Tuesday 18 February 2014

उच्च शिक्षा का गिरता स्तर

एक समय था जब शिक्षा के क्षेत्र में भारतीय उप महाद्वीप का दुनियाभर में परचम लहराता था। नालंदा और तक्षशिला जैसे दो उच्च शिक्षा के केन्द्र उत्कृष्ट शिक्षण के चुनिंदा प्रतीकों में से थे। एक तरह से वे दुनिया के पहले अन्तरराष्ट्रीय शिक्षण संस्थान थे। किंतु इतिहास परिवर्तनशील होता है। कालांतर में भारतीय उच्च शिक्षा की उत्कृष्टता सिर्फ याद रखने की चीज रह गई। मुगलों, और फिर अंग्रेजों के शासन में शिक्षा के लिहाज से वैसा कुछ उल्लेखनीय नहीं रहा। हां, बीसवीं सदी में कुछ शिक्षण संस्थान जरूर बने, लेकिन तब वे वैश्विक नहीं माने जा सकते थे।
स्वाधीनता के बाद उच्च तकनीकी शिक्षा की अपरिहार्यता को ध्यान में रखते हुए भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों की परिकल्पना की गई एवं उनकी बुनियाद रखते वक्त ही यह तय किया गया कि ये संस्थान विश्वस्तरीय हों। ऐसा हुआ भी। तब से लेकर आज तक उच्च तकनीकी शिक्षा के उत्कृष्ट केन्द्रों के रूप में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान अपना विशिष्ट स्थान बनाये हुए हैं। लेकिन पता नहीं क्यों, संप्रग सरकार के 2004 में सत्ता में आने के बाद से लगातार इन उत्कृष्ट शिक्षण केन्द्रों के साथ कुछ ऐसे प्रयोगों का प्रयास हो रहा है जो किसी भी सूरत में बहुत सुखद परिणाम देते नहीं दिखाई देते।
गरिमा से छेड़छाड़ क्यों?
अपनी किंचित कमियों के बावजूद भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों की अपनी एक गरिमा है। भारत के कुछ गिने-चुने वैश्विक प्रतीकों में आई.आई.टी. भी है। फिर क्यों उन स्थापित संस्थानों के साथ छेड़छाड़ की जा रही है? बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के साथ भी इस सरकार ने जो किया है वह सर्वथा निंदनीय है। विश्वविद्यालय से आईटी विभाग को अलग करके वहां संप्रग सरकार ने अपनी अपरिपक्व सोच का ही प्रदर्शन किया है।
इसी तरह की सोच वाली यह सरकार मानती है कि आईआईटी की प्रवेश प्रक्रिया में कुछ दोष है। शायद यह एक प्रकार से अभिजात्य वर्ग के पक्ष में झुकी हुई है और बारहवीं के परीक्षा परिणाम पर ज्यादा केन्द्रित नहीं है। क्या सचमुच ऐसा है? नहीं, यह इस सरकार की अपनी सोच है और कोई सर्वेक्षण या शोध ऐसा नहीं दिखाता है। जहां तक अभिजात्य वर्ग के प्रति झुकाव का प्रश्न है तो यह साबित करने के लिए बिहार के सुपर 30 का प्रयोग ही काफी है। बारहवीं की पढ़ाई का जहां तक प्रश्न है तो उसके लिए भी पर्याप्त आंकड़ा और तथ्यों की आवश्यकता है। रहा सवाल संयुक्त प्रवेश परीक्षा के क्लिष्ट होने का तो इसमें दोष क्या है? आईआईटी को स्थापित ही तकनीकी शिक्षण के उत्कृष्ट केन्द्र के रूप में किया गया था। स्वाभाविक है कि जो उन संस्थानों में प्रवेश के लिए सर्वथा उपयुक्त हो वही चयनित हो। तभी इन की उत्कृष्टता बनी रहेगी। इसके अलावा राष्ट्रीय स्तर पर जो अन्य अभियांत्रिकी पाठ्यक्रमों के लिए प्रवेश परीक्षाएं होती हैं उनके द्वारा चयनित छात्रों और आईआईटी के लिए आयोजित संयुक्त प्रवेश परीक्षा द्वारा चयनित छात्रों में जो फर्क है वह स्पष्ट तौर पर साबित करता है कि दोनों परीक्षाओं में बुनियादी अंतर है।
