शशांक द्विवेदी
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने पिछले
दिनों अंतरिक्ष के क्षेत्र में एक नया मुकाम हासिल करते हुए अपने 100वें मिशन का सफल परीक्षण किया. यह
अंतरिक्ष में भारत के बढ.ते कदम का सबूत है कि आज वह काफी हद तक अपने बूते विकास
के इन रास्तों पर कदम बढ.ा रहा है. एक वक्त ऐसा भी था, जब
अंतरिक्ष में अमेरिका और रूस के बीच ही होड़ बनी रहती थी, जिसे
स्पेस रेस के नाम से जाना गया. लेकिन, अब दुनिया स्पेस रेस
के दौर से काफी आगे निकल चुकी है और चीन और भारत जैसे देश भी अंतरिक्ष में अपनी
शक्ति का प्रदर्शन कर रहे हैं. अंतरिक्ष में भारत की सफलता को बतलाता शशांक द्विवेदी का प्रभातखबर
में आज का विशेष लेख
प्रभातखबर |
पिछले दिनों इसरो द्वारा अंतरिक्ष में अपने सौवें
अंतरिक्ष मिशन की सफलता के बाद देश के अब तक के सबसे भारी संचार उपग्रह जीसेट-10 को दक्षिण अमेरिका के फ्रेंच
गुयाना स्थित कौरो लॉन्च पैड से एरियन-5 रॉकेट के जरिए
सफलतापूर्वक प्रक्षेपित किया गया. यह उपग्रह दूरसंचार, डायरेक्ट-टू-होम
प्रसारण और नागरिक उड्डयन की जरूरतें पूरी करेगा. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन
(इसरो) द्वारा निर्मित 3,400 किलोग्राम वजनी जीसेट-10
अब तक का सबसे भारी संचार उपग्रह है. यह नवंबर से काम करने लगेगा और
यह 15 वर्ष तक काम करता रहेगा.
इसे भारत के 101वें अंतरिक्ष अभियान ‘अच्छा स्वास्थ्य’ के तहत प्रक्षेपित किया गया. जीसेट-10 में 30 संचार अभिग्राही हैं. 12 कू-बैंड में, 12 सी-बैंड में और छह अभिग्राही विस्तारित सी-बैंड में लगे हैं. इसके अलावा इसमें एक नकारात्मक अंतरिक्ष उपकरण गगन लगाया गया है, जो परिष्कृत शुद्धता के जीपीएस संकेत मुहैया करायेगा. भारतीय हवाई अड्डा प्राधिकरण इस उपकरण का उपयोग नागरिक उड्डयन की जरूरतें पूरी करने के लिए कर सकेगा. जीपीएस एडेड जियो ऑगमेंटेड नेविगेशन को संक्षेप में गगन कहा जाता है. मई 2011 में जीसेट-8 के प्रक्षेपण के बाद यह दूसरा उपग्रह है, जिसे अंतरिक्ष उपकरण गगन के साथ इनसेट या जीसेट उपग्रह समूह में शामिल किया गया है.
इसे भारत के 101वें अंतरिक्ष अभियान ‘अच्छा स्वास्थ्य’ के तहत प्रक्षेपित किया गया. जीसेट-10 में 30 संचार अभिग्राही हैं. 12 कू-बैंड में, 12 सी-बैंड में और छह अभिग्राही विस्तारित सी-बैंड में लगे हैं. इसके अलावा इसमें एक नकारात्मक अंतरिक्ष उपकरण गगन लगाया गया है, जो परिष्कृत शुद्धता के जीपीएस संकेत मुहैया करायेगा. भारतीय हवाई अड्डा प्राधिकरण इस उपकरण का उपयोग नागरिक उड्डयन की जरूरतें पूरी करने के लिए कर सकेगा. जीपीएस एडेड जियो ऑगमेंटेड नेविगेशन को संक्षेप में गगन कहा जाता है. मई 2011 में जीसेट-8 के प्रक्षेपण के बाद यह दूसरा उपग्रह है, जिसे अंतरिक्ष उपकरण गगन के साथ इनसेट या जीसेट उपग्रह समूह में शामिल किया गया है.
अंतरिक्ष में बढ़ते कदम
19 अप्रैल, 1975 में स्वदेश निर्मित उपग्रह आर्यभट्ट के प्रक्षेपण के साथ अपने अंतरिक्ष सफर की शुरुआत करने वाले इसरो की यह सफलता भारत के अंतरिक्ष में बढ.ते वर्चस्व की तरफ इशारा करती है. 22 अक्तूबर, 2008 मून मिशन की सफलता के बाद इसरो का लोहा पूरी दुनिया मान चुकी है. चांद पर पानी की खोज का श्रेय भी चंद्रयान-1 को ही मिला. भविष्य में इसरो उन सभी ताकतों को और भी टक्कर देने जा रहा है, जो साधनों की बहुलता के चलते प्रगति कर रहे हैं, लेकिन भारत के पास प्रतिभाओं की बहुलता है.
