Sunday 14 October 2012

हिंग्स बोसॉन और सत्येंद्र नाथ बोस पर विशेष लेख



हिंग्स बोसान (गॉड पार्टिकल) पर  शोध करने वाले सतेन्द्र नाथ बोस पर विशेष लेख ...जिन्हें नोबेल पुरस्कार समिति और भारत दोनों ने लगभग भुला दिया ...उनको याद करते हुए ये लेख
हिंग्स बोसॉन पार्टिकल की खोज की चर्चा पूरे विश्व में हैं । सत्येंद्र नाथ बोस के योगदान के कारण भारत के लिए यह और भी अधिक विशेष घटना हो जाती हैं । यह एक महत्वपूर्ण खोज हैं लेकिन यह अभी भी शुरुआती चरण में हैं । सर्न ने अभी जिस पार्टिकल की खोज की हैं वो हिग्स बोसन पार्टिकल की तरह हैं । अभी तक पीटर हिंग्स ने 1964 में थियोरिटिकल तौर इसे खोजा था लेकिन स्टैंडर्ड मॉडल के बाकी कणो जैसे क्वार्क और लिपटोन की तरह लैब में नहीं देखा गया था । लेकिन अब यह लंबी खोज पूरी हो गयी हैं आने वाले समय में इस पार्टिकल का अध्यन्न और उसके परिणाम ब्रह्मांड से जुड़े कई रहस्यो की खोज की दिशा तय करेंगे । लेकिन अभी तक इस पार्टिकल के बारे में बुनियादी बाते वैज्ञानिको को ज्ञात नहीं हैं और जिसका पता आने वाले समय में उसके अध्यन्न के बाद ही हो पाएगा । लेकिन यह माना जा सकता हैं की हिंग्स बोसॉन शायद भविष्य में विज्ञान की नयी खोजो को एक का आधार बनेगा । हमें दुनिया की सबसे छोटी इकाई मिल गयी हैं और अब इसकी खोज विज्ञान को एक दिलचस्प दिशा में ले जाएगी ।
भारत का इस इस खोज से एक विशेष नाता हैं । जिस पार्टिकल की खोज हुयी , जो स्टैंडर्ड मॉडल ऑफ पार्टिकल फ्जिक्स की इकाई हैं उसके आधार के जनक एक भारतीय वैज्ञानिक थे जिनका नाम सत्येंद्र नाथ बोस था । भारतीय विज्ञान समाज के लिए एक एक उत्साह वर्धक बात हैं की आधुनिक विज्ञान की प्रमुख डिस्कवरी का आधार भारत में तैयार हुआ था । सोच कर ही यह दिलचस्प लगता हैं की जहाँ हम हमेशा से यह कहा जाता हैं की भारत में रिसेर्च , विज्ञान , इनवेंट और डिस्कवरी शब्द बड़े तौर पर मौजूद नहीं हैं वहीं आज जब हमें या जानकारी मिलती हैं की आज से लगभग 90 वर्ष पहले एक भारतीय वैज्ञानिक ने भारत में रहकर एक एसी भौतिकी-गणितज्ञ गणना समीकरण का ईजाद किया जिसने क्वान्टम मेकेनिक्स की नीव रखी तो यह हर भारतीय के लिए गर्व और एक संदेश भी देती हैं  ।
आज से 90 वर्ष पूर्व सत्येंद्र नाथ बोस ने Planck’s black body radiation law का गहन अध्यन्न किया और ब्लैक बॉडी रेडिएशन की फोटोन गैस के रूप में पहचान की । उन्होने मेक्स प्लांक जिन्होंने क्वान्टम मेकेनिक्स की रचना की , के ब्लैक बॉडी रेडीयेशन नियम में लाइट क्वांटा या फोटोन गैस को लेकर प्रतिवाद था जिसको लेकर आईस्टीन भी असहमत थे । यह समय था 1920 का जब क्वान्टम मेकेनिक्स में यह गुत्थी की तरह  थी, क्वान्टम मेकेनिक्स के विकास हो तो रहा था लेकिन गति बेहद धीमी थी क्योंकि कहीं न कहीं प्लांक्स के नियम को अगले चरण तक ले जाना था । उसी समय भारत में ढाका विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर सत्येद्र नाथ बोस , क्वान्टम मेकेनिक्स के अध्यन्न में आए और उन्होने 1924 को एक चार पेज के एसे रिसेर्च पेपर लिखा जिसका शीर्षक था Planck’s Law and the Hypothesis of Light Quanta (1924)जो आज मॉडर्न क्वान्टम मेकेनिक्स और कणो से जुड़ी किसी भी खोज , अध्यन्न का आधार हैं । सत्येंद्र नाथ का यह रिसेर्च पेपर आगे चलकर बोस आइंस्टीन स्टेटिक्स और बोस आइंस्टीन कनडेनसेट ( एक तरह की स्टेट ऑफ मैटर ) के रूप में बदला जिसकी खोज सत्येंद्र नाथ बोस और आइंस्टीन ने खुद मिलकर की ।
उनके बारे में लिखा गया की
“Bose entered the quantum arena and set out to derive Plancks law treating radiation as a gas consisting of photons. What Bose had essentially introduced was a new counting rule for the states of a gas of photons – or the quanta of light – that explained Plancks law of thermal radiation at one stroke.”
आज हम सत्येंद्र नाथ बोस को लगभग भूल चुके थे , एसे में अगर हिग्स बोसॉन की खोज न जुई होती तो आज भी यह महान वैज्ञानिक भारत में खोया हुया होता । आज से पहले जब भारत में इनके बारे में बेहद कम जानकारी लोगो के बीच थी , एसे में इंटेरनेशनल समुदाय से हिग्स बोसॉन की खोज में बोस को उचित स्थान देने या न देने की बहस शायद ही सही हो । जब हम उन्हें भरतिया होकर उन्हें भुला दिये तो बाकी से उम्मीद रखना बेमानी हैं । 1974 में उनकी मृत्यु के बाद सरकार और भारतीय विज्ञान जगत ने उन्हें लगभग भुला दिया था । यह शायद इस बात को भी बोध कराता हैं भारत में बोस जैसे कई वैज्ञानिक होंगे जिन्हें शायद आइंस्टीन के साथ करने का मौका भले न मिल पाया हो और इतने भाग्यशाली न हो जिनके नाम पर खोज को पहचाना जाता हो , वो गुमनाम में अपना जीवन बीता कर जा चुके हो या किसी विश्वविद्यालय में अपने ऑफिस में लगातार विज्ञान की सेवा कर रहे हो , पर हम उनके बारे में अनजान हैं ।
सत्येंद्र नाथ बोस का जन्म 1 जनवरी 1894 को कोलकाता में हुआ था। मित्रों के बीच सत्येनऔर विज्ञान जगत में एस. एन. बोसके नाम से जाने जाते थे । इनके पिता श्री
सुरेन्द्र नाथ बोसरेल विभाग में काम करते थे।
उनकी आरंभिक शिक्षा उनके घर के पास ही स्थित साधारण स्कूल में हुई थी। इसके बाद उन्हें न्यू इंडियन स्कूल और फिर हिंदू स्कूल में दाखिला लिया । स्कूली शिक्षा पूरी करके सत्येन्द्रनाथ बोस ने कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया। प्रेसिडेंसी कॉलेजजहाँ पर उस समय जगदीश चंद्र बोसऔर आचार्य प्रफुल्ल चंद्र रॉयजैसे महान शिक्षक अध्यापन करते थे। सत्येंद्र नाथ बोस ने सन् 1913 में बी. एस. सी. और सन् 1915 में एम. एस. सी. प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया। मेघनाथ साहा और प्रशांत चंद्र महालनोविस बोस के सहपाठी थे। मेघनाथ साहा और सत्येंद्र नाथ बोस ने बी. एस. सी. तथा एम. एस. सी. की पढ़ाई साथ-साथ की।
उस समय भारत में विश्वविद्यालय और कॉलेज बहुत कम होते थे। अतः विज्ञान शिक्षा प्राप्त छात्रों का भविष्य बहुत सुनिश्चित नहीं होता था। इसलिए बहुत सारे छात्र विज्ञान की बजाय दूसरे विषय को चुनते थे। परंतु कुछ छात्रों ने ऐसा नहीं किया। और इन्हीं में ही वही लोग हुये जिन्होंनें भारतीय विज्ञान में नये अध्याय जोड़े। सी. वी. रामन का जीवन इसका बहुत अच्छा उदाहरण है जो विज्ञान शिक्षा प्राप्त करने के बाद सरकारी नौकरी करने लगे, किंतु विज्ञान के लगाव के कारण नौकरी के साथ-साथ दस वर्षों तक शोधकार्य में भी लगे रहे और अवसर मिलने पर जमी जमायी सरकारी नौकरी छोड़कर पूरी तरह से विज्ञान की साधना में लग गये।
उस समय एक व्यक्ति जो खुद के गणितज्ञ थे जिन्होंने सी वी रमन से लेकर सत्येंद्र नाथ बोस और मेगनाथ साहा का उत्साह वर्धन के साथ बहुत मदद भी की । इनका नाम था सर आशुतोष मुखर्जी  । आशुतोष मुखर्जी पेशे से वकील थे जो बाद में कोलकाता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बने। उस समय बहुत कम भारतीय इतने ऊँचे पद पर पहुँच पाते थे। आशुतोष मुखर्जी अपने विषय में पारंगत थे और साथ ही वह विज्ञान में भी बहुत रुचि रखते थे तथा अपने अतिरिक्त समय में वे भौतिक-गणित पर व्याख्यान भी देते थे। उस समय आशुतोष मुखर्जी ने बहुत सारे विद्यार्थियों को विज्ञान और शिक्षको को विज्ञान में शोध के लिए उत्साहित किया ।
