Tuesday 29 September 2015

इसरो ने लॉन्च किया पहला स्पेस ऑब्जर्वेटरी एस्ट्रोसैट

शशांक द्विवेदी 
एक बड़ी कामयाबी हासिल करते हुए भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने  देश के पहले एस्ट्रोसैटउपग्रह पीएसएलवी-सी30 का प्रक्षेपण कर इतिहास रच दिया। यह भारत का पहला एस्ट्रोसैट उपग्रह है और इससे ब्रहांड को समझने और सुदूरवर्ती खगोलीय पिंडों के अध्ययन करने में में मदद मिलेगी। 513 किलोग्राम का एस्ट्रोसैट उपग्रह को 6 अन्य विदेशी उपग्रहों के साथ प्रक्षेपित किया गया।  

इसरों की कामयाबी का एक और मील का पत्थर
इसरो के वरिष्ठ वैज्ञानिकों और इसके अध्यक्ष ए.एस किरण कुमार की निगरानी में इस ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान (पीएसएलवी) को श्रीहरिकोटा से प्रक्षेपित किया गया। प्रक्षेपण के बाद इन सातों उपग्रहों को सफलता पूर्वक अपनी कक्षा में स्थापित कर दिया गया। एस्ट्रोसैटखगोलीय पिंडों के अध्ययन करने वाला भारत का पहला उपग्रह है। इस उपग्रह के सफलता पूर्वक लॉन्च के साथ इसरों ने कामयाबी का एक और मील का पत्थर स्थापित किया। 

पहली बार अमेरिका ले रहा मदद
इसरो चेयरमैन ए. एस. किरन कुमार के मुताबिक, भारत 19 देशों के 45 सैटेलाइट्स लांच कर चुका है और ये पहली बार है कि अमेरिका किसी सैटेलाइट लाचिंग के लिए भारत की मदद ली है। अमेरिका 20वां देश है, जो कमर्शियल लांच के लिए इसरो से जुड़ा है। भारत से पहले अमेरिका, रूस और जापान ने ही स्पेस ऑब्जर्वेटरी लांच किया है। 


 12 लाख करोड़ रुपए की है दुनिया भर की सैटेलाइट लॉन्च इंडस्ट्री।
- 500 करोड़ रु. से ज्यादा कमाए 40 फॉरेन सैटेलाइट्स की लॉन्चिंग से।
- 19 देशों के 40 फॉरेन सैटेलाइट्स भारत लॉन्च कर चुका है।
- 27 मिशन पीएसएलवी के कामयाब रहे हैं। एक आधा कामयाब रहा। एक नाकाम रहा।


क्या है एस्ट्रोसैट?
इसरो के मुताबिक, इस मिशन का मकसद स्पेस से सैटेलाइट के जरिए धरती पर होने वाले बदलावों का साइंटिफिक एनालिसिस करना है। एस्ट्रोसैट के जरिए अल्ट्रावायलेट रे, एक्स-रे, इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम जैसी चीजों को यूनिवर्स से परखा जाएगा। इसके साथ ही, मल्टी-वेवलेंथ ऑब्जर्वेटरी के जरिए तारों के बीच दूरी का भी पता लगाया जाएगा। इससे सुपर मैसिव ब्लैक होल की मौजूदगी के बारे में भी पता लगाने में मदद मिल सकती है।


इस मिशन से कितने ऑर्गनाइजेशन जुड़े हैं?
इसरो के एक अफसर ने बताया, "इस मिशन में इसरो के अलावा टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स, इंटर-यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनॉमी - एस्ट्रोफिजिक्स और रमन रिसर्च इंस्टीट्यूट भी शामिल हैं।"

क्या मिनी हबल है इसरो का एस्ट्रोसैट?
इसरो के एस्ट्रोसैट को मिनी हबल कहा जा रहा है। हबल 1990 में लॉन्च हुआ था जो अब तक एक्टिव है। हबल एस्ट्रोसैट से 10 गुना ज्यादा वजनी है। लेकिन एस्ट्रोसैट हबल से 10 गुना सस्ता।
अमेरिका का Hubble
इसरो का ASTROSAT
कब लॉन्च हुआ
1990
सोमवार को लाॅन्चिंग
वजन
16000 किलोग्राम
1631 किलोग्राम
लाइफ
अब तक एक्टिव
5 साल
कॉस्ट
100 अरब रुपए
178 करोड़