चुनौतियां भी कम नहीं
अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में हम लगातार प्रगति कर रहे हैं, लेकिन अभी भी हम पूरी तरह से आत्मनिर्भर नहीं हो पाये हैं. अभी भी हमें विदेशों से ट्रांसपोंडर लीज पर लेने पड़ रहे हैं. इसरो को पीएसएलवी दूरसंवेदी उपग्रहों की प्रक्षेपण में दक्षता है, लेकिन लेकिन संचार उपग्रहों के प्रक्षेपण के मामले में हम अभी आत्मनिर्भर नहीं हो पाये हैं. इसी वजह से हमें जीसेट-10 का प्रक्षेपण विदेशी रॉकेट से कराना पड़ रहा है. क्रायोजेनिक तकनीकी के परिप्रेक्ष्य में पूर्ण सफलता न मिलने के कारण भारत इस मामलें में आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है, जबकि प्रयोगशाला स्तर पर क्रायोजेनिक इंजन का सफलतापूर्वक परीक्षण किया जा चुका है. लेकिन स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन की सहायता से लॉन्च किये गये प्रक्षेपण यान जीएसएलवी की असफलता के बाद इस पर सवालिया निशान लगा हुआ है. स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन के विकास में बहुत देरी हो रही है. वर्ष 2010 में जीएसएलवी के दो अभियान विफल हो गये थे, अंतरिक्ष में लंबे समय तक टिकने के लिए हमें इस दिशा में अभी बहुत काम करना है. क्योंकि अंतरिक्ष अब बहुत महत्वपूर्ण हो गया है और हमारा निकटतम प्रतिद्वंद्वी चीन कई मामलों में हमसे बहुत आगे चल रहा है. चीनी रॉकेट नौ टन का पेलोड ले जा सकते हैं, लेकिन भारतीय रॉकेट अभी 2.5 टन से ज्यादा भार नहीं ले जा सकते. इसलिए इस दिशा में लगातार काम करने की जरूरत है.
भविष्य की योजनाओं पर है नजर
इसरो के अध्यक्ष के राधाकृष्णन के अनुसार भारत की अंतरिक्ष योजना भविष्य में मानवयुक्त अंतरिक्ष मिशन भेजने की है. लेकिन इस तरह के अभियान की सफलता सुनिश्चित करने के लिए अभी बहुत सारे परीक्षण किये जाने हैं. भारत वर्ष 2016 में नासा के चंद्र मिशन का हिस्सा बन सकता है और इसरो चंद्रमा के आगे के अध्ययन के लिए अमेरिकी जेट प्रणोदन प्रयोगशाला से साझेदारी भी कर सकता है. देश में आगामी चंद्र मिशन चंद्रयान-2 के संबंध में कार्य प्रगति पर है. चंद्रयान-2 के संभवत: 2014 में प्रक्षेपण की संभावना है. इसरो और रूसी अंतरिक्ष एजेंसी रोस्कॉसमॉस के चंद्रमा के लिए संयुक्त मानव रहित इसरो अभियान चंद्रयान-2 मिशन रूस के नीतिगत निर्णय की प्रतीक्षा में अटक गया है. चीन के साथ साझा मिशन विफल हो जाने के मद्देनजर रूस अपने अंतरग्रही मिशनों की समीक्षा कर रहा है. इस पर सरकार को जल्दी फैसले के लिए रूस पर दबाव बनाना प.डेगा. चंद्रयान-2 मिशन 2014 में प्रस्तावित है और इसे भू-समकालिक उपग्रह प्रक्षेपण यान (जीएसएलवी) एम के 2 से प्रक्षेपित किया जायेगा. वर्ष 1969 में प्रसिद्ध वैज्ञानिक विक्रम साराभाई के निर्देशन में राष्ट्रीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन का गठन हुआ था. तब से अब तक चांद पर अंतरिक्ष यान भेजने की परिकल्पना तो साकार हुई. अब हम चांद पर ही नहीं, बल्कि मंगल पर भी पहुंचने का सपना देखने लगे हैं. इन प्रक्षेपित उपग्रहों से मिलने वाली सूचनाओं के आधार पर हम अब संचार, मौसम संबंधित जानकारी, शिक्षा के क्षेत्र में, चिकित्सा के क्षेत्र में टेली मेडिसिन, आपदा प्रबंधन एवं कृषि के क्षेत्र में फसल अनुमान, भूमिगत जल के स्रोतों की खोज, संभावित मत्स्य क्षेत्र की खोज के साथ पर्यावरण पर निगाह रख रहे हंै.
