साइबर नियमों के उल्लंघन और लगातार बढ़ते खतरे को देखते हुए पिछले दिनों केंद्र  सरकार ने राष्ट्रीय साइबर सुरक्षा नीति-2013 जारी कर दी । इसका उद्देश्य देश में ऐसा साइबर सिक्योरिटी सिस्टम तैयार करना है जो साइबर हमले से बचाव कर सके और सूचनाएं सुरक्षित रखने में सहायक हो । संचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री कपिल सिब्बल ने यह नीति जारी करते हुए कहा कि रक्षा प्रणाली, बिजली संबंधी बुनियादी ढांचा, परमाणु संयंत्र, दूरसंचार प्रणाली जैसे महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे की सुरक्षा करनी होगी अन्यथा अर्थव्यवस्था में अस्थिरता पैदा हो सकती है। 
वास्तव में साइबर क्षेत्र में अस्थिरता का मतलब है आर्थिक अस्थिरता, कोई भी देश आर्थिक अस्थिरता का बर्दाश्त नहीं कर सकता इसलिए सिर्फ नीति ही नहीं बल्कि इसे तत्काल लागू करना भी जरूरी है। दूसरें  देशों और गैर सरकारी संस्थाओं-व्यक्तियों, कंपनियों और आतंकवादियों की ओर से होने वाले संभावित हमले के मद्देनजर साइबर नीति आवश्यक थी क्योंकि इंटरनेट दुनिया की कोई भौगोलिक सीमा नहीं है। आने वाले समय में कभी भी साइबर युद्ध हो सकता है इसलिए हमें अभी से तैयार रहना होगा । आज के समय में हमें नहीं पता कि कौन हमारी प्रणाली पर हमले करता है इसलिए हमें अपनी प्रणाली को सुरक्षित रखना है। लेकिन सबसे बड़ सवाल है कि साइबर सुरक्षा के मामले में भारत अब तक इतना पीछे क्यों रहा है ? साइबर सुरक्षा  के आकंडो के अनुसार चीन में साइबर सुरक्षा के काम में सवा लाख विशेषज्ञ तैनात हैं। अमेरिका में यह संख्या 91 हजार से ऊपर है। रूस में भी लगभग साढ़े सात हजार माहिर लोग इस काम में लगे हुए हैं। जबकि अपने यहां यह संख्या सिर्फ 556 है ।फिलहाल स्तिथि बहुत ज्यादा चिंताजनक है जिस पर तत्काल एक्शन की जरुरत है ।
Dabang Duniya
साइबर सुरक्षा की चुनौती आज दुनिया में कितनी अहम है, इसका अंदाजा इसी से लगता है कि पिछले दिनों अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की शिखरवार्ता के एजेंडे में यह सर्वप्रमुख मुद्दा था। मशहूर एंटीवायरस कंपनी कैसपेर्स्की लैब के मुताबिक वर्ष 2013 में दुनिया भर में साइबर हमलों की संख्या में बड़ी तेजगति से वृद्धि होगी। कुछ खास ठिकानों पर ऐसे हमले किए जाएंगे और सरकारी एजेंसियों पर विशाल पैमाने के हमले भी होंगे। अमरीकी खुफिया एजेंसियों ने भविष्यवाणी की है कि आनेवाले 20 वर्षों में वैश्विक साइबर युद्ध शुरू हो जाएगा। गूगल और फेसबुक जैसी बड़ी बड़ी नेटवर्क कंपनियों के पास भारी मात्रा में ऑनलाइन जानकारी हासल करने की क्षमता है इसलिए ये इनका दुरुपयोग भी कर सकती है जो कई देशों के लिए बड़ी समस्या पैदा कर सकता है । इसके अलावा, संचार प्रौद्योगिकी के विकास की तेजगति की बदौलत देशों की सरकारों का अपने नागरिकों पर असीम नियंत्रण हो जाएगा।  सूचना प्रौद्योगिकी की दुनिया की मुख्य समस्या यह है कि दुनिया की कई सरकारें साइबर-आतंकवाद  की गंभीरता से नहीं ले रही है। जबकि यह विषय उतना ही महत्वपूर्ण है जितना किसी देश की सैन्य सुरक्षा । कुछ देशों की सरकारें साइबर युद्ध के लिए सबसे प्रभावकारी मालवेयर का विकास कर रही हैं। लेकिन कोई भी सरकार यह गारंटी नहीं दे सकती हैं कि ये मालवेयर और वायरस आतंकवादियों के लिए भी उपलब्ध नहीं हो सकेंगे। यदि ऐसा हुआ तो आतंकवादी गिरोह इन मालवेयरों और वायरसों का खूब इस्तेमाल करेंगे। इसलिए कहा जा सकता है कि आज भी दुनिया के कई देशों के लिए अपने ही साइबर संजाल में फंसने का बड़ा भारी खतरा बना हुआ है। माउस से एक ही “क्लिक” करने से पूरी सभ्यता का विनाश हो सकता है
