Thursday 28 November 2013

लेखन में सफलता के पीछे का सच ..

आज कुछ कहने का मन है लेखन के बारे में

शशांक द्विवेदी 

  2004 में दैनिक जागरण,आगरा में प्रकाशित
पिछले 10 दिनों में विभिन्न विषयों पर देश के कई प्रमुख हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं में मसलन दैनिक जागरण ,नवभारतटाइम्स,हिंदुस्तान ,लोकमत ,नई दुनियाँ ,राष्ट्रीय सहारा ,डेली न्यूज ,प्रभातखबर ,जनसंदेश टाइम्स , हरिभूमि ,हिमाचल दस्तक ,ट्रिब्यून ,अमर उजाला कॉम्पैक्ट ,द सी एक्सप्रेस ,कल्पतरु एक्सप्रेस ,डीएनए ,दबंग दुनियाँ ,आई नेक्स्ट ,मिड डे ,जनवाणी ,दैनिक आज के साथ सुप्रसिद्ध मैगज़ीन शुक्रवार ,इलेक्ट्रानिकी में मेरे लेख प्रकाशित हुए.. कभी –कभी ये सब सपना जैसा लगता है लेकिन हकीकत में ये सब देखकर बेहद खुशी मिलती है कि बचपन में एक स्तंभकार बनने का सपना सच हो रहा है .हर दिन खुद से ही मेरा कंपटीशन रहता है ,हर दिन बस और बेहतर ..और बेहतर लिखने की ललक रहती है .कितना भी लिख लू ,कितना भी छप जाए हर दिन एक नई चुनौती लेकर फिर आगे बढ़ने की कोशिश करता हूँ .मेरे आलोचक ही मेरे प्रेरणा स्रोत रहें है ,जब कोई मेरे लेख पढ़कर मुझे नकारने लगता है तो सोचता हूँ अगली बार इससे भी ज्यादा बेहतर करूँगा ,कोई कब तक नकारेगा ? 20 साल की उम्र से लिखना शुरू किया पहले संपादक के नाम पत्र ,फिर लेख ,इस दौरान मैंने बहुत उपेक्षा झेली ..किसी ने कहा त्योहारी लेखक हो तो किसी ने कहा कि छापामार लेखक हो ,किसी ने कहा हिंदी में विज्ञान लिखते हो कौन छापेगा तो किसी ने कहा कि ये सब छोड़कर कुछ ढंग का काम करो ..बहुत सारी बाते लोगों ने कही ,..ठेस भी पहुँची लेकिन रुका नहीं ..इतने ज्यादा आलोचकों के साथ कुछ ऐसे भी लोग मुझे बहुत कम उम्र में मिले जिन्होंने मुझे आगे बढ़ने का प्रोत्साहन दिया ,लिखना सिखाया ,सम्मान दिया ..ऐसे लोगों के बारे में कुछ याद करता हूँ तो सबसे पहले सुभाष राय सर (उस समय अमर उजाला आगरा में स्थानीय संपादक थे,वर्तमान में जनसंदेशटाइम्स के समूह संपादक) का नाम याद आता है जिन्होंने 2003 में (जब मै इंजीनियरिंग तृतीय वर्ष का छात्र था ) मुझे अमर उजाला के लिए एक कॉलम साइबर बाइट्स लिखने का मौका दिया ,खूब प्यार दिया ,सम्मान दिया ..उस दरम्यान मेरे सबसे बड़े अभिभावक वही थे ,आफिस में रोज कॉफी पिलाते थे.उनके पास रोज एक घंटे बैठकर मै बक –बक करता रहता था और वो ध्यान से सुनते रहते थे ..कभी कुछ कहा नहीं ,डांटा नहीं .सिर्फ सिखाया ,बताया ,समझाया .दूसरे व्यक्ति है राजीव सचान सर(वर्तमान में दैनिक जागरण ,राष्ट्रीय संस्करण के प्रमुख ) जिनसे मै कभी मिला नहीं ,पिछले 10 सालों से सिर्फ फोन पर बातें हुई लेकिन इन्होने मुझ जैसे बच्चे को भी गंभीरता से लिया .जब उनसे पहली बार बात हुई तो उसका बड़ा दिलचस्प किस्सा है ,मुझे उस समय किसी ने बताया कि अगर तुम्हारे लेख दैनिक जागरण ,अमर उजाला और जनसत्ता में छप गये तो तुम बड़े लेखक बन जाओगे ,मेरे मन में ये बात पूरी तरह से बैठ गयी थी ,अब तो सिर्फ बड़ा लेखक बनने के सपने आने लगे ,लेकिन हकीकत में बड़ा संघर्ष था आगे 
मै दैनिक जागरण के कानपुर आफ़िस में अपने लेख भेजा करता था संपादकीय विभाग के नाम ,मैंने कई लेख भेजे लेकिन वो प्रकाशित नहीं हुए तो मै मायूस हुआ ,फिर क्या था एक दिन शाम को मैंने जागरण के कानपुर आफ़िस फोन किया ,बोला कि संपादक जी से बात कराओं तो आपरेटर ने कहा कि किस सम्बंध में और क्यों बात करनी है ,
मैंने कहा कि भाई मैंने कई लेख भेजे वो छपे क्यों नहीं ? आप तो बस बात कराइए (मुझे तो बस धुन सवार थी ,उस समय छात्र जीवन में लेख कागज़ पर पेन से लिखता था ,बाजार में उसे टाइप कराता था फिर उसे रजिस्ट्री या फैक्स के जरिये भेजता था ,एक लेख भेजने में 150 रुपये का खर्च आ जाता था इसलिए लेख कहीं नहीं छपता था तो बड़ा दुःख होता था ) 
आपरेटर ने फोन राजीव सचान जी को ट्रांसफर कर दिया 
मैंने कहा शशांक बोल रहा हू ,उन्होंने कहा कौन शशांक 
मैं बोला कि मैंने आपको कई लेख भेजे आपने छापा क्यों नहीं ?
वो बोले कि तुम करते क्या हो ? 
मैंने कहा कि इंजीनियरिंग का छात्र हू 
वो बोले कि जानते हो संपादकीय पेज क्या होता है?
मैंने कहा कि जानता हूँ ,हर शहर में ये पेज समान होता है,बाकी पेज बदलते रहते है ,बड़े लेखक लोग यहीं पर लिखते है इसलिए मुझे भी यहाँ लिखना 
राजीव जी बोले तुम अभी बच्चे हो ,बहुत छोटे हो 
मैंने कहा कि कुलदीप नैय्यर,भरत झुनझुनवाला (इन्ही को मै बड़ा लेखक मानता था ) भी कभी छोटे रहें होंगे ,जन्म से नहीं लिखने लगे होंगे ,तो मुझे भी मौका मिलना चाहिए 
फिर मैंने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा कि आपकी टेबल के पास डस्ट्विन तो होगा 
वो बोले कि हां है 
मैंने कहा कि कृपया आप मेरे लेख एक बार पढ़िए अगर आप को पसंद न आये तो इन्हें फाड़ कर डस्ट्विन में फेक देना .लेकिन एक गुजारिश है कि इन्हें पढ़िए ,अगर गुणवत्ता दिखे तब प्रकाशित करियेगा.
इस बातचीत के बात पता नहीं उन्हें क्या लगा ,लेकिन कुछ दिन के बाद ही पहली बार मेरा लेख दैनिक जागरण में प्रकाशित हुआ और ये सिलसिला आज तक जारी है .उस समय जनसत्ता में राजेंद्र राजन जी,अमर उजाला में कल्लोल चक्रवर्ती,दैनिक आज में शिवमूरत यादव जी ने भी मेरी बाते सुनी ,मेरे लेख पढ़े और उन्हें प्रकाशित किये .इससे मेरा आत्मविश्वास बहुत ज्यादा बढ़ गया .इन पूरे 10 सालों में मैंने सिर्फ ये महसूस किया कि सपने जरुर देखो सपने पूरे होते है ,मेहनत का कोई विकल्प नहीं .भले ही आज मेरे लेख कई जगह प्रकाशित होते हो लेकिन मै अपनी औकात नहीं भूलता .आज भी जब कोई लेख लिखता हूँ तो उतनी ही मेहनत और शिद्दत के साथ जितना पहली बार लिखा था .इस दौरान और आज भी हर दो चार दिन में किसी न किसी संपादक महोदय से मेरी बहस हो जाती है ,वो मुझे न छापने की धमकी भी देते है लेकिन मै रुका नहीं ,झुका नहीं क्योंकि आज मेरे पास खोने को कुछ नहीं है ..अगर कोई एक छापने को मना करता है तो दूसरा तैयार है मुझे छापने को ... कोई नहीं भी छापेगा तो लिखने के लिए मेरी वेबसाइट है मेरे पास .. लोग मेरी शिकायत /आलोचना करते रहते है लेकिन इन सबसे मैंने सिर्फ अपनी गलतियों को सुधारा है और कभी किसी से समझौता नहीं किया क्योंकि मुझे लगता है लेखन से समझौता नहीं किया जा सकता ..सिर्फ अपनी शर्तों पर लिखा ,लोगों की आलोचना और तारीफ़ दोनों को एक तरह से ही लिया .यहाँ तक कि अखबार में प्रकाशित अपने लेख को ५ मिनट देखने और खुश होने के बाद मै अपने अगले लेख में लग जाता हूँ .लेखन मेरे लिए गरीब की मजदूरी की तरह है जहाँ अस्तित्व बचाए रखने के लिए रोज मेहनत करनी पड़ती है .इन लाइनों को जिंदगी में हमेशा महसूस करता हूँ ..
“मै अपने फन की बुलंदी से काम ले लूँगा 
मुझे मुकाम न दो मै खुद मुकाम ले लूँगा ...”
कुलमिलाकर लेखन मेरा प्यार है और मेरी जिंदगी है .