1921 तक सत्येंद नाथ बोस और साहा दोनों कलकत्ता में पढ़ाते रहे । इस बीच दोनों ने कुछ नए अध्यन्न शुरू किए । यह वही समय था जब दुनिया में क्वान्टम फिजिक्स ( मकनिक्स ) से जुड़े अध्यन्न और खोजे प्रसिद्धि पर थी । बोस एक नयी दिशा में भी काम करना चाहते थे तो इसी दौरान बोस प्लांक्स के क्वान्टम फिजिक्स और उनके नियम का अध्यन्न शुरू किया । साहा इस दौरान उनके साथ ही थे । इस दौरान मेघनाद साहा और बोस ने विज्ञान के अध्यन्न से जुड़ी सामाग्री का अनुवाद भी शुरू किया । उस समय अधिकतर रिसेर्च पेपर जर्मन और फ्रेंच में होते थे । साहा और बोस ने खुद भी इस समस्या को महसूस किया । इसके लिए दोनों ने विज्ञान की कई पुस्तक और रिसेर्च पेपर को अँग्रेजी और बांग्ला भाषा में अनुवाद किया । जिसने उस समय भारत में विज्ञान को लेकर उत्सुकता लोगो से लेकर अन्य प्रोफेसर , स्टूडेंट्स को विज्ञान की तरफ रूख करने में सहायता दी । 1919 बोस के दो शोधपत्र बुलेटिन आफ दि कलकत्ता मैथमेटिकल सोसायटी में और सन् 1920 में फिलासॉफिकल मैगजीनमें प्रकाशित हुए। सत्येंद्र नाथ बोस आइंस्टीन से बहुत अधिक प्रभावित थे । अनुवाद के विषय को लेकर ही सबसे पहले सत्येंद नाथ बोस पत्रो के माध्यम से आपस में जुड़े । इसकी शुरुआत तब हुई जब सत्येंद्र नाथ बोस इन आइंस्टीन के जर्मन में लिखे सापेक्षता के सिद्धांत के शोधपत्र का अनुवाद शुरू किया । उस समय आइंस्टीन के उनके शोधपत्रो के अँग्रेजी अनुवाद का अधिकार ब्रिटेन के मेथुईन के पास था , जब मेथुईन के बोस के  अँग्रेजी अनुवाद की जानकारी हुयी तो मेथुईन ने इस पर आपत्ति जताई । बोस ने आइंस्टीन को पत्र लिखा और आइंस्टीन से निवेदन किया की उन्हें अनुवाद की अनुमति दी जाए और वे अनुवाद की केवल भारत के अंदर सीमित रखेंगे । यह वह समय था जब पहली बार बोस और आइंस्टीन सीधे संपर्क में आये थे । आइंस्टीन ने इस मामले में मध्यस्था करते हुये मेथुईन और बोस के बीच मतभेद खत्म किया और बोस को अनुवाद का अधिकार मिला । पर आइंस्टीन और बोस से उनका संपर्क बेहद सीमित था जो एक दो पत्रो तक ही सीमित था ।
1921 में ढाका में ढाका विश्वविद्यालय की स्थापना हुई । कुलपति डॉ. हारटॉग ढाका विश्वविद्यालय में अच्छे विभागों की स्थापना करना चाहते थे। उन्होंने भौतिकी विभाग में रीडर पद के लिए सत्येन्द्र नाथ बोस को चुना । इसके बाद बोस कोलकता विश्वविद्यालय छोडकर ढाका गए । लेकिन साहा उस समय कलकत्ता विश्वविद्यालय में ही कार्यरत रहे और 1924 तक में ढाका विश्वविद्यालय से जुड़े ।
सत्येंद्र नाट बोस ने अब ढाका विश्वविद्यालय में गंभीरता से प्लांक्स के नियमो पर कार्य करना शुरू किया । वे प्लांक्स के ब्लैक बॉडी रेडिएशन से सहमत नहीं थे । इसके बाद उन्होने लाइट क्वांटा को प्लांक्स के नियम से जोड़ा और एक फोटोन गैस और क्वाटम लॉं के बीच एक संबंध स्थापित किया ।
1924 में जब उनके मित्र मेघनाद साहा ढाका आए तो बोस ने साहा को अपने इस शोध की जानकारी थी और साफ किया की उन्होने कक्षा में प्लांक के विकिरण नियम को बेहद गंभीरता से अध्यन्न किया हैं परंतु इस नियम के लिए पुस्तकों में दी गई व्युत्पत्ति से वे सहमत नहीं हैं। मेघनाद साहा ने बोस की शोध को  समझा और उन्हें प्रोत्साहित किया किया वे इस पर और काम करे और अंतिम शोधपत्र तैयार करे और उसे प्रकाशित कराये ।
1924 में सत्येंद्र नाथ बोस ने एक शोध पत्र तैयार किया जिसका नाम उन्होने ‘Planck’s Law and the Hypothesis of Light Quanta’ दिया । वैज्ञानिक परिभाषा में कहे तो “ Bose derived  Planck’s quantum radiation law without any reference to classical physics by using a novel way of counting states with identical particles.”  साधारण तौर पर कहे तो बोस ने अपने तरीक़े से प्लांक के नियम की नयी व्युत्पत्ति दी। बोस के इस तरीक़े ने भौतिक विज्ञान को एक बिलकुल ही नयी अवधारणा से परिचित कराया।  बोस ने क्वान्टम फ़िज़िक्स स्टडि ने एक नई नीव रख थी जो उस समय से लेकर आज तक सभी कणो के खोजो का आधार रही हैं जिसका ताज़ा उदाहरण हिंग्स बोसॉन कण की खोज हैं ।
1924  में जब बोस ने ‘Planck’s Law and the Hypothesis of Light Quanta’ को तैयार कर लिया तो इसे उन्होने दुनिया की जानी मानी विज्ञान शोध पत्रिका फिलासॉफिकल मैगजीन  में प्रकाशित होने के लिए भेजा  । लेकिन उनका शोधपत्र प्रकाशित नहीं हुआ । कुछ समय बीत जानते के बाद बोस ने फिर आइंस्टीन को सीधे यह शोधपत्र भेजने का एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया और बर्लिन में सीधे ‘Planck’s Law and the Hypothesis of Light Quanta’ को भेजा और आइंस्टीन को इस पर विचार प्रकट करने और इसे जर्मन में अनुवाद कर ‘Zeitschrift fur Physik’ विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित करने का निवेदन किया ।
उनका पत्र इस प्रकार था
I have ventured to send you the accompanying article for your perusal and opinion. I am anxious to know what you think of it. You will see that I have tried to deduce the coefficient 8pv2/c3 in Plancks Law Independent of classical electrodynamics, only assuming that the elementary regions in the phase-space has the content h3. I do not know sufficient German to translate the paper. If you think the paper worth publication I shall be grateful if you arrange for its publication in Zeitschrift fur Physik. Though a complete stranger to you, I do not feel any hesitation in making such a request. Because we are all your pupils though profiting only by your teachings through your writings. I do not know whether you still remember that somebody from Calcutta asked your permission to translate your papers on Relativity in English. You acceded to the request. The book has since been published. I was the one who translated your paper on Generalised Relativity.
बोस का शोध बेहद मत्वपूर्ण था और आइंस्टीन ने इस बात को समझा ।  इस शोधपत्र को आइंस्टीन ने स्वयं जर्मन भाषा में अनुदित किया तथा अपनी टिप्पणी के साथ ‘Zeitschrift fur Physik’ में अगस्त 1924 में प्रकाशित करवाया। आइंस्टीन ने इस शोधपत्र के सम्बंध में बोस को एक पोस्टकार्ड भी भेजा था जो बोस के लिए उस समय एक ख़ास चीज़ थी ।
1924  के बाद बोस आइंस्टीन के सीधे संपर्क में आए और आइंस्टीन ने भी बोस के साथ कार्य करने की इक्छा इच्छा जताई । 1924 के बाद बोस भारत के बाहर जाकर शोध कार्य करना चाहते थे , बोस ने विशेष आग्रह कर आइंस्टीन से प्रशंसा पत्र को ढाका विश्वविद्यालय में सम्मलित कर दो वर्ष के लिए अवकाश प्राप्त किया और यूरोप के लिए रवाना हुये । अक्टूबर, 1924 में सत्येन्द्रनाथ यूरोप पहुँचे। बोस पहले एक वर्ष पेरिस में रहे। फ्रांस में रहते हुए बोस ने रेडियोधर्मितामें मैडम क्यूरीके साथ  तथा मॉरिस डी ब्रोग्ली’ (लुई डी ब्रोग्ली के भाई) में  एक्स-रेशोध में साथ में काम किया । मैडम क्यूरी की प्रयोगशाला में बोस ने कुछ जटिल गणितीय गणनाएँ तो कीं परंतु रेडियोधर्मिता के शोध पर अधिक कार्य नहीं कर पाये । मॉरिस डी ब्रोग्ली के साथ बोस का अनुभव बेहद अच्छा रहा। ब्रोग्ली से इन्होंने एक्स-रे की नई तकनीकों के बारे में सीखा। अक्तूबर 1925 में वे बर्लिन गए और आखिर में आइंस्टीन से पहली बार व्यक्तिगत तौर पर मिले । यह मुलाक़ात बोस और आइंस्टीन दोनों के लिए ख़ास थी ।
इसी समय बोस आइंस्टीन स्टेटिक्स और बोस आइंस्टीन कनडेनसेट ( एक तरह की स्टेट ऑफ मैटर ) संकल्पना हुयी । बोस आइंस्टीन स्टेटिक्स अध्यन्न के दौरान पॉल दीयरिक , आइंस्टीन और सत्येंद्र नाथ बोस ने साथ में कार्य किया । इसी समय एक विशेष तरह की कणो की खोज हुयी । इस कण का नाम सत्येंद्र नाथ बोस के नाम पर रखने का फैसला लिया । यह इस बात का प्रमाण हैं की बोसॉन की खोज कितनी महत्वपूर्ण थी ।
आज भौतिकी में कण दो प्रकार के होते हैं एक बोसॉन और दूसरे फर्मियान । बोसॉन यानि फोटॉन , ग्लुऑन , गेज बोसॉन ( फोटोन , प्रकाश की मूल इकाई ) और फर्मियान यानि  क्वार्क और लेप्टॉन एवं संयोजित कण प्रोटॉन ,  न्यूट्रॉन , इलेक्ट्रॉन ( चार्ज की मूल इकाई) । यह आज मॉडर्न भौतिकी का आधार हैं । आज बोस आइंस्टीन स्टेटिक्स आधार हैं स्टैंडर्ड मॉडल ऑफ पार्टिकल फ़िज़िक्स । आज जो भी अणु भौतिकी से जुड़े हैं सभी की सभी शोधो का आधार कहीं न कहीं बोस आइंस्टीन स्टेटिक्स हैं । एक वैज्ञानिक ने बोस के भौतिकी में स्थान के बारे में कहा हैं  “You Don’t Know Who He Was? Half the Particles in the Universe Obey Him! 