Rashtriya Sahara
इलेक्ट्रॉनिक प्रणालियों पर विश्व की बढ़ती निर्भरता के चलते साइबर हमलों द्वारा नुकसान पहुंचाने का गंभीर खतरा पैदा होने की संभावना बढ़ गयी है । इस समय अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के पूर्व कर्मचारी एडवर्ड स्नोडेन का मामला सुर्खियों में है जिस पर कई देशो का  सरकारी साइबर  डाटा चुराने, जासूसी और अनधिकृत लोगों तक खुफिया सूचना पहुंचाने का आरोप है। यह भी एक तरह का साइबर क्राइम है जिससे कई देश अपने दुश्मन देश की जासूसी के लिए बढ़ावा देंगे जो निश्चित रूप से चिंता का विषय है ।इसको रोकने के लिए पुख्ता तकनीकी ढाँचा होनी चाहिए जो फिलहाल भारत के पास नहीं है ।
पिछले दिनों एक अंग्रेजी अखबार ने खुलासा किया था कि चीन ने भारतीय रक्षा अनुसंधान संस्थान के कई कम्प्यूटरों को हैक कर सुरक्षा और मिसाइल कार्यक्रमों से सम्बंधित महत्वपूर्ण जानकारियों को चुरा लिया है।  सरकार के टेक्निकल इंटेलिजेंस विंग, नेशनल टेक्निकल रिसर्च ऑरगनाइजेशन ने प्राइवेट साइबर सिक्योरिटी एक्सपर्ट के साथ मिलकर इस लीक का खुलासा किया है। हैकरों ने डीआरडीओ के वरिष्ठ अधिकारी के इमेल आईडी को हैक कर इस घटना को अंजाम दिया। हैकरों ने  रक्षा मामलों सम्बन्धी निर्णय लेने वाली सर्वोच्च समिति, कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी की हजारों फाइलों, मिसाइल विकास प्रोग्राम सहित भारतीय रक्षा अनुसंधान संस्थान के हैदराबाद स्थित लैब में भी सेंध लगाईं है। 
वेबसाइटों की हैकिंग ऐसी समस्या बन गई है, जिसके जरिये शत्रु किसी देश की सैन्य  व्यवस्था, खुफिया तंत्र, ऊर्जा, उद्योग एवं वित्तीय क्षेत्र तथा तमाम सरकारी विभागों में घुसपैठ कर अति संवेदनशील जानकारी चुरा सकते हैं या उनके सिस्टम को अस्त-व्यस्त कर सकते हैं। भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय (एनएससीएस) की लीक हुई एक रिपोर्ट के अनुसार देश में साइबर सुरक्षा के मामले में हद दर्जे की लापरवाही बरती जा रही है । 
फिर भी यह राहत की बात है कि इस मामले में अब सरकार संजीदा हो रही है  अब इस पर राष्ट्रीय साइबर नीति भी बन गयी है । इस  नीति में 14 उद्देश्य तय किए गए हैं जिनमें देश में साइबर संबंधी संतुलित माहौल तैयारना, मान सुरक्षा और प्रक्रिया अपनाने वाली कंपनियों को कर छूट, प्रभावी सार्वजनिक निजी भागीदारी विकसित करना शामिल है।
Jansandeshties
नीति में क्षमता निर्माण, कौशल विकास और प्रशिक्षण के जरिए अगले पांच साल में साइबर सुरक्षा में कुशल 500000 पेशेवरों को तैयार करने और अनुसंधान के जरिए देसी सुरक्षा प्रौद्योगिकी विकसित करने की योजना है। साइबर नीति में देश में सुरक्षित साइबर माहौल तैयार करने के लिए आठ रणनीतियों की पहचान की गई है जिसमें साइबर सुरक्षा से जुड़े सभी मुद्दों के संयोजन के लिए एक राष्ट्रीय एजेंसी बनाने की बात कही गई है।
चीन और यूरोपीय देशों की ओर से बढ़ रही हैकिंग और साइबर अपराध के खतरों पर अंकुश लगाने और उनसे निपटने के लिए एक कार्ययोजना का प्रस्ताव है । इसका प्रभार नेशनल इन्फॉरमेशन ब्यूरो (एनआईबी) के पास होगा और इसके अधीन एनआईएस, गृह मंत्रालय, डीओडी, डीआईडी, एनडीएमआर और डीआरडीओ जैसी संस्थाएं काम करेंगी। इस पर करीब पांच हजार करोड़ रुपए खर्च आने का अनुमान है। डीआरडीओ ऐसा उपकरण तैयार करेगा जो इलेक्ट्रॉनिक सामान जांच कर उसकी सुरक्षा सुनिश्चित करेगा। यही नहीं, डीआरडीओ मोबाइल और इंटरनेट के चिप और डाटा कार्ड का उत्पादन भी करेगा, जिसका यूनिक आईडेंटिफिकेशन जरूरी होगा। साथ ही सरकार हर उपकरण की आईएमईआई नंबर का भारत में दिए कोड से मिलान कराएगी। डीआरडीओ के उपकरण से किसी भी वेबसाइट और उसकी बेसिक संस्था पर जब चाहे रोक लगाई जा सकेगी। 
