सूर्यकांत मिश्र
जब रूस, चीन, जर्मनी, फ्रांस आदि अपनी भाषा का प्रयोग कर समर्थ बन सकते हैं तो हम क्यों नहीं बन सकते?
दुनिया में चीन की भाषा मंदरिन के बाद
हिंदी बोलने वाले दूसरे स्थान पर हैं। अंतरराष्ठीय संपर्क भाषा अंग्रेजी होने के
बावजूद हिंदी भी धीरे-धीरे अपना अंतरराष्ट्रीय स्थान ग्रहण कर रही है। भारत की
बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था, बढ़ता हुआ बाजार, हिंदी भाषी उपभोक्ता, हिंदी सिनेमा, प्रवासी भारतीय, हिंदी का विश्व
बंधुत्व भाव हिंदी को बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो रहे हैं। यही कारण है कि अब
अंग्रेजी माध्यम के कई टीवी चैनलों को हिंदी भाषा में प्रस्तुतीकरण करना पड़ रहा
है। हिंदी भाषा को विश्व पटल पर स्थापित करने के लिए एक बड़ी चुनौती संयुक्त
राष्ट्र में हिंदी भाषा को सातवीं भाषा के रूप में स्थान दिलाना है। इसके लिए भारत
के विदेश मंत्रलय की ओर से प्रयास किए जा रहे हैं। इसी के तहत विश्व हिंदी सचिवालय
की मॉरीशस में स्थापना हुई, जिसका उद्घाटन इसी वर्ष मार्च में राष्ट्रपति
रामनाथ कोविंद द्वारा किया गया। हाल में विश्व हिंदी सम्मेलन भी मारीशस में ही
संपन्न हुआ। यह भी अच्छा है कि संयुक्त राष्ट्र की ओर से सप्ताह में एक
दिन-शुक्रवार को हिंदी भाषा में एक समाचार बुलेटिन का प्रसारण शुरू किया गया है।
इससे दुनिया भर में फैले हिंदी भाषियों को अपनी भाषा में संयुक्त राष्ट्र द्वारा
विश्व के समाचार प्राप्त होने शुरू हो गए हैं। विश्व पटल पर हिंदी को स्थापित करने
में सबसे बड़ा कदम पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा तब उठाया गया था, जब उन्होंने 1977 में भारत के विदेश
मंत्री के रूप में संयुक्त राष्ट्र महासभा को पहली बार हिंदी में संबोधित किया था।
कुछ समय पहले संपन्न वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा
भी हिंदी में संबोधन देना उसी कड़ी को आगे बढ़ाने वाला रहा। भाषा को आगे बढ़ाने के
लिए राजनीतिक प्रतिबद्धता बहुत आवश्यक होती है। यह प्रतिबद्धता अंतरराष्ट्रीय स्तर
के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर भी मजबूती से प्रदर्शित की जाए, इसकी प्रबल आवश्यकता
है। आज हिंदी पूरी दुनिया में सिर्फ बोल चाल और संपर्क भाषा के रूप में ही नहीं
बढ़ रही है, बल्कि आधुनिक भी होती जा रही है। हिंदी भाषा के आधुनिक बाजार को
देखते हुए गूगल, याहू इत्यादि भी हिंदी भाषा को बढ़ावा दे रहे हैं। आज हिंदी केवल भारत, भारतवासियों, प्रवासी भारतीयों की
भाषा ही नहीं है, बल्कि कई विकसित और विकासशील देशों में हिंदी अपना
स्थान बना रखी है। अमेरिका जैसे सबसे समर्थ राष्ट्र में हिंदी भाषा के प्रचार
प्रसार के लिए 150 संस्थान हिंदी को सिखा रहे हैं। अन्य पश्चिमी देशों
में भी हिंदी पढ़ाई जा रही है।
इसके चलते हिंदी समर्थ हो रही है। उसमें नए-नए शब्द समाहित हो रहे हैं। हिंदी भाषा में 25 लाख से ज्यादा अपने
शब्द हैं। दुनिया में समाचार पत्रों में सबसे ज्यादा हिंदी के समाचार पत्र हैं।
इसे देखते हुए हम कह सकते हैं कि विश्व पटल पर हिंदी अपना प्रमुख स्थान बना रही है, लेकिन उसके समक्ष
अनेक चुनौतियां भी हैं। ये चुनौतियां अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर
भी हैं। हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ाना अभी भी एक अधूरा लक्ष्य बना हुआ है। हिंदी को