1926 में बोस आइंस्टीन सहित गए बड़े वैज्ञानिको के साथ कार्य करने के बाद वापस ढाका आए और ढाका विश्वविद्यालय में अध्यापन शुरू कर दिया । उनके शोध पत्र प्रकाशित होते रहे लेकिन बोस कुछ अन्य भौतिकी और गणितज्ञ संभावनाओ पर काम करने लगे । 1926 से 1945 तक वो ढाका में ही रहे उसके बाद वे कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर के रूप में जुड़े । बोस 1956 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त होकर शांति निकेतन चले गए। शांति निकेतन कवि रविन्द्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित किया गया था। टैगोर सत्येन्द्र नाथ बोस से अच्छी तरह परिचित थे तथा उन्होंने अपनी पुस्तक विश्व परिचयभी बोस को समर्पित की थी। 1958 में उन्हें कलकत्ता वापस लौटे । इसी वर्ष बोस को रॉयल सोसायटी का फैलो चुना गया और इसी वर्ष उन्हें राष्ट्रीय प्रोफेसर नियुक्त किया गया।
सत्येंद्र नाथ बोस का विज्ञान के अलावा एक दूसरे क्षेत्र में भी बहुत गंभीर थे और वो था संगीत । सत्येन्द्र नाथ बोस ललित कला और संगीत प्रेमी थे। बोस के मित्र बताते थे कि उनके कमरे में किताबों, आइंस्टीन, रमन आदि वैज्ञानिकों के चित्र के अलावा एक वाद्य यंत्र यसराज हमेशा रहता था। बोस यसराज औरबांसुरी बजाया करते थे। बोस यसराज किसी विशेषज्ञ की तरह बजाते थे। बोस के संगीत प्रेम का दायरा लोक संगीत, भारतीय संगीत से लेकर पाश्चात् संगीत तक फैला हुआ था। प्रो. धुरजटी दास बोस के मित्र थे। जब प्रो. दास भारतीय संगीत पर पुस्तक लिख रहे थे तब बोस ने उन्हें काफ़ी सुझाव दिए थे। प्रो. दास के अनुसार बोस यदि वैज्ञानिक नहीं होते तो वह एक संगीत गुरु होते।
वर्ष 1974 में सत्येंद्र नाथ बोस ने दुनिया से विदा ली । अंतिम समय में एक संघोष्टि के दौरान उन्होने कहा था की यदि एक व्यक्ति अपने जीवन के अनेक वर्ष संघर्ष में व्यतीत कर देता है और अंत में उसे लगता है कि उसके कार्य को सराहा जा रहा है तो फिर वह व्यक्ति सोचता है कि अब उसे और अधिक जीने की आवश्यकता नहीं है।सत्येंद्र नाथ बोस भारत द्वारा दुनिया को दिये गए सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिको में से एक है ।
आज हिंग्स बोसॉन के खोज हुयी । इस आविष्कार के लिए सत्येंद्र नाथ बोस को याद किया जाना बेहद आवश्यक हैं क्योंकि आज जिस कण की खोज हुयी , उसे पीटर हिंग्स ने 1964 में उसी परिभाषा और नियमो का पालन कर खोजा था जिसकी रचना सत्येंद्र नाथ बोस ने की थी । साधारण परिभाषा में कहे तो हिग्स बोसॉन एक बोसॉन कण हैं वो कण जिसकी संकल्पना सत्येंद्र नाथ बोस ने आइंस्टीन के साथ मिलकर तैयार की थी । यह हिग्ग्स बोसॉन आज दुनिया की सबसे छोटी इकाई हैं जिससे शायद इस ब्राह्मण की रचना हुयी हैं ।
सत्येंद्र नाथ बोस को भले ही नोबल प्राइज़ नहीं मिला लेकिन यह  भी सत्य हैं सत्येंद्र नाथ बोस की खोज के आधार को लेकर की गयी खोजो में पीटर हिग्ग्स समेत कई बड़े वैज्ञानिको को एक दिशा मिली जिन्हें इसी क्षेत्र में नोबल प्राइज़ भी मिला ।
हाल ही में एक प्रोफेसर ने एक आर्टिकल में लिखा शायद सत्येंद्र नाथ बॉस भाग्यशाली हैं की उन्हें उस समय उनकी खोज का श्रेय मिला । उनके नाम पर बोसॉन कण को नाम दिया गया क्योंकि कहीं न कहीं पश्चिमी देशो में एशिया देशो के वैज्ञानिको में भेद भाव होता रहा हैं । शायद अगर बोस आइंस्टीन के सीधे संपर्क में नहीं आते तो उनका नाम कभी भी इस तरह से प्रयोग नहीं किया जाता । आज हिग्स बोसॉन डिस्कवरी के मीडिया कवरेज़ ने बोस को याद नहीं किया लेकिन इस बात से बोस की खोज के महत्ता पर शायद ही कोई फर्क पड़े  ।
पीटर हिग्स इस डिस्कवरी के जनक हैं इसमे कोई दो राय नहीं हैं और सेर्न में काम करने वाले वैज्ञानिक की मेहनत सराहनीय हैं । बोसॉन खुद में सत्येंद्र नाथ बोस को प्रकट करता हैं । यह डिस्कवरी सत्येंद्र नाथ बोस के कागज़ पर पीटर हिग्स की कलम और सेर्न की मेहनत से आज हिग्स बोसॉन पार्टिकल की खोज हो पायी हैं ।
आज पश्चिमी और इंटेरनेशन मीडिया में सत्येंद्र नाथ बोस का नाम हिग्स बोसॉन डिस्कवरी में नहीं लिया जा रहा हैं तो ये शायद उनके जर्नलिज़्म के लिए शर्मिंदिगी की बात हैं क्योंकि कहीं न कहीं मीडिया ने अच्छे से हिग्ग्स बोसॉन कणो के इतिहास और उसके आधार को अध्यन नहीं किया।
हम केवल पश्चिमी मीडिया को दोष नहीं दे सकते , सत्येंद्र नाथ बोस के जीवन काल में सरकार द्वारा उन्हें सम्मान और आदर दिया गया । लेकिन उनकी मृत्यु के बाद उन्हें हमने
खुद भुला  दिया । आज की पीढ़ी उन्हें आज भी नहीं जानती । आज हिग्स बोसॉन डिस्कवरी के बाद भी भारतीय मीडिया नहीं जागी हैं , आज भी मीडिया मेघनाद साहा जो सत्येंद्र नाथ की मित्र थे और खुद एक बहुत बड़े वैज्ञानिक थे उनके बारे में बात नहीं कर रही । भले ही इस बोसॉन की खोज से वो सीधा संबंध न रखे लेकिन वो उस समय से बोस के साथ हैं जब से बोस ने शोध शुरू किया  , सबसे पहले बोस ने अपनी खोज की जानकारी मेघनाद साहा को ही दी थी और कहीं न कहीं बोस के खास मित्र होने के कारण मेघनाद बोस के Planck’s Law and the Hypothesis of Light Quanta  का हिस्सा थे । वो मेघनाद साहा ही थे जिनहोने बोस को रिसेर्च आगे बढ़ाने और अपने शोध पत्र प्रकाशित कारण के लिए उत्साहित किया था  ।
मेघनाद साहा भी उन्हीं वैज्ञानिको में से एक हैं जो भुलाए जा चुके हैं आज जब उन्हें बोस के साथ याद करने का मौका आया तब भी हमारी मीडिया ने साहा से लोगो को नहीं जोड़ा । मेघनाद साहा भारतीय खगोलविज्ञानी (एस्ट्रोफिजिसिस्ट्) थे। वे साहा समीकरण के प्रतिपादन के लिये प्रसिद्ध हैं। यह समीकरण तारों में भौतिक एवं रासायनिक स्थिति की व्याख्या करता है। उनकी अध्यक्षता में गठित विद्वानों की एक समिति ने भारत के राष्ट्रीय शक पंचांग का भी संशोधन किया, जो २२ मार्च १९५७ (१ चैत्र १८७९ शक) से लागू किया गया। इन्होंने साहा इन्सटीच्यूट ऑफ न्यूक्लीयर फिजीक्स तथा इन्डियन एसोसीएसन फार द कल्टीभेशन ऑफ साइन्स नामक दो महत्त्वपूर्ण संस्थाओं की स्थापना की।
प्रश्न साफ हैं की शायद हम खुद देश के वैज्ञानिको को याद नहीं करते तो शायद हम कैसे पश्चिम देशो से यह उपेक्षा करे की वो हमारे वैज्ञानिको का सम्मान करे । कहीं न कहीं भारत देश अपने वैज्ञानिको की उपेक्षा करता आया हैं । आज भी कई एसे वैज्ञानिक हैं जो शोध कार्यो में लगे हुये हैं लेकिन समाज उन्हें पहचानता नहीं हैं । इसमें सरकार और मीडिया की ज़िम्मेदारी तो हैं लेकिन साथ में हमारी ज़िम्मेदारी की हम वैज्ञानिको को कितना सम्मान देते हैं , की हम कितने दिन वैज्ञानिको को याद रखते हैं । यह शायद एक सच्चाई हैं की हम    सम्मान और प्रभावित होने के मामले में वैज्ञानिको को सबसे नीचे स्थान देते हैं । एसे में हमें अपनी सोच में बदलाव करना चाहिए ।
इन सब के बीच इस बात को हमें हमेशा याद रखना चाहिए की भारत ने कुछ एसे वैज्ञानिको को जन्म दिया हैं जिन्होंने भारत में रहकर , भारत के संसधनों का प्रयोग कर कुछ एसी खोजे की हैं जिसने पूरी दुनिया के वैज्ञानिक पटल को ही  बदल दिया और उसे नयी दिशा दी । उन्हीं में से एक थे सत्येंद्र नाथ बोस , एक वैज्ञानिक जिसने विषम परिस्थिति में रहकर  एक एसी खोज पूरी दुनिया को दी जिसके कारण विज्ञान आज ईश्वरीय कण हिग्स बोसॉन जैसे इकाई कण की खोज कर पाया ।
आज मीडिया को नहीं हमें बल्कि हमें निजी तौर पर सत्येंद्र नाथ बोस को याद रखने की जरूरत हैं । सत्येंद्र नाथ बोस ही नहीं बल्कि हमें खुद से भारत के खोये हुये वैज्ञानिको के बारे में जानकारी हस्सिल करनी चाहिए और उसे इंटरनेट जैसे माध्यम के जरिये अपने साथ के लोगो से शेयर करना चाहिए । हो सकता हैं की आज इंटरनेट पर हो सकता हैं कोई आपके द्वारा लिखा आर्टिकल या ब्लॉग किसी पत्रकार , लेखक अथवा डॉक्युमेंट्री मेकर को उत्साहित कर दे जो एक वैज्ञानिक के बारे में बड़े स्तर पर लाने ले आए ।

