मुकुल व्यास।।
स्टेम सेल रिसर्च में पथ-प्रदर्शक
माने जाने वाले दो वैज्ञानिकों ब्रिटेन के जान गर्डन और जापान के शिन्या यामांका
को इस साल के मेडिसिन के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। इन्होंने सिद्ध
किया था कि शरीर की परिपक्व कोशिकाओं को पुन: स्टेम सेल अथवा प्राथमिक कोशिकाओं
में बदला जा सकता है। स्टेम सेल से आगे चल कर स्किन, रक्त, स्नायु, मसल्स और बोन जैसे विशिष्ट टिशू बनते हैं।
या कहें कि पूरा शरीर बनता है। स्टेम सेल की इन खूबियों को देख कर वैज्ञानिकों को
यह लगने लगा कि हम एक दिन स्टेम सेल से नए टिशू निर्मित कर स्पाइनल कोर्ड इंजरी से
ले कर पार्किन्सन डिजीज जैसी विभिन्न बीमारियों में क्षतिग्रस्त टिशुओं को बदल
सकते हैं।
शुरू में यह मान लिया गया था कि शरीर के मच्योर सेल को वापस स्टेम
सेल में बदलना असंभव है। इसका मतलब यह हुआ कि नए स्टेम सेल सिर्फ भ्रूण से ही
हासिल किए जा सकते हैं। स्टेम सेल रिसर्च के लिए भ्रूणों का प्रयोग शुरू होते ही
एक बड़ा विवाद शुरू हो गया। कई लोगों ने इस तकनीक पर नैतिक सवाल खड़े कर दिए और
कुछ देशों ने इस रिसर्च पर प्रतिबंध भी लगा दिया था। लेकिन कैंब्रिज यूनिवर्सिटी
के गर्डन और क्योतो यूनिवर्सिटी के यामांका ने यह साबित कर दिया कि वयस्क कोशिकाओं
की रिप्रोग्रैमिंग करके उन्हें फिर भ्रूण स्टेम सेल जैसी अवस्था में बदला जा सकता
है। इस खोज ने दुनिया को रिजनरेटिव मेडिसिन अथवा क्षतिग्रस्त टिशुओं के
पुननिर्र्माण का रास्ता दिखा दिया। इस रिसर्च से मेडिकल ट्रीटमेंट की दिशा में अभी
तक कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आए हैं लेकिन रिसर्चरों ने हार्ट डिजीज, डायबिटीज और अल्जाइमर्स जैसे रोगों के अध्ययन के लिए
रोग-प्रधान स्टेम सेल और व्यक्ति-प्रधान स्टेम सेल पर रिसर्च शुरू कर दी है।
वैज्ञानिकों
को राहत
गर्डन को क्लोनिंग तकनीक
का जनक भी माना जाता है। उन्होंने सन् 1962
में मेंढक का क्लोन तैयार करके दुनिया के वैज्ञानिक समुदाय को हतप्रभ
कर दिया था। स्टेम सेल से उन्होंने मेंढक की अंडाणु-कोशिका से न्यूक्लियस हटा कर
उसकी जगह एक टेडपोल की आंत से लिए सेल का न्यूक्लियस रख दिया। इस तरह मेंढक का
अंडाणु टेडपोल के एक स्वस्थ क्लोन के रूप में विकसित हो गया। यह बहुत ही चौंकाने
वाली खोज थी क्योंकि उस समय यह स्पष्ट नहीं था कि क्या शरीर की विभिन्न किस्म की
कोशिकाओं में अलग डीएनए होता है या सारी कोशिकाओं में एक जैसी आनुवंशिक सूचनाएं
होती हैं। गर्डन के प्रयोगों ने सिद्ध कर दिया कि सभी सेल्स का एक जैसा जनेटिक कोड
होता है और प्रत्एक सेल से पूरा जीव या उसके शरीर का कोई विशिष्ट अंग बनाया जा
सकता है।
क्लोनिंग की यह तकनीक कई
दशकों तक गुमनामी में रही लेकिन स्कॉटिश वैज्ञानिक विलियम इयन विल्मट ने 1997 में गर्डन की रिसर्च को पहली बार स्तनपायी
जानवरों पर अपनाया और डॉली भेड़ का क्लोन तैयार करके पूरी दुनिया में तहलका मचा
दिया। इसके एक साल बाद ही रिसर्चरों ने पहले मानव भ्रूम स्टेम सेल उत्पन्न किए। इन
