वैज्ञानिक अनुसंधान की जरूरत ही किसे है
शशांक द्विवेदी, असिस्टेंट प्रोफेसर, सेंट मार्गरेट इंजीनियरिंग कॉलेज
इसमें
कोई नई बात नहीं हुई। हमेशा की तरह इस बार भी विज्ञान कांग्रेस में चिंता
का विषय यही रहा कि हमारे यहां विज्ञान पर शोध ज्यादा नहीं हो रहा है। चीन
हमसे काफी आगे निकल गया है, वगैरह-वगैरह।
यही बात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उद्घाटन के समय कही और इसी की गूंज
पूरे सम्मेलन में सुनाई देती रही। वैज्ञानिक शोध पर होने वाले खर्च को
बढ़ाना, जरूरी इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाना, छात्रों को इसके लिए प्रोत्साहन देना, समाज में वैज्ञानिकों को महत्व दिया जाना, ये तमाम बातें इस संदर्भ में अक्सर कही जाती हैं, लेकिन बात कभी इससे आगे नहीं बढ़ती।
हमारे देश में वैज्ञानिक अनुसंधान कम हो रहे हैं, इससे ज्यादा चिंता की बात है कि वे लगातार घटते जा रहे हैं। कभी दुनिया भर में होने वाले शोधकार्यों में भारत का नौ फीसदी योगदान था, आज यह घटकर महज 2.3 फीसदी
रह गया है। यह भी सच है कि वैज्ञानिक अनुसंधान की जरूरत ही किसे महसूस हो
रही है। देश में इस्तेमाल की जाने वाली ज्यादातर तकनीक पूरी तरह से आयातित
है। इनमें 55 फीसदी तो बिना किसी बदलाव के ज्यों की त्यों इस्तेमाल होती है और 45 फीसदी
थोड़ा-बहुत परिवर्तन के साथ इस्तेमाल होती है। विकसित तकनीक के लिए आयात
पर निर्भरता के कारण उद्योग जगत की भी देसी अनुसंधानों में कोई दिलचस्पी
नहीं है। उद्योग जगत ऐसे अनुसंधानों में न तो कोई दिलचस्पी रखता है और न ही
इसमें निवेश करना चाहता है। यही वजह है कि भारतीय प्रतिभाएं व वैज्ञानिक
विदशों में जाकर शोध करना ही बेहतर मानते हैं।
जब हम वैज्ञानिक शोध की बात करते हैं, तो हमें एक नजर उच्च शिक्षा पर भी डाल लेनी चाहिए। देश की आबादी का मात्र 10-11 फीसदी हिस्सा ही उच्च शिक्षा ग्रहण कर पाता है। इसके विपरीत जापान में 70-80 प्रतिशत, यूरोप में 45-50 फीसदी, कनाडा और अमेरिका में 80-90 प्रतिशत लोग उच्च शिक्षा लेते हैं। हमारे देश की हर 10 लाख आबादी पर सिर्फ 112 लोग
वैज्ञानिक शोध में लगे हुए हैं। इस संख्या को बढ़ाने के लिए उच्च शिक्षा
और उसकी गुणवत्ता को बढ़ाना सबसे जरूरी काम है। इसके अलावा दुनिया के
ज्यादातर विकसित देश वैज्ञानिक शोध को बढ़ावा देने के लिए अपने रिसर्च फंड
का 30 फीसदी तक हिस्सा विश्वविद्यालयों को देते हैं, मगर
अपने देश में यह अंश सिर्फ छह प्रतिशत है। ज्यादातर विश्वविद्यालयों के
अंदरूनी हालात ऐसे हो गए हैं कि वहां शोध के लिए स्पेस काफी कम रह गया है।
पिछले कुछ समय में शिक्षा पर हमने काफी काम किया है, लेकिन
यह काम मूल रूप से व्यावसायिक शिक्षा तक ही सीमित है। आईआईटी जैसे
संस्थानों की दुनिया भर में ख्याति व्यावसायिक कारणों से ही है। यही
हालांकि चीन में भी हुआ है,पर चीन ने फंडामेंटल रिसर्च को नजरअंदाज नहीं किया है। दरअसल, अब इसी पर ध्यान देने का समय है। हिन्दुस्तान में 10/01/12 को प्रकाशित
लेख लिंक
http://www.livehindustan.com/news/editorial/guestcolumn/article1-story-57-62-211014.html
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