स्टेम सेल के क्षेत्र में एक बड़ी उपलब्धि


मेडिसिन के लिए सन् 2012 का नोबेल पुरस्कार पाने वाले जापान के शिनाया यामांका और ब्रिटेन के जॉन बी गर्डन ने यह साबित कर दिखाया है कि कैसे एक मच्योर सेल यानी एक परिपक्व कोशिका महज त्वचा, मस्तिष्क या शरीर के किसी अंग विशेष के लिए ही काम नहीं करती, बल्कि इसे फिर से स्टेम सेल की तरह समर्थ बनाया जा सकता है। इससे यह शरीर के किसी दूसरे हिस्से में भी काम आ सकता है। नए स्टेम सेल के बनने का तरीका सामने लाने और मच्योर सेल को फिर उसी रूप में वापस ले आने से चिकित्सा के क्षेत्र में जबर्दस्त बदलाव आया है।
इससे कई तरह के उपचार में मदद मिल सकेगी। गर्डन ने 1962 में ही अपनी यह खोज कर ली थी। उन्होंने एक नए स्टेम सेल के न्यूक्लियस को एक मच्योर सेल के न्यूक्लियस से बदल दिया। यह काम उन्होंने मेंढक के एग सेल में किया। और वह एक सामान्य टेडपोल में बदल गया। मच्योर सेल के डीएनए में पाया गया कि उसमें मेंढक के लिए जरूरी सभी सेल विकसित करने की क्षमता है। यामांका का काम इसके ठीक 40 बरस बाद 2006 में पूरा हुआ। एक तरह से उन्होंने गर्डन के काम को और आगे बढ़ाया। उन्होंने दिखाया कि कैसे मच्योर सेल को इतना समर्थ बनाया जा सकता है कि वह शरीर में हर तरह के सेल पैदा कर सके। इस खोज ने पुरानी अवधारणाओं में परिवर्तन किया।
दुनिया यह समझ गई कि मच्योर सेल की सामर्थ्य भी हमेशा के लिए सीमित नहीं हो जाती। मानव कोशिकाओं को रीप्रड्यूस करने वाले अपने इन प्रयोगों के साथ ही इन वैज्ञानिकों ने बीमारियों के अध्ययन की दिशा ही बदल दी है। इससे डायग्नोसिस और थेरपी के तरीकों में भी बदलाव आया है। दरअसल हम सभी फर्टिलाइज्ड एग सेल्स से विकसित हुए हैं। गर्भाधान के पहले ही दिन से भ्रूण की प्रारंभिक अवस्था में नए स्टेम सेल होते हैं। इनमें यह सामर्थ्य होती है कि वे जीव में बदल सकें। ये प्लुटिपोटेंट सेल कहलाते हैं। जीवन के विकास के साथ ही ये नर्व सेल, लीवर सेल या किसी अन्य तरह के सेल में बदल सकते हैं। ये सभी एक पूरे शरीर के बनने में सहयोगी होते हैं।
लेकिन इस खोज से पहले यह माना जाता था कि इस यात्रा में इमच्योर से स्पेशलाइज्ड सेल बनने की प्रक्रिया में मच्योर सेल सीमित हो जाते हैं। लेकिन गर्डन की खोज के बाद यह सवाल उठा कि क्या यह संभव हो सकेगा कि किसी सुरक्षित सेल को प्लुटिपोटेंट स्टेम सेल में बदला जा सके? यामांका ने इसका उत्तर दिया। उनकी खोज अविकसित स्टेम सेल पर आधारित थी। ये वे सेल हैं जो भ्रूण से अलग हो जाते हैं। इनकी पहचान करने के बाद यामांका ने यह जानने की कोशिश की कि क्या इन्हें रिप्रोग्रैम किया जा सकता है ताकि ये प्लुटिपोटेंट सेल बन सकें। इस काम में उन्हें सफलता हाथ लगी। यह एक बड़ी उपलब्धि है, लेकिन इसे भी अंतिम मान लेना भूल होगी। यह जरूर है कि इससे किसी और बड़े काम में मदद मिल सकती है।(ref-nbt)