20 सितंबर 1993 को पीएसएलवी ने भरी थी पहली उड़ान
ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान (पीएसएलवी) की पहली उड़ान 20 सितंबर 1993 को भरी थी लेकिन उसकी असफला के बाद पीएसएलवी की सभी उड़ान कामयाब रही है। पीएसएलवी-सी30 के सफल प्रक्षेपण के बाद इस यान की 31 में से 30 उड़ान सफल रहे है जिससे एक ही मिशन में कई उपग्रहों के लॉन्च के साथ उनके कक्षा में स्थापित करने में कामयाब रहा है।   एक साधारण शुरुआत के बाद, पीएसएलवी मिशन ने 2008 में तीन सफल प्रक्षेपण के साथ गति पकड़ा। उसके बाद 2011, 2013 और 2014 में तीन तीन अंतरिक्ष मिशन को कामयाबी से पूरा किया। इस वर्ष का यह तीसरा अभियान है। 

पीएसएलवी के अब तक के मिशन:-
20 सितंबर,1993 : पीएसएलवी 1 विकास उड़ान - असफल। 
15 अक्टूबर,1994 : आईआरएस-पी 2 के साथ पीएसएलवी 2 विकास उड़ान - सफल। 
21 मार्च, 1996 : आईआरएस-पी 3 के साथ पीएसएलवी 3 विकासात्मक उड़ान - सफल। 
29 सितंबर 1997 : आईआरएस -1 डी के साथ पीएसएलवी पहली परिचालन उड़ान - सफल। 
26 मई 1999 : तीन उपग्रहों के साथ पीएसएलवी-सी 2 - सफल। 
22 अक्टूबर 2001 : तीन उपग्रहों के साथ पीएसएलवी-सी 3 - सफल। 
12 सितंबर 2002 : कल्पना सैटेलाइट के साथ पीएसएलवी-सी 4 - सफल।
17 अक्टूबर 2003 : रिसोर्ससैट साथ पीएसएलवी-सी 5 - सफल। 
5 मई 2005 : कार्टोसैट और एचएएमएसएटी के साथ पीएसएलवी-सी 6 - सफल। 
10 जनवरी 2007 : दो विदेशी उपग्रहों के साथ कार्टोसैट -2 और एसआरई -1 का पीएसएलवी-सी 7 - सफल। 
23 अप्रैल 2007 : एजाइल उपग्रह पीएसएलवी-सी 8 - सफल। 
21 जनवरी 2008 : टीईसीएसएआर सैटेलाइट के साथ पीएसएलवी-सी10 - सफल। 
28 अप्रैल 2008 : 10 उपग्रहों के साथ पीएसएलवी-सी9 - सफल। 
28 अक्टूबर 2008 : चंद्रयान -1 के साथ पीएसएलवी-सी 11 - सफल। 
20 अप्रैल 2009 : रिसैट -2 और अनुसैट साथ पीएसएलवी-सी12 - सफल। 
23 सितंबर 2009 : 7 उपग्रहों के साथ पीएसएलवी-सी 14 - सफल।
12 जुलाई 2010 : 5 उपग्रहों के साथ पीएसएलवी-सी15 - सफल। 
20 अप्रैल 2011 : 3 उपग्रहों के साथ पीएसएलवी-सी 16 - सफल। 
15 जुलाई 2011 : जीसैट -12 के साथ पीएसएलवी-सी17 - सफल
12 अक्टूबर 2011 : 4 उपग्रहों के साथ पीएसएलवी-सी18 - सफल। 
 26 अप्रैल 2012 : रिसैट -1 के साथ पीएसएलवी-सी19 -सफल 
9 सितंबर 2012 : 2 उपग्रहों के साथ पीएसएलवी-सी 21 - सफल। 
25 फरवरी 2013 : सरल और 6 व्यवसायिक उपग्रहों के साथ पीएसएलवी-सी 20- सफल। 
1 जुलाई 2013: आईआरएनएसएस -1 ए के साथ पीएसएलवी- सी 22 - सफल।
5 नवंबर 2013: एमओएम अंतरिक्ष यान के साथ पीएसएलवी- सी 25 - सफल। 
4 अप्रैल 2014: आईआरएनएसएस -1 बी के साथ पीएसएलवी- सी 24 - सफल। 
30 जून 2014: 5 उपग्रहों के साथ पीएसएलवी- सी 23 - सफल। 
16 अक्टूबर 2014 : आईआरएनएसएस -1 सी के साथ पीएसएलवी-सी 26 - सफल 
 28 मार्च 2015: आईआरएनएसएस -1 डी के साथ पीएसएलवी-सी 27 - सफल। 
10 जुलाई 2015: ब्रिटेन के पांच उपग्रहों के साथ पीएसएलवी- सी 28 - सफल। 
28 सितंबर 2015: एस्ट्रोसैट उपग्रह और 6 अन्य विदेशी उपग्रहों के साथ पीएसएलवी- सी 30  

