हिंग्स बोसान (गॉड पार्टिकल)
पर शोध करने वाले सतेन्द्र नाथ बोस पर विशेष लेख ...जिन्हें नोबेल पुरस्कार
समिति और भारत दोनों ने लगभग भुला दिया ...उनको याद करते हुए ये लेख
हिंग्स बोसॉन पार्टिकल की खोज की चर्चा पूरे विश्व में हैं । सत्येंद्र नाथ बोस के
योगदान के कारण भारत के लिए यह और भी अधिक विशेष घटना हो जाती हैं । यह एक
महत्वपूर्ण खोज हैं लेकिन यह अभी भी शुरुआती चरण में हैं । सर्न ने अभी जिस
पार्टिकल की खोज की हैं वो हिग्स बोसन पार्टिकल की तरह हैं । अभी तक पीटर हिंग्स
ने 1964 में थियोरिटिकल तौर इसे खोजा था लेकिन स्टैंडर्ड मॉडल के बाकी कणो जैसे
क्वार्क और लिपटोन की तरह लैब में नहीं देखा गया था । लेकिन अब यह लंबी खोज पूरी
हो गयी हैं आने वाले समय में इस पार्टिकल का अध्यन्न और उसके परिणाम ब्रह्मांड से
जुड़े कई रहस्यो की खोज की दिशा तय करेंगे । लेकिन अभी तक इस पार्टिकल के बारे में
बुनियादी बाते वैज्ञानिको को ज्ञात नहीं हैं और जिसका पता आने वाले समय में उसके
अध्यन्न के बाद ही हो पाएगा । लेकिन यह माना जा सकता हैं की हिंग्स बोसॉन शायद भविष्य में विज्ञान
की नयी खोजो को एक का आधार बनेगा । हमें दुनिया की सबसे छोटी इकाई मिल गयी हैं और
अब इसकी खोज विज्ञान को एक दिलचस्प दिशा में ले जाएगी ।
भारत का इस इस खोज से एक विशेष नाता
हैं । जिस पार्टिकल की खोज हुयी , जो स्टैंडर्ड मॉडल
ऑफ पार्टिकल फ्जिक्स की इकाई हैं उसके आधार के जनक एक भारतीय वैज्ञानिक थे जिनका नाम सत्येंद्र नाथ बोस था । भारतीय विज्ञान समाज
के लिए एक एक उत्साह वर्धक बात हैं की आधुनिक विज्ञान की प्रमुख डिस्कवरी का आधार
भारत में तैयार हुआ था । सोच कर ही यह दिलचस्प लगता हैं की जहाँ हम हमेशा से यह
कहा जाता हैं की भारत में रिसेर्च , विज्ञान , इनवेंट और डिस्कवरी शब्द बड़े तौर पर मौजूद नहीं हैं वहीं आज जब हमें या
जानकारी मिलती हैं की आज से लगभग 90 वर्ष पहले एक भारतीय
वैज्ञानिक ने भारत में रहकर एक एसी भौतिकी-गणितज्ञ गणना समीकरण का ईजाद किया जिसने
क्वान्टम मेकेनिक्स की नीव रखी तो यह हर भारतीय के लिए गर्व और एक संदेश भी देती
हैं ।
आज से 90 वर्ष पूर्व सत्येंद्र नाथ बोस
ने Planck’s black body radiation law का गहन अध्यन्न किया
और ब्लैक बॉडी रेडिएशन की फोटोन गैस के रूप में पहचान की । उन्होने मेक्स प्लांक
जिन्होंने क्वान्टम
मेकेनिक्स की रचना की , के ब्लैक बॉडी रेडीयेशन नियम में लाइट क्वांटा या