भारतीय वर्चस्व की नयी दस्तक

इंडियन टीनेजर ने आइंस्टाइन को पीछे छोड़ा


भारतीय मूल की फैबिओला मान की उम्र महज 15 साल है, लेकिन उनका आईक्यू अल्बर्ट आइंस्टाइन और स्टीफन हॉकिंग से भी ज्यादा है। यकीन नहीं हो रहा! मूल रूप से गोवा की रहने वाली लंदन निवासी फैबिओला मान ने दुनिया की सबसे पुरानी और बड़ी हाई आईक्यू सोसायटी मेंसा आईक्यू टेस्ट में 162 पॉइंट्स हासिल कर अपनी इंटेलिजेंस का लोहा मनवा लिया।

इस आईक्यू के साथ फैबिओला का नाम दुनिया के टॉप 1 पर्सेंट इंटेलिजेंट लोगों की लिस्ट में शुमार हो गया है। फैबिओला का स्कोर बड़े-बड़े साइंटिस्ट्स से भी 2 पॉइंट्स आगे है। मेंसा सोसायटी की स्थापना 1946 में हुई थी। मेंसा ने इसी साल अगस्त में फैबिओला को मेंबरशिप दी थी। दिलचस्प बात यह है कि फैबिओला खुद इस स्कोर की उम्मीद नहीं कर रही थीं।
एक ई-मेल के जरिए फैबिओला ने बताया, 'मैंने मेंसा के बारे में सुना था सो मैंने टेस्ट देने के बारे में सोचा।' उन्होंने बताया कि वह पहेलियों में हमेशा से दिलचस्पी रखती थीं, इसलिए उन्होंने अप्लाई किया और अपने पैरंट्स को टेस्ट की फीस देने के लिए राजी कर लिया।
30 जुलाई को लंदन यूसीएल मेडिकल कॉलेज में तीन घंटे का टेस्ट आयोजित किया गया था। फैबिओला के मुताबिक, 'सवाल काफी कन्फ्यूजिंग थे और उनके जवाब देने का टाइम भी बहुत कम था। इसलिए मैं समझ नहीं पा रही थी कि मैंने कैसा टेस्ट दिया।'
फैबिओला की मां रेने अपनी बेटी के आईक्यू पर खासा गर्व महसूस कर रही हैं। उन्होंने कहा, 'मैंने मेंसा और बच्चों के आईक्यू लेवल के बारे में सुना था, अब मैं काफी खुश हूं कि मेरी बेटी भी टॉप आईक्यू बच्चों में से एक है।'(ref-nbt.in)

सबको साथ लेकर चलने वाला इंटरनेट चाहिए



सचिन पायलट 
इंटरनेट का जन्म कुछ वैज्ञानिकों को एक-दूसरे के साथ जोड़ने के लिए एक प्रयोग के रूप में हुआ था, ताकि वे आपस में रिसर्च से जुड़ी जानकारियों का आदान-प्रदान कर सकें। पर आज यह हमारे जीवन के तकरीबन हर क्षेत्र में शामिल है। यह सूचना और मनोरंजन का सोर्स है, व्यापार और विभिन्न सेवाओं के लिए एक जरूरी माध्यम है और महत्वपूर्ण ग्लोबल पावर है। वर्ष 2000 में दुनिया की केवल 6 प्रतिशत आबादी ऑनलाइन थी लेकिन 2010 में यह संख्या 30 प्रतिशत तक पहुंच गई। संभावना है कि 2016 तक नेटवर्क डिवाइसों की संख्या 15 अरब यानी पूरी दुनिया की आबादी के दोगुनी के बराबर पहुंच जाएगी।
लगातार बढ़ता नेटवर्क
भारत में 93 करोड़ से ज्यादा मोबाइल यूजर्स हैं जबकि 12 करोड़ भारतीय इंटरनेट का उपयोग करते हैं। यह हमारी जनसंख्या का केवल 10 प्रतिशत है। फिर भी यह विश्व में तीसरा सबसे बड़ा इंटरनेट समुदाय है। ज्यादातर नए यूजर्स अब मोबाइल डिवाइसों के माध्यम से इंटरनेट का उपयोग कर रहे हैं। भारतीय बाजार में स्मार्टफोनों का हिस्सा 2.5 प्रतिशत वार्षिक के हिसाब से बढ़ने की संभावना है। ऐसे में 20 अरब रुपए से शुरू की गई ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क योजना हमारे कंप्यूटर नेटवर्क को एकदम पंचायत स्तर तक ले जाएगी। यह ई-लर्निंग, टेली मेडिसिन, ई-प्रशासन और चुस्त वित्तीय प्रबंधन की सरकारी योजनाओं को बेहद आसान बना देगी। विभिन्न विभागों के बीच आपसी सहयोग भी काफी आसान हो जाएगा। सरकार इंटरनेट की पूर्ण स्वतंत्रता में विश्वास रखती है और संविधान में नागरिकों को मिले सामाजिक न्याय, विकास के अवसर और आजादी के प्रति अपनी प्रतिबद्धताओं को महसूस करती है। व्यापक तौर पर उपलब्ध सभी संचार प्रौद्योगिकियों की तरह इंटरनेट भी हमारे समाज और डेमोक्रेसी के लिए उतनी ही महत्वपूर्ण है, जितना कि प्रिंट तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया।

व्यवस्था में बदलाव जरूरी
इंटरनेट पूरी दुनिया के लोगों को एक दूसरे के करीब लाया है। इसने धीरे-धीरे एक जरूरी संसाधन का रूप ले लिया है। लेकिन इसे इस्तेमाल करने वाले असंख्य लोगों की व्यक्तिगत सूचनाएं, उनकी माली हालत की जानकारी, उनके सर्फिंग और ऑनलाइन व्यवहार आदि की तमाम जानकारियां इंटरनेट के रिमोट सर्वरों में होती है। अपने कामकाज को आसान बनाने और जटिल स्थितियों में समाधान प्रस्तुत करने के लिए हम इंटरनेट और इससे जुड़ी दूसरी टेक्नोलॉजी पर बहुत ज्यादा निर्भर हैं। इसलिए जरूरी है कि इसकी आज की व्यवस्था में कुछ बदलाव किए जाएं। अभी इंटरनेट का लगभग पूरा नेटवर्क निजी स्वामित्व में है तथा इनका संचालन भी निजी रूप से किया जा रहा है। इसके रूट सर्वर कुछ ही देशों में केंद्रित हैं। यूरोप और उत्तरी अमेरिका-दोनों महाद्वीपों में कुल मिलाकर एक तिहाई इंटरनेट यूजर हैं, लेकिन दो तिहाई रूट सर्वर हैं, क्योंकि वहां इंटरनेट के इस्तेमाल की शुरुआत पहले हुई। लेकिन आज एशिया भर में इंटरनेट के कुल लगभग 45 प्रतिशत यूजर्स हैं, जबकि रूट-सर्वर सिर्फ 17 प्रतिशत हैं।
इंटरनेट संसाधन के नियंत्रण में इस गैरबराबरी के अलावा, साइबर अपराध का मुद्दा भी अपनी जगह है। यह एक ग्लोबल समस्या के रूप में सामने आया है। हर गुजरते दिन के साथ साइबर स्पेस पर हमले और हैकिंग की मामले बढ़ते जा रहे हैं। हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार बैंकिंग और वित्तीय सेवाओं में पिछले साल तक यह दूसरा सबसे कॉमन अपराध बन चुका था। ऐसे अपराधों के पीछे बड़े पैमाने पर संगठित संसाधन भी काम करते हैं, जिन्हें इंटरनेट के जरिए मिलने वाली गुमनामी से अपने अपराधों को कामयाबी देने में आसानी होती है। सूचना प्रौद्योगिकी संसाधन सभी प्रकार के अपराधों में बढ़-चढ़ कर अपनी भूमिका निभा रहे हैं और साइबर स्पेस से संबंधित कामकाज में भी एंट्री कर चुके हैं। हरेक नागरिक के हितों की रक्षा करने और सूचना प्रवाह को बनाए रखने के लिए पॉलिसी के लेवल पर कोऑर्डिनेशन और अंतरराष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता है।
सूचना प्रौद्योगिकी पर वर्ष 2005 में ट्यूनिस में आयोजित महासम्मेलन में इस बात पर सहमति जताई गई थी कि इंटरनेट से संबंधित अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नीति-निर्धारण के लिए सभी पक्षों में सहयोग को बढ़ावा दिया जाए। हालांकि यह सब अमेरिकी सरकार की पहल पर हुआ, फिर भी आज इंटरनेट उद्यमी भावना का एक सशक्त प्रतीक होने के साथ-साथ पूरे विश्व में क्रिएटिविटी का आधार बन गया है। यह मानव जाति को उसकी भौगोलिक सीमाओं, धर्म और नस्ल का लिहाज किए बिना उस स्थान पर ले गया है जिसकी शताब्दियों से मात्र कल्पना की जाती रही थी। ट्यूनिस महासम्मेलन में किए गए विचार-विमर्श के अनुरूप हम मानते हैं कि इंटरनेट सुशासन में ग्लोबल स्तर पर अधिक-से-अधिक भागीदारी होनी चाहिए। प्रतिभागिता, प्रतिनिधित्व, खुलापन और जवाबदेही इससे जुड़े हुए प्रश्न हैं।
सरकार की नीति
इस संदर्भ में सरकार की नीति यह है कि हम अपनी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को आज के हालात को और ज्यादा अभिव्यक्त करने वाला बनाएं। सूचना सोसाइटी का सर्वाधिक विस्तार एशिया, अफ्रीका और विकासशील क्षेत्रों से आएगा। यूरोप और उत्तर अमेरिका के बाहर इंटरनेट के विस्तार में उभरते देशों की प्रभावी भागीदारी सामने आई है। इंटरनेट विकास की गति जहां एक ओर विकसित बाजारों में बहुत धीमी रही है, वहीं यह विकासशील देशों में तेजी के साथ आगे बढ़ रही है। पहले से ही 50 प्रतिशत से भी अधिक इंटरनेट यूजर्स विकसित दुनिया के बाहर के लोग हैं। यह प्रवृत्ति भविष्य में बढ़ती जाएगी। सभी पक्षों के साथ हमें इंटरनेट सुशासन पर अच्छी तरह विचार करके उसे इस प्रकार कार्यान्वित करना है, जिससे पूरे ग्लोबल समुदाय की आकांक्षाएं, आशाएं और संवेदनाएं साकार हों। जैसे-जैसे इंटरनेट विकास के रास्ते पर आगे बढ़ रहा है और जैसे-जैसे हम सभी इसके न्यूमेरिक सिस्टम में ज्यादा से ज्यादा शामिल होते जा रहे हैं, वैसे-वैसे हमें यह आशा करने का अधिकार मिल रहा है कि हमारी वर्तमान और भावी पीढ़ियों को बेहतर इंटरनेट प्राप्त हो।
(लेखक सूचना और प्रौद्योगिकी राज्यमंत्री हैं) (ref-nbt.in)