Sunday 17 November 2013

भारत रत्न वैज्ञानिक सीएनआर राव पर अखबारों में शशांक द्विवेदी के लेख

विज्ञान के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान
देश के कई प्रमुख अखबारों में शशांक द्विवेदी के लेख 
 दैनिक जागरण ,लोकमत ,हरिभूमि ,दबंग दुनियाँ ,डेली न्यूज ,डीएनए,कल्पतरु एक्सप्रेस ,राज एक्सप्रेस ,मिड डे,आज  में लेख  
दैनिक जागरण 
केंद्र सरकार ने भारत का  सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न सचिन तेंदुलकर और प्रख्यात वैज्ञानिक प्रोफ़ेसर सीएनआर राव को देने का फैसला किया है .अपने अपने क्षेत्र में दोनों की सफलताएं असाधारण है .जहाँ सचिन ने बल्लेबाजी में शतकों का शतक लगाया है वहीं प्रोफ़ेसर राव ने अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रों के प्रकाशन में शतक लगाया है .दोनों की उपलब्धियाँ असाधारण है लेकिन मीडिया खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया सचिन की कवरेज तो बहुत कर रहा है लेकिन प्रोफ़ेसर राव के बारे में या उनके काम के बारे में कोई भी प्रोग्राम नहीं दिखाया जा रहा है . टीवी पर जहाँ सचिन पर घंटो कार्यक्रम दिखाए गये वहीं पर प्रोफ़ेसर राव पर दस मिनट का कार्यक्रम अधिकतर टीवी न्यूज चैनलों में दिखाया तक नहीं गया . विज्ञान जगत के किसी व्यक्ति को भारत के सबसे बड़े सम्मान की खबर पूरी तरह से उपेक्षित नजर आयी जबकि दोनों को ही भारत रत्न मिला है .विज्ञान की खबरों के प्रति टीवी चैनलों का ये दुराग्रह नया नहीं है ,ऐसा पहली बार नहीं हुआ है .याद करिये भारत के सबसे बड़े अंतरिक्ष अभियान मार्स मिशन को भी टीवी वालों ने ज्यादा तवज्जो नहीं दी थी . देश में विज्ञान ,अनुसंधान और शोध  से सम्बंधित खबरे  प्रिंट मीडिया में थोड़ी जगह बना रही है लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया इससे कोसों दूर है प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं है आप खुद देखिये कि इस क्षेत्र में इलेक्ट्रानिक मीडिया कितना संजीदा है सिर्फ विज्ञान और तकनीक से जुड़ी सनसनीखेज खबरें ही खबरिया चैनलों में थोड़ी बहुत जगह बना पाती है ।खैर जो भी हो लेकिन आज वक्त है विलक्षण प्रतिभा के धनी वैज्ञानिक प्रोफ़ेसर सीएनआर राव को याद करने का जिनकी वजह से अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत का मान-सम्मान  बढ़ा है .

वैज्ञानिक शोध में शतक
भारत सरकार ने प्रख्यात वैज्ञानिक और प्रधानमंत्री की वैज्ञानिक सलाहकार परिषद के प्रमुख प्रोफेसर सीएनआर राव को देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न देने की घोषणा की है। सीएनआर राव सोलिड स्टेट और मैटीरियल केमिस्ट्री के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनके  1400 शोध पत्र और 45 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। दुनियाभर के तमाम प्रमुख वैज्ञानिक शोध संस्थानों ने राव के योगदानों का महत्वपूर्ण बताते हुए उन्हें अपने संस्थान की सदस्यता के साथ ही फेलोशिप भी दी है। उन्हें कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुके हैं।
दबंग दुनियाँ 
वास्तव में जो ऊंचाई 40 वर्षीय तेंदुलकर ने क्रिकेट में हासिल किया है वहीं ऊंचाई प्रोफेसर चिंतामणि नागेश रामचंद्र राव (79) यानी सीएनआर राव ने भी शोध क्षेत्र में हासिल किया है । तेंदुलकर ने एक बल्लेबाज के रूप में 100 अंतरराष्ट्रीय शतक जड़े हैं तो राव भी पहले भारतीय हैं जो शोध कार्य के क्षेत्र में सौ के एच-इंडेक्स में पहुंचे हैं। राव ने इस साल अप्रैल में 100 के एच-इंडेक्स (शोधकर्ता की वैज्ञानिक उत्पादकता एवं प्रभाव का वर्णन करने का जरिया) तक पहुंचने वाले पहले भारतीय होने का गौरव हासिल किया। राव की इस उपलब्धि से पता चलता है कि उनके प्रकाशित शोध कार्यों का दायरा कितना व्यापक है। एच-इंडेक्स किसी वैज्ञानिक के प्रकाशित शोध पत्रों की सर्वाधिक संख्या है जिनमें से कम से कम प्रत्येक का कई बार संदर्भ के रूप में उल्लेख किया गया हो। राव की इस उपलब्धि का मतलब समझाते हुए कुछ वैज्ञानिक कहते हैं कि उन्होंने जो मुकाम हासिल किया, दरअसल वह सचिन के 100 शतकों की उपलब्धि से किसी भी मायने में कम नहीं है।
परमाणु शक्ति संपन्न होने और अंतरिक्ष में उपस्थिति दर्ज करा चुकने के बावजूद विज्ञान के क्षेत्र में हम अन्य देशों की तुलना में पीछे हैं। वैज्ञानिकों-इंजीनियरों की संख्या के अनुसार भारत का विश्व में तीसरा स्थान है, लेकिन वैज्ञानिक साहित्य में पश्चिमी वैज्ञानिकों का बोलबाला है ऐसे समय में प्रोफेसर राव ने पश्चिम के एकाधिकार को तोड़ते हुए शोध पत्रों के प्रकाशन के साथ साथ शोध और अनुसंधान के क्षेत्र में भारत का नाम रोशन किया । उनकी सफलता असाधारण है ।

