एटम
बम से अधिक खतरनाक है प्लास्टिक
आंध्र प्रदेश आधारित दो गैर-सरकारी संगठन द्वारा दायर जनहित
याचिकाओं की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस जीएस सिंघवी और जस्टिस एसजे
मुखोपाध्याय की बेंच ने देश में प्लास्टिक थैलियों के अनियंत्रित उपयोग और उनके
निपटारे के तरीके पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि प्लास्टिक की थैलियां और अन्य
सामान ङीलों,
तालाबों, सीवेज सिस्टम आदि को अवरुद्ध कर रहे हैं। प्लास्टिक के
सामानों के कारण भावी पीढ़ी के समक्ष एटम बम से बड़ा खतरा खड़ा हो गया है। जनहित याचिका
में अदालत का ध्यान इस बात की ओर आकृष्ट किया गया था कि प्लास्टिक थैलियां के
गैर-जिम्मेदाराना तरीके से निपटान का नतीजा है कि गायों के पेट से 30 से 60 किलो तक
प्लास्टिक की थैलियां निकाली हैं। इन गैर सरकारी संगठनों ने अदालत से अनुरोध किया
है कि उन नगर निगम क्षेत्रों में प्लास्टिक थैलियों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाए
जाएं, जहां कचरा संग्रहण की त्वरित व्यवस्था
नहीं है और कचरा निपटान की आधुनिक व्यवस्था नहीं रखते हैं। उनका कहना है कि
यथाशीघ्र कचरा उठाने की व्यवस्था के अभाव में गाय और अन्य पशु कचरे के डिब्बों और
कचरा घर में खाने की चीजों के साथ प्लास्टिक की थैलियां निगल जाते हैं। यद्यपि इन
एनजीओ ने प्लास्टिक की थैलियों को लेकर खड़ी हो रही एक खास किस्म की समस्या की ओर
अदालत का ध्यान आकृष्ट किया था, परंतु
अदालत ने प्लास्टिक थैलियों के अंधाधुंध उपयोग से बढ़ रहे खतरे पर विचार किया।
अदालत का मानना है कि प्लास्टिक की थैलियों और प्लास्टिक के
सामान के अनियंत्रित उपयोग के कारण प्रकृति, पर्यावरण, सम्पूर्ण मानव जाति और सभी जीव-जंतुओं के लिए भयंकर खतरा
खड़ा हो रहा है। खास बात यह है कि प्लास्टिक थैलियां और प्लास्टिक सामान के बढ़ते
चलन को लेकर एनजीओ के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण के समर्थकों और प्रकृति प्रेमियों
द्वारा व्यक्त की जाती रही चिन्ताओं की ओर आज तक सरकार चलाने वालों की ओर से एक
शब्द भी सुनने को नहीं मिल सका। प्लास्टिक का इतिहास काफी पुराना है। पहले यह जैव
व्युत्पन्न सामग्री थी, लेकिन
कालान्तर में रसायन तकनीक के विकास के चलते पूरी तरह से सिंथेटिक मॉलीक्यूल्स वाला
प्लास्टिक आ गया। 1856 में
बिरमिंघम का पाकेर्साइन प्लास्टिक सामग्री प्रस्तुत करने वाले एलेंक्जेंडर पार्केस
ने 1862 की ग्रेट इंटरेनशनल एक्जीबिशन में
पार्के साइन के लिए कांस्य पदक से सम्मानित किया गया था। तब लोगों ने कल्पना नहीं
की होगी यह खोज इतने आगे बढ़ जाएगी, उसके नये
रूप सामने आते जाएंगे और एक दौर ऐसा भी आएगा जब प्लास्टिक से संभावित खतरों से
लोगों को आगाह करना जरूरी लगने लगेगा।
हालांकि शुद्ध प्लास्टिक में आमतौर पर अल्प विषाक्तता होती
है। लेकिन कुछ प्लास्टिकों में मिलाये जाने वाले अन्य तत्वों और यौगिकों के कारण
उनमें विषाक्तता आ जाती है। यूरोपीय संघ ने प्लास्टिक में डीई एचपी और कुछ अन्य
यौगिकों के मिलाने पर प्रतिबंध लगा रखा है। कारण यह है कि ऐसे प्लास्टिक कंटेनरों
में रखी गई खाद्य सामग्री मानव स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं पाई गई है। जहां
प्लास्टिक के सामान को मानव स्वास्थ्य के लिए खराब माना गया है वहीं इससे
पर्यावरणीय मुद्दे भी जुड़ गए हैं।
प्लास्टिक का जीवन लंबा होता है। इसका अवक्रमण बहुत धीमी गति
से होता है।
1950 से अब तक एक अरब टन से अधिक प्लास्टिक
बगैर उचित निपटान के यूं ही फेंका जा चुका है। यह सैकड़ों-हजारों सालों तक बना
रहेगा। इसके छोटे-छोटे टुकड़ों को खाने की वस्तु समझकर खाने वाली मछलियां और पक्षी
हर दिन मर रहे हैं। गत दिवस एक रिपोर्ट पढ़ने को मिली थी, जिसके अनुसार उत्तर पूर्वी प्रशांत महासागर में पिछले 40 सालों में प्लास्टिक कचरे की मात्रा में सीधे 100 गुना वृद्धि हुई है। प्लास्टिक कचरा
हम मनुष्यों ने ही समुद्र में पहुंचाया है। अब चुनौती यह है कि प्लास्टिक पर अपनी
निर्भरता कैसे कम की जाए ताकि हमारी भावी पीढ़ी एटम बम से खतरनाक प्लास्टिक से बची
रहे। एक बड़ा कदम बगैर की ना-नुकुर के प्लास्टिक थैलियों के उत्पादन और बिक्री पर
प्रतिबंध लगाने का उठाना होगा। प्लास्टिक थैलियों की मोटाई के आधार पर उससे जुड़े
खतरे की घट-बढ़ के मूर्खतापूर्ण तर्को को सिरे से खारिज करना जरूरी है।
दूसरा फैसला उपयोग किये जा चुके प्लास्टिक की री-साइकिलिंग
पर जोर देने का होना चाहिए। वैज्ञानिकों का दावा है कि री-साइकिलिंग से प्लास्टिक
की गुणवत्ता कम हो जाती है। इस दावे में दम है परंतु रास्ता तो खोजना ही होगा।लेखक -अनिल बिहारी
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