Saturday 13 October 2012

हर कोशिका दे सकती है जीवन


मुकुल व्यास।।

स्टेम सेल रिसर्च में पथ-प्रदर्शक माने जाने वाले दो वैज्ञानिकों ब्रिटेन के जान गर्डन और जापान के शिन्या यामांका को इस साल के मेडिसिन के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। इन्होंने सिद्ध किया था कि शरीर की परिपक्व कोशिकाओं को पुन: स्टेम सेल अथवा प्राथमिक कोशिकाओं में बदला जा सकता है। स्टेम सेल से आगे चल कर स्किन, रक्त, स्नायु, मसल्स और बोन जैसे विशिष्ट टिशू बनते हैं। या कहें कि पूरा शरीर बनता है। स्टेम सेल की इन खूबियों को देख कर वैज्ञानिकों को यह लगने लगा कि हम एक दिन स्टेम सेल से नए टिशू निर्मित कर स्पाइनल कोर्ड इंजरी से ले कर पार्किन्सन डिजीज जैसी विभिन्न बीमारियों में क्षतिग्रस्त टिशुओं को बदल सकते हैं।
शुरू में यह मान लिया गया था कि शरीर के मच्योर सेल को वापस स्टेम सेल में बदलना असंभव है। इसका मतलब यह हुआ कि नए स्टेम सेल सिर्फ भ्रूण से ही हासिल किए जा सकते हैं। स्टेम सेल रिसर्च के लिए भ्रूणों का प्रयोग शुरू होते ही एक बड़ा विवाद शुरू हो गया। कई लोगों ने इस तकनीक पर नैतिक सवाल खड़े कर दिए और कुछ देशों ने इस रिसर्च पर प्रतिबंध भी लगा दिया था। लेकिन कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के गर्डन और क्योतो यूनिवर्सिटी के यामांका ने यह साबित कर दिया कि वयस्क कोशिकाओं की रिप्रोग्रैमिंग करके उन्हें फिर भ्रूण स्टेम सेल जैसी अवस्था में बदला जा सकता है। इस खोज ने दुनिया को रिजनरेटिव मेडिसिन अथवा क्षतिग्रस्त टिशुओं के पुननिर्र्माण का रास्ता दिखा दिया। इस रिसर्च से मेडिकल ट्रीटमेंट की दिशा में अभी तक कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आए हैं लेकिन रिसर्चरों ने हार्ट डिजीज, डायबिटीज और अल्जाइमर्स जैसे रोगों के अध्ययन के लिए रोग-प्रधान स्टेम सेल और व्यक्ति-प्रधान स्टेम सेल पर रिसर्च शुरू कर दी है।
वैज्ञानिकों को राहत
गर्डन को क्लोनिंग तकनीक का जनक भी माना जाता है। उन्होंने सन् 1962 में मेंढक का क्लोन तैयार करके दुनिया के वैज्ञानिक समुदाय को हतप्रभ कर दिया था। स्टेम सेल से उन्होंने मेंढक की अंडाणु-कोशिका से न्यूक्लियस हटा कर उसकी जगह एक टेडपोल की आंत से लिए सेल का न्यूक्लियस रख दिया। इस तरह मेंढक का अंडाणु टेडपोल के एक स्वस्थ क्लोन के रूप में विकसित हो गया। यह बहुत ही चौंकाने वाली खोज थी क्योंकि उस समय यह स्पष्ट नहीं था कि क्या शरीर की विभिन्न किस्म की कोशिकाओं में अलग डीएनए होता है या सारी कोशिकाओं में एक जैसी आनुवंशिक सूचनाएं होती हैं। गर्डन के प्रयोगों ने सिद्ध कर दिया कि सभी सेल्स का एक जैसा जनेटिक कोड होता है और प्रत्एक सेल से पूरा जीव या उसके शरीर का कोई विशिष्ट अंग बनाया जा सकता है।
क्लोनिंग की यह तकनीक कई दशकों तक गुमनामी में रही लेकिन स्कॉटिश वैज्ञानिक विलियम इयन विल्मट ने 1997 में गर्डन की रिसर्च को पहली बार स्तनपायी जानवरों पर अपनाया और डॉली भेड़ का क्लोन तैयार करके पूरी दुनिया में तहलका मचा दिया। इसके एक साल बाद ही रिसर्चरों ने पहले मानव भ्रूम स्टेम सेल उत्पन्न किए। इन दोनों वैज्ञानिक उपलब्धियों ने चिकित्सीय क्लोंनिग के विचार को जन्म दिया। आइडिया यह था कि मरीज के स्किन सेल को अनिषेचित अंडाणु में प्रविष्ट किया जाए ताकि उसे प्राथमिक अवस्था में वापस लाया जा सके। इसके बाद भ्रूण स्टेम सेल्स को ऐसे टिशू या अंग में बदला जाए जिसे मरीज के शरीर में बदलने की जरूरत है। चूंकि नए टिशू में मरीज का अपना जीन-समूह होगा, उसके शरीर की प्रतिरोधी प्रणाली द्वारा ठुकराए जाने की संभावना बहुत कम रहेगी। लेकिन इसके लिए मानव अंडाणु कहां से लाएं? स्टेम सेल रिसर्च की गाड़ी यहां अटक गई।
वैज्ञानिक मच्योर सेल्स को फिर से स्टेम सेल्स में बदलने का तरीका खोजने लगे। गर्डन की खोज के लगभग 40 साल बाद जापनी वैज्ञानिक यामांका ने वयस्क कोशिकाओं को वापस स्टेम सेल में बदलने का एक आश्चर्यजनक रूप से सरल तरीका खोज लिया। उन्होंने 2006 में चूहों की स्किन कोशिकाओं में कुछ जीन प्रविष्ट करा कर उन्हें स्टेम सेल्स में बदल दिया। इस तरह उन्होंने यह साबित कर दिया कि मच्योर सेल्स में जो विकास हुआ था उसे पलटा जा सकता है और उन्हें भ्रूण जैसा बर्ताव करने वाली कोशिकाओं में बदला जा सकता है।
यामांका की खोज से वैज्ञानिकों को बड़ी राहत मिली जो नैतिक विवादों के कारण स्टेम सेल में अपनी रिसर्च को आगे बढ़ाने में कठिनाई महसूस कर रहे थे। सेन फ्रांसिस्को में रोडेनबेरी स्टेम सेल बायोलजी सेंटर के प्रमुख डॉ. दीपक श्रीवास्तव का कहना है कि अल्जाइमर्स से पीड़ित रोगी के ब्रेन से जांच के लिए टिशू नहीं निकाला जा सकता, लेकिन हम उसकी स्किन कोशिका को स्टेम सेल में बदल कर उसका अध्ययन कर सकते हैं। डॉ. श्रीवास्तव का यह भी कहना है कि स्टेम सेल्स से व्यक्तिगत चिकित्सा के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है।
रुग्ण कोशिकाओं के अध्ययन से डॉक्टर अब यह तय कर सकेंगे कि मरीज के लिए कौन सी दवाएं ठीक रहेंगी। बहुत जल्द वैज्ञानिक इस तकनीक से टाइप 1 डायबीटिज के मरीजो के लिए इंसुलिन उत्पादक कोशिकाएं और स्पाइनल कोर्ड इंजरी से पीड़ित रोगियों के लिए नए न्यूरोन बनाने की उम्मीद कर रहे हैं। वे रुग्ण टिशुओं को रिप्रोग्रेमिंग के जरिए सीधे स्वस्थ अवस्था में बदलने का भी इरादा रखते हैं। अगले वर्ष एक जापानी टीम स्टेम सेल तकनीक से आंखों में मैकुलर डिजनरेशन रोग को दूर करने की कोशिश करेगी।
बंद न हो प्रयोग
पश्चिम के अनेक नीतिनिर्धारक मानते हैं कि यामांका की रिसर्च के बाद मानव भ्रूण स्टेम सेल्स पर रिसर्च की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन खुद यामांका का कहना है कि भ्रूण स्टेम सेल्स अब भी रिसर्च के लिए बेहद जरूरी हैं। उनका प्रयोग बंद नहीं होना चाहिए। दूसरी तरफ स्टेम सेल्स की सेफ्टी पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। यदि रिप्रोग्रैमिंग के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला महत्वपूर्ण जीन कैंसर के लिए दोषी पाया गया हो तो परिवर्तित कोशिकाओं के भी कैंसरग्रस्त होने का खतरा रहेगा।