प्रोफेसर सीएनआर राव का जन्म 30 जून 1934 को बेंगलूर में हुआ था। 1951 में मैसूर विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद बीएचयू से मास्टर डिग्री ली। अमेरिकी पोडरू यूनिवर्सिटी से पीएचडी करने के बाद 1961 में मैसूर विश्वविद्यालय से डीएससी की डिग्री हासिल की। 1963 में आइआइटी कानपुर के रसायन विभाग से फैकल्टी के रूप में जुड़कर करियर की शुरुआत की । 1984-1994 के बीच इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के निदेशक रहे। ऑक्सफोर्ड, कैंब्रिज समेत अनेक विश्वविद्यालयों में विजिटिंग प्रोफेसर रहे हैं। वो इंटरनेशनल सेंटर ऑफ मैटिरियल साइंस के भी निदेशक रहे। रसायन शास्त्र की गहरी जानकारी रखने वाले राव फिलहाल बंगलौर स्थित जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस्ड साइंटिफिक रिचर्स में कार्यरत हैं। डॉ. राव न सिर्फ न केवल बेहतरीन रसायनशास्त्री हैं बल्कि उन्होंने देश की वैज्ञानिक नीतियों को बनाने में भी अहम भूमिका निभाई है।
विलक्षण प्रतिभा के धनी है प्रोफेसर सीएनआर राव
हरिभूमि 
राव के एक वैज्ञानिक के रूप में पांच दशकों के करियर में 1400 से अधिक शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं। दुनियाभर की प्रमुख वैज्ञानिक संस्थाएं, रसायन शास्त्र के क्षेत्र में उनकी मेधा का लोहा मानती हैं। वे  उन चुनिंदा वैज्ञानिकों में एक हैं जो दुनिया के सभी प्रमुख वैज्ञानिक अकादमी के सदस्य हैं। सीवी रमन, पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के बाद राव इस सर्वोच्च सम्मान को पाने वाले तीसरे भारतीय वैज्ञानिक हैं। राव को दुनिया के 60 विश्वविद्यालयों से डाक्टरेट की मानद उपाधि मिल चुकी है और भारतीय वैज्ञानिक समुदाय में वह एक आइकन की तरह देखे जाते हैं। । किसी वैज्ञानिक  के मूल्यांकन के लिए सिर्फ उसका एच-इंडेक्स ही काफी नहीं है बल्कि उसके कितने शोध पत्रों को दृष्टांत के रूप में उल्लेख किया गया है यब भी बहुत मायने रखता है । इस मामले में भी  प्रोफेसर राव दुनिया के कुछेक चुनिंदा वैज्ञानिकों में ऐसे एकमात्र भारतीय हैं जिनके शोध पत्र का दृष्टांत के तौर पर वैज्ञानिकों ने लगभग 50 हजार बार के करीब उल्लेख किया है। 
प्रोफेसर राव ठोस अवस्था, संरचनात्मक और मैटेरियल रसायन के क्षेत्र में दुनिया के जाने-माने रसायन शास्त्री हैं । भारत सरकार ने उन्हें 1974 में पदमश्री और 1985 में पदमविभूषण से सम्मानित किया। वर्ष 2000 में रायल सोसायटी ने उन्हें ह्युजेज पुरस्कार से सम्मानित किया वर्ष 2004 में भारतीय विज्ञान पुरस्कार पाने वाले पहले भारतीय बने । भारत-चीनी विज्ञान सहयोग को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाने के लिए उन्हें इसी साल जनवरी, 2013 में चीन के सर्वश्रेष्ठ विज्ञान पुरस्कार से सम्मानित किया गया । प्रोफेसर राव ने ट्रांजीशन मेटल ऑक्साइड सिस्टम, (मेटल-इंसुलेटर ट्रांजीशन, सीएमआर मैटेरियल, सुपरकंडक्टिविटी, मल्टीफेरोक्सि), हाइब्रिड मैटेरियल, नैनोट्यूब और ग्राफीन समेत नैनोमैटेरियल और हाइब्रिड मैटेरियल के क्षेत्र में काफी शोध और अनुसंधान कार्य किये । प्रोफेसर राव सॉलिड स्टेट और मैटेरियल केमिस्ट्री में अपनी विशेषज्ञता की वजह से जाने जाते हैं। उन्होंने पदार्थ के गुणों और उनकी आणविक संरचना के बीच बुनियादी समझ विकसित करने में अहम भूमिका निभाई है।
लोकमत समाचर 
भारत को अंतरिक्ष विज्ञान में आकाश की अनंत बुलंदी पर पहुँचाने वाले मंगल अभियान में भी उन्होंने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया । विज्ञान के क्षेत्र में भारत की नीतियों को गढ़ने में अहम भूमिका निभाने वाले राव, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की वैज्ञानिक सलाहकार परिषद के भी सदस्य थे। इसके बाद उन्होंने प्रधानमंत्री राजीव गांधी, एचडी दैवेगोड़ा, और आईके गुजराल के कार्यकाल में भी परिषद से जुड़े रहें । राव की मेधा और लगन का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके साथ काम करने वाले अधिकतर वैज्ञानिक सेवानिवृत्त हो चुके हैं, लेकिन वे 79 साल की उम्र में भी सक्रिय हैं और प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह की वैज्ञानिक सलाहकार परिषद में अध्यक्ष के तौर पर अपनी सेवाएं दे रहे हैं । 
दुनिया में अब वैज्ञानिक और तकनीकी ज्ञान आर्थिक स्त्रोत के उपकरण बन गए हैं। किसी भी देश की वैज्ञानिक और तकनीकी क्षमता उसकी आर्थिक प्रगति का पैमाना बन चुकी है। दुनिया के ज्यादातर विकसित देश वैज्ञानिक शोध को बढ़ावा देने के लिए अपने रिसर्च फंड का 30 प्रतिशत तक यूनिवर्सिटीज को देते हैं, मगर अपने देश में यह प्रतिशत सिर्फ छह है। उस पर ज्यादातर यूनिवर्सिटीज के अंदरूनी हालात ऐसे हो गए हैं कि वहां शोध के लिए स्पेस काफी कम रह गया है। वैज्ञानिक शोध पत्रों के प्रकाशन में भी भारत की स्तिथि बहुत अच्छी नहीं है । इसको सुधारने के लिए सरकार को तुरंत ध्यान देना होगा । देश में प्रोफेसर सीएनआर राव जैसे कई वैज्ञानिक पैदा करने के लिए इस शोध के लिए नया माहौल और समुचित फंड देने की जरुरत है ।
कुलमिलाकर विज्ञान के क्षेत्र में प्रोफेसर सीएनआर राव का योगदान अभूतपूर्व है और उनको देश का सर्वोच्च सम्मान  भारत रत्न देने के फैसले से देश में वैज्ञानिक शोध और अनुसंधान को प्रोत्साहन भी मिलेगा । इससे देश में वैज्ञानिक चेतना का माहौल बनाने में भी मदत मिलेगी ।
article link
http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-pioneers-of-research-10872828.html