Wednesday 23 September 2015

खुलेंगे ब्रह्मांड के रहस्य

अत्याधुनिक इंफ्रारेड कैमरा एनआइआरकैम 
यह एक विशाल इंफ्रारेड टेलीस्कोप है। आने वाले दशक में अंतरिक्ष के पर्यवेक्षण का मुख्य कार्य इसी दूरबीन द्वारा किया जाएगा
आने वाले दशकों में अंतरिक्ष अनुसंधान के लिए नई टेक्नोलॉजी और शक्तिशाली उपकरणों के उपलब्ध होने के बाद हमें ब्रह्मांड से जुड़े कई सवालों के जवाब मिल जाएंगे। अमेरिका की एरिजोना यूनिवर्सिटी और लॉकहीड मार्टिन कंपनी के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित किया जा रहा नियर इंफ्रारेड कैमरा या एनआइआरकैम एक ऐसा महत्वपूर्ण उपकरण है जिसका पूरी दुनिया के खगोल वैज्ञानिक बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। उन्हें यकीन है इस अति संवेदनशील उपकरण से ब्रह्मांड के अनसुलङो रहस्यों को समझने में मदद मिलेगी। एनआइआरकैम को अक्टूबर, 2018 में जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप के साथ फ्रेंच गुयाना से छोड़ा जाएगा। टेलीस्कोप को अंतरिक्ष में ले जाने का काम यूरोपियन स्पेस एजेंसी का शक्तिशाली एरियन 5 रॉकेट करेगा। इस कैमरे के कोरोनाग्राफ उपकरणों के जरिये खगोल वैज्ञानिक सुदूर अंतरिक्ष में झांक सकेंगे और चमकीली वस्तु या तारे आसपास मौजूद अत्यंत धुंधली वस्तुओं अथवा ग्रहों की तस्वीर खींच सकेंगे। इस कैमरे से प्रारंभिक तारों और निर्माणाधीन आकाशगंगाओं के विस्तृत चित्र तैयार करना संभव हो जाएगा। जिस तरह हम सूरज की रोशनी में किसी वस्तु को देखने के लिए अपनी आंखों के ऊपर अपना हाथ रख लेते हैं, एनआइआरकैम का कोरोनाग्राफ भी उसी तरह से काम करता है। कोरोनाग्राफ चमकीली वस्तु से निकलने वाली तेज रोशनी को अवरुद्ध कर देता है जिसकी वजह से धुंधली वस्तुओं को देखना मुमकिन हो जाता है।
इस कैमरे के विशेष फिल्टरों से हमें तारों के उदय काल में मौजूद रासायनिक संरचनाओं और गैसों के उभरते हुए बादलों को समझने में मदद मिलेगी। इस कैमरे के फिल्टर प्रकाश की अलग अलग वेवलेंथ को पकड़ सकते हैं। चमक में होने वाले परिवर्तनों का पता लगाकर यह कैमरा आकाश गंगाओं के बीच दूरियों का अंदाजा कर सकता है। यह कैमरा दूसरे तारों के इर्दगिर्द घूमने वाले ग्रहों के भौतिक और रासायनिक गुणों का पता लगाने में भी समर्थ होगा। एनआइआरकैम ब्रह्मांड की उत्पत्ति को समझने में सहायक हो सकता है। इस कैमरे के हार्डवेयर में 4 करोड़ पिक्सल हैं और यह 35 केल्विन या माइनस 238 डिग्री सेल्सियस के अत्यंत ठंडे तापमान पर काम करने के उद्देश्य से डिजाइन किया गया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि एनआइआरकैम से हम डार्क मैटर और डार्क एनर्जी को बेहतर ढंग से समझ पाएंगे। हम जानते हैं कि इनका अस्तित्व है, लेकिन हमारी दूरबीनें अभी तक इनका पता नहीं लगा पाई हैं। यह कैमरा हमें यह भी समझाएगा कि अंतरिक्ष और समय मूलभूत स्तर पर किस तरह कार्य करते हैं। एनआइआरकैम द्वारा एकत्र डेटा का पूरी दुनिया पर गहरा असर पड़ेगा। ब्रह्मांड की उत्पत्ति से जुड़ी बातों को समझ कर खगोल वैज्ञानिक उन तमाम ब्रह्मांडीय प्रक्रियाओं को ठीक से समझ पाएंगे जो फिलहाल हमारी समझ से बाहर हैं। एनआइआरकैम की खूबियों पर चर्चा करते हुए यहां मुख्य दूरबीन, जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप का उल्लेख करना भी उचित होगा। यह एक विशाल इंफ्रारेड टेलीस्कोप है। आने वाले दशक में अंतरिक्ष के पर्यवेक्षण का मुख्य कार्य इसी दूरबीन द्वारा किया जाएगा।