फोटोन गैस को लेकर प्रतिवाद था जिसको लेकर आईस्टीन भी असहमत थे । यह समय था 1920
का जब क्वान्टम मेकेनिक्स में यह गुत्थी की तरह थी, क्वान्टम मेकेनिक्स के विकास हो तो रहा था लेकिन गति बेहद धीमी थी क्योंकि
कहीं न कहीं प्लांक्स के
नियम को अगले चरण तक ले जाना था । उसी समय भारत में ढाका विश्वविद्यालय के एक
प्रोफेसर सत्येद्र नाथ
बोस , क्वान्टम मेकेनिक्स के अध्यन्न में आए और उन्होने 1924 को एक चार पेज के एसे रिसेर्च पेपर लिखा जिसका शीर्षक था ‘Planck’s Law and the Hypothesis of
Light Quanta (1924)’ जो आज मॉडर्न क्वान्टम मेकेनिक्स और कणो से जुड़ी किसी भी
खोज , अध्यन्न का आधार हैं । सत्येंद्र नाथ का यह रिसेर्च
पेपर आगे चलकर बोस – आइंस्टीन स्टेटिक्स और बोस – आइंस्टीन कनडेनसेट ( एक तरह की स्टेट
ऑफ मैटर ) के रूप में बदला जिसकी खोज सत्येंद्र नाथ बोस और आइंस्टीन ने खुद मिलकर
की ।
उनके
बारे में लिखा गया की
“Bose
entered the quantum arena and set out to derive Plancks law treating radiation
as a gas consisting of photons. What Bose had essentially introduced was a new
counting rule for the states of a gas of photons – or the quanta of light –
that explained Plancks law of thermal radiation at one stroke.”
आज
हम सत्येंद्र नाथ बोस को लगभग भूल चुके थे , एसे में अगर हिग्स बोसॉन की खोज न जुई होती तो आज भी
यह महान वैज्ञानिक भारत में खोया हुया होता । आज से पहले जब भारत में इनके बारे
में बेहद कम जानकारी लोगो के बीच थी , एसे में इंटेरनेशनल
समुदाय से हिग्स बोसॉन की खोज में बोस को उचित स्थान देने या न देने की बहस शायद
ही सही हो । जब हम उन्हें भरतिया होकर उन्हें भुला दिये तो बाकी से उम्मीद रखना
बेमानी हैं । 1974 में उनकी मृत्यु के बाद सरकार और भारतीय
विज्ञान जगत ने उन्हें लगभग भुला दिया था । यह शायद इस बात को भी बोध कराता हैं
भारत में बोस जैसे कई वैज्ञानिक होंगे जिन्हें शायद आइंस्टीन के साथ करने का मौका
भले न मिल पाया हो और इतने भाग्यशाली न हो जिनके नाम पर खोज को पहचाना जाता हो ,
वो गुमनाम में अपना जीवन बीता कर जा चुके हो या किसी विश्वविद्यालय
में अपने ऑफिस में लगातार विज्ञान की सेवा कर रहे हो , पर हम
उनके बारे में अनजान हैं ।
सत्येंद्र
नाथ बोस का जन्म 1
जनवरी 1894 को कोलकाता में हुआ था। मित्रों के बीच ‘सत्येन’ और विज्ञान जगत में ‘एस.
