पिछले दिनों जैव विविधता पर हैदराबाद में संपन्न हुए संयुक्त राष्ट्र संघ के 11 वें अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के नतीजे बहुत उत्साह जनक नहीं रहें । 19 दिनों तक चलने वाले इस विश्व स्तरीय सम्मलेन में 192 देशों के लगभग 12000 प्रतिनिधियों ने भाग लिया लेकिन जैव विविधता को सहेजनें के लिए किसी विशेष कार्ययोजना पर सहमति नहीं बन पायी है । जबकि जैव विविधता पर ध्यान देनें के लिए ठोस क्रियान्वयन की सख्त जरुरत है । वैश्विक प्रयासों के बावजूद 2010 में तय किए गए जैव विविधता के लक्ष्या को पूरी तरह हासिल नहीं किया जा सका।
जैसा कि हर सम्मेलन में होता है इस
बार भी हुआ जल, जंगल, जमीन के संरक्षण के जितने भी
अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन और कार्यक्रम होते हैं, उनमें
विकासशील और विकसित देशों के बीच आर्थिक मुद्दों पर विवाद होता है । इस सम्मेलन
में जैव विविधता के भविष्य के लिए 30 प्रस्तावों पर विचार
हुआ । इनमें से 28 पर सभी ने अपनी मुहर लगा दी । जिन दो पर
सहमति नहीं बन पाई वे दोनों जैव विविधता को आर्थिक सहायता देने से संबंधित थे । इस
कांफ्रेंस में विकासशील देशों के ग्रुप -77 की मांग थी कि
विकसित देश आर्थिक योगदान बढ़ाए । लेकिन विकसित देश और विशेषकर यूरोपियन यूनियन के
सदस्य इसे मानने के लिए तैयार नहीं हुए । विकसित देश अधिक जिम्मेदारी उठाना नहीं
चाहते और वो चाहते है कि विकासशील देश ही
जैव विविधिता दुनिया में गर्म होती जलवायु, कम होते जंगल,
विलुप्त होते प्राणी, प्रदूषित होती नदियों,
सभी को बचाने का काम करें ।
यहाँ तक कि इन कामों के लिए वे पर्याप्त आर्थिक मदत देने के लिए भी तैयार नहीं है
। इस सम्मेलन में भी विकसित और विकासशील देशों के बीच यही मतभेद रहें । जैव
विविधता के लिए आधुनिक विकास और प्रकृति संरक्षण दोनों के बीच संतुलित तालमेल
बैठाना बहुत जरूरी है । नहीं तो इसका खामियाजा प्रकृति को भुगतना पड़ेगा ।
जैवविविधता पर संकट इसका ही नतीजा है।
समूचे विश्व में 2
लाख 40 हजार किस्म के पौधे 10 लाख 50 हजार प्रजातियों के प्राणी हैं। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजनर्वेशन ऑफ नेचर
(आईयूसीएन) 2000 की रिपोर्ट में कहा कि, विश्व में जीव-जंतुओं की 47677 प्रजातियों में से एक
तिहाई से अधिक प्रजातियाँ यानी 15890 प्रजातियों पर विलुप्ति
का खतरा मंडरा रहा है। आईयूसीएन की रेड लिस्ट के अनुसार स्तनधारियों की 21 फीसदी, उभयचरों की 30 फीसदी
और पक्षियों की 12 फीसदी प्रजातियाँ विलुप्ति की कगार पर
हैं। वनस्पतियों की 70 फीसदी प्रजातियों के साथ ताजा पानी
में रहने वाले सरिसृपों की 37 फीसदी प्रजातियों और 1147 प्रकार की मछलियों पर भी विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है।
विश्व धरोहर को गंवाने वाले देशों की
शर्मनाक सूची में भारत चीन से ठीक बाद सातवें स्थान पर है। पिछले दशक में भारत ने
कम से कम पांच दुर्लभ जानवर लुप्त होते देखे हैं। इनमें इंडियन चीता, छोटे
कद का गैंडा, गुलाबी सिर वाली बत्तख, जंगली
उल्लू और हिमालयन बटेर शामिल हैं। ये सब इंसान के लालच और जगलों के कटाव के कारण
हुआ है।
जैव विविधिता की चिंता अकेले किसी एक
देश अथवा महाद्वीप की समस्या नहीं है और न ही कोई अकेला देश इस समस्या से निपटने
हेतु उपाय कर सकता है। वैश्विक समुदाय को जैव विविधिता संकट के लिए जिम्मेदार माना
जाता है और यह समस्या भी वैश्विक समुदाय की ही है। इसलिए सबकी नैतिक जिम्मेदारी है
कि वे मिल जुलकर इस समस्या से निपटने के रास्ते तलाशें और जैव विविधिता को
संरक्षित करने वाली योजनाओं को क्रियान्वित करें।
दुर्भाग्य से जैव विविधिता पर आयोजित किसी भी वैश्विक सम्मेलन और वार्ता के
दौरान इसके लिए ईमानदार प्रयत्न नहीं दिखा है। वर्तमान में अपने विकास की दुहाई
देकर जैव विविधिता का जिस प्रकार शोषण किया जा रहा है उसका दूरगामी दुष्परिणाम भी
विकास पर ही देखने को मिलेगा। आज आवश्यकता यह है कि विकास के लिए जैव विविधिता के
साथ बेहतर तालमेल बनाया जाए। आरंभ में विकास और जैव विविधिता को दो अलग -अलग
अवधारणा के रूप में देखा जाता था, लेकिन बाद में यह महसूस किया गया कि
विकास और जैव विविधिता को दो अलग-अलग हिस्से नहीं माना जा सकता। जैव विविधिता के
संरक्षण के बिना विकास का कोई महत्व नहीं
है .
अंतरराष्ट्रीय संस्था वर्ल्ड वाइल्ड
फिनिशिंग ऑर्गेनाइजेशन ने अपनी रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि 2030
तक घने जंगलों का 60 प्रतिशत भाग नष्ट हो जाएगा। वनों के
कटान से वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की कमी से कार्बन अधिशोषण ही वनस्पतियों व
प्राकृतिक रूप से स्थापित जैव विविधता के लिए खतरा उत्पन्न करेगी। मौसम के मिजाज
में होने वाला परिवर्तन ऐसा ही एक खतरा है। इसके परिणामस्वरूप हमारे देश के
पश्चिमी घाट के जीव-जंतुओं की अनेक प्रजातियां तेजी से लुप्त हो रही हैं। एक और
बात बड़े खतरे का अहसास कराती है कि एक दशक में विलुप्त प्रजातियों की संख्या पिछले
एक हजार वर्ष के दौरान विलुप्त प्रजातियों की संख्या के बराबर है। जलवायु में
तीव्र गति से होने वाले परिवर्तन से देश की 50 प्रतिशत जैव
विविधता पर संकट है। अगर तापमान से 1.5 से 2.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होती है तो 25 प्रतिशत प्रजातियां पूरी तरह समाप्त हो जाएंगी।
देश के प्राकृतिक संसाधनों का
ईमानदारी से दोहन और जैव विविधता के संरक्षण के लिए सरकारी प्रयास के साथ साथ जनता
की सकारात्मक भागीदारी की जरुरत है । जनता
के बीच जागरूकता फैलानी होगी, तभी इसका संरक्षण हो पायेगा । जैव
विविधता के संरक्षण का सवाल पृथ्वी के अस्तित्व से जुड़ा है। इसलिए विश्व के जीन पूल को कैसे बचाया जाए इस पर पूरी
दुनियाँ को गंभीरता से विचार करते हुए ठोस निर्णय लेना होगा ।
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