5 सितंबर शिक्षक दिवस पर विशेष
प्रोफेसर यशपाल, प्रसिद्ध शिक्षाविद् और वैज्ञानिक
वे आजादी के दिन थे। मुल्क
का बंटवारा हो चुका था। हम पाकिस्तान वाले हिस्से से रिफ्यूजी बनकर हिन्दुस्तान
पहुंचे। जख्म हरे थे,
पर सपने नए थे। हालांकि, हमारे पास पढ़ने का
कोई साधन नहीं था। तब डीएस कोठारी दिल्ली विश्वविद्यालय में भौतिकी के
विभागाध्यक्ष हुआ करते थे। यह वही कोठारी साहब थे, जो बाद
में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष हुए, इससे पहले
रक्षा मंत्रालय में वैज्ञानिक सलाहकार के पद पर भी रहे। ढेरों सम्मान और काम उनके
नाम हैं। स्टेटिस्टिकल थर्मोडायनेमिक्स पर उनके किए काम को अंतरराष्ट्रीय पहचान
प्राप्त है। आजादी से पहले उनसे कुछ मुलाकातें हुई थीं। एक बार वह लाहौर गए थे
लेक्चर देने के लिए। बेहद प्रभावशाली भाषण था उनका और हम छात्रों ने उनसे काफी कुछ
सीखा। उनकी एक खासियत यह भी थी कि वह जिस जगह जाते, वहां
छात्रों से सीधे मुखातिब होते, उनसे बात और सवाल-जवाब करते।
कुछ भी रटा-रटाया नहीं, सब समझ के आधार पर होता। इस तरह,
छात्रों से उनका एक अनकहा रिश्ता बन जाता। मेरे साथ उनका रिश्ता
इसलिए भी खास था कि मैं उनसे हर मुलाकात में ढेरों सवाल करता था।हम कुछ लोग सीधे कोठारी साहब से मिलने पहुंचे। आज की तरह कोई
पहरेदारी नहीं थी, सब एक-दूसरे
के लिए सुलभ होते थे। हमने कहा, ‘कोठारी साहब, हमारी यूनिवर्सिटी बनी नहीं है। शायद यह बनेगी, ईस्ट
पंजाब यूनिवर्सिटी, सब यही तो कह रहे हैं। और हम फिजिक्स ऑनर्स
के स्टूडेंट हैं। अगर आप हमें अपनी कक्षाओं में शामिल कर लें? ..हमारे शिक्षक भी यहां आकर पढ़ा देंगे। हमारी भी एक लैबोरेटरी यहीं बन जाए,
तो..।’ उन्होंने कहा, ओके।
इस तरह से हमारी अधूरी पढ़ाई फिर शुरू हो पाई। दिल्ली विश्वविद्यालय की मदद से
हमारा इम्तिहान हुआ, रहने को हॉस्टल मिला। और हम तरक्की कर
सके। गुरु के साथ यह रिश्ता, यह बातचीत और हम इतना कुछ कर
पाए, कैसे? मैं दोहराना चाहूंगा-
क्योंकि, वे आजादी के दिन थे। आजाद ख्याल, कुछ करने की ललक, गुरु का दर्जा सबसे ऊपर- यह तब का
हिन्दुस्तान था। गुरु रौबदार दिखते थे, पर ज्ञान से भरे होते
थे। वे फैसले ले सकते थे, आज की तरह कमेटियों के चक्कर नहीं
काटने पड़ते थे।
उसी दिल्ली विश्वविद्यालय
में आज दाखिले का बड़ा झमेला है। कोई प्रक्रिया इसलिए बनती है कि उसके जरिये
छात्रों की परेशानी दूर हो, उनके लिए
रास्ते खुलें, लेकिन इन प्रक्रियाओं ने और पेचीदगियां पैदा
की हैं। पहले गुरु के कहने पर बच्चे का दाखिला हो जाता था, अब
यह लाओ, वह लाओ और न जाने क्या-क्या लाओ। किसे इसका दोष दें?
सब जगह और सबमें मूल्यों का ह्रास हुआ है। चार साल के स्नातक की
पढ़ाई पर दिल्ली विश्वविद्यालय में काफी बवाल मचा। इसका मुख्य कारण मुझे मालूम
नहीं, लेकिन मेरे अनुसार, यह नया
प्रयोग है और शिक्षकों को लगता है कि इससे छात्रों पर बोझ और बढ़ेगा। यह थोड़ा ठीक
भी है। शायद शिक्षक इसका भी विरोध करें कि जो मनमाफिक
चीजें पढ़ना चाहें, उन्हें पढ़ने दें। मैंने सरकार को जो सुझाव
भेजा था, वह यही था कि आप ज्ञान को विषय-अनुशासन में मत
बांधो और जिसे जो पढ़ना है, पढ़े। दरअसल, हमारे दौर में शिक्षक परंपरा के पोषक होते थे, लेकिन
वे लकीर के फकीर नहीं थे। आज सब कुछ घालमेल हो गया है, न
गुरु-शिष्य परंपरा रही और लकीर के फकीर तो बहुतेरे हो गए हैं।
इन दिनों अपने यहां एक जुमला
चल निकला है कि ‘हम उस दौर
में हैं, जहा नॉलेज सोसायटी की जरूरत है।’ लेकिन इसके लिए तो सबसे पहले उस स्तर के शिक्षक बनाने होंगे। वे शिक्षक,
जो नॉलेज और इन्फॉरमेशन के बीच के फर्क को स्पष्ट कर सकें। हकीकत यह
है कि आज समाज में सूचनाओं की अधिकता हो गई है, ज्ञान की
नहीं। और शिक्षक इस समाज से अलग तो नहीं हैं। वे रटने की बात करते हैं, सीखने की नहीं। कितने शिक्षक कक्षा में जाने से पहले पढ़ाई करते हैं?