एन. बोस’ के नाम से जाने जाते थे । इनके पिता श्री
‘सुरेन्द्र नाथ बोस’ रेल विभाग में काम करते थे।
उनकी
आरंभिक शिक्षा उनके घर के पास ही स्थित साधारण स्कूल में हुई थी। इसके बाद उन्हें
न्यू इंडियन स्कूल और फिर हिंदू स्कूल में दाखिला लिया । स्कूली शिक्षा पूरी करके
सत्येन्द्रनाथ बोस ने कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसीडेंसी कॉलेज में
प्रवेश लिया। ‘प्रेसिडेंसी कॉलेज’ जहाँ
पर उस समय ‘जगदीश चंद्र बोस’ और ‘आचार्य प्रफुल्ल चंद्र रॉय’ जैसे महान शिक्षक
अध्यापन करते थे। सत्येंद्र नाथ बोस ने सन् 1913 में
बी. एस. सी. और सन् 1915 में एम. एस. सी. प्रथम
श्रेणी में उत्तीर्ण किया। मेघनाथ साहा और प्रशांत चंद्र महालनोविस बोस के सहपाठी
थे। मेघनाथ साहा और सत्येंद्र नाथ बोस ने बी. एस. सी. तथा एम. एस. सी. की पढ़ाई
साथ-साथ की।
उस
समय भारत में विश्वविद्यालय और कॉलेज बहुत कम होते
थे। अतः विज्ञान शिक्षा प्राप्त छात्रों का भविष्य बहुत सुनिश्चित नहीं होता था।
इसलिए बहुत सारे छात्र विज्ञान की बजाय दूसरे विषय को चुनते थे। परंतु कुछ छात्रों
ने ऐसा नहीं किया। और इन्हीं में ही वही लोग हुये जिन्होंनें भारतीय विज्ञान में
नये अध्याय जोड़े। सी. वी. रामन का जीवन इसका बहुत अच्छा उदाहरण है जो विज्ञान शिक्षा प्राप्त करने के बाद
सरकारी नौकरी करने लगे, किंतु विज्ञान के लगाव के कारण नौकरी
के साथ-साथ दस वर्षों तक शोधकार्य में भी लगे रहे और अवसर मिलने पर जमी जमायी
सरकारी नौकरी छोड़कर पूरी तरह से विज्ञान की साधना में लग गये।
उस
समय एक व्यक्ति जो खुद के गणितज्ञ थे जिन्होंने सी वी रमन से लेकर सत्येंद्र नाथ बोस
और मेगनाथ साहा का उत्साह वर्धन के साथ बहुत मदद भी की । इनका नाम था सर आशुतोष मुखर्जी
। आशुतोष मुखर्जी पेशे से वकील थे जो बाद में कोलकाता उच्च न्यायालय
के न्यायाधीश बने। उस समय बहुत कम भारतीय इतने ऊँचे पद पर पहुँच पाते थे। आशुतोष
मुखर्जी अपने विषय में पारंगत थे और साथ ही वह विज्ञान में भी बहुत रुचि रखते थे
तथा अपने अतिरिक्त समय में वे भौतिक-गणित पर व्याख्यान भी देते थे। उस समय आशुतोष
मुखर्जी ने बहुत सारे विद्यार्थियों को विज्ञान और शिक्षको को विज्ञान में शोध के
लिए उत्साहित किया ।
1921 तक सत्येंद नाथ बोस और साहा दोनों कलकत्ता में
पढ़ाते रहे । इस बीच दोनों ने कुछ नए अध्यन्न शुरू किए । यह वही समय था जब दुनिया
में क्वान्टम फिजिक्स ( मकनिक्स ) से जुड़े अध्यन्न और खोजे प्रसिद्धि पर थी । बोस
एक नयी दिशा में भी काम करना चाहते थे तो इसी दौरान बोस प्लांक्स के क्वान्टम
फिजिक्स और उनके नियम का अध्यन्न शुरू किया । साहा इस दौरान उनके साथ ही थे । इस
दौरान मेघनाद साहा और बोस ने विज्ञान के अध्यन्न से जुड़ी सामाग्री का अनुवाद भी
शुरू किया । उस समय अधिकतर रिसेर्च पेपर जर्मन और फ्रेंच में होते थे । साहा और
बोस ने खुद भी इस समस्या को महसूस किया । इसके लिए दोनों ने विज्ञान की कई पुस्तक