एक और प्रस्ताव पर भी चर्चा करनी चाहिए जो बारहवीं की परीक्षा के परिणामों को पचास फीसदी मान देने की वकालत करता है। इस प्रस्ताव में दो खामियां हैं। पहली तो यह कि प्रतियोगी परीक्षाओं में ऐसा करना तर्कपूर्ण नहीं है। दूसरे, देश भर में बारहवीं की परीक्षा के बीसियों बोर्ड हैं जो राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर संचालित हैं। हर बोर्ड का स्तर अलग है, मूल्यांकन पद्धति अलग है। गुणवत्ता के लिहाज से इनमें भिन्नता होनी स्वाभाविक है। तो आखिर यह कैसे निर्धारित होगा कि दो भिन्न बोर्डों से उत्तीर्ण विद्यार्थी एक ही स्तर के होंगे? ये ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर ढूंढना आसान नहीं है।
संस्थानों की स्वायत्तता
दरअसल शिक्षा का जहां तक प्रश्न है तो शायद ही कोई ऐसा विकसित देश होगा जहां शिक्षा के क्षेत्र में इतनी ज्यादा असमानता होगी। हमारे देश में शिक्षा राज्य का विषय है और इसलिए उसमें राज्यों के अपने अधिकार हैं। उनको ध्यान में रखकर ही शिक्षा के क्षेत्र में परिवर्तन करना श्रेयस्कर रहेगा। एक धारणा यह भी है कि शिक्षा के क्षेत्र में जितना ज्यादा प्रयोग हमारे देश में हुआ है उतना शायद ही कहीं हुआ हो। उसी का परिणाम है कि कुछ एक राष्ट्रीय संस्थानों को छोड़कर बाकी सभी संस्थानों की उत्कृष्टता पर प्रश्नचिन्ह लगा है।
नीति वही जो सुखद हो
यदि शिक्षा पर अब तक के सबसे चर्चित और व्यापक दस्तावेजों में से एक, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 की चर्चा करें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि उसमें शैक्षणिक संस्थानों की स्वायत्तता पर बल दिया गया था और यह आशय था कि इससे उत्कृष्टता आएगी। उस नई शिक्षा नीति के दस्तावेज में यह माना गया था आईआईटी व अन्य राज्य व राष्ट्रीय स्तर के तकनीकी संस्थानों में व्यापक फर्क है एवं आईआईटी संस्थान उत्कृष्टता के प्रतीक हैं। इस नीति दस्तावेज में इस संस्थान के राष्ट्रीय विकास में योगदान को स्वीकारा गया था तो आईआईटी को आज एक नये नजरिये से देखने की क्या आवश्यकता है? जिस संस्थान के विद्यार्थियों का विकसित देश भी लोहा मानते हैं उसे उत्कृष्टता की एक अलग श्रेणी में न रखने की कवायद क्यों? यदि बदलाव ही चाहिए तो वह हमारे अन्य संस्थानों की उत्कृष्टता बढ़ाने की दिशा में हो। हर विद्यार्थी आईआईटी के योग्य नहीं होता और इसलिए आईआईटी का एक अलग वर्ग रहे तो ही बेहतर। अवसर की समानता का यह अर्थ नहीं कि असमान को समान बनाने का प्रयास किया जाए। प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से उस फर्क की पहचान होनी चाहिए जोकि आज तक होता आ रहा था। कहीं ऐसा तो नहीं कि नई पद्धति आईआईटी की विशिष्टता को ही कमतर कर दे? इस पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। सभी प्रश्नों के मान बराबर हों, यह तो ठीक है, लेकिन सभी उत्तरों के मान बराबर कैसे हो सकते हैं? 
पूर्व अफ्रीकी राष्ट्रपति नेल्सन मण्डेला ने एक बार कहा था कि ‘‘शिक्षा वह हथियार है जिसके माध्यम से हमदुनिया को अहिंसक ढंग से परिवर्तित कर सकते हैं’’ । उच्च शिक्षा ऊर्जा घर हैं, क्योंकि विश्वविद्यालयों का प्रमुखकार्य शोध एवं उन्नत तकनीक की खोज करना है ।
कोठारी आयोग ने यह सुझाव दिया था कि भारत को अपने सकल घरेलू उत्पाद का कम से कम 6 प्रतिशत शिक्षापर व्यय करना चाहिए । किन्तु यह हमारे लिए दुर्भाग्य ही है कि भारत सरकार आज भी शिक्षा पर अपने सकलघरेलू उत्पाद का मात्र 3.23 प्रतिशत ही व्यय कर रही है । शिक्षा पर बजट के इस 3.23 प्रतिशत की राशी के 50प्रतिशत को प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा पर व्यय किया जाता है । सवाल यह है कि उच्च एवं तकनीकी शिक्षापर सकल घरेलू उत्पाद का केवल 1.62 प्रतिशत व्यय करने पर इसका कितना विकास होगा और उच्च शिक्षा कीगुणवत्त कैसी होगी?