कम संसाधनों में ऐतिहासिक सफलता का लक्ष्यकम संसाधनों और कम बजट के बावजूद भारत आज अंतरिक्ष में कीर्तिमान स्थापित करने में लगा हुआ है. भारतीय प्रक्षेपण रॉकेटों की विकास लागत ऐसे ही विदेशी प्रक्षेपण रॉकेटों की विकास लागत के एक तिहाई भर है. इनसेट प्रणाली की क्षमता को जीसैट द्वारा मजबूत बनाया जा रहा है, जिससे दूरस्थ शिक्षा, दूरस्थ चिकित्सा ही नहीं, बल्कि ग्राम संसाधन केंद्र को उत्रत बनाया जा सके. पिछले दिनों ही इसरो ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में इतिहास रचते हुए अपने सौवें अंतरिक्ष मिशन को सफलतापूर्वक अंजाम दिया और पीएसएलवी सी-21 के माध्यम से फ्रांसीसी एसपीओटी-6 को और जापान के माइक्रो उपग्रह प्रोइटेरेस को उनकी कक्षा में स्थापित कर दिया. पोलर सैटेलाइट लॉन्च ह्वीकल (पीएसएलवी) फ्रांसीसी उपग्रह को लेकर अपनी 22वीं उड़ान पर रवाना हुआ था. कुल 712 किलोग्राम वजन वाला यह फ्रांसीसी उपग्रह भारत द्वारा किसी विदेशी ग्राहक के लिए प्रक्षेपित सर्वाधिक वजन वाला उपग्रह है. इसरो की यह सफलता भारत के अंतरिक्ष में बढ.ते वर्चस्व की तरफ इशारा करती है. इसरो ने अब तक 62 उपग्रह, एक स्पेस रिकवरी मॉड्यूल और 37 रॉकेटों का प्रक्षेपण कर लिया है. इससे दूरसंवेदी उपग्रहों के निर्माण व संचालन में वाणिज्यिक रूप से भी फायदा पहुंच रहा है. भविष्य में अंतरिक्ष में प्रतिस्पर्धा बढे.गी. भारत के पास कुछ बढ.त पहले से है, इसमें और प्रगति करके इसका ब.डे पैमाने पर वाणिज्यिक उपयोग संभव है. यदि इसी प्रकार भारत अंतरिक्ष क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हमारे यान अंतरिक्ष यात्रियों को चांद, मंगल या अन्य ग्रहों की सैर करा सकेंगे. इसरो के हालिया मिशन की सफलताएं देश की अंतरिक्ष क्षमताओं के लिए मील का पत्थर हैं. लेकिन इसरो को जीएसएलवी से संबंधित अपनी कुछ असफलताओं से सबक लेते हुए जल्द से जल्द उन्हें दूर करना होगा, तभी भारत अंतरिक्ष के क्षेत्र में एक महाशक्ति के रूप में उभरेगा.
मंजिल अभी काफी दूर!
अंतरिक्ष में बादशाहत की जंग को देखें तो भारत ने भी पिछले कुछ वर्षों में महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की हैं. 22 अक्तूबर, 2008 को चंद्रयान-1 के सफल प्रक्षेपण के बाद अब चंद्रयान-2 को अंतरिक्ष में भेजने की तैयारी हो रही है. यह अंतरिक्ष में भारत के बढ.ते कदम को बतलाता है. लेकिन, इसके बावजूद इस क्षेत्र में भारत चीन से मुकाबला करने की स्थिति में नहीं है. हां अगर इस आपसी रेस से अलग अंतरिक्ष में विकासशील देशों के बढ.ते दखल के हिसाब से देखें तो चीन और भारत की उपलब्धियां इस बात का सबूत हैं, कि अंतरिक्ष विज्ञान में अमेरिका और रूस के प्रभुत्व वाले दिन खत्म हो गये हैं. वर्ष 1992 में भारत जब आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियों का सामना कर रहा था, उस वक्त चीन में प्रोजेक्ट-921 की शुरुआत हुई. यह मिशन इनसान को अंतरिक्ष में ले जाने से संबंधित था. 2003 तक इसके तहत पांच मिशन अंतरिक्ष में भेजे जा चुके थे. अभी तक नौ चीनी नागरिक अंतरिक्ष की सैर कर चुके हैं. इसकी तुलना में भारत अभी दोबारा इस्तेमाल में आने वाले स्पेस ह्वीकल तकनीक के विकास में ही लगा है. इसरो जीएसएलवी-मार्क-3 विकसित कर रहा है. जबकि भारत में इस तरह के प्रोग्राम का कहीं कोई जिक्र नहीं है.