Friday 15 November 2013

हिग्स बोसॉन और हॉकिंग

आइंस्टाइन के बाद आधुनिक भौतिकी के सबसे ज्यादा परिचित चेहरे स्टीफन हॉकिंग को उनके खोजी दिमाग के अलावा अलमस्त स्वभाव और सोच के चुलबुलेपन के लिए भी जाना जाता है। जिस हिग्स बोसॉन को इस सदी की सबसे बड़ी खोज कहा जा रहा है और जिसकी प्रस्थापना देने वाले पीटर हिग्स और फ्रांसुआ आंग्लेया को इस साल भौतिकी का नोबेल भी मिल चुका है, उसके बारे में हिग्स का कहना है कि इस खोज ने फिजिक्स को ऊबाऊ बना दिया है। उनके मुताबिक हिग्स बोसॉन की खोज ने उन्हें दो स्तरों पर नुकसान पहुंचाया है।
एक तो वह सौ डॉलर की शर्त हार गए, जो एक अमेरिकी वैज्ञानिक के साथ इस बात के लिए लगाई थी कि हिग्स बोसॉन कभी खोजा ही नहीं जाएगा। दूसरे, अगर यह कण नहीं खोजा गया होता तो द्रव्यमान की व्याख्या करने के लिए वैज्ञानिकों को कई सारी अटकलें लगानी पड़तीं, जिससे अंतरिक्ष विज्ञान के अनसुलझे रहस्यों पर रोशनी पड़ती। बहरहाल, हॉकिंग की इस बात को उनके खिलंदड़ेपन का ही हिस्सा माना जाना चाहिए।
सचाई यह है कि पिछले कुछ दशकों में भौतिकी की फ्रंटलाइन प्रस्थापनाओं को अंधेरे में बिल्ली पकड़ने की कसरत माना जाने लगा था। भला ऐसी थ्योरी का क्या फायदा, जिसे न गलत साबित किया जा सके, न सही। आधुनिक भौतिकी की सबसे गहरी उलझनों की सबसे प्रामाणिक व्याख्या का दावा करने वाली स्ट्रिंग थ्योरी की आलोचना में तो बाकायदा एक किताब ही आ गई, जिसका शीर्षक था- 'नॉट इवन रांग।' यानी एक ऐसा सिद्धांत, जिसको सही तो क्या, गलत भी सिद्ध नहीं किया जा सकता।
हिग्स बोसॉन की खोज के बाद यह तो हुआ है कि पदार्थ की सब-एटॉमिक स्तर पर व्याख्या करने वाले स्टैंडर्ड मॉडल की पूरी तरह पुष्टि हो गई है। इस मॉडल के सामने अभी कई चुनौतियां हैं। मसलन, गुरुत्वाकर्षण यानी ग्रैविटी की कोई व्याख्या इसमें नहीं है, और ब्रह्मांड की वृहद स्तरीय व्याख्या के लिए डार्क एनर्जी और डार्क मैटर की जो प्रस्थापनाएं दी गई हैं, उनके बारे में भी यह मॉडल पूरी तरह चुप है। लेकिन इन चीजों की व्याख्या के लिए किसी ज्यादा बड़े सिद्धांत की जरूरत हो सकती है। जब तक वह नहीं खोजा जाता, तब तक हिग्स बोसॉन द्वारा प्रमाणित स्टैंडर्ड मॉडल सूक्ष्म स्तर पर उसी तरह सत्य माना जाता रहेगा, जैसे वृहद स्तर पर न्यूटन के ग्रैविटी मॉडल को सैकड़ों साल तक अंतिम सत्य माना जाता था।(ref-nbt.in)