दोनों वैज्ञानिक उपलब्धियों ने चिकित्सीय क्लोंनिग के विचार को जन्म दिया। आइडिया
यह था कि मरीज के स्किन सेल को अनिषेचित अंडाणु में प्रविष्ट किया जाए ताकि उसे
प्राथमिक अवस्था में वापस लाया जा सके। इसके बाद भ्रूण स्टेम सेल्स को ऐसे टिशू या
अंग में बदला जाए जिसे मरीज के शरीर में बदलने की जरूरत है। चूंकि नए टिशू में
मरीज का अपना जीन-समूह होगा, उसके शरीर की प्रतिरोधी प्रणाली
द्वारा ठुकराए जाने की संभावना बहुत कम रहेगी। लेकिन इसके लिए मानव अंडाणु कहां से
लाएं? स्टेम सेल रिसर्च की गाड़ी यहां अटक गई।
वैज्ञानिक मच्योर सेल्स
को फिर से स्टेम सेल्स में बदलने का तरीका खोजने लगे। गर्डन की खोज के लगभग 40 साल बाद जापनी वैज्ञानिक यामांका ने वयस्क कोशिकाओं
को वापस स्टेम सेल में बदलने का एक आश्चर्यजनक रूप से सरल तरीका खोज लिया।
उन्होंने 2006 में चूहों की स्किन कोशिकाओं में कुछ जीन
प्रविष्ट करा कर उन्हें स्टेम सेल्स में बदल दिया। इस तरह उन्होंने यह साबित कर
दिया कि मच्योर सेल्स में जो विकास हुआ था उसे पलटा जा सकता है और उन्हें भ्रूण
जैसा बर्ताव करने वाली कोशिकाओं में बदला जा सकता है।
यामांका की खोज से
वैज्ञानिकों को बड़ी राहत मिली जो नैतिक विवादों के कारण स्टेम सेल में अपनी
रिसर्च को आगे बढ़ाने में कठिनाई महसूस कर रहे थे। सेन फ्रांसिस्को में रोडेनबेरी
स्टेम सेल बायोलजी सेंटर के प्रमुख डॉ. दीपक श्रीवास्तव का कहना है कि अल्जाइमर्स
से पीड़ित रोगी के ब्रेन से जांच के लिए टिशू नहीं निकाला जा सकता, लेकिन हम उसकी स्किन कोशिका को स्टेम सेल में बदल कर
उसका अध्ययन कर सकते हैं। डॉ. श्रीवास्तव का यह भी कहना है कि स्टेम सेल्स से
व्यक्तिगत चिकित्सा के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है।
रुग्ण कोशिकाओं के अध्ययन
से डॉक्टर अब यह तय कर सकेंगे कि मरीज के लिए कौन सी दवाएं ठीक रहेंगी। बहुत जल्द
वैज्ञानिक इस तकनीक से टाइप 1 डायबीटिज के मरीजो के लिए इंसुलिन उत्पादक कोशिकाएं और स्पाइनल कोर्ड
इंजरी से पीड़ित रोगियों के लिए नए न्यूरोन बनाने की उम्मीद कर रहे हैं। वे रुग्ण
टिशुओं को रिप्रोग्रेमिंग के जरिए सीधे स्वस्थ अवस्था में बदलने का भी इरादा रखते
हैं। अगले वर्ष एक जापानी टीम स्टेम सेल तकनीक से आंखों में मैकुलर डिजनरेशन रोग
को दूर करने की कोशिश करेगी।
बंद
न हो प्रयोग
पश्चिम के अनेक
नीतिनिर्धारक मानते हैं कि यामांका की रिसर्च के बाद मानव भ्रूण स्टेम सेल्स पर
रिसर्च की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन खुद यामांका का कहना है कि भ्रूण स्टेम सेल्स अब भी रिसर्च के लिए
बेहद जरूरी हैं। उनका प्रयोग बंद नहीं होना चाहिए। दूसरी तरफ स्टेम सेल्स की सेफ्टी
पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। यदि रिप्रोग्रैमिंग के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला
महत्वपूर्ण जीन कैंसर के लिए दोषी पाया गया हो तो परिवर्तित कोशिकाओं के भी
कैंसरग्रस्त होने का खतरा रहेगा।
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