यह दूरबीन हमारे ब्रह्मांड के इतिहास के प्रत्येक चरण का अध्ययन करेगी जिसमें बिग बैंग या ब्रह्मांडीय महाविस्फोट के बाद निकली पहली चमक, पृथ्वी जैसे ग्रहों पर जीवन में मददगार सौरमंडलों का निर्माण शामिल है। वैज्ञानिकों को इस दूरबीन की तैनाती का इंतजार है। शुरू में इस दूरबीन का नाम नेक्स्ट जनरेशन स्पेस टेलीस्कोप रखा गया था। 2002 में नासा के पूर्व प्रशासक जेम्स वेब पर इसका नया नाम रख दिया गया। नासा का गोडार्ड स्पेस स्पेस सेंटर इसका प्रबंधकीय कार्य देख रहा है। अंतरिक्ष में तैनाती के बाद अमेरिका का स्पेस टेलीस्कोप साइंस इंस्टीट्यूट वेब टेलीस्कोप का संचालन करेगा।

Saturday 12 September 2015

डिजिटल इंडिया से बनेगा स्मार्ट इंडिया

शशांक द्विवेदी
दैनिक जागरण 
डिप्टी डायरेक्टर (रिसर्च), मेवाड़ यूनिवर्सिटी
दैनिक जागरण में प्रकाशित 
शहरी भारत की नई तस्वीर
पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केंद्र सरकार की 2 सबसे महत्वपूर्ण और महत्वकांक्षी परियोजना “डिजिटल इंडिया “ और स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट को लॉन्च किया। स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट  के अंतर्गत देश भर में 100 स्मार्ट सिटी का निर्माण किया जाएगा इसके साथ ही 500 नगरों के लिए अटल शहरी पुनर्जीवन एवं परिवर्तन मिशन और 2022 तक शहरी क्षेत्रों में सभी के लिए आवास योजना भी लॉन्च हुई । इन  परियोजनाओं के परिचालन दिशा-निर्देश, नियमों, लागू करने के ढांचे को केंद्र द्वारा राज्यों, केंद्र शासित प्रदेशों, स्थानीय शहरी निकायों के साथ पिछले एक साल के दौरान की गई चर्चा के आधार पर तैयार की गई हैं। पीएम मोदी ने कहा कि हर शहरी गरीब को इस लायक बनाया जाएगा कि उनके पास अपना घर होगा। स्मार्ट सिटी प्रॉजेक्ट के कई फायदे हैं, एक ओर जहां इससे वर्ल्ड क्लास शहरों का निर्माण होगा, जीवन स्तर में सुधार आएगा वहीं रोजगार की दृष्टि से भी यह काफी अहम है। केंद्र सरकार ने डिजिटल इंडिया मिशन के लिए 1,13,000 करोड़ का बजट रखा है जबकि देशभर में 100 स्मार्ट सिटी बनाने के लिए 48000 करोड़ का बजट प्रस्तावित है
पीएम मोदी ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि स्मार्ट सिटी परियोजना किसी भी राज्य पर थोपी नहीं जाएगी। बल्कि उस शहर के लोगों को खुद फैसला करना होगा। सच्चाई यह है कि भारत की 40 फीसदी आबादी या तो शहरी केंद्रों में रहती है या आजीविका के लिए इन पर निर्भर रहती है। शहरीकरण पर 25-30 साल पहले भी काम हो सकता था। शहरीकरण को एक अवसर के रूप में अगर देखा गया होता तो आज स्थिति कुछ और होती। स्मार्ट सिटी परियोजना का मकसद उपलब्ध संसाधनों और ढांचागत सुविधाओं का कुशल और स्मार्ट निदान अपनाने को प्रोत्साहित करना है ताकि शहरी जीवन को बेहतर बनाया जा सके तथा स्वच्छ एवं बेहतर परिवेश उपलब्ध कराया जा सके
स्मार्ट सिटी मॉडल :स्मार्ट लोग स्मार्ट शहर
दुनियाँ तेजी से बदल रही है,ऐसे में शहर भी बदल रहें है अब शहर भी स्मार्ट होते जा रहे है या फिर सरकार उन्हें स्मार्ट बनाना चाहती है ऐसे में सवाल उठता है कि   स्मार्ट सिटी आखिर होता क्या है? शायद ऐसी टाउनशिप जहां आपकी सभी जरूरतें पूरी हो जायें। आबू धाबी में मसदर से लेकर दक्षिण कोरिया के सोंगदो तक दुनियाभर में ऐसे शहरों के निर्माण पहले ही शुरू हो चुका है। हो सकता है कि आप जिस शहर में रह रहे हैं वो भी स्मार्ट करवट ले रहा हो। भविष्य के शहर में बिजली के ग्रिड से लेकर सीवर पाइप, सड़कें, कारें और इमारतें हर चीज एक नेटवर्क से जुड़ी होगी। बिल्डिंग की बिजली अपने-आप बंद हो जायेगी, ऑटोनोमस कार खुद पार्क हो जायेगी और यहां तक कि कूड़ादान भी स्मार्ट होगा। लेकिन सवाल यह है कि हम इस स्मार्ट भविष्य में कैसे पहुंच सकते हैं? शहर में हर इमारत, बिजली के खंभे और पाइप पर लगे सेंसरों पर कौन निगरानी रखेगा और कौन उन्हें नियंत्रित करेगा। आईबीएम, सीमन्स, माइक्रोसॉफ्ट, इंटेल और सिस्को जैसी तकनीकी कंपनियां शहर में पानी के लीकेज से लेकर वायु प्रदूषण और ट्रेफिक जाम तक हर समस्या को सुलझाने के लिए सॉफ्टवेयर बेच रही हैं।