Wednesday 13 November 2013

कब संकट मुक्त होगी उच्च शिक्षा

हरिवंश चतुर्वेदी, निदेशक, बिमटेक
विश्वविद्यालयों की ग्लोबल रैंकिंग में जब हमारे विश्वविद्यालयों के नाम दिखाई नहीं देते, तो समूचा देश भारत की उच्च शिक्षा के बारे में आत्मग्लानि महसूस करता है। कभी-कभी इन ग्लोबल रैंकिंगों में आईआईटी या आईआईएम के नाम दिखाई देते हैं, तो हमें खुशी होती है कि कम से कम इंजीनियरिंग और प्रबंध शिक्षा में तो हमारी पहचान विश्वस्तरीय है। उच्च शिक्षा में हमारी शिखर संस्थाएं चमकती दिखाई देती हैं, लेकिन इस पिरामिड में धरातल के विश्वविद्यालय व कॉलेज बेरौनक होते जा रहे हैं। ज्यादातर युवकों को दाखिला देने वाले इन संस्थानों पर सवालिया निशान गहरे होते जा रहे हैं। देश में उच्च शिक्षा पाले वाले विधार्थियों में 58 प्रतिशत निजी क्षेत्र के अनुदानित या गैर-अनुदानित संस्थानों में पढ़ते हैं, जबकि 42 प्रतिशत सरकारी संस्थानों के विद्यार्थी हैं। ज्यादातर निजी कॉलेज राज्य विश्वविद्यालयों से संबद्ध होते हैं और इनमें प्रवेश, पाठ्यक्रम व परीक्षाएं इन्हीं विश्वविद्यालयों द्वारा संचालित होते हैं। देश की सरकारी  यूनिवर्सिटियों व कॉलेजों में पढ़ने वाले कुल 80 लाख विद्यार्थियों में से सिर्फ छह प्रतिशत केंद्र सरकार से पोषित संस्थानों में पढ़ते हैं। बाकी 94 प्रतिशत राज्यों के विश्वविद्यालयों या कॉलेजों में शिक्षा पाते हैं।
भारतीय अर्थव्यवस्था और समाज के रूपांतरण में उच्च शिक्षा के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता। आने वाले दशकों में अगर हमें विश्व स्तर पर अमेरिका व चीन का मुकाबला करना है, तो उच्च शिक्षा में कुछ बुनियादी सुधार करने होंगे। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार, वर्ष 2020 तक 20 से 24 वर्ष के आयु वर्ग में भारत में 11.6 करोड़ और चीन में 9.4 करोड़ श्रमिक व कर्मचारी होंगे। वर्ष 2020 में भारत की औसत आयु 29 वर्ष होगी और 15 से 59 वर्ष के आयु वर्ग में हमारी 60 प्रतिशत आबादी होगी। अगर हम इस ‘डेमोग्राफिक-डिविडेंड’ को भुनाना चाहते हैं, तो निस्संदेह हमें भारत की उच्च शिक्षा की गुणवत्ता और सार्थकता को प्राथमिकता देनी होगी। सिर्फ केंद्रीय विश्वविद्यालयों व केंद्रीय संस्थानों को मजबूत बनाने से यह संभव नहीं होगा, हमें राज्यों के विश्वविद्यालयों व कॉलेजों की हालत भी सुधारनी पड़ेगी।
आज 316 राज्य विश्वविद्यालय और 13,024 अनुदानित कॉलेज जिस संकट का सामना कर रहे हैं, उसका मुख्य कारण है, उन्हें मिलने वाले वित्तीय अनुदानों का लगातार कम होते जाना। पिछली तीन पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान जहां केंद्रीय विश्वविद्यालयों व संस्थानों को मिलने वाले वित्तीय अनुदान तेजी से बढ़े हैं, वहीं राज्य विश्वविद्यालयों को मिलने वाले अनुदान उस अनुपात में नहीं बढ़े। नौवीं पंचवर्षीय योजना और 11वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान केंद्रीय विश्वविद्यालयों को मिलने वाला वित्तीय अनुदान 2,272 करोड़ रुपये से बढ़कर 34,784 करोड़ रुपये हो गया, जो लगभग 15 गुना था। दूसरी ओर, राज्य विश्वविद्यालयों को मिलने वाला अनुदान 1,724 करोड़ रुपये से सिर्फ तीन गुना बढ़ा और 5,342 करोड़ रुपये ही हो पाया। केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है, ‘उच्च शिक्षा के लिए सरकारी सहायता में कमी, नतीजतन फीस बढ़ाने के उपाय और उच्च शिक्षा में निजी क्षेत्र की तीव्र बढ़ोतरी  उच्च शिक्षा की उपलब्धता, गुणवत्ता, समानता और कार्य कुशलता के लिए गंभीर समस्याएं पैदा कर रही है।’
इसके लिए राज्य सरकारें भी कम दोषी नहीं हैं। पूरे देश में राज्यों के सकल घरेलू उत्पाद का सिर्फ पांच प्रतिशत उच्च शिक्षा पर खर्च होता है। उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और झारखंड जैसे राज्यों का सकल नामांकन अनुपात (जीईआर) भी कम है और उच्च शिक्षा पर प्रतिशत खर्च भी कम है। दूसरी ओर, तामिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल, गोवा, त्रिपुरा जैसे राज्यों का प्रति विद्यार्थी खर्च और जीईआर, दोनों राष्ट्रीय औसत से बेहतर है। राज्यों के विश्वविद्यालय सिर्फ वित्तीय संकट का ही सामना नहीं कर रहे हैं, बल्कि राजनीतिक हस्तक्षेप, संबद्ध कॉलेज प्रणाली का बोझ, अकुशल प्रशासन, जवाबदेही के अभाव और निरंकुश नौकरशाही जैसी समस्याएं भी इन्हें निष्प्रभावी बना रही हैं।
संबद्ध कॉलेज प्रणाली वैसे तो ब्रिटिश शासन की ही देन है, लेकिन पिछले 30 वर्षों में इन कॉलेजों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। सन् 1975 के आसपास राज्य विश्वविद्यालयों में संबद्ध कॉलेजों की संख्या 50-75 के बीच होती थी। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अनुसार, आज देश में 20 ऐसे राज्य विश्वविद्यालय हैं, जहां पर संबद्ध कॉलेजों की संख्या 400 से 900 तक हैं। उस्मानिया यूनिवर्सिटी, हैदराबाद में 901, पुणे यूनिवर्सिटी में 811 और राजस्थान यूनिवर्सिटी में 735 संबद्ध कॉलेज हैं। इनकी संख्या में बेतहाशा वृद्धि से हालांकि राज्य विश्वविद्यालयों की आय भी तेजी से बढ़ी है, किंतु इन विश्वविद्यालयों का ज्यादातर समय परीक्षाएं संचालित करने और परीक्षाफल घोषित करने में ही खर्च होता है। इससे शोध-अनुसंधान और शैक्षणिक गुणवत्ता सुधारने पर ध्यान देना इनके लिए मुश्किल होता जा रहा है।
यशपाल कमेटी और राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने संबद्ध कॉलेजों के बोझ से राज्य विश्वविद्यालयों को मुक्त कराने के लिए यह सुझाव दिया था कि अच्छे नतीजे दिखाने वाले कॉलेजों को ‘स्वशासी’ बना देना चाहिए। ये कॉलेज अपना पाठ्यक्रम और परीक्षाएं खुद संचालित करें। इस समय देश में 400 से अधिक स्वायत्त कॉलेज हैं। इनमें से कुछ सुप्रतिष्ठित कॉलेजों को तो विश्वविद्यालय का दर्जा भी दिया जा सकता है। प्रेसीडेंसी कॉलेज, कलकत्ता इसका अच्छा उदाहरण है, जिसे अब राज्य विश्वविद्यालय बना दिया गया है। राज्य विश्वविद्यालयों और उनसे संबद्ध कॉलेजों को मौजूदा खस्ता हाल से उबारने के लिए हाल ही में मानव संसाधन मंत्रालय ने राष्ट्रीय उच्च शिक्षा अभियान (रूसा) नामक नई योजना शुरू की है। रूसा के अंतर्गत 12वीं और 13वीं पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान 98,138 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे, जिसमें केंद्र सरकार का हिस्सा 69,675 करोड़ रुपये होगा और बाकी राज्य सरकारों को देना होगा। शुरू में रूसा के तहत 316 राज्य विश्वविद्यालयों और 13,024 मौजूदा कॉलेजों को लाया जाएगा।
अगले नौ वर्षों में इसके  तहत राज्य सरकारों को 278 नए विश्वविद्यालयों और 388 नए कॉलेजों की स्थापना, 266 कॉलेजों को मॉडल कॉलेज बनाने के लिए मदद दी जाएगी। मंत्रालय का कहना है कि रूसा के अंतर्गत राज्य विश्वविद्यालयों को वित्तीय सहायता देने की एक नई प्रणाली का इस्तेमाल किया जाएगा। अच्छे नतीजे दिखाने वाले विश्वविद्यालयों व कॉलेजों को वित्तीय मदद दी जाएगी। जहां कुछ शिक्षाविद और राज्य सरकारें इस घोषणा से उत्साहित हैं, वहीं कुछ लोगों का कहना है कि इसकी असली परीक्षा केंद्र व राज्य सरकारों के स्तर पर प्रभावी क्रियान्वयन में होगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि रूसा का हश्र शिक्षा के अधिकार (आरटीई), सर्वशिक्षा अभियान और पूर्ण साक्षरता अभियान की तरह निराशाजनक न हो।

Monday 11 November 2013

एड्स एक काल्पनिक बीमारी -एड्स पर संदेह

एड्स पर संदेह
-डा. मनोहर भण्डारी
दुनिया के अनेक वैज्ञानिक चीख- चीख कर कह रहे हैं कि कुछ वैज्ञानिकों, दवा कम्पनियों, जांच के उपकरणों और रसायन बनाने वाली कम्पनियों तथा मीडिया के सहयोग से एड्स नामक काल्पनिक बीमारी, दुनिया पर थोपी गई है। उन्हें लाभ पहुंचाने के लिए एक किस्म का सक्षम नेटवर्क पूरी शक्ति से काम कर रहा है।