साइबर सुरक्षा के लिए सरकार की कार्ययोजना सकारात्मक दिशा में है लेकिन लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या इस योजना पर जल्द से जल्द अमल हो पायेगा या यह अहम योजना भी सरकारी सुस्ती का शिकार  होगी । भारत सरकार को इस बात पर विशेष ध्यान देना होगा कि पहले ही हम साइबर सुरक्षा के मामले में विश्व के कई देशों से पिछड़े हुए है इसलिए अब इस नीति के क्रियान्यवन में देरी की भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है ।

Friday, 18 May 2012

ऊर्जा संरक्षण

बेहतर भविष्य के लिए जरूरी है ऊर्जा संरक्षण
शशांक द्विवेदी, असिस्टेंट प्रोफेसर, सेंट मार्गरेट इंजीनियरिंग कॉलेज
ऊर्जा किसी राष्ट्र की प्रगति, विकास व खुशहाली का प्रतीक होती है और खुशहाली की यह राह ही ऊर्जा संकट तक भी जाती है। आज ऊर्जा के असंतुलित और अत्यधिक उपयोग के कारण जहां एक ओर ऊर्जा खत्म होने  की आशंका प्रकट हो गई है, वहीं दूसरी ओर मानव जीवन, पर्यावरण, भूमिगत जल, हवा, पानी, वन, वर्षा सभी के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। नोबेल पुरस्कार विजेता बाल्टर कान का कहना है कि वैश्विक ऊर्जा में 60 प्रतिशत हिस्सेदारी वाले तेल और प्राकृतिक गैस का कुल उत्पादन 10 से 30 साल बाद चरम पर होगा, उसके बाद उनमें तीव्र गिरावट आएगी। यानी इनके विकल्प तलाशने का समय आ गया है।
भारत की दिक्कत यह है कि वह जीवाश्म ईंधन यानी पेट्रोल, डीजल, गैस, कोयले आदि में आत्मनिर्भर नहीं है। बाकी दुनिया में भी यह ईंधन काफी तेजी से कम होता जा रहा है। वह भी उस दौर में, जब ऊर्जा की हमारी जरूरतें बहुत तेजी से बढ रही हैं। दूसरी तरफ, 10वीं पंचवर्षीय योजना में 41,000 मेगावाट अतिरिक्त विद्युत उत्पादन के लक्ष्य के मुकाबले मात्र 21,200 मेगावाट उत्पादन ही हो पाया। 11वीं योजना में 78,577 मेगावाट अतिरिक्त उत्पादन का लक्ष्य रखा गया था, जिसे संशोधित कर 62,375 मेगावाट कर दिया गया। हर अगली पंचवर्षीय योजना में हमें ऊर्जा उत्पादन को लगभग दोगुना करते जाना होगा। मांग और आपूर्ति में जो अतंर है, वह कभी घटेगा, ऐसा संभव नहीं लगता।
ऐसे में, ऊर्जा उत्पादन, उपलब्ध ऊर्जा का संरक्षण और ऊर्जा को सही दिशा देना जरूरी है। ऊर्जा को बचाने के लिए हमेशा छोटे कदमों की जरूरत होती है, जिनके असर बड़े होते हैं। मसलन, पूरे प्रदेश में बिजली की बचत वाले सीएफएल बल्ब लगाने के केरल सरकार के अभियान से ऊर्जा संरक्षण के क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल होने का अनुमान है। इसके तहत पूरे प्रदेश में सीएफएल बल्ब वितरित किए गए हैं। 95 करोड़ रुपये की इस प्रदेशव्यापी योजना से 520 मेगावाट बिजली की बचत की उम्मीद है। योजना पर अमल से केरल में इस बार बिजली की अधिकतम मांग वाले समय में भी कोई लोड शेडिंग नहीं हुई। कुछ ऐसा ही प्रयोग हिमाचल प्रदेश में भी हुआ है। वहां परंपरागत बल्ब के बदले सीएफएल वितरित करने की योजना बनी और आप को दूर-दराज के गांवों में भी सीएफएल जलते दिख जाएंगे। हिमाचल एक पावर सरप्लस राज्य है। यानी ऐसा राज्य, जो अपनी जरूरतों से ज्यादा बिजली पैदा करता है और उस बिजली को वह दूसरे प्रदेशों को बेचता है। इसीलिए सीएफएल योजना से प्रदेश को दोहरा लाभ हुआ है। केरल और हिमाचल की इन कोशिशों से बाकी राज्य भी सबक ले सकते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि ऊर्जा संरक्षण उपायों से देश भर में 25,000 मेगावाट बिजली की बचत की जा सकती है। हिन्दुस्तान में 14/12/11 को प्रकाशित 