 सिंगापुर, स्टॉकहोम और कैलिफोर्निया में आईबीएम यातायात के आंकड़े जुटा रही है और जाम लगने के बारे में एक घंटे पहले ही भविष्यवाणी कर रही है। रियो में आईबीएम ने नासा की तरह एक कंट्रोल रूम बना रखा है जहां स्क्रीनें पूरे शहर में लगे सेंसरों और कैमरों से आंकड़े जुटाती हैं। आईबीएम के पास कुल मिलाकर दुनियाभर में 2500 स्मार्ट शहरों के प्रॉजेक्ट हैं। कंपनी का कहना है कि वो स्मार्ट शहर की अपनी परियोजनाओं में लोगों को साथ लेकर चलती है। डबलिन में कंपनी ने सिटी काउंसिल के साथ मिलकर पार्कया एप तैयार किया है जो लोगों को शहर में पार्किंग की जगह ढूंढने में मदद करता है। अमरीकी शहर डुबुक में कंपनी स्मार्ट वाटर मीटर बना रही है और कम्यूनिटी पोर्टल के जरिये लोगों को डेटा उपलब्ध करा रही है ताकि वे पानी की अपनी खपत को देख सकें। चीन दर्जनों ऐसे नए शहर बसा रहा है जिसमें रियो की तरह कंट्रोल रूम स्थापित किए जा रहे हैं।
स्मार्ट शहर की कहानी में एक और अध्याय है और इसे एप, डीआईवाई सेंसर, स्मार्टफोन तथा वेब इस्तेमाल करने वाले लोग लिख रहे है। डॉन्ट फ्लश मी एक छोटा डीआईवाई सेंसर और एप है जो अकेले दम पर न्यूयॉर्क की पानी से जुड़ी समस्याओं को सुलझा रहा है। इसी तरह सेंसर नेटवर्क एग लोगों को शहर की समस्याओं के प्रति सचेत कर रहा है। शोधों के मुताबिक हर साल 20 लाख लोगों की मौत वायु प्रदूषण के कारण होती है। एग लोगों को सस्ते सेंसर बेचकर वायु की गुणवत्ता के बारे में आंकड़े जुटा रहा है। लोग इन सेंसरों को अपने घरों के बाहर लगाकर हवा में मौजूद ग्रीन हाउस गैसों, नाइट्रोजन ऑक्साइड और कार्बन मोनो ऑक्साइड के स्तर का पता लगा सकते हैं। इन आंकड़ों को इंटरनेट पर भेजा जाता है जहां इन्हें एक नक्शे से जोड़कर दुनियाभर में प्रदूषण के स्तर को दिखाया जाता है। अनुमान के मुताबिक साल 2050 तक दुनिया की 75 प्रतिशत आबादी शहरों में निवास करेगी जिससे यातायात व्यवस्था, आपातकालीन सेवाओं और अन्य व्यवस्थाओं पर जबर्दस्त दबाव होगा। इस समय जो  स्मार्ट शहर बन रहे हैं वो बहुत छोटे हैं जैसे कोई नमूना हो।
स्मार्ट सिटी बनानें में समस्याएं
भारतीय शहरों को स्मार्ट सिटीबना पाना आसान काम तो बिल्कुल नहीं होगा सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि हमारे ज्यादातर पुराने शहर अनियोजित हैं, उनकी सही मैपिंग उपलब्ध नहीं है इन शहरों की 70 से 80 फ़ीसदी आबादी अनियोजित इलाकों में रहती है इन इलाकों में लगातार आवाजाही होती रही है ऐसे में काम की शुरूआत भी कैसे कर पाएंगे इससे तो लगता है कि नए शहर ही बसाए जाएँ, जहां हर चीज़ कि प्लानिंग पहले से की गई हो हमारे शहरों की संरचना और लोगों के रहन-सहन में बड़ी जटिलता है शहर की एक बड़ी आबादी पक्के मकानों में रहती है, जबकि लगभग उतनी ही आबादी सड़कों और झुग्गी-झोपड़ियों में रहती है सरकार को ऐसे शहर बनाने चाहिए, जहां लोगों के रहन-सहन में थोड़ी समानता दिखे
डिजिटल इंडिया से बनेगा स्मार्ट इंडिया
डिजिटल इंडिया के सपने को साकार किये बिना स्मार्ट सिटी योजना को मूर्त रूप नहीं दिया जा सकता । आनलाइन और डिजिटल तकनीक मदद से न सिर्फ शहरी क्षेत्रों में प्राप्त होने वाली सुविधाओं की गुणवत्ता को बढ़ाया जा सकेगा बल्कि साथ ही साथ उपयोग के संसाधनो के खर्च को घटाया जा सकेगा तथा अधिक से अधिक लोगों तक इन सेवाओं को पहुंचाना भी आसान हो सकेगा।   भारत में  बनने  जा रहे स्मार्ट सिटी में सरकारी सेवाओ की कार्यप्रणाली, परिवहन एवं ट्रैफिक व्यवस्था, विद्युत एवं पानी व्यवस्था, मेडिकल सेक्टर की सेवाओं और कूड़े कचरे आदि के प्रबंधन को तकनीक की मदद से बेहतर बनाया जाएगा। सूचना प्रौद्योगिकी का उपयोग स्मार्ट सिटी में विधुत उपयोग एवं इसके वितरण को बेहतर बनाने, शहर की सुरक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने, शहरो के बिज़नेस क्षेत्रो एवं कुछ खुले क्षेत्रो में वाई-फाई व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए किया जाएगा। 