एड्स दुनिया की पहली ऐसी बीमारी है, जिसके वैज्ञानिक पहलू जगजाहिर करने में इसके आविष्कारकर्ता असमर्थ सिध्द हुए हैं। इसके वैज्ञानिक पक्ष को जानने के लिए नोबेल फरस्कार से सम्मानित, नामित और अन्य अंतराष्ट्ररीय स्तर के वैज्ञानिकों के प्रयासों को येनकेन प्रकारेण नजरअंदाज किया गया, टाला गया, दबाया गया तथा बौखलाहट में सजा के योग्य करार दिया गया। इसकी वैज्ञानिकता को चुनौती देने वाले वैज्ञानिकों की संख्या एक-दो नहीं बल्कि दो हजार से ज्यादा पहुंच चुकी है। इंटरनेट इस पर वाद-विवाद की अनेक वेबसाइट मौजूद हैं। अब तक की सबसे घातक, अपराजेय और रोगी की मौत की शुरुआत पहले दिन से ही प्रारंभ कर देने वाली इस विश्वव्यापी बीमारी के वैज्ञानिक पक्ष की गोपनीयता से, महात्मा गांधी की इस टिप्पणी को बल मिला है कि एलोपैथी एक चिकित्सा पध्दति नहीं, बल्कि शक्तितंत्र है।दुनिया के अनेक वैज्ञानिक चीख- चीख कर कह रहे हैं कि कुछ वैज्ञानिकों, दवा कम्पनियों, जांच के उपकरणों और रसायन बनाने वाली कम्पनियों तथा मीडिया के सहयोग से एड्स नामक काल्पनिक बीमारी, दुनिया पर थोपी गई है। उन्हें लाभ पहुंचाने के लिए एक किस्म का सक्षम नेटवर्क पूरी शक्ति से काम कर रहा है। इस कथित बीमारी ने अप्रफीका की आधी से ज्यादा आबादी तथा दुनिया के करोड़ों लोगों को इसका शिकार (एचआईवी पाजिटिवश् घोषित कर उन्हें, बिना किसी अपराध के मृत्युदण्ड की सजा सुना दी है, साथ ही साथ उन्हें उपेक्षित, तिरस्कृत, बहिष्कृत, घृणास्पद और अपमानित जिंदगी जीने के लिए अकारण विवश भी किया है। एच.आई.वी. पाजिटिव के बहिष्कार की खबरें तो दुनियाभर में प्रकाशित हुई है, मगर जिंदा दफन करने और जला देने की घटनाए भी पढ़ने में आई हैं।
विडम्बना देखिए कि अमेरिकन एसोसिएशन फार द एडवांसमेंट आफ सांइसेंस (ए.ए.ए.एस.श् की पैसिफिक शाखा ने सेन प्रफांसिस्को में 21 जून, 1994 को द रोल आफ एच.आई.वी. इन एड्स: व्हाय देयर इज स्टिल कान्ट्रावसीविषय पर विशुध्द वैज्ञानिक परिसंवाद का कार्यक्रम परस्पर सहमति से महीनों पहले तय किया था, मगर एड्स प्रमोशन प्रोग्राम से जुड़े लोगों ने उसे निरस्त करने और असफल बनाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए। कैलिफोर्निया के अखबारों तथा बिटेन की प्रसिध्द मैग्जीन नेचरने कार्यक्रम अघोषित तिथि तक स्थगित तथा निरस्त होने तक की खबरों को छापना शुरू कर दिया। शाखा के अध्यक्ष और कार्यक्रम प्रमुख प्रोफेसर चार्ल्स गेशेक्टर, जो कि कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के वरिष्ठ प्रोफेसर थे, उनको बिना बताए हटा दिया गया और एक अन्य व्यक्ति को कार्यक्रम प्रमुख के रूप में पदस्थ कर दिया गया। वक्ता बदल दिए गए। वक्ताओं का क्रम बदल दिया गया। कार्यक्रम में जब विपक्षियों का पलड़ा भारी हो गया तो कार्यक्रम को समय से पूर्व समाप्त किए जाने की घोषणा कर दी गई।
एड्स के आविष्कार का वर्णन मेडिकल इस्टैब्लिसशमेंट वर्सेस द ट्रूथमें नोबेल फरस्कार से सम्मानित केरी मुलीज ने इस प्रकार किया है, ”जब मैंने 1984 में पहली बार सुना कि प्रफांस के प्रास्तर इंस्टीटयूट के ल्यूक मांटेग्नियर और नेशनल इंस्टीटयूट आफ अमेरिका के राबर्टगैलो ने यह खोज की है कि रेट्रोवायरस एच.आई.वी. एड्स का कारण है, तो इसे एक वैज्ञानिक तथ्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया। फिर जब मैंने इस विषय में सेंटर फार डिजीज कंट्रोल (सी.डी.सी.श् की रिपोर्ट पढ़ी तो लगा कि यह वैज्ञानिक आर्टिकल नहीं है। उसमें कहा गया कि एक आर्गेनिज्म (जीवाणुश् की पहचान की गई है। किन्तु कैसे की गई, इसका उल्लेख नहीं था। डाक्टरों से अनुरोध किया गया था कि यदि किसी मरीज में कुछ खास शारीरिक लक्षण पाए जाएं और एंटीबाडीज के लिए की गई जांच पाजिटिव हो तो इसका अर्थ है कि उसे एड्स रोग है। यह एक वास्तविक वैज्ञानिक संदर्भ नहीं था। खोज के बाद, न तो मांटेग्नियर ने, और ना ही गैलो या किसी और ने उन प्रयोगों का वर्णन करते हुए सामग्री प्रकाशित की, जिनसे यह सिध्द हो कि एच.आई.वी. ही एड्स का कारण है। प्रसारित शोध पत्रों में भी इसका कोई संकेत नहीं था कि यही वायरस बीमारी का कारण है। सी.डी.सी. ने धीरे-धीरे एड्स की परिभाषा को विस्तृत करते हुए पहले से मौजूद 30 बीमारियों को शामिल करते हुए कहा कि इनमें से किसी एक बीमारी के साथ एच.आई.वी. पाजिटिव की रिपोर्ट आए तो वह व्यक्ति एड्स का रोगी मान लिया जाएगा। इस तरह 1993 में इन बीमारियों को जोड़ने से अचानक एच.आई.वी. पाजिटिव लोगों की संख्या बढ़ गई और दुनिया को लगा कि यह बीमारी तेजी से बढ़ रही है। इसे काउंटी हेल्थ आथोरिटीज ने खुशी से स्वीकार कर लिया, क्योंकि उन्हें रेयान व्हाइट एक्ट के तहत एड्स के हर नए मामले के लिए 2500 डालर प्रति वर्ष अनुदान दिया जा रहा था।डा. मुलीज आगे कहते हैं, ”हमारे शरीर में असंख्य रेट्रोवायरस रहते हैं। वे हमारे जीनोम में होते हैं। कुछ हमें अपनी माता से और कुछ माता-दोनों से जींस के साथ प्राप्त होते हैं। इनमें से कुछ एच.आई.वी. की तरह लग सकते हैं।सी.डी.सी. की व्याख्या के अनुसार यदि किसी टयूबरकुलोसिस या यूटेराइन कैंसर के मरीज की जांच में एच.आई.वी. पाजिटिव आता है तो वह एड्स का रोगी है। यदि निगेटिव आता है तो वह सिर्फ टी.बी. या यूटेराइन कैंसर का रोगी है। विडम्बना यह है कि यदि इन 30 बीमारियों में से किसी भी एक से पीड़ित व्यक्ति कीनिया या कोलम्बिया में रहता है, जहां एच.आई.वी. एंटीबाडीज की जांच प्रक्रिया बहुत महंगी है, तो उसे बिना जांच के ही पाजिटिव मानकर एड्स का रोगी घोषित कर दिया जाता है। विडम्बना यह भी है कि सर्दी-जुकाम, फ्लू से पीड़ित व्यक्ति या गर्भवती महिला में भी एच.आई.वी. एंटीबाडीज पाए जा सकते हैं, यानी ऐसे लोग भी जांच में पाजिटिव घोषित किए जा सकते हैं।