और रिसेर्च पेपर को अँग्रेजी और बांग्ला भाषा में अनुवाद किया । जिसने उस समय भारत
में विज्ञान को लेकर उत्सुकता लोगो से लेकर अन्य प्रोफेसर , स्टूडेंट्स
को विज्ञान की तरफ रूख करने में सहायता दी । 1919 बोस के दो
शोधपत्र ‘बुलेटिन आफ दि कलकत्ता
मैथमेटिकल सोसायटी’ में और सन् 1920 में ‘फिलासॉफिकल
मैगजीन’ में प्रकाशित हुए। सत्येंद्र नाथ बोस आइंस्टीन से
बहुत अधिक प्रभावित थे । अनुवाद के विषय को लेकर ही सबसे पहले सत्येंद नाथ बोस
पत्रो के माध्यम से आपस में जुड़े । इसकी शुरुआत तब हुई जब सत्येंद्र नाथ बोस इन
आइंस्टीन के जर्मन में लिखे सापेक्षता के सिद्धांत के शोधपत्र का अनुवाद शुरू किया
। उस समय आइंस्टीन के उनके शोधपत्रो के अँग्रेजी अनुवाद का अधिकार ब्रिटेन के
मेथुईन के पास था , जब मेथुईन के बोस के अँग्रेजी अनुवाद
की जानकारी हुयी तो मेथुईन ने इस पर आपत्ति जताई । बोस ने आइंस्टीन को पत्र लिखा
और आइंस्टीन से निवेदन किया की उन्हें अनुवाद की अनुमति दी जाए और वे अनुवाद की
केवल भारत के अंदर सीमित रखेंगे । यह वह समय था जब पहली बार बोस और आइंस्टीन सीधे
संपर्क में आये थे । आइंस्टीन ने इस मामले में मध्यस्था करते हुये मेथुईन और बोस
के बीच मतभेद खत्म किया और बोस को अनुवाद का अधिकार मिला । पर आइंस्टीन और बोस से
उनका संपर्क बेहद सीमित था जो एक दो पत्रो तक ही सीमित था ।
1921
में ढाका में ढाका विश्वविद्यालय की स्थापना हुई । कुलपति डॉ.
हारटॉग ढाका विश्वविद्यालय में अच्छे विभागों की स्थापना करना चाहते थे। उन्होंने
भौतिकी विभाग में रीडर पद के लिए सत्येन्द्र नाथ बोस को चुना । इसके बाद बोस
कोलकता विश्वविद्यालय छोडकर ढाका गए । लेकिन साहा उस समय कलकत्ता विश्वविद्यालय
में ही कार्यरत रहे और 1924 तक में ढाका विश्वविद्यालय से
जुड़े ।
सत्येंद्र
नाट बोस ने अब ढाका विश्वविद्यालय में गंभीरता से प्लांक्स के नियमो पर कार्य करना
शुरू किया । वे प्लांक्स के ब्लैक बॉडी रेडिएशन से सहमत नहीं थे । इसके बाद
उन्होने लाइट क्वांटा को प्लांक्स के नियम से जोड़ा और एक फोटोन गैस और क्वाटम लॉं
के बीच एक संबंध स्थापित किया ।
1924
में जब उनके मित्र मेघनाद साहा ढाका आए तो बोस ने साहा को अपने इस
शोध की जानकारी थी और साफ किया की उन्होने कक्षा में प्लांक के विकिरण नियम को
बेहद गंभीरता से अध्यन्न किया हैं परंतु इस नियम के लिए पुस्तकों में दी गई
व्युत्पत्ति से वे सहमत नहीं हैं। मेघनाद साहा ने बोस की शोध को समझा और
उन्हें प्रोत्साहित किया किया वे इस पर और काम करे और अंतिम शोधपत्र तैयार करे और
उसे प्रकाशित कराये ।
1924
में सत्येंद्र नाथ बोस ने एक शोध पत्र तैयार किया जिसका नाम उन्होने
‘Planck’s Law and the Hypothesis of Light Quanta’ दिया ।
वैज्ञानिक परिभाषा में कहे तो “ Bose derived Planck’s quantum
radiation law without any reference to classical physics by
using a novel way of counting states with identical particles.” साधारण तौर पर कहे तो बोस ने अपने तरीक़े से प्लांक के नियम की नयी