अंतरिक्ष में बादशाहत की जंग को देखें तो भारत ने भी पिछले कुछ वर्षों में महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की हैं. 22 अक्तूबर, 2008 को चंद्रयान-1 के सफल प्रक्षेपण के बाद अब चंद्रयान-2 को अंतरिक्ष में भेजने की तैयारी हो रही है. यह अंतरिक्ष में भारत के बढ.ते कदम को बतलाता है. लेकिन, इसके बावजूद इस क्षेत्र में भारत चीन से मुकाबला करने की स्थिति में नहीं है. हां अगर इस आपसी रेस से अलग अंतरिक्ष में विकासशील देशों के बढ.ते दखल के हिसाब से देखें तो चीन और भारत की उपलब्धियां इस बात का सबूत हैं, कि अंतरिक्ष विज्ञान में अमेरिका और रूस के प्रभुत्व वाले दिन खत्म हो गये हैं. वर्ष 1992 में भारत जब आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियों का सामना कर रहा था, उस वक्त चीन में प्रोजेक्ट-921 की शुरुआत हुई. यह मिशन इनसान को अंतरिक्ष में ले जाने से संबंधित था. 2003 तक इसके तहत पांच मिशन अंतरिक्ष में भेजे जा चुके थे. अभी तक नौ चीनी नागरिक अंतरिक्ष की सैर कर चुके हैं. इसकी तुलना में भारत अभी दोबारा इस्तेमाल में आने वाले स्पेस ह्वीकल तकनीक के विकास में ही लगा है. इसरो जीएसएलवी-मार्क-3 विकसित कर रहा है. जबकि भारत में इस तरह के प्रोग्राम का कहीं कोई जिक्र नहीं है.
भारत और चीन में प्रतिद्वंद्विता
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की योजना वर्ष 2025 तक मानवयुक्त अंतरिक्ष यान भेजने की है. इसकी योजना सुरक्षा के लिए उपग्रह आधारित कम्युनिकेशन और नेविगेशन सिस्टम इस्तेमाल करने की भी है. लेकिन, भारत का प्रतिद्वंद्वी पड़ोसी चीन का अंतरिक्ष के उपयोग को लेकर भारत से थोड़ा अलग एजेंडा है. इसरो के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, भारत के पास 21 उपग्रह हैं. इनमें से 10 संचार और 4 तसवीर लेने की क्षमता से लैस निगरानी करने वाले उपग्रह हैं. बाकी सात भू-पर्यवेक्षण उपग्रह (अर्थ ऑब्र्जवेशन सैटेलाइट) हैं. इनका इस्तेमाल दोहरे उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है. ये रक्षा उद्देश्यों के लिए भी प्रयोग में आ सकते हैं. चीन से यदि प्रत्यक्ष तुलना करें तो भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम अपनी सफलताओं के बावूद चीन से पीछे नजर आता है, जबकि हकीकत यह है कि दोनों देशों ने एक साथ 1970 के दशक में अपना अंतरिक्ष कार्यक्रम गंभीरता से शुरू किया था. खासकर मानवयुक्त मिशन को लेकर दोनों देशों के बीच फासला काफी बड़ा नजर आता है. भारत के लिए ऐसे किसी मिशन की संभावना अगले दशक में ही है, जबकि चीन ने 2003 में ही मानव को अंतरिक्ष में भेज दिया था.
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की योजना वर्ष 2025 तक मानवयुक्त अंतरिक्ष यान भेजने की है. इसकी योजना सुरक्षा के लिए उपग्रह आधारित कम्युनिकेशन और नेविगेशन सिस्टम इस्तेमाल करने की भी है. लेकिन, भारत का प्रतिद्वंद्वी पड़ोसी चीन का अंतरिक्ष के उपयोग को लेकर भारत से थोड़ा अलग एजेंडा है. इसरो के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, भारत के पास 21 उपग्रह हैं. इनमें से 10 संचार और 4 तसवीर लेने की क्षमता से लैस निगरानी करने वाले उपग्रह हैं. बाकी सात भू-पर्यवेक्षण उपग्रह (अर्थ ऑब्र्जवेशन सैटेलाइट) हैं. इनका इस्तेमाल दोहरे उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है. ये रक्षा उद्देश्यों के लिए भी प्रयोग में आ सकते हैं. चीन से यदि प्रत्यक्ष तुलना करें तो भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम अपनी सफलताओं के बावूद चीन से पीछे नजर आता है, जबकि हकीकत यह है कि दोनों देशों ने एक साथ 1970 के दशक में अपना अंतरिक्ष कार्यक्रम गंभीरता से शुरू किया था. खासकर मानवयुक्त मिशन को लेकर दोनों देशों के बीच फासला काफी बड़ा नजर आता है. भारत के लिए ऐसे किसी मिशन की संभावना अगले दशक में ही है, जबकि चीन ने 2003 में ही मानव को अंतरिक्ष में भेज दिया था.
