शशांक द्विवेदी ,डिप्टी डायरेक्टर (रिसर्च ),मेवाड़ यूनिवर्सिटी
नवभारत टाइम्स(NBT)
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सरकार ने कॉल ड्रॉप की समस्या को गंभीरता से लिया है। उसने कंपनियों से साफ कह दिया है कि अगर यह समस्या नहीं सुधरती, तो वह दूरसंचार ऑपरेटरों पर जुर्माना लगा सकती है। कुछ समय पहले प्रधानमंत्री ने भी इस पर चिंता जताई थी। ट्राई के अनुसार पिछले एक साल में कॉल ड्रॉप का प्रतिशत दोगुना हुआ है। देश में मौजूद 2जी के 183 नेटवर्क सर्किल में से 25 यानी हर सात में से एक, ट्राई द्वारा कॉल ड्रॉप को लेकर तय किए गए मापदंडों पर खरे नहीं उतरते। शायद ही कोई ऐसा दिन गुजरता हो, जब आपको अपने मोबाइल पर बात करते हुए कॉल ड्रॉप से दो-चार न होना पड़ता हो। मगर केंद्र सरकार के दबाव के बावजूद इस मामले को मोबाइल कंपनियां गंभीरता से नहीं लेती हैं क्योंकि इससे उनका मुनाफा बढ़ रहा है।
टॉवर और स्पेक्ट्रम
पिछले दिनों देश की सभी बड़ी टेलिकॉम कंपनियों ने कॉल ड्रॉप के मामले पर संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी। कंपनियों के अनुसार स्पेक्ट्रम और टॉवरों की कमी के कारण कॉल ड्रॉप एक बड़ी परेशानी बनती जा रही है और आगे यह और भी बढ़ सकती है। वोडाफोन इंडिया के मैनेजिंग डायरेक्टर सुनील सूद ने कहा कि अगर फॉर्मल टेलिकॉम टॉवर पॉलिसी नहीं आती है तो आने वाले दिनों में कॉल ड्रॉप की समस्या और ज्यादा बढ़ जाएगी। पर सरकार कहती है कि दूरसंचार कंपनियों ने अधिकांश निवेश स्पेक्ट्रम हासिल करने में किया, जबकि बुनियादी ढांचे में उनका इन्वेस्टमेंट महज 13 फीसदी है। जहां तक सवाल स्पेक्ट्रम की कमी का है तो सरकार के मुताबिक कंपनियां उपलब्ध स्पेक्ट्रम नहीं खरीद रहीं।

पिछले दिनों 1.1 लाख करोड़ रुपये की स्पेक्ट्रम नीलामी से सरकार का खजाना तो भर गया लेकिन इसकी कीमत अब आम आदमी को अपनी जेब से चुकानी पड़ रही है। गवर्नमेंट को जल्द ही मोबाइल टॉवर पर एक राष्ट्रीय नीति बनानी होगी जिसमें मोबाइल रेडिएशन से लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण पर पड़ने वाले नुकसान को भी ध्यान में रखना होगा। कॉल ड्रॉप की समस्या के संबंध में केंद्रीय संचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने कहा कि उन्होंने सभी मुख्यमंत्रियों को लिखा है कि राज्य सरकार की बिल्डिंग पर मोबाइल टॉवर इंस्टॉल करने की मंजूरी दी जाए। इससे सर्विस प्रोवाइडर्स को कवरेज और क्षमता को बूस्ट मिलेगा और कॉल ड्रॉप दिक्कत से निपटने में मदद मिलेगी। उन्होंने यह भी कहा कि प्राइवेट टेलिकॉम कंपनियों को यह समझना होगा कि उन्हें लोगों के लिए काम करना है, न कि केवल खुद के लिए। कंपनियों को इंफ्रास्ट्रक्चर और टेक्नॉलजी को बूस्ट करने के लिए निवेश करना ही होगा।
टेलिकॉम कंपनियों के पास कमर्शल स्पेक्ट्रम की कमी है क्योंकि इसका ज्यादातर हिस्सा रक्षा सेवाओं के लिए है। बाकी दर्जनों स्पेक्ट्रम ऑपरेटर्स में बंटा है। यहां ऑपरेटर्स 10.5 मेगाहर्ट्ज के स्पेक्ट्रम से काम चलाते हैं, जबकि यूरोपीय देशों में यह औसतन 65 मेगाहर्ट्ज है। शांघाई में उपलब्ध स्पेक्ट्रम भी दिल्ली का ढाई गुना है, जबकि दोनों शहर आकार और आबादी के घनत्व में लगभग एक जैसे हैं। स्पेक्ट्रम कम्युनिकेशन सिग्नल्स ले जाने वाली तरंगें हैं। इनकी भूमिका हाईवे जैसी है। जब इस पर ट्रैफिक बढ़ता है तो रफ्तार धीमी हो जाती है। ऐसे ही जब एक नेटवर्क के दायरे में ज्यादा लोग मोबाइल इस्तेमाल करते हैं तो कुछ रुकावटें आती हैं। टॉवर सिग्नल्स को अपना सफर पूरा करने में मदद करते हैं। देश में फिलहाल चार लाख 25 हजार टॉवर हैं। साउंड व डेटा ट्रांसमिशन सुधारने के लिए फिलहाल एक लाख और टॉवर्स की तत्काल जरूरत है। जितने ज्यादा उपभोक्ता होंगे, उतने ही अधिक स्पेक्ट्रम की जरूरत पड़ेगी। ऐसे में सीमित टॉवरों पर कॉल का बोझ बढ़ता है और उनको अधिक स्पेक्ट्रम की आवश्यकता होती है।
सर्विस की क्वॉलिटी
जहां टॉवर अधिक हैं, वहां सीमित स्पेक्ट्रम में काम चल जाता है लेकिन अधिक टॉवरों के प्रबंधन के लिए अधिक उपकरण चाहिए। देश में फिलहाल लगभग 90 करोड़ लोग मोबाइल फोन का इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसे में टेलिकॉम कंपनियों की सर्विस क्वॉलिटी खराब होना स्वाभाविक है। देश के कई हिस्सों में वॉइस कनेक्टिविटी की समस्या डेटा कनेक्टिविटी को भी प्रभावित कर रही है। इस समस्या से निपटने के लिए नए सेवा गुणवत्ता मानक तय किए जाने चाहिए जिनका कड़ाई से पालन हो। इन मानकों पर खरी न उतरने वाली मोबाइल कंपनियों के खिलाफ कड़ी दंडात्मक कार्रवाई होनी चाहिए।
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