व्युत्पत्ति दी। बोस के इस तरीक़े ने भौतिक विज्ञान को एक बिलकुल ही नयी अवधारणा
से परिचित कराया। बोस ने क्वान्टम फ़िज़िक्स स्टडि ने
एक नई नीव रख थी जो उस समय से लेकर आज तक सभी कणो के खोजो का आधार रही हैं जिसका
ताज़ा उदाहरण हिंग्स बोसॉन कण की खोज हैं ।
1924 में जब बोस ने ‘Planck’s Law and the
Hypothesis of Light Quanta’ को तैयार कर लिया तो इसे उन्होने
दुनिया की जानी मानी विज्ञान शोध पत्रिका ‘फिलासॉफिकल मैगजीन’ में प्रकाशित होने के लिए भेजा । लेकिन उनका शोधपत्र प्रकाशित नहीं
हुआ । कुछ समय बीत जानते के बाद बोस ने फिर आइंस्टीन को सीधे यह शोधपत्र भेजने का
एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया और बर्लिन में सीधे ‘Planck’s Law and the
Hypothesis of Light Quanta’ को भेजा और आइंस्टीन को इस पर विचार
प्रकट करने और इसे जर्मन में अनुवाद कर ‘Zeitschrift fur Physik’ विज्ञान पत्रिका
में प्रकाशित करने का निवेदन किया ।
उनका
पत्र इस प्रकार था
I have ventured to send you the
accompanying article for your perusal and opinion. I am anxious to know what
you think of it. You will see that I have tried to deduce the coefficient
8pv2/c3 in Plancks Law Independent of classical electrodynamics, only assuming
that the elementary regions in the phase-space has the content h3. I do not
know sufficient German to translate the paper. If you think the paper worth
publication I shall be grateful if you arrange for its publication in
Zeitschrift fur Physik. Though a complete stranger to you, I do not feel any
hesitation in making such a request. Because we are all your pupils though
profiting only by your teachings through your writings. I do not know whether
you still remember that somebody from Calcutta asked your permission to
translate your papers on Relativity in English. You acceded to the request. The
book has since been published. I was the one who translated your paper on
Generalised Relativity.
बोस
का शोध बेहद मत्वपूर्ण था और आइंस्टीन ने इस बात को समझा । इस शोधपत्र को
आइंस्टीन ने स्वयं जर्मन भाषा में अनुदित किया तथा अपनी टिप्पणी के साथ ‘Zeitschrift fur Physik’ में अगस्त 1924 में प्रकाशित करवाया। आइंस्टीन ने इस
शोधपत्र के सम्बंध में बोस को एक पोस्टकार्ड भी भेजा था जो बोस के लिए उस समय एक
ख़ास चीज़ थी ।
1924
के बाद बोस आइंस्टीन के सीधे संपर्क में आए और आइंस्टीन ने भी बोस
के साथ कार्य करने की इक्छा इच्छा जताई । 1924 के बाद बोस
भारत के बाहर जाकर शोध कार्य करना चाहते थे , बोस ने विशेष
आग्रह कर आइंस्टीन से प्रशंसा पत्र को ढाका विश्वविद्यालय में सम्मलित कर दो वर्ष
