हरजिंदर, वरिष्ठ पत्रकार
इस महीने की शुरुआत हिंदी के लिए एक अच्छी खबर के साथ हुई
थी। ऑनलाइन कारोबार की अगुवा कंपनी ‘अमेजन’ ने अपना हिंदी साइट शुरू किया है। यानी हिंदी अब ऑनलाइन
खरीदारी की भाषा भी बन गई है। बेशक, इस
बहुराष्ट्रीय कंपनी ने ऐसा हिंदी की सेवा के लिए नहीं किया, बल्कि हिंदीभाषी समुदाय के बीच अपनी कारोबारी संभावनाओं के
विस्तार के लिए किया है। संचार सुविधाओं के प्रसार ने स्मार्टफोन को अब देश के उन
कोनों तक पहंुचा दिया है, जहां
अंग्रेजी अपनी पकड़ खो बैठती है। ऐसे लोगों की क्रय-क्षमता के दोहन के लिए भारतीय
भाषाओं का सहारा लेना तकरीबन सभी ऑनलाइन कंपनियों की मजबूरी बनता जा रहा है। अमेजन
ने तो हिंदी के साथ ही तमाम दूसरी भारतीय भाषाओं की मदद लेने की घोषणा भी कर दी
है। लेकिन हिंदी की शुरुआत सबसे पहले हुई है, क्योंकि
हिंदी ही ऐसी भाषा है, जिससे
देश के बड़े भौगोलिक विस्तार तक पहंुच बनाई जा सकती है।
मानक हिंदी के तौर पर आज जिस
खड़ी बोली का इस्तेमाल किया जाता है, उसे लेकर
एक धारणा यह भी है कि यह भाषा हाट और बाजार में पैदा हुई, वहीं पली-बढ़ी है। तमाम तरह के समाजवादी रुझानों के चलते
हिंदी क्षेत्र की राजनीति भले ही लंबे समय तक बाजार की संभावनाओं के खिलाफ खड़ी
दिखाई देती रही हो, लेकिन सच
यही है कि जैसे-जैसे बाजार का विस्तार हुआ है, हिंदी का आधार मजबूत होता गया है। चाहे वह फिल्मों के रूप में
मनोरंजन का बाजार हो या फिर उपभोक्ता उत्पादों का। उत्पाद के ऊपर के सारे लेबल भले
ही अंग्रेजी में हों, लेकिन
अगर उसे बेचना है, तो
विज्ञापन हिंदी में ही देने होंगे। यह बात देसी-विदेशी कंपनियों ने बहुत पहले ही
समझ ली थी कि उत्पादन प्रक्रिया की भाषा भले ही
कोई भी हो, पर उपभोक्ताओं से संवाद की
भाषा स्थानीय ही रखनी होगी। हालांकि इसमें एक विडंबना
भी छिपी है कि हिंदी के जो विज्ञापन दिन-रात हमारे दिल-दिमाग पर छाए रहते हैं, उनके खुद के उत्पादन की भाषा अंग्रेजी है।
वैसे यह विडंबना कोई नई नहीं
है। यह ऐसी समस्या नहीं है, जो
अंग्रेजों या अंग्रेजी के साथ आई हो। ज्ञान-विज्ञान व प्रशासन की भाषा और लोक भाषा
के बीच का अंतर भारत में काफी समय से रहा है, शायद
सदियों से। और जहां ज्ञान-विज्ञान व प्रशासन की भाषा हिंदी बनाने की कोशिश हुई है, वहां एक ऐसी हिंदी सामने आई है, जो कुछ भी हो, लोकभाषा
नहीं है। इसे अच्छी तरह समझना हो, तो उत्तर
प्रदेश के किसी कल-कारखाने में चले जाइए। वहां नियम यह है कि मजदूरों व
कर्मचारियों से संबंधित कानूनों को हिंदी में लिखकर दीवार पर चिपकाना होगा, ताकि कर्मचारी उन्हें आसानी से पढ़ सकें। लेकिन पढ़ सकने का सच
यह है कि मजदूर या कर्मचारी तो दूर, हिंदी
भाषा में पीएचडी करने वाला भी उस भाषा को पढ़कर समझ नहीं सकता। एक दूसरा उदाहरण
दिल्ली मेट्रो है, जहां हर
कुछ देर के बाद यह उद्घोषणा होती है- ‘दृष्टिबाधित
व्यक्तियों हेतु बने स्पर्शणीय पथ पर न चलें।’ शासन-प्रशासन के लिए हिंदी के इस्तेमाल पर जोर देने वालों ने हमें
जो अनुवाद की भाषा दी है, उसने
दरअसल अंग्रेजी की सत्ता को ही मजबूत करने का काम किया है।
लेकिन हिंदी लोकभाषा बनी रहने
के साथ ही ज्ञान-विज्ञान और शासन-प्रशासन की भाषा भी बने, यह हिंदी क्षेत्र का पुराना सपना है। हर साल हिंदी दिवस