भारत सरकार के मानव विकास मंत्री ने यह स्पष्ट किया है कि भारत में कुल 22 करोड़ विद्यार्थी पढने जाते हैं,जिनमें से मात्र 13 प्रतिशत छात्र ही उच्च शिक्षा पाने के लिए कालेजों में दाखिला लेते हैं । यह साफ तौर परदर्शाता है कि भारत सरकार अपने शिक्षा क्षेत्र के प्रति गंभीरता का दिखावा मात्र कर रही है, जबकि वास्तव मेंइसकी सुनियोजित तरीके से अनदेखी की जा रही है । एक ओर, जहां निजी संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों को देशमें  प्रवेश की खुली छूट की जा रही है, वहीं दूसरी ओर, सरकारी शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर दिन-ब-दिन गिरताचला जा रहा है ।
शिक्षा के निजीकरण की नीति अपनाकर छात्रों के साथ सरेआम खिलवाड़ किया जा रहा है । आज सरकार बड़ीमुश्किल से भारत के हरेक राज्य में एक-एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय खेल पाई है, जबकी भारत की उच्च शिक्षाको 40-50 प्रतिशत दर पर ले जाने के लिए देश में लगभग 1000 विश्वविद्यालय स्थापित करने होंगे । 11वींपंचवर्षीय योजना में 350 माडल कालेज खोले जाने की घोषणा की गई थी, जिनमें अब तक केवल 19 कालेजों कीस्थापना हुई है । ये लक्ष्य कैसे प्राप्त होंगे? क्या इन संस्थानों की स्थापना हो पाएगी? इन प्रश्नों का सरकार केपास कोई उत्तर नहीं है ।
इंजीनियरिंग एवं मेडिकल के 80 प्रतिशत संस्थान दक्षिण भारत में स्थिति हैं । इनमें से अधिकांश निजी क्षेत्रों केद्वारा संचालित हैं । इनकी प्रवेश फीस ही इतनी है कि अपने बच्चों का इन कालेजों में प्रवेश कराने के लिए गरीब,निम्न मध्यम वर्ग के लोगों को अपनी जिंदगी भर की कमाई दांव पर लगानी होगी । ये संस्थान आम आदमी कोकेन्द्र में रखकर नहीं, बल्की अभिजात्य लोगों के लिए स्थापित किए गए हैं । उच्च शिक्षा की व्यावसायिकमानसिकता के कारण आम आदमी अपने को ठगा सा महसूस करता है । उच्च शिक्षा में विदेशी संस्थानों केनिवेश एवं स्थापना की नीति से आम भारतीय यह सोचने के लिए मजबूर हो गया है कि क्या हमारा देशअमेरिका, इंग्लैण्ड व अन्य यूरोपीय देशों की जरूरतों को पूरा करने का साधन बन कर रह गया है । दूसरे शब्दों मेंजिनका पेट भरा है, उन्हें सरकार और भोजन दे रही है, जो भूखे हंै, उनके लिए कोई व्यवस्था नहीं है ।
उच्च तिथा शिक्षा के क्षेत्र में भारत कितना पिछडा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उत्कृष्टविश्वविद्यालयों की अन्तराष्ट्रीय सूची में 200वें स्थान पर भी नहीं है । इस सूची में 72 विश्वविद्यालयों के साथअमेरिका पहले क्रम पर, 29 विश्वविद्यालयों के साथ ब्रिटेन दूसरे क्रम पर, दक्षिण कोरिया तीसरे क्रम पर, चीनछठवें क्रम पर, कनाडा नौवें क्रम पर और नीदरलैंड दसवें क्रम पर है ।
आखिर भारत शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी कैसे हो सकता है जब यहां शिक्षा पर आवंटित राशि कामनवेल्थ खेलों केलिए खर्च की गई राशि के आधे से भी कम है? सबसे बड़ी समस्या यह है कि शिक्षा का रोजगार से कोई संबंध नहींहै । अनेक देशों में शिक्षा को रोजगार से जोड़ा गया है। देश एवं औद्योगिक स्ंास्थानों की मांग के अनुसार उच्चशिक्षा में कौशल का विकास किया जाता है । मगर हमारे देश के विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों से डिग्रिधारीबेरोजगारों की फौज सड़क जिन्दगी की तलाश में जीवन गंवा रही है ।

आज हम विद्यार्थियों एवं नई पीढ़ी का यह परम कर्तव्य है कि हम इस देश को इन मक्कारों से बचाएं वराष्ट्र-निर्माण में सहयोग करें । आज शिक्षित एवं कौशलयुक्त मानव शक्ति के अभाव में हमारा देश निर्जीव सापडा है, उसमें हम सभी मिलकर नए प्राण फूंकने का प्रयास करें ।

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