स्कन्द शुक्ला
"मान लीजिए कि आप किसी सौ-मंज़िला अट्टालिका की
सबसे ऊँची मंज़िल पर रहते हैं। लेकिन आपके राशन का स्टोर-रूम बेसमेंट में है ,
जबकि रसोईं वहीं आपके पास सौवीं मंज़िल पर। तो ऐसे में क्या होगा
आपके साथ ?"
"मुश्किल होगी।"
"कितनी मुश्किल होगी ?"
"बहुत।"
"आप कैसे व्यवस्था करेंगे ?"
"ऊपर-नीचे बहुत दौड़भाग करनी होगी।"
"और दौड़भाग न हो पायी या न कर पाये तो ? याद रखिए कि इस बिल्डिंग में भोजन की कोई और व्यवस्था नहीं।"
मित्र अब चुप हैं और सोच में पड़ गये हैं।
"मैं बताता हूँ। आप मर भी सकते हैं। भूख से। चोट
से।"
"आपने यह उदाहरण क्यों दिया ?"
"क्योंकि पृथ्वी के समुद्रों में यही बुरा खेल चल रहा
है। रोज़। और इसके ज़िम्मेदार हम हैं।"
"कौन सा खेल ? कैसी ज़िम्मेदारी ?"
"पृथ्वी पर जानवरों के लिए ऑक्सीजन कौन पैदा करता है ?"
"पेड़-पौधे।"
"कौन से पेड़-पौधे सबसे ज़्यादा ऑक्सीजन पैदा करने में
योगदान दे रहे हैं ?"
"यही जो हमारे आसपास हैं।"
"नहीं। न पीपल , न बरगद , न नीम , न आम , न जामुन। वे
हैं समुद्री नन्हें एककोशिकीय जीव जिन्हें फ़ाइटोप्लैंक्टन कहा जाता है। उनमें
पर्णहरित या क्लोरोफ़िल होता है। और वे समुद्र की सबसे ऊपरी सतहों पर रहते हैं ,
जहाँ सूरज के प्रकाश को पाकर वे प्रकाश-संश्लेषण करते हैं। पृथ्वी
की आधी ऑक्सीजन इन्हीं नन्हें जीवों की पैदावार है।"
"तो फिर इनके लिए समस्या क्या हो रही है ?"
"समस्या यह है कि इन प्लैंक्टनों के पोषक तत्त्व नीचे
समुद्री तलहटी पर मिलते हैं। और इनका निवास समुद्री सतह पर है। समुद्र के तल का
पानी ठण्डा होता है समुद्र की सतह के पानी से। लेकिन यह अन्तर थोड़ा होता है। इस
कारण समुद्री जल ऊपर-नीचे होता रहता है। ताकि इन जीवों को पोषक तत्त्व भी मिलते
रहें और इनका प्रकाश-संश्लेषण भी चलता रहे।"
"तो मनुष्य ने क्या बुरा किया इनके साथ ?"
"मनुष्य ने समुद्रों को गर्म करना शुरू कर दिया और
अम्लीय भी। उसने फैक्ट्रियाँ चलायीं , डीज़ल-पेट्रोल फूँके।
नतीजन वायुमण्डल में गर्माहट बढ़ी , जिसे सागरों-महासागरों से
सोख लिया। इस कारण वे गर्म हो उठे और वायुमण्डल की गैसों ने उन्हें अम्लीय कर
दिया।"
"तो ?"
"तो यह कि सतह का गर्म पानी इतना अधिक गर्म है कि अब वह
नीचे नहीं जाता। और नीचे का ठण्डा पानी ऊपर नहीं उठ पाता। नतीजन प्लैंक्टनों को
एक-साथ पोषक तत्त्व पाने और प्रकाश-संश्लेषण करने में समस्या आ रही है। वे ऊपर
रहें कि नीचे जाएँ ? कैसे जिएँ ? कैसे
ऑक्सीजन बनाएँ ?"
"वे कैसे जी रहे हैं ?"
"वे नीचे जा रहे हैं। नष्ट भी हो रहे हैं बड़ी मात्रा
में। लगभग एक-तिहाई से अधिक नष्ट हो चुके हैं। लेकिन फिर वे ऊपर रहकर ऑक्सीजन नहीं
बना पा रहे।"
"तो इसमें तो हमारी ही हानि है।"
"हाँ। पर क्या मनुष्य अपनी हानि समझने योग्य प्रजाति है
? आपको लगता है कि लोग सचमुच वयस्क हैं कि वे अपनी वास्तविक
हानियों पर बात कर सकें ?"
"अगर हम फ़ैक्ट्रियों के प्रदूषण पर नियन्त्रण कर लें ?
डीज़ल-पेट्रोल का प्रयोग सीमित करने की कोशिश करें ? तब तो प्लैंक्टनों की मौत थमेगी न ? समुद्र फिर
ठण्डे होंगे पहले जैसे ?"
"समुद्रों को अपने पूर्व के सामान्य ताप पर पहुँचने में
हज़ार साल तब भी लग जाएँगे , ऐसा वैज्ञानिक मानते हैं। पापों
का प्रायश्चित्त इतनी जल्दी नहीं होता।"
---- ये जब्र भी देखा है , तारीख़
की नज़रों ने ,
लम्हों ने ख़ता की थी , सदियों से सज़ा पायी।
( मुज़फ़्फ़र रज़्मी )
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