अमेरिका और रूस का खत्म होता एकाधिकार
अंतरिक्ष में वर्चस्व कायम करने की होड़ 1950 के दशक में दो महाशक्तियों अमेरिका और सोवियत संघ के बीच देखने को मिली थी. इसे स्पेस रेस के नाम से जाना गया. सोवियत संघ ने 4 अक्तूबर, 1957 को पहला कृत्रिम उपग्रह स्पुतनिक-1 पृथ्वी की कक्षा में प्रक्षेपित किया था. इसके बाद अमेरिकी अपोलो-11 अंतरिक्ष यान को चंद्रमा पर 20 जुलाई, 1969 को उतारा गया था. हालांकि, दोनों देशों को इस होड़ की कीमत भी चुकानी पड़ी. 1960 में सोवियत संघ की नेडेलीन नामक दुर्घटना स्पेस रेस की सबसे भयावह त्रासदी थी. दरअसल, 24 अक्तूबर, 1960 को मार्शल मित्रोफन नेडेलीन ने प्रायोगिक आर-16 रॉकेट को बंद और नियंत्रित करने की गलत प्रक्रिया निर्देशित की. नतीजतन, रॉकेट में विस्फोट हो गया, जिससे लगभग 150 सोवियत सैनिकों और तकनीकी कर्मचारियों की मौत हो गयी. उधर, 27 जनवरी 1967 को अमेरिकी यान अपोलो-1 ते ग्राउंड टेस्ट के दौरान केबिन में आग लग गयी और घुटन के कारण तीन क्रू सदस्यों की मौत हो गयी. इसके अलावा दोनों देशों को स्पेस रेस की बड़ी आर्थिक कीमत भी चुकानी पड़ी है. अंतरिक्ष में अब इन दोनों देशों का वर्चस्व खत्म हो रहा है और अन्य यूरोपीय देशों के अलावा चीन और भारत जैसे देश अंतरिक्ष में नया मुकाम हासिल कर रहे हैं.
अंतरिक्ष में वर्चस्व कायम करने की होड़ 1950 के दशक में दो महाशक्तियों अमेरिका और सोवियत संघ के बीच देखने को मिली थी. इसे स्पेस रेस के नाम से जाना गया. सोवियत संघ ने 4 अक्तूबर, 1957 को पहला कृत्रिम उपग्रह स्पुतनिक-1 पृथ्वी की कक्षा में प्रक्षेपित किया था. इसके बाद अमेरिकी अपोलो-11 अंतरिक्ष यान को चंद्रमा पर 20 जुलाई, 1969 को उतारा गया था. हालांकि, दोनों देशों को इस होड़ की कीमत भी चुकानी पड़ी. 1960 में सोवियत संघ की नेडेलीन नामक दुर्घटना स्पेस रेस की सबसे भयावह त्रासदी थी. दरअसल, 24 अक्तूबर, 1960 को मार्शल मित्रोफन नेडेलीन ने प्रायोगिक आर-16 रॉकेट को बंद और नियंत्रित करने की गलत प्रक्रिया निर्देशित की. नतीजतन, रॉकेट में विस्फोट हो गया, जिससे लगभग 150 सोवियत सैनिकों और तकनीकी कर्मचारियों की मौत हो गयी. उधर, 27 जनवरी 1967 को अमेरिकी यान अपोलो-1 ते ग्राउंड टेस्ट के दौरान केबिन में आग लग गयी और घुटन के कारण तीन क्रू सदस्यों की मौत हो गयी. इसके अलावा दोनों देशों को स्पेस रेस की बड़ी आर्थिक कीमत भी चुकानी पड़ी है. अंतरिक्ष में अब इन दोनों देशों का वर्चस्व खत्म हो रहा है और अन्य यूरोपीय देशों के अलावा चीन और भारत जैसे देश अंतरिक्ष में नया मुकाम हासिल कर रहे हैं.
Article link
बहुत अच्छा लेख मैंने भी एक ब्लॉग बनाया हैं -www.bhotki.wordpress.com
ReplyDeleteबहुत अच्छा !
ReplyDelete