Wednesday 10 October 2012

अंतरिक्ष की दुनियाँ में भारत के बढ़ते कदम

शशांक द्विवेदी 
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने पिछले दिनों अंतरिक्ष के क्षेत्र में एक नया मुकाम हासिल करते हुए अपने 100वें मिशन का सफल परीक्षण किया. यह अंतरिक्ष में भारत के बढ.ते कदम का सबूत है कि आज वह काफी हद तक अपने बूते विकास के इन रास्तों पर कदम बढ.ा रहा है. एक वक्त ऐसा भी था, जब अंतरिक्ष में अमेरिका और रूस के बीच ही होड़ बनी रहती थी, जिसे स्पेस रेस के नाम से जाना गया. लेकिन, अब दुनिया स्पेस रेस के दौर से काफी आगे निकल चुकी है और चीन और भारत जैसे देश भी अंतरिक्ष में अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर रहे हैं. अंतरिक्ष में भारत की सफलता को बतलाता शशांक द्विवेदी का प्रभातखबर में आज का विशेष लेख
प्रभातखबर 
पिछले दिनों इसरो द्वारा अंतरिक्ष में अपने सौवें अंतरिक्ष मिशन की सफलता के बाद देश के अब तक के सबसे भारी संचार उपग्रह जीसेट-10 को दक्षिण अमेरिका के फ्रेंच गुयाना स्थित कौरो लॉन्च पैड से एरियन-5 रॉकेट के जरिए सफलतापूर्वक प्रक्षेपित किया गया. यह उपग्रह दूरसंचार, डायरेक्ट-टू-होम प्रसारण और नागरिक उड्डयन की जरूरतें पूरी करेगा. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा निर्मित 3,400 किलोग्राम वजनी जीसेट-10 अब तक का सबसे भारी संचार उपग्रह है. यह नवंबर से काम करने लगेगा और यह 15 वर्ष तक काम करता रहेगा. 

इसे भारत के 101वें अंतरिक्ष अभियान अच्छा स्वास्थ्यके तहत प्रक्षेपित किया गया. जीसेट-10 में 30 संचार अभिग्राही हैं. 12 कू-बैंड में, 12 सी-बैंड में और छह अभिग्राही विस्तारित सी-बैंड में लगे हैं. इसके अलावा इसमें एक नकारात्मक अंतरिक्ष उपकरण गगन लगाया गया है, जो परिष्कृत शुद्धता के जीपीएस संकेत मुहैया करायेगा. भारतीय हवाई अड्डा प्राधिकरण इस उपकरण का उपयोग नागरिक उड्डयन की जरूरतें पूरी करने के लिए कर सकेगा. जीपीएस एडेड जियो ऑगमेंटेड नेविगेशन को संक्षेप में गगन कहा जाता है. मई 2011 में जीसेट-8 के प्रक्षेपण के बाद यह दूसरा उपग्रह है, जिसे अंतरिक्ष उपकरण गगन के साथ इनसेट या जीसेट उपग्रह समूह में शामिल किया गया है.

अंतरिक्ष में बढ़ते कदम
19 अप्रैल, 1975 में स्वदेश निर्मित उपग्रह आर्यभट्ट के प्रक्षेपण के साथ अपने अंतरिक्ष सफर की शुरुआत करने वाले इसरो की यह सफलता भारत के अंतरिक्ष में बढ.ते वर्चस्व की तरफ इशारा करती है. 22 अक्तूबर, 2008 मून मिशन की सफलता के बाद इसरो का लोहा पूरी दुनिया मान चुकी है. चांद पर पानी की खोज का श्रेय भी चंद्रयान-1 को ही मिला. भविष्य में इसरो उन सभी ताकतों को और भी टक्कर देने जा रहा है, जो साधनों की बहुलता के चलते प्रगति कर रहे हैं, लेकिन भारत के पास प्रतिभाओं की बहुलता है.

चुनौतियां भी कम नहीं
अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में हम लगातार प्रगति कर रहे हैं, लेकिन अभी भी हम पूरी तरह से आत्मनिर्भर नहीं हो पाये हैं. अभी भी हमें विदेशों से ट्रांसपोंडर लीज पर लेने पड़ रहे हैं. इसरो को पीएसएलवी दूरसंवेदी उपग्रहों की प्रक्षेपण में दक्षता है, लेकिन लेकिन संचार उपग्रहों के प्रक्षेपण के मामले में हम अभी आत्मनिर्भर नहीं हो पाये हैं. इसी वजह से हमें जीसेट-10 का प्रक्षेपण विदेशी रॉकेट से कराना पड़ रहा है. क्रायोजेनिक तकनीकी के परिप्रेक्ष्य में पूर्ण सफलता न मिलने के कारण भारत इस मामलें में आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है, जबकि प्रयोगशाला स्तर पर क्रायोजेनिक इंजन का सफलतापूर्वक परीक्षण किया जा चुका है. लेकिन स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन की सहायता से लॉन्च किये गये प्रक्षेपण यान जीएसएलवी की असफलता के बाद इस पर सवालिया निशान लगा हुआ है. स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन के विकास में बहुत देरी हो रही है. वर्ष 2010 में जीएसएलवी के दो अभियान विफल हो गये थे, अंतरिक्ष में लंबे समय तक टिकने के लिए हमें इस दिशा में अभी बहुत काम करना है. क्योंकि अंतरिक्ष अब बहुत महत्वपूर्ण हो गया है और हमारा निकटतम प्रतिद्वंद्वी चीन कई मामलों में हमसे बहुत आगे चल रहा है. चीनी रॉकेट नौ टन का पेलोड ले जा सकते हैं, लेकिन भारतीय रॉकेट अभी 2.5 टन से ज्यादा भार नहीं ले जा सकते. इसलिए इस दिशा में लगातार काम करने की जरूरत है.

भविष्य की योजनाओं पर है नजर
इसरो के अध्यक्ष के राधाकृष्णन के अनुसार भारत की अंतरिक्ष योजना भविष्य में मानवयुक्त अंतरिक्ष मिशन भेजने की है. लेकिन इस तरह के अभियान की सफलता सुनिश्‍चित करने के लिए अभी बहुत सारे परीक्षण किये जाने हैं. भारत वर्ष 2016 में नासा के चंद्र मिशन का हिस्सा बन सकता है और इसरो चंद्रमा के आगे के अध्ययन के लिए अमेरिकी जेट प्रणोदन प्रयोगशाला से साझेदारी भी कर सकता है. देश में आगामी चंद्र मिशन चंद्रयान-2 के संबंध में कार्य प्रगति पर है. चंद्रयान-2 के संभवत: 2014 में प्रक्षेपण की संभावना है. इसरो और रूसी अंतरिक्ष एजेंसी रोस्कॉसमॉस के चंद्रमा के लिए संयुक्त मानव रहित इसरो अभियान चंद्रयान-2 मिशन रूस के नीतिगत निर्णय की प्रतीक्षा में अटक गया है. चीन के साथ साझा मिशन विफल हो जाने के मद्देनजर रूस अपने अंतरग्रही मिशनों की समीक्षा कर रहा है. इस पर सरकार को जल्दी फैसले के लिए रूस पर दबाव बनाना प.डेगा. चंद्रयान-2 मिशन 2014 में प्रस्तावित है और इसे भू-समकालिक उपग्रह प्रक्षेपण यान (जीएसएलवी) एम के 2 से प्रक्षेपित किया जायेगा. वर्ष 1969 में प्रसिद्ध वैज्ञानिक विक्रम साराभाई के निर्देशन में राष्ट्रीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन का गठन हुआ था. तब से अब तक चांद पर अंतरिक्ष यान भेजने की परिकल्पना तो साकार हुई. अब हम चांद पर ही नहीं, बल्कि मंगल पर भी पहुंचने का सपना देखने लगे हैं. इन प्रक्षेपित उपग्रहों से मिलने वाली सूचनाओं के आधार पर हम अब संचार, मौसम संबंधित जानकारी, शिक्षा के क्षेत्र में, चिकित्सा के क्षेत्र में टेली मेडिसिन, आपदा प्रबंधन एवं कृषि के क्षेत्र में फसल अनुमान, भूमिगत जल के स्रोतों की खोज, संभावित मत्स्य क्षेत्र की खोज के साथ पर्यावरण पर निगाह रख रहे हंै. 