के लिए अवकाश प्राप्त किया और यूरोप के लिए रवाना हुये । अक्टूबर, 1924 में सत्येन्द्रनाथ यूरोप पहुँचे। बोस पहले एक वर्ष पेरिस में रहे। फ्रांस में रहते हुए बोस ने ‘रेडियोधर्मिता’ में ‘मैडम
क्यूरी’ के साथ तथा ‘मॉरिस डी
ब्रोग्ली’ (लुई डी ब्रोग्ली के भाई) में ’एक्स-रे’ शोध में साथ में काम किया । मैडम क्यूरी की
प्रयोगशाला में बोस ने कुछ जटिल गणितीय गणनाएँ तो कीं परंतु रेडियोधर्मिता के शोध
पर अधिक कार्य नहीं कर पाये । मॉरिस डी ब्रोग्ली के साथ बोस का अनुभव बेहद अच्छा
रहा। ब्रोग्ली से इन्होंने एक्स-रे की नई तकनीकों के बारे में सीखा। अक्तूबर 1925
में वे बर्लिन गए और आखिर में आइंस्टीन से पहली बार व्यक्तिगत तौर
पर मिले । यह मुलाक़ात बोस और आइंस्टीन दोनों के लिए ख़ास थी ।
इसी समय बोस – आइंस्टीन स्टेटिक्स और बोस – आइंस्टीन कनडेनसेट ( एक तरह की स्टेट ऑफ मैटर ) संकल्पना हुयी । बोस – आइंस्टीन स्टेटिक्स अध्यन्न के दौरान
पॉल दीयरिक , आइंस्टीन और सत्येंद्र नाथ बोस ने साथ में
कार्य किया । इसी समय एक विशेष तरह की कणो की खोज हुयी । इस कण का नाम सत्येंद्र
नाथ बोस के नाम पर रखने का फैसला लिया । यह इस बात का प्रमाण हैं की बोसॉन की खोज
कितनी महत्वपूर्ण थी ।
आज भौतिकी में कण दो प्रकार के होते
हैं एक बोसॉन और दूसरे फर्मियान । बोसॉन यानि फोटॉन , ग्लुऑन , गेज बोसॉन ( फोटोन , प्रकाश की मूल इकाई ) और
फर्मियान यानि क्वार्क और लेप्टॉन एवं संयोजित कण प्रोटॉन , न्यूट्रॉन , इलेक्ट्रॉन
( चार्ज की मूल इकाई) । यह आज मॉडर्न भौतिकी का आधार हैं । आज बोस – आइंस्टीन स्टेटिक्स आधार हैं
स्टैंडर्ड मॉडल ऑफ पार्टिकल फ़िज़िक्स । आज जो भी अणु भौतिकी से जुड़े हैं सभी की
सभी शोधो का आधार कहीं न कहीं बोस – आइंस्टीन स्टेटिक्स हैं । एक
वैज्ञानिक ने बोस के भौतिकी में स्थान के बारे में कहा हैं “You Don’t Know Who He Was? Half the Particles in the Universe Obey
Him! ”
1926 में बोस आइंस्टीन सहित गए बड़े वैज्ञानिको के साथ कार्य करने के बाद वापस ढाका आए और ढाका विश्वविद्यालय में अध्यापन शुरू कर दिया । उनके शोध पत्र प्रकाशित होते रहे लेकिन बोस कुछ अन्य भौतिकी और गणितज्ञ संभावनाओ पर काम करने लगे । 1926 से 1945 तक वो ढाका में ही रहे उसके बाद वे कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर के रूप में जुड़े । बोस 1956 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त होकर शांति निकेतन चले गए। शांति निकेतन कवि रविन्द्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित किया गया था। टैगोर सत्येन्द्र नाथ बोस से अच्छी तरह परिचित थे तथा उन्होंने अपनी पुस्तक ‘विश्व परिचय’ भी बोस को समर्पित की थी। 1958 में उन्हें कलकत्ता वापस लौटे । इसी वर्ष बोस को रॉयल सोसायटी का फैलो चुना गया और इसी वर्ष उन्हें राष्ट्रीय प्रोफेसर नियुक्त किया गया।
सत्येंद्र
नाथ बोस का विज्ञान के अलावा एक दूसरे क्षेत्र में भी बहुत गंभीर थे और वो था
संगीत । सत्येन्द्र नाथ बोस ललित कला और संगीत प्रेमी थे। बोस के मित्र बताते थे कि