दरअसल इसी सपने को दोहराने व संकल्प बनाने की सोच के साथ आता और चला जाता है। इस
दिन हम हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात तो करते ही हैं, उसे विश्व भाषा बनाने के लिए जुट जाने की भी सोचते हैं। वैसे
हिंदी एक अर्थ में विश्व भाषा तो है ही, यह
दुनिया की चौथी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली
भाषा है और इस मामले में अंग्रेजी से थोड़ा ही नीचे है। लेकिन जब यह तर्क दिया जाता
है, तो बात
दरअसल इसे अंग्रेजी की तरह प्रभावी भाषा बनाने की होती है, वरना अंग्रेजी भी तीसरे नंबर की
बोली जाने वाली भाषा ही है। उससे ऊपर चीन की मंदारिन और स्पेनिश है, हिंदी दिवस पर हम इन भाषाओं की बात कभी नहीं करते।
यहां यह जान लेना जरूरी है कि
पिछले तकरीबन दो सौ साल में अंग्रेजी दुनिया की इतनी प्रभावी भाषा कैसे बन गई? इसका एक श्रेय अंग्रेजी साम्राज्यवाद को दिया जाता है, हालांकि यह आधा ही सच है। सही-गलत जो भी तरीका अपनाया गया हो, पर एक दौर में अंग्रेजी समाज इतना ताकतवर हो गया कि दुनिया
के एक बहुत बड़े हिस्से में अपना सिक्का चलाने की स्थिति में आ गया। अंग्रेजों ने
दुनिया के तमाम देशों पर न सिर्फ अपने देश की आबोहवा में पनपे नियम-कानूनों, तौर-तरीकों, भोजन-पहनावों, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, यहां तक कि मछलियों को थोपा, बल्कि उन्हें अपनी भाषा के साथ चलने चलाने की मजबूरी भी दी। इसी के
साथ दूसरा आधा सच यह है कि अंग्रेजी दरअसल औद्योगिक क्रांति की भी भाषा थी।
औद्योगिक क्रांति और उसके उत्पादों के साथ यह दुनिया के उन कोनों में भी पहंुच गई, जहां अंग्रेजों का साम्राज्यवाद भी नहीं पहुंच पाया था।
अंग्रेजी के इस इतिहास का सबक सिर्फ इतना है कि कोई भाषा जब किसी बड़े बदलाव की भाषा या उसका जरिया बनती है, तो जहां-जहां वह बदलाव पहंुचता है, वहां-वहां वह भाषा भी अपनी जड़ें जमाने लगती है। इसे इस तरह भी देखें कि आज हम जिस हिंदी का इस्तेमाल करते हैं, उसे विस्तार मिलना तब शुरू हुआ, जब देश के एक बड़े हिस्से में स्वतंत्रता संग्राम की भाषा बनी। यह स्वतंत्रता संग्राम ही था, जिसने पंजाबी, गुजराती और मराठीभाषी क्षेत्रों में हिंदी को सहज स्वीकार्य बनाया।
अंग्रेजी के इस इतिहास का सबक सिर्फ इतना है कि कोई भाषा जब किसी बड़े बदलाव की भाषा या उसका जरिया बनती है, तो जहां-जहां वह बदलाव पहंुचता है, वहां-वहां वह भाषा भी अपनी जड़ें जमाने लगती है। इसे इस तरह भी देखें कि आज हम जिस हिंदी का इस्तेमाल करते हैं, उसे विस्तार मिलना तब शुरू हुआ, जब देश के एक बड़े हिस्से में स्वतंत्रता संग्राम की भाषा बनी। यह स्वतंत्रता संग्राम ही था, जिसने पंजाबी, गुजराती और मराठीभाषी क्षेत्रों में हिंदी को सहज स्वीकार्य बनाया।
एक दूसरी तरह से देखें, तो भाषा की जमीन और उसके आसमान का मामला सेवा, सपने और संकल्प का मामला नहीं है, बल्कि यह उस भाषा-भाषी समाज की समृद्धि, ताकत और उसके किसी मंजिल विशेष की ओर बढ़ने का मामला है। आइए, इस हिंदी दिवस पर हिंदीभाषी समाज को समृद्ध और ताकतवर बनाने
का संकल्प लें। फिर हिंदी अपने आप ताकतवर हो जाएगी- एक के साधे सब सधे।
सुन्दर आलेख।
ReplyDeleteबेहद लाजबाब !!
ReplyDeleteप्रशंसनीय लेख