शरीर या रक्त में एड्स के वायरस की मौजूदगी पता चलने के बाद रोग के लक्षण प्रकट होने के बीच के समय को विज्ञान की भाषा में प्रसुप्ति काल या लेटेंसी पिरियड कहा जाता है। यह अवधि हर बीमारी के लिए निश्चित और तयशुदा रहती है, मगर सी.डी.सी. ने एड्स के मामले में इस अवधि को अनेक बार बदला है। पैरी का कहना है कि सत्रह साल पहले कहा गया था कि दो से चार साल बाद तुम्हें एड्स हो जायेगा। फिर कहा गया आठ साल भी लग सकते हैं। धीरे-धीरे समय बढ़ता गया। अब सी.डी.सी. के विशेषज्ञ कह रहे हैं कि रोग के लक्षण प्रकट होने में पन्द्रह साल भी लग सकते है या फिर शरीर में वायरस जीवनभर चुपचाप बिना हानि पहुंचाए निष्क्रिय (डारमेंटश् अवस्था में भी पड़ा रह सकता है। वह कहता है कि ऐसी अनिश्चित स्थिति में मेरे जैसे पूर्ण रूप से स्वस्थ हजारों यौन सक्रिय नागरिकों को लेटेंसी परियड के नाम पर मृत्यु से काफी पहले ही मृत्युदण्ड क्यों दिया जा रहा है।
कुछ मार्मिक प्रसंगों तथा दवाइयां लेने के लिए दवाबों, जवाबदेह लोगों के गैर जिम्मेदाराना रवैये, अवैज्ञानिक तथा असंतोषप्रद जवाबों, व्यवहार तथा प्रतिक्रिया के कारण एक फिल्मकार राबिन ने बहुचर्चित फिल्म बनाई-द अदर साइड आफ एड्स।इस फिल्म में राबिन ने तीन बातों पर ज्यादा जोर (स्टे्रसश् दिया है। एक तो यह कि जब आज तक किसी एड्स रोगी के शरीर या रक्त से वायरस (ह्यूमन इम्यूनो डिफिसिएंशी वायरस, एच.आई.वी.श् को पृथक ही नहीं किया जा सका है, तो फिर एड्स के लिए इस वायरस को कैसे दोषी ठहराया जा सकता है? दूसरा, एच.आई.वी./ एड्स के रोग का पता लगाने के लिए, दी जानेवाली तमाम प्रचलित टेस्ट्स (परीक्षण विधियोंश् की वैधता और वैज्ञानिकता ही संदेह के दायरे में है। एच.आई.वी. एड्स के परीक्षण के लिए कोई भी टेस्ट वैश्विक स्तर पर सर्वमान्य या स्वीकृत नहीं है। लगभग तीस तरह का टेस्ट होने के बावजूद एक भी टेस्ट ऐसा नहीं है, जिससे वास्तविक वायरस को देखा या खोजा जा सके। तीसरी बात भी बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसकी दवाइयों में उपचार से ज्यादा मारक शक्ति होती है। नोबेल फरस्कार के लिए नामित वैज्ञानिक डा. पीटर डयूसबर्ग ने इस फिल्म में एच.आई.वी. से एड्स होने की बात को, तो वैज्ञानिक सबूतों के अभाव में सीधे-सीधे नकारा ही है। साथ ही उन्होंने कहा है कि एच.आई.वी. के लिए इस्तेमालकी जा रही दवाइयां इतनी घातक हैं कि जैसे खरगोश को मारने के लिए आणविक हथियार (न्यूक्लियर वैपनश् इस्तेमाल किया जाए।
डा. एटिनी डी हार्वे जो यूनिवर्सिटी आफ टोरंटो में पैथालाजी के प्रोफेसर हैं, उनके अनुसार मीडिया, विशेष दबाव समूहों तथा कुछ दवा कम्पनियों के निजी हितों की वजह से एड्स संस्थान बीमारीपर नियंत्रण पाने की कोशिशों में खुले दिमाग से नाता तोड़ बैठा हैं। दरअसल एक काल्पनिक एचआईवी/एड्स को नियंत्रित करने के लिए 100 प्रतिशत रिसर्च फंड मुहैया कराया जा रहा है और दूसरे क्षेत्रों की उपेक्षा हो रही है।
आस्ट्रेलिया के रायल पर्थ अस्पताल के भौतिक शास्त्री डा. एलीनी ने सभी एचआईवी टेस्टों- एलीसा, वेस्टर्न ब्लाट, और पी.सी.आर.की अप्रामाणिकता सिध्द की है। उन्होंने दर्शाया है कि किस प्रकार एचआईवी से असम्बध्द अन्य शारीरिक अवस्थाएं जैसे टीबी, मलेरिया, कुष्ठ, हैपेटाइटिस बी तथा यहां तक की फ्लू का टीका भी एचआइवी का परिणाम दे सकता है।
डा.राबर्टिरूट-बर्नस्टेन- मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी में फिजियोलाजी के एसोसिएट प्रोफसर हैं। एड्स पर लिखी उनकी किताब को एड्स की एचआईवी थ्योरी के खिलाफ सबसे सावधान दस्तावेजी आक्रमण माना जाता है। उनके अनुसार एचआईवी से एड्स होने, एड्स एक नई बीमारी होने या इसके संक्रामक होने का कोई सबूत नहीं है।
वर्ष 1995 में प्रसिध्द चिकित्सा पत्रिका ब्रिटिश मेडिकल जर्नलने एक शोध लेख छापा कि एजेडटी (एड्स की दवाश् एड्स पीड़ितों के जीवन को और कम कर देती है। इसी दौरान यूरोप की एक संस्था कानकोर्ड ने भी नियमित जांच के आधार पर एक रिपोर्र्ट तैयार की और स्पष्ट किया कि एजेडटी लेनेवाले एचआईवी संक्रमित व्यक्ति की तुलना में वे लोग ज्यादा बेहतर थे, जो एजेडटी नहीं ले रहे थे।
देश में एड्स की रोकथाम के लिए बनाई गई संस्था नाकोखुद भी एड्स की भांति एक रहस्य बन चुकी है। नाको के प्रोजेक्ट डाइरेक्टर की कुर्सी हथियाने के लिए पीएमओ में जोड़तोड़ करनी पड़ती है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन से जुडे प्रेम अग्रवाल कहते हैं कि नाको क्या कर रहा है यह टाप सीक्रेटहोता है, इसलिए एड्स नियंत्रण कार्यक्रम सफल है या किल यह कहना मुश्किल है। नाको की कार्यप्रणाली पर वह कहते हैं, यह संस्था सिर्फ अंधेरे में ढोल पीटने में लगी हुई है।
जैक इंडिया के श्री मुल्लोली वर्षों से एड्स के भ्रम के खिलाफ मोर्चा थामे हुए हैं। उनका कहना है कि एड्स के नाम पर चल रहा यह खेल एक वैज्ञानिक नरसंहार है। एड्स के नाम पर हजारों करोड़ रूपयों का खेल बहुराष्ट्रीय कम्पनियां खेल रही हैं, जिसमें मोहरें हैं गरीब देशों के गरीब लोग। यह सब भारत में एड्स की दवाओं का बड़ा बाजार तैयार करने के लिए हो रहा है जिसका फायदा कुछ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को होगा। इस बात को विश्व स्वास्थ्य संगठन की उस रिपोर्ट से भी बल मिलता है, जिसमें इशारा किया गया है कि भारत विश्व में सबसे बड़े एड्स केन्द्र के रूप में उभर रहा है।
एड्स नियंत्रण के नाम पर जिस निर्लज्जता से कंडोम का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है, उससे भी अंतरराष्ट्रीय साजिश की बू आती है। बात केवल कंडोम के प्रयोग को बढ़ावा देने भर की नहीं है। इसके बहाने एक अपसंस्कृति को हम पर थोपने का प्रयास हो रहा है। इसे रोकने के लिए राष्ट्रव्यापी जागरुकता अभियान चलाने की जरूरत है।