उनके कमरे में किताबों, आइंस्टीन, रमन
आदि वैज्ञानिकों के चित्र के अलावा एक वाद्य यंत्र यसराज हमेशा रहता था। बोस यसराज औरबांसुरी बजाया
करते थे। बोस यसराज किसी विशेषज्ञ की तरह बजाते थे। बोस के संगीत प्रेम का दायरा
लोक संगीत, भारतीय संगीत से लेकर पाश्चात् संगीत तक फैला हुआ
था। प्रो. धुरजटी दास बोस के मित्र थे। जब प्रो. दास भारतीय संगीत पर पुस्तक लिख
रहे थे तब बोस ने उन्हें काफ़ी सुझाव दिए थे। प्रो. दास के अनुसार बोस यदि
वैज्ञानिक नहीं होते तो वह एक संगीत गुरु होते।
वर्ष
1974 में सत्येंद्र नाथ बोस ने दुनिया से विदा ली । अंतिम समय में एक संघोष्टि
के दौरान उन्होने कहा था की “यदि एक व्यक्ति अपने जीवन के
अनेक वर्ष संघर्ष में व्यतीत कर देता है और अंत में उसे लगता है कि उसके कार्य को
सराहा जा रहा है तो फिर वह व्यक्ति सोचता है कि अब उसे और अधिक जीने की आवश्यकता
नहीं है।” सत्येंद्र नाथ बोस भारत द्वारा दुनिया को दिये गए
सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिको में से एक है ।
आज
हिंग्स बोसॉन के खोज हुयी । इस आविष्कार के लिए सत्येंद्र नाथ बोस को याद किया
जाना बेहद आवश्यक हैं क्योंकि आज जिस कण की खोज हुयी , उसे पीटर हिंग्स ने 1964
में उसी परिभाषा और नियमो का पालन कर खोजा था जिसकी रचना सत्येंद्र
नाथ बोस ने की थी । साधारण परिभाषा में कहे तो “ हिग्स बोसॉन
एक बोसॉन कण हैं वो कण जिसकी संकल्पना सत्येंद्र नाथ बोस ने आइंस्टीन के साथ मिलकर
तैयार की थी । यह हिग्ग्स बोसॉन आज दुनिया की सबसे छोटी इकाई हैं जिससे शायद इस
ब्राह्मण की रचना हुयी हैं ।”
सत्येंद्र
नाथ बोस को भले ही नोबल प्राइज़ नहीं मिला लेकिन यह भी सत्य हैं सत्येंद्र नाथ
बोस की खोज के आधार को लेकर की गयी खोजो में पीटर हिग्ग्स समेत कई बड़े वैज्ञानिको
को एक दिशा मिली जिन्हें इसी क्षेत्र में नोबल प्राइज़ भी मिला ।
हाल
ही में एक प्रोफेसर ने एक आर्टिकल में लिखा शायद सत्येंद्र नाथ बॉस भाग्यशाली हैं
की उन्हें उस समय उनकी खोज का श्रेय मिला । उनके नाम पर बोसॉन कण को नाम दिया गया
क्योंकि कहीं न कहीं पश्चिमी देशो में एशिया देशो के वैज्ञानिको में भेद भाव होता
रहा हैं । शायद अगर बोस आइंस्टीन के सीधे संपर्क में नहीं आते तो उनका नाम कभी भी
इस तरह से प्रयोग नहीं किया जाता । आज हिग्स बोसॉन डिस्कवरी के मीडिया कवरेज़ ने
बोस को याद नहीं किया लेकिन इस बात से बोस की खोज के महत्ता पर शायद ही कोई फर्क
पड़े ।
पीटर
हिग्स इस डिस्कवरी के जनक हैं इसमे कोई दो राय नहीं हैं और सेर्न में काम करने
वाले वैज्ञानिक की मेहनत सराहनीय हैं । बोसॉन खुद में सत्येंद्र नाथ बोस को प्रकट
करता हैं । “यह डिस्कवरी सत्येंद्र नाथ बोस के कागज़ पर पीटर हिग्स की कलम और सेर्न की
मेहनत से आज हिग्स बोसॉन पार्टिकल की खोज हो पायी हैं ।”
आज
पश्चिमी और इंटेरनेशन मीडिया में सत्येंद्र नाथ बोस का नाम हिग्स बोसॉन डिस्कवरी
में नहीं लिया जा रहा हैं तो ये शायद उनके जर्नलिज़्म के लिए शर्मिंदिगी की बात