वैज्ञानिक अनुसंधान

वैज्ञानिक अनुसंधान की जरूरत ही किसे है
शशांक द्विवेदी, असिस्टेंट प्रोफेसर, सेंट मार्गरेट इंजीनियरिंग कॉलेज

इसमें कोई नई बात नहीं हुई। हमेशा की तरह इस बार भी विज्ञान कांग्रेस में चिंता का विषय यही रहा कि हमारे यहां विज्ञान पर शोध ज्यादा नहीं हो रहा है। चीन हमसे काफी आगे निकल गया है, वगैरह-वगैरह। यही बात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उद्घाटन के समय कही और इसी की गूंज पूरे सम्मेलन में सुनाई देती रही। वैज्ञानिक शोध पर होने वाले खर्च को बढ़ाना, जरूरी इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाना, छात्रों को इसके लिए प्रोत्साहन देना, समाज में वैज्ञानिकों को महत्व दिया जाना, ये तमाम बातें इस संदर्भ में अक्सर कही जाती हैं, लेकिन बात कभी इससे आगे नहीं बढ़ती।
हमारे देश में वैज्ञानिक अनुसंधान कम हो रहे हैं, इससे ज्यादा चिंता की बात है कि वे लगातार घटते जा रहे हैं। कभी दुनिया भर में होने वाले शोधकार्यों में भारत का नौ फीसदी योगदान था, आज यह घटकर महज 2.3 फीसदी रह गया है। यह भी सच है कि वैज्ञानिक अनुसंधान की जरूरत ही किसे महसूस हो रही है। देश में इस्तेमाल की जाने वाली ज्यादातर तकनीक पूरी तरह से आयातित है। इनमें 55 फीसदी तो बिना किसी बदलाव के ज्यों की त्यों इस्तेमाल होती है और 45 फीसदी थोड़ा-बहुत परिवर्तन के साथ इस्तेमाल होती है। विकसित तकनीक के लिए आयात पर निर्भरता के कारण उद्योग जगत की भी देसी अनुसंधानों में कोई दिलचस्पी नहीं है। उद्योग जगत ऐसे अनुसंधानों में न तो कोई दिलचस्पी रखता है और न ही इसमें निवेश करना चाहता है। यही वजह है कि भारतीय प्रतिभाएं व वैज्ञानिक विदशों में जाकर शोध करना ही बेहतर मानते हैं।
जब हम वैज्ञानिक शोध की बात करते हैं, तो हमें एक नजर उच्च शिक्षा पर भी डाल लेनी चाहिए। देश की आबादी का मात्र 10-11 फीसदी हिस्सा ही उच्च शिक्षा ग्रहण कर पाता है। इसके विपरीत जापान में 70-80 प्रतिशत, यूरोप में 45-50 फीसदी, कनाडा और अमेरिका में 80-90 प्रतिशत लोग उच्च शिक्षा लेते हैं। हमारे देश की हर 10 लाख आबादी पर सिर्फ 112 लोग वैज्ञानिक शोध में लगे हुए हैं। इस संख्या को बढ़ाने के लिए उच्च शिक्षा और उसकी गुणवत्ता को बढ़ाना सबसे जरूरी काम है। इसके अलावा दुनिया के ज्यादातर विकसित देश वैज्ञानिक शोध को बढ़ावा देने के लिए अपने रिसर्च फंड का 30 फीसदी तक हिस्सा विश्वविद्यालयों को देते हैं, मगर अपने देश में यह अंश सिर्फ छह प्रतिशत है। ज्यादातर विश्वविद्यालयों के अंदरूनी हालात ऐसे हो गए हैं कि वहां शोध के लिए स्पेस काफी कम रह गया है। पिछले कुछ समय में शिक्षा पर हमने काफी काम किया है, लेकिन यह काम मूल रूप से व्यावसायिक शिक्षा तक ही सीमित है। आईआईटी जैसे संस्थानों की दुनिया भर में ख्याति व्यावसायिक कारणों से ही है। यही हालांकि चीन में भी हुआ है,पर चीन ने फंडामेंटल रिसर्च को नजरअंदाज नहीं किया है। दरअसल, अब इसी पर ध्यान देने का समय है।  हिन्दुस्तान में 10/01/12 को प्रकाशित 
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