Friday 8 November 2013

विज्ञान पत्रकारिता से गायब है विशेषज्ञ लेखन

मीडिया में मंगल अभियान की स्तरीय कवरेज ना होने पर आशीष कुमार के विचार 

हिंदी पत्रकारिता में विशेषज्ञ लेखन की स्थिति सोचनीय है। हिंदी प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रानिक मीडिया दोनों में ही विशेषज्ञ पत्रकारों की संख्या नगण्य है। विज्ञान, रक्षा, पर्यावरण, विदेश नीति, अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम और आर्थिक मामलों का कवरेज करते समय अक्सर गुणवत्ता में कमी देखने को मिलती है। भारत के मंगल अभियान कवरेज के दौरान भी हिंदी अखबारों और न्यूज चैनलों में विज्ञान पत्रकारिता के संबंध में विशेषज्ञता की कमी दिखाई दी।          अधिकांश हिंदी न्यूज चैनल और अखबारों ने मंगल अभियान को केवल खबरों तक ही सीमित रखा। अखबारों में छपे विशेष लेखनों में भी गुणवत्ता की कमी दिखाई दी। समाचार चैनलों पर इंटरनेट से चुराए गए विदेशी स्पेस एजेंसियों के ग्राफिक्स व एनिमेशन दिखाए जा रहे थे। कुछ पर तो ग्राफिक्स भी घटना का गलत चित्रण कर रहे थे, जिसमें मंगल मिशन सेटेलाइट और उपकरणों को मंगल की सतह पर उतरता हुए दिखाया जा रहा था। जबकि भेजे गए उपकरण केवल मंगल की परिक्रमा करेंगे। किसी ने भी गहराई से तकनीकी पक्षों के बारे में बात नहीं की। कोई भारत को विश्व में तीसरा, कोई चौथा व कोई पांचवा देश बता रहा था, जिसने मंगल ग्रह की ओर अपना मानव रहित अंतरिक्ष यान भेजा है। समाचार चैनलों के तथ्यों में भी भिन्नता देखने को मिल रही थी। मंगल यान की लांचिंग के बाद किसी ने कहा कि भारत को अपना मंगल यान पीएसएलवी से न भेजकर जीएसएलवी के जरिए भेजना चाहिए था, तो किसी भी समाचार चैनल ने पीएसएलवी व जीएसएलवी के तकनीकी पक्षों के अंतर को विशेषज्ञों के जरिए स्पष्ट कराने की कोशिश नहीं की थी। आम हिंदी भाषी दर्शक व पाठक भी देश को गौरवान्वित करने वाले इस घटनाक्रम के संबंध में गहराई से जानना चाहता था, लेकिन सभी को केवल उथली सूचना ही मिलीं। वहीं, एक चैनल पर एनएसी के पूर्व सदस्य हर्ष मंदर कह रहे थे कि भारत ने बेवजह मंगल मिशन पर 480 करोड़ रुपये खर्च किए हैं। देश को मंगल पर जाने की जगह गरीबों पर ध्यान देना चाहिए, उनकी गरीबी दूर करनी चाहिए। उनके समर्थन में एकाध पत्रकार ने भी हामी भरी। हर्ष मंदर व उनको समर्थन करने वाले पत्रकारों को पता होना चाहिए की अंतरिक्ष के क्षेत्र में काम करने वाली इसरो जैसी संस्था कृषि, मौसम, पर्यावरण, संचार आदि के क्षेत्र में भी काम करती है। एक क्षेत्र की सूचनाएं दूसरे क्षेत्र में काम आती हैं। मौसम की पूर्व घोषणा कृषि के पैदावार के लिए सहायक होती है। मौसम की पूर्व घोषणा व संचार तकनीक के सहारे ही उड़ीसा में आए फेलिन से हजारों लोगों के जान माल को बचाया जा सका। हर्ष मंदर के आधारहीन तर्कों का मीडिया में आना और नगण्य ही सही, समर्थन मिलना मेन स्ट्रीम इलेक्ट्रानिक मीडिया में विज्ञान के विशेषज्ञ पत्रकारों की घोर कमी को दर्शाता है।        
विशेषज्ञता की कमी केवल विज्ञान पत्रकारिता के मामले में ही नहीं है बल्कि रक्षा, आर्थिक, पर्यावरण मसले पर भी यह बराबर लागू होती है। पाकिस्तान व चीन के संबंध में युद्ध उन्मादी पत्रकारिता जैसा वातावरण दिखने को मिलता है। वहीं, आर्थिक पत्रकारिता के मसले पर हिंदी समाचार चैनलों व अखबारों का लगभग समान हाल है। विशुध्द आर्थिक पत्रकारिता करने वाले अंग्रेजी के छह समाचार पत्र निकलते हैं वहीं हिंदी का केवल एक। भारत में छह बिजनेस चैनल हैं, जिसमें चार अंग्रेजी के व दो हिंदी के। हिंदी के बिजनेस चैनलों व अखबारों की सामग्री की गुणवत्ता में या तो कमी दिखाई देगी या अंग्रेजी से उधार ली हुई।       ऐसा नहीं है कि विशेषज्ञता से परिपूर्ण सामग्री चाहने वाले पाठकों की कमी है। किसी भी घटना व मुद्दे पर गहराई से जानने की इच्छा रखने वाला एक बड़ा पाठक वर्ग है, लेकिन उसे उस स्तर की सामग्री नहीं मिल पाती है। इस मामले में समाचार पत्र भी गंभीर नहीं दिखाई देते हैं। सबसे बड़ी बात उनके स्टाफ में विशेषज्ञ पत्रकारों का कमी होना है। बड़ी-बड़ी समाचार संस्थाओं में भी भर्ती प्रक्रिया के दौरान इस ओर ध्यान दिया नहीं दिया जाता है। उनकी नजर में journalist  एक generalist होता है। समय-समय बीट के अनुसार संबंधित पत्रकारों को ट्रेनिंग के लिए भी कोई विशेष व्यवस्था नहीं होती है। एक-एक करोड़ का सर्कुलेशन बताने वाले अखबारों का भी विशेषज्ञ लेखन के मामले में कमोबेश यही हाल है। उनके यहां भी विशेषज्ञ पत्रकारों का घोर अभाव है। मैंनेजमेंट भी इस ओर कोई ध्यान नहीं देता है, उनके अनुसार वे पत्रकारिता में नहीं, बल्कि किसी भा तरह मुनाफा देने वाले खबरों के धंधे में हैं। (ref-bhadas.com) 

Thursday 7 November 2013

मंगल पर जीवन की तलाश

भारत के मंगल अभियान पर विशेष 
इसरों की ऊँची उड़ान
देश की सबसे बड़ी कामयाबी 


भारत ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में इतिहास रचते हुए  अपने मंगल मिशन को सफलतापूर्वक अंजाम दिया और पीएसएलवी सी25  रॉकेट  के माध्यम से मार्स आर्बिटर यान को अंतरिक्ष की कक्षा में स्थापित कर दिया । मंगलयान को श्रीहरिकोटा के सतीश धवन स्पेस सेंटर से पोलर सैटलाइट लॉन्च वेहिकल (पीएसएलवी) सी-25 