विज्ञान और ज्ञान के अन्य क्षेत्रों में तरक्की के बावजूद प्रकृति का ज्यादातर कामकाज अब भी हमारे लिए रहस्यमय है। मसलन, वैज्ञानिकों ने यह पाया है कि मानवीय डीएनए का लगभग आठ प्रतिशत हिस्सा ही उपयोगी है, शेष बचा हुआ 92 प्रतिशत निष्क्रिय रहता है। पहले यह माना जाता था कि लगभग 80 प्रतिशत डीएनए किसी न किसी रूप में उपयोगी है, लेकिन ऑक्सफोर्ड के शोधकर्ताओं का कहना है कि अगर लगभग 90 प्रतिशत डीएनए न हो, तब भी जीवन का कामकाज चलता रहेगा। यह 90 या 92 प्रतिशत डीएनए वह है, जो करोड़ों साल की विकास यात्रा में कभी काम आया होगा, लेकिन अब नहीं है। इस नतीजे पर पहुंचने के लिए वैज्ञानिकों ने अन्य जीवों के डीएनए के साथ मानव डीएनए का तुलनात्मक अध्ययन किया और उन जीन्स को पहचाना, जो जैव विकास यात्रा के दौरान साझा थे और अभी तक मौजूद हैं। उनकी मौजूदगी का मतलब है कि वे उपयोगी हैं, तभी प्रकृति ने उन्हें बचाकर रखा है। कुछ वैज्ञानिकों ने निष्क्रिय जीन्स को ‘जंक जीन्स’ यानी कूड़ा कहा है, जो विकास यात्रा के दौरान इकट्ठा हो गया है। लेकिन क्या यह सचमुच कूड़ा है? हमें अक्सर आश्चर्य होता है कि प्रकृति इतनी फिजूलखर्ची क्यों करती है? जब कुछ ही पौधे उगाने हैं, तो पेड़ इतने सारे बीज क्यों बिखेरते हैं? एक संतान पैदा करने के लिए अरबों शुक्राणु क्यों बनते हैं? लोगों को इस बात पर भी ऐतराज होता है कि नदियों का मीठा पानी समुद्र में जाकर व्यर्थ हो जाता है।
इसी तरह यह भी एक सवाल है कि इतने सारे व्यर्थ के निष्क्रिय डीएनए क्यों हर मानव कोशिका के अंदर मौजूद हैं? उपयोगितावादी नजरिये से प्रकृति की इस फिजूलखर्ची को रोककर ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाने की कोशिश इंसान खास तौर पर आधुनिक समय में कर रहा है। हम फैक्टरी की तरह के मुर्गी फॉर्मो में मुर्गियों को पैदा कर रहे हैं। नदियों का पानी समुद्र में न जाए, इसलिए बांध बना रहे हैं। पौधों से ज्यादा से ज्यादा उत्पादन हासिल करने के लिए उन्हें रसायन और कृत्रिम रोशनी दे रहे हैं। लेकिन इस नजरिये के नुकसान भी हैं, और ऐसा लगता है कि यह नजरिया प्रकृति के स्वभाव को न समझने की वजह से है। प्रकृति का मूल स्वभाव उत्पादन नहीं, सृजन है। उत्पादन का अर्थ है एक जैसी कई सारी चीजें पैदा करना, जबकि सृजन का अर्थ है कि अब तक जो नहीं हुआ, उसकी रचना करना।
प्रकृति का हर सृजन इसीलिए अद्वितीय होता है। कहते हैं कि दो सूक्ष्मजीवी भी बिल्कुल एक जैसे नहीं होते। यह विविधता प्रकृति के बने रहने के लिए जरूरी है। अगर सारे जीव एक जैसे होंगे, तो किसी एक संकट या एक बीमारी से सब मारे जाएंगे, विविधता बचे रहने की गारंटी है। सृजन के लिए विविधता का होना जरूरी है, तभी अलग-अलग तत्वों के मेल से नए-नए रूप बनेंगे। जो चीज प्रकृति में हमें व्यर्थ लगती है, वह हो सकता है कि उसके लिए काम की हो। कुछ वैज्ञानिक यह मानते हैं कि 92 प्रतिशत डीएनए बेकार नहीं हैं, उन्हें प्रकृति ने इसलिए बचाकर रखा है कि उसकी कभी जरूरत पड़ सकती है। वह हमारी संचित निधि है, कूड़ा नहीं है। अब मनुष्य प्रकृति के तर्क को फिर से समझने की कोशिश कर रहा है और यह देखा जा रहा है कि जो चीजें पहले बेकार या प्रकृति की फिजूलखर्ची लगती थीं, उनका कुछ उपयोग है और उन्हें नष्ट करने से प्रकृति का संतुलन बिगड़ गया और कई दिक्कतें पैदा हो गईं। जीवन की विकास यात्रा का जो इतिहास हम मनुष्यों की कोशिकाओं में दबा पड़ा है, भविष्य में कभी हम उसे पढ़ पाएंगे और वह न जाने किस दौर में हमारी मानवता के काम आ जाए।
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