स्मार्ट मीटर, क्लाउड कंप्यूटिंग तकनीक एवं वायरलेस सेंसर तकनीक की मदद से बिजली  खपत की व्यवस्था को बेहतर बनाना एवं इसका सही से प्रबंधन  करना संभव हो सकेगा। बिजली खपत जानने के लिए उपलब्ध स्मार्ट मीटर की मदद से बिजली प्रदानकर्ता और ग्राहक दोनों तरफ की सही सही जानकरी मिल सकेगी, जिसकी मदद से उपयोगकर्ता अपनी आवश्यकता के अनुसार ही बिजली खर्च कर पायेंगे। पावर प्लांट से शहरी  क्षेत्रो में बिजली भेजने  के लिए सामान्य पावर ग्रिड के स्थान पर पर 'स्मार्ट पावर ग्रिड' का उपयोग किया जाएगा। जिसकी मदद से न सिर्फ बिजली का सही प्रकार से वितरण हो सकेगा बल्कि कटौती के समय बिजली का संग्रहण भी संभव हो सकेगा एवं इसके परिचालन, प्रबंधन में आने वाले खर्च को भी कम किया जा सकेगा। स्मार्ट सिटी में सूचना एवं संचार तकनीक की मदद से सभी प्रकार के परिवहन नेटवर्क जैसे रेल, मेट्रो, बस, कार एवं अन्य को जोड़ा जा सकेगा, ताकि इनसे सम्बंधित जानकारी सही-सही मिल सके और शहर की ट्रैफिक व्यवस्था को बेहतर बनाया जा सके।    