हैं क्योंकि कहीं न कहीं मीडिया ने अच्छे से हिग्ग्स बोसॉन कणो के इतिहास और उसके
आधार को अध्यन नहीं किया।
हम
केवल पश्चिमी मीडिया को दोष नहीं दे सकते , सत्येंद्र नाथ बोस के जीवन काल में सरकार द्वारा
उन्हें सम्मान और आदर दिया गया । लेकिन उनकी मृत्यु के बाद उन्हें हमने
मेघनाद
साहा भी उन्हीं वैज्ञानिको में से एक हैं जो भुलाए जा चुके हैं आज जब उन्हें बोस
के साथ याद करने का मौका आया तब भी हमारी मीडिया ने साहा से लोगो को नहीं जोड़ा ।
मेघनाद साहा भारतीय खगोलविज्ञानी (एस्ट्रोफिजिसिस्ट्) थे। वे साहा
समीकरण के प्रतिपादन के लिये प्रसिद्ध हैं। यह समीकरण तारों में भौतिक एवं रासायनिक स्थिति की
व्याख्या करता है। उनकी अध्यक्षता में गठित विद्वानों की एक समिति ने भारत के
राष्ट्रीय शक पंचांग का भी संशोधन किया, जो २२ मार्च १९५७ (१
चैत्र १८७९ शक) से लागू किया गया। इन्होंने साहा
इन्सटीच्यूट ऑफ न्यूक्लीयर फिजीक्स तथा इन्डियन एसोसीएसन फार द कल्टीभेशन ऑफ
साइन्स नामक दो महत्त्वपूर्ण संस्थाओं की स्थापना की।
प्रश्न
साफ हैं की शायद हम खुद देश के वैज्ञानिको को याद नहीं करते तो शायद हम कैसे
पश्चिम देशो से यह उपेक्षा करे की वो हमारे वैज्ञानिको का सम्मान करे । कहीं न कहीं
भारत देश अपने वैज्ञानिको की उपेक्षा करता आया हैं । आज भी कई एसे वैज्ञानिक हैं
जो शोध कार्यो में लगे हुये हैं लेकिन समाज उन्हें पहचानता नहीं हैं । इसमें सरकार
और मीडिया की ज़िम्मेदारी तो हैं लेकिन साथ में हमारी ज़िम्मेदारी की हम
वैज्ञानिको को कितना सम्मान देते हैं , की हम कितने दिन वैज्ञानिको को याद रखते हैं । यह
शायद एक सच्चाई हैं की हम सम्मान और
प्रभावित होने के मामले में वैज्ञानिको को सबसे नीचे स्थान देते हैं । एसे में
हमें अपनी सोच में बदलाव करना चाहिए ।
इन
सब के बीच इस बात को हमें हमेशा याद रखना चाहिए की भारत ने कुछ एसे वैज्ञानिको को
जन्म दिया हैं जिन्होंने भारत में रहकर , भारत के संसधनों का प्रयोग कर कुछ एसी खोजे की हैं
जिसने पूरी दुनिया के वैज्ञानिक पटल को ही बदल दिया और उसे नयी दिशा दी ।
उन्हीं में से एक थे सत्येंद्र नाथ बोस , एक वैज्ञानिक जिसने
विषम परिस्थिति में रहकर एक एसी खोज पूरी दुनिया को दी
जिसके कारण विज्ञान आज ईश्वरीय कण हिग्स बोसॉन जैसे इकाई कण की खोज कर पाया ।
आज
मीडिया को नहीं हमें बल्कि हमें निजी तौर पर सत्येंद्र नाथ बोस को याद रखने की
जरूरत हैं । सत्येंद्र नाथ बोस ही नहीं बल्कि हमें खुद से भारत के खोये हुये
वैज्ञानिको के बारे में जानकारी हस्सिल करनी चाहिए और उसे इंटरनेट जैसे माध्यम के
जरिये अपने साथ के लोगो से शेयर करना चाहिए । हो सकता हैं की आज इंटरनेट पर हो
सकता हैं कोई आपके द्वारा लिखा आर्टिकल या ब्लॉग किसी पत्रकार , लेखक अथवा
डॉक्युमेंट्री मेकर को उत्साहित कर दे जो एक वैज्ञानिक के बारे में बड़े स्तर पर
लाने ले आए ।
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