अपनी तैयारी दुरुस्त रखते हैं और किताबी ज्ञान से अलग व्यावहारिक
नजरिया अपनाते हैं? कहने के लिए तो आज हमारे शिक्षक कई
किताबें लिख रहे हैं। पर ये किताबें कालजयी नहीं, बल्कि
मालजयी हैं। खुद को गुरु कहलाने का आधुनिकतम तरीका है- कॉपीइंग, एडीटिंग, बुक-बाइंडिंग, पब्लिशिंग
और डिस्ट्रीब्यूटिंग। बस थीसिस पर थीसिस और प्रोजेक्ट पर प्रोजेक्ट। लेकिन इन सबकी
आड़ में सोच-समझ की शक्ति खोती जा रही है, इसकी जिम्मेदारी
कौन लेगा? यह भयावह स्थिति है। पुराने तरीकों में इसकी पहचान
गुरुओं को थी कि सूचनाओं का संबंध सोचने से हो, तभी वह ज्ञान
है। लेकिन आज गुरु यह कहते हैं कि किताब में न्यूटन का सिद्धांत लिखा है, तो हम वही पढ़ाएंगे, यह क्यों बताएं कि पेड़ से फल
नीचे क्यों गिरता है? यह तरीका अच्छे शिष्य नहीं बनाता और
गुरु की प्रतिष्ठा दोयम दर्जे की हो जाती है, क्योंकि वे
छात्रों की जिज्ञासा शांत करना अपना दायित्व नहीं समझते। उनका जवाब होता है: यह तो
सिलेबस में नहीं। हकीकत यह है कि वे बच्चों के साथ खुद सीखना नहीं चाहते।
जब मैं एक अखबार के लिए कॉलम
लिखता था, तो मेरे पास बच्चों की ढेरों चिट्ठियां आती थीं,
सवालों से भरी हुईं। ये चिट्ठियां प्रमाण थीं कि बच्चे जानना चाहते
हैं और उनके जवाब घर-परिवार और स्कूल में नहीं मिल रहे हैं। एक बच्चे ने लिखा था,
‘यशपाल अंकल, सब कहते हैं कि इसने इसकी खोज की
और उसने उसकी। फिर ब्रह्मांड की खोज किसने की?’ बड़ा बेहतरीन
सवाल था। शायद यह बच्चे की जिज्ञासा क्षमता का चरम रहा होगा। इसका जवाब मेरे पास
भी नहीं था। लेकिन अगर उस बच्चे की नजर से देखें, तो जवाब
मिलता है कि जब बच्चा जन्म लेता और चिहूं, चिहूं करता हुआ
दुनिया देखता है, तो वह ब्रह्मांड की खोज करता है। यह एक सतत
प्रक्रिया है। इसलिए हर इंसान ब्रह्मांड की खोज करता है। झारखंड की एक बच्ची का
सवाल था, ‘हवा दिखता क्यों नहीं?’ मुझे
मालूम है कि इसका जवाब न देकर शिक्षक उसे लिंग-दोष के लिए डांट पिला रहे होंगे।
मैंने उस बच्ची को किसी चीज के दिखने और नहीं दिखने का बुनियादी और वैज्ञानिक कारण
उसी की भाषा में बताया था। बच्चों की जिज्ञासा-शक्ति आज भी उतनी है, जरूरत है,
तो बस उसे शांत करने की। और यह तब तक नामुमकिन है, जब तक गुरु और शिष्य के बीच दूरी बनी रहेगी। पहल गुरुओं को ही करनी है।
गुरु व्यवस्था का हिस्सा न बनकर व्यवस्था के लिए मिसाल बनें।
बहुत अच्छा लेख :)
ReplyDeleteक्या मैं आपके लेखों का प्रयोग सन्दर्भ-रूप में प्रयोग कर सकता हूँ !
ReplyDeleteबेशक आप लेखों का प्रयोग कर सकते है लेकिन विज्ञानपीडिया वेबसाइट का संदर्भ दे तो बेहतर रहेगा
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