Thursday 10 September 2015

कॉल ड्रॉप पर सख्ती बरते सरकार

शशांक द्विवेदी ,डिप्टी डायरेक्टर (रिसर्च ),मेवाड़ यूनिवर्सिटी 
नवभारत टाइम्स(NBT)
नवभारत टाइम्स(NBT)
के संपादकीय में प्रकाशित लीड आर्टिकल
सरकार ने कॉल ड्रॉप की समस्या को गंभीरता से लिया है। उसने कंपनियों से साफ कह दिया है कि अगर यह समस्या नहीं सुधरती, तो वह दूरसंचार ऑपरेटरों पर जुर्माना लगा सकती है। कुछ समय पहले प्रधानमंत्री ने भी इस पर चिंता जताई थी। ट्राई के अनुसार पिछले एक साल में कॉल ड्रॉप का प्रतिशत दोगुना हुआ है। देश में मौजूद 2जी के 183 नेटवर्क सर्किल में से 25 यानी हर सात में से एक, ट्राई द्वारा कॉल ड्रॉप को लेकर तय किए गए मापदंडों पर खरे नहीं उतरते। शायद ही कोई ऐसा दिन गुजरता हो, जब आपको अपने मोबाइल पर बात करते हुए कॉल ड्रॉप से दो-चार न होना पड़ता हो। मगर केंद्र सरकार के दबाव के बावजूद इस मामले को मोबाइल कंपनियां गंभीरता से नहीं लेती हैं क्योंकि इससे उनका मुनाफा बढ़ रहा है।

टॉवर और स्पेक्ट्रम
पिछले दिनों देश की सभी बड़ी टेलिकॉम कंपनियों ने कॉल ड्रॉप के मामले पर संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी। कंपनियों के अनुसार स्पेक्ट्रम और टॉवरों की कमी के कारण कॉल ड्रॉप एक बड़ी परेशानी बनती जा रही है और आगे यह और भी बढ़ सकती है। वोडाफोन इंडिया के मैनेजिंग डायरेक्टर सुनील सूद ने कहा कि अगर फॉर्मल टेलिकॉम टॉवर पॉलिसी नहीं आती है तो आने वाले दिनों में कॉल ड्रॉप की समस्या और ज्यादा बढ़ जाएगी। पर सरकार कहती है कि दूरसंचार कंपनियों ने अधिकांश निवेश स्पेक्ट्रम हासिल करने में किया, जबकि बुनियादी ढांचे में उनका इन्वेस्टमेंट महज 13 फीसदी है। जहां तक सवाल स्पेक्ट्रम की कमी का है तो सरकार के मुताबिक कंपनियां उपलब्ध स्पेक्ट्रम नहीं खरीद रहीं।

2012 में उन्हें जितना स्पेक्ट्रम ऑफर किया गया था उसका 48 फीसदी ही उन्होंने खरीदा। 2013 में 20 फीसदी, 2014 में 81 फीसदी और इस साल 88 फीसदी ही खरीदा है। फिर जो स्पेक्ट्रम कंपनियों ने खरीदा है, उसका भी ये पूरा इस्तेमाल नहीं कर रही हैं। दरअसल उसे जानबूझकर बचा कर रखा जा रहा है क्योंकि मोबाइल कंपनियां अब 2जी, 3जी के बजाय 4जी में ज्यादा निवेश करना चाहती हैं। यही वजह है कि बुनियादी ढांचे के विकास पर उनका बिल्कुल ध्यान नहीं है। इसके साथ ही मोबाइल कंपनियां अपने मुनाफे से भी कोई समझौता नहीं कर रही हैं। एक तरफ मोबाइल में कॉल ड्राप बढ़ रहा है, दूसरी तरफ लगभग सभी टेलिकॉम कंपनियों ने पिछले एक साल में उपभोक्ताओं के लिए 2जी और 3जी सेवाओं के लिए अपनी इंटरनेट दरें लगभग दोगुनी कर दी हैं।