जीवन के विविध क्षेत्रों जैसे विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान, तकनीक, विधि, अर्थशास्त्र, संचार विज्ञान और अन्य अनेक क्षेत्रों में समृद्ध
करना अभी भी शेष है। विज्ञान, तकनीक, विधि और चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में हंिदूी
भाषा को समृद्ध करने के प्रयास और संघर्ष होते रहे हैं। कुछ संघर्ष तो खासे लंबे
खिंचे। बतौर उदाहरण आइआइटी दिल्ली के छात्र श्यामरुद्र पाठक का संघर्ष। 1985 में जब उन्होंने
आइआइटी दिल्ली के छात्र के तौर पर बीटेक की प्रोजेक्ट रिपोर्ट हिंदी में लिखी तो उसे
अस्वीकार कर दिया गया। जब वह अपनी प्रोजेक्ट रिपोर्ट हिंदी में ही पेश करने को
लेकर अडिग बने रहे तो उनका मामला संसद में गूंजा। आखिरकार आइआइटी दिल्ली के
प्रशासन को झुकना पड़ा। इसके बाद पाठक ने अन्य क्षेत्रों में हिंदी के हक के लिए लड़ना
शुरू किया। ऐसे कुछ और लोग हैं जो इसके लिए संघर्षरत हैं कि सुप्रीम कोर्ट में
न्याय अपनी भाषा में मिले और संसद में कानून के निर्माण की भाषा हंिदूी हो। क्या
यह विडंबना नहीं कि देश की सबसे बड़ी अदालत में न्याय की भाषा हमारी अपनी नहीं? इसी तरह संसद में
विधि निर्माण की भाषा भी मूलत: अंग्रेजी है। श्यामरुद्र पाठक के संघर्ष का स्मरण
करते हुए मैं यह उल्लेख करना चाहूंगा कि 1991 में जब मैंने अपने एमडी पाठ्यक्रम की थीसिस हिंदी में प्रस्तुत करने का निर्णय किया तो किंग जार्ज मेडिकल कालेज, लखनऊ के तत्कालीन
प्रशासन के विरोध के फलस्वरूप लगभग एक वर्ष तक संघर्ष करना पड़ा। अंतत: जब उत्तर
प्रदेश विधानसभा से सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित हुआ तब मुङो हंिदूी में शोध
प्रबंध जमा करने की अनुमति मिली। हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि दुनिया के लगभग
सभी विकसित देशों ने अपनी भाषा में ही विज्ञान, तकनीक और चिकित्सा विज्ञान में पढ़ाई को
महत्व दिया है। रूस, चीन , जर्मनी, जापान, फ्रांस जैसे सक्षम देशों में प्रारंभिक से लेकर
उच्च शिक्षा की पढ़ाई उनकी अपनी भाषा में होती है। आखिर जब ये देश अपनी-अपनी भाषा
का प्रयोग कर समर्थ बन सकते हैं तो हम क्यों नहीं बन सकते? माना कि अंग्रेजी
अंतरराष्ट्रीय भाषा है, लेकिन यह कहना सही कैसे है कि वह प्रगति की भी भाषा
है? भारतीय भाषा सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में केवल 7-8 प्रतिशत लोग ही
अंग्रेजी भाषा में पारंगत है, बाकी हिंदी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं का प्रयोग
करते हैं। हमारे देश में लगभग 500 मेडिकल कॉलेज हैं और सभी में चिकित्सा शिक्षा का
माध्यम अंग्रेजी है। अधिकतर मेडिकल कॉलेजों में एमबीबीएस प्रथम वर्ष में
चिकित्सकीय पाठ्यक्रम के अतिरिक्त अंग्रेजी भाषा की भी पढ़ाई होती है ताकि छात्र
एमबीबीएस की पढ़ाई समझने के लिए अंग्रेजी भाषा में पारंगत हो सकें। इस समस्या को
दूर करने का एक मात्र उपाय यही है कि उच्च शिक्षा का माध्यम भी हंिदूी एवं अन्य
भारतीय भाषाओं में हो ताकि विद्यार्थियों को अपनी सरल भाषा में शिक्षा मिले और
उन्हें अंग्रेजी सीखने का अतिरिक्त मानसिक बोझ न पड़े। यह एक तथ्य है कि छात्रों
का अच्छा-खासा समय अंग्रेजी सीखने में खप जाता है। यह समय के साथ ऊर्जा की बर्बादी
है। यह बर्बादी इसलिए हो रही है कि अच्छी उच्च शिक्षा अंग्रेजी में ही उपलब्ध है। (लेखक किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय, लखनऊ में
रेस्पिरेटरी मेडिसिन विभाग के विभागाध्यक्ष हैं)
No comments:
Post a Comment