कम संसाधनों में ऐतिहासिक सफलता का लक्ष्य
कम संसाधनों और कम बजट के बावजूद भारत आज अंतरिक्ष में कीर्तिमान स्थापित करने में लगा हुआ है. भारतीय प्रक्षेपण रॉकेटों की विकास लागत ऐसे ही विदेशी प्रक्षेपण रॉकेटों की विकास लागत के एक तिहाई भर है. इनसेट प्रणाली की क्षमता को जीसैट द्वारा मजबूत बनाया जा रहा है, जिससे दूरस्थ शिक्षा, दूरस्थ चिकित्सा ही नहीं, बल्कि ग्राम संसाधन केंद्र को उत्रत बनाया जा सके. पिछले दिनों ही इसरो ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में इतिहास रचते हुए अपने सौवें अंतरिक्ष मिशन को सफलतापूर्वक अंजाम दिया और पीएसएलवी सी-21 के माध्यम से फ्रांसीसी एसपीओटी-6 को और जापान के माइक्रो उपग्रह प्रोइटेरेस को उनकी कक्षा में स्थापित कर दिया. पोलर सैटेलाइट लॉन्च ह्वीकल (पीएसएलवी) फ्रांसीसी उपग्रह को लेकर अपनी 22वीं उड़ान पर रवाना हुआ था. कुल 712 किलोग्राम वजन वाला यह फ्रांसीसी उपग्रह भारत द्वारा किसी विदेशी ग्राहक के लिए प्रक्षेपित सर्वाधिक वजन वाला उपग्रह है. इसरो की यह सफलता भारत के अंतरिक्ष में बढ.ते वर्चस्व की तरफ इशारा करती है. इसरो ने अब तक 62 उपग्रह, एक स्पेस रिकवरी मॉड्यूल और 37 रॉकेटों का प्रक्षेपण कर लिया है. इससे दूरसंवेदी उपग्रहों के निर्माण व संचालन में वाणिज्यिक रूप से भी फायदा पहुंच रहा है. भविष्य में अंतरिक्ष में प्रतिस्पर्धा बढे.गी. भारत के पास कुछ बढ.त पहले से है, इसमें और प्रगति करके इसका ब.डे पैमाने पर वाणिज्यिक उपयोग संभव है. यदि इसी प्रकार भारत अंतरिक्ष क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हमारे यान अंतरिक्ष यात्रियों को चांद, मंगल या अन्य ग्रहों की सैर करा सकेंगे. इसरो के हालिया मिशन की सफलताएं देश की अंतरिक्ष क्षमताओं के लिए मील का पत्थर हैं. लेकिन इसरो को जीएसएलवी से संबंधित अपनी कुछ असफलताओं से सबक लेते हुए जल्द से जल्द उन्हें दूर करना होगा, तभी भारत अंतरिक्ष के क्षेत्र में एक महाशक्ति के रूप में उभरेगा.
मंजिल अभी काफी दूर!
अंतरिक्ष में बादशाहत की जंग को देखें तो भारत ने भी पिछले कुछ वर्षों में महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की हैं. 22 अक्तूबर, 2008 को चंद्रयान-1 के सफल प्रक्षेपण के बाद अब चंद्रयान-2 को अंतरिक्ष में भेजने की तैयारी हो रही है. यह अंतरिक्ष में भारत के बढ.ते कदम को बतलाता है. लेकिन, इसके बावजूद इस क्षेत्र में भारत चीन से मुकाबला करने की स्थिति में नहीं है. हां अगर इस आपसी रेस से अलग अंतरिक्ष में विकासशील देशों के बढ.ते दखल के हिसाब से देखें तो चीन और भारत की उपलब्धियां इस बात का सबूत हैं, कि अंतरिक्ष विज्ञान में अमेरिका और रूस के प्रभुत्व वाले दिन खत्म हो गये हैं. वर्ष 1992 में भारत जब आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियों का सामना कर रहा था, उस वक्त चीन में प्रोजेक्ट-921 की शुरुआत हुई. यह मिशन इनसान को अंतरिक्ष में ले जाने से संबंधित था. 2003 तक इसके तहत पांच मिशन अंतरिक्ष में भेजे जा चुके थे. अभी तक नौ चीनी नागरिक अंतरिक्ष की सैर कर चुके हैं. इसकी तुलना में भारत अभी दोबारा इस्तेमाल में आने वाले स्पेस ह्वीकल तकनीक के विकास में ही लगा है. इसरो जीएसएलवी-मार्क-3 विकसित कर रहा है. जबकि भारत में इस तरह के प्रोग्राम का कहीं कोई जिक्र नहीं है.
भारत और चीन में प्रतिद्वंद्विता
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की योजना वर्ष 2025 तक मानवयुक्त अंतरिक्ष यान भेजने की है. इसकी योजना सुरक्षा के लिए उपग्रह आधारित कम्युनिकेशन और नेविगेशन सिस्टम इस्तेमाल करने की भी है. लेकिन, भारत का प्रतिद्वंद्वी पड़ोसी चीन का अंतरिक्ष के उपयोग को लेकर भारत से थोड़ा अलग एजेंडा है. इसरो के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, भारत के पास 21 उपग्रह हैं. इनमें से 10 संचार और 4 तसवीर लेने की क्षमता से लैस निगरानी करने वाले उपग्रह हैं. बाकी सात भू-पर्यवेक्षण उपग्रह (अर्थ ऑब्र्जवेशन सैटेलाइट) हैं. इनका इस्तेमाल दोहरे उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है. ये रक्षा उद्देश्यों के लिए भी प्रयोग में आ सकते हैं. चीन से यदि प्रत्यक्ष तुलना करें तो भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम अपनी सफलताओं के बावूद चीन से पीछे नजर आता है, जबकि हकीकत यह है कि दोनों देशों ने एक साथ 1970 के दशक में अपना अंतरिक्ष कार्यक्रम गंभीरता से शुरू किया था. खासकर मानवयुक्त मिशन को लेकर दोनों देशों के बीच फासला काफी बड़ा नजर आता है. भारत के लिए ऐसे किसी मिशन की संभावना अगले दशक में ही है, जबकि चीन ने 2003 में ही मानव को अंतरिक्ष में भेज दिया था.
अमेरिका और रूस का खत्म होता एकाधिकार
अंतरिक्ष में वर्चस्व कायम करने की होड़ 1950 के दशक में दो महाशक्तियों अमेरिका और सोवियत संघ के बीच देखने को मिली थी. इसे स्पेस रेस के नाम से जाना गया. सोवियत संघ ने 4 अक्तूबर, 1957 को पहला कृत्रिम उपग्रह स्पुतनिक-1 पृथ्वी की कक्षा में प्रक्षेपित किया था. इसके बाद अमेरिकी अपोलो-11 अंतरिक्ष यान को चंद्रमा पर 20 जुलाई, 1969 को उतारा गया था. हालांकि, दोनों देशों को इस होड़ की कीमत भी चुकानी पड़ी. 1960 में सोवियत संघ की नेडेलीन नामक दुर्घटना स्पेस रेस की सबसे भयावह त्रासदी थी. दरअसल, 24 अक्तूबर, 1960 को मार्शल मित्रोफन नेडेलीन ने प्रायोगिक आर-16 रॉकेट को बंद और नियंत्रित करने की गलत प्रक्रिया निर्देशित की. नतीजतन, रॉकेट में विस्फोट हो गया, जिससे लगभग 150 सोवियत सैनिकों और तकनीकी कर्मचारियों की मौत हो गयी. उधर, 27 जनवरी 1967 को अमेरिकी यान अपोलो-1 ते ग्राउंड टेस्ट के दौरान केबिन में आग लग गयी और घुटन के कारण तीन क्रू सदस्यों की मौत हो गयी. इसके अलावा दोनों देशों को स्पेस रेस की बड़ी आर्थिक कीमत भी चुकानी पड़ी है. अंतरिक्ष में अब इन दोनों देशों का वर्चस्व खत्म हो रहा है और अन्य यूरोपीय देशों के अलावा चीन और भारत जैसे देश अंतरिक्ष में नया मुकाम हासिल कर रहे हैं.
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