पिछले दिनों 1.1 लाख करोड़ रुपये की स्पेक्ट्रम नीलामी से सरकार का खजाना तो भर गया लेकिन इसकी कीमत अब आम आदमी को अपनी जेब से चुकानी पड़ रही है। गवर्नमेंट को जल्द ही मोबाइल टॉवर पर एक राष्ट्रीय नीति बनानी होगी जिसमें मोबाइल रेडिएशन से लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण पर पड़ने वाले नुकसान को भी ध्यान में रखना होगा। कॉल ड्रॉप की समस्या के संबंध में केंद्रीय संचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने कहा कि उन्होंने सभी मुख्यमंत्रियों को लिखा है कि राज्य सरकार की बिल्डिंग पर मोबाइल टॉवर इंस्टॉल करने की मंजूरी दी जाए। इससे सर्विस प्रोवाइडर्स को कवरेज और क्षमता को बूस्ट मिलेगा और कॉल ड्रॉप दिक्कत से निपटने में मदद मिलेगी। उन्होंने यह भी कहा कि प्राइवेट टेलिकॉम कंपनियों को यह समझना होगा कि उन्हें लोगों के लिए काम करना है, न कि केवल खुद के लिए। कंपनियों को इंफ्रास्ट्रक्चर और टेक्नॉलजी को बूस्ट करने के लिए निवेश करना ही होगा।

टेलिकॉम कंपनियों के पास कमर्शल स्पेक्ट्रम की कमी है क्योंकि इसका ज्यादातर हिस्सा रक्षा सेवाओं के लिए है। बाकी दर्जनों स्पेक्ट्रम ऑपरेटर्स में बंटा है। यहां ऑपरेटर्स 10.5 मेगाहर्ट्ज के स्पेक्ट्रम से काम चलाते हैं, जबकि यूरोपीय देशों में यह औसतन 65 मेगाहर्ट्ज है। शांघाई में उपलब्ध स्पेक्ट्रम भी दिल्ली का ढाई गुना है, जबकि दोनों शहर आकार और आबादी के घनत्व में लगभग एक जैसे हैं। स्पेक्ट्रम कम्युनिकेशन सिग्नल्स ले जाने वाली तरंगें हैं। इनकी भूमिका हाईवे जैसी है। जब इस पर ट्रैफिक बढ़ता है तो रफ्तार धीमी हो जाती है। ऐसे ही जब एक नेटवर्क के दायरे में ज्यादा लोग मोबाइल इस्तेमाल करते हैं तो कुछ रुकावटें आती हैं। टॉवर सिग्नल्स को अपना सफर पूरा करने में मदद करते हैं। देश में फिलहाल चार लाख 25 हजार टॉवर हैं। साउंड व डेटा ट्रांसमिशन सुधारने के लिए फिलहाल एक लाख और टॉवर्स की तत्काल जरूरत है। जितने ज्यादा उपभोक्ता होंगे, उतने ही अधिक स्पेक्ट्रम की जरूरत पड़ेगी। ऐसे में सीमित टॉवरों पर कॉल का बोझ बढ़ता है और उनको अधिक स्पेक्ट्रम की आवश्यकता होती है।

सर्विस की क्वॉलिटी
जहां टॉवर अधिक हैं, वहां सीमित स्पेक्ट्रम में काम चल जाता है लेकिन अधिक टॉवरों के प्रबंधन के लिए अधिक उपकरण चाहिए। देश में फिलहाल लगभग 90 करोड़ लोग मोबाइल फोन का इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसे में टेलिकॉम कंपनियों की सर्विस क्वॉलिटी खराब होना स्वाभाविक है। देश के कई हिस्सों में वॉइस कनेक्टिविटी की समस्या डेटा कनेक्टिविटी को भी प्रभावित कर रही है। इस समस्या से निपटने के लिए नए सेवा गुणवत्ता मानक तय किए जाने चाहिए जिनका कड़ाई से पालन हो। इन मानकों पर खरी न उतरने वाली मोबाइल कंपनियों के खिलाफ कड़ी दंडात्मक कार्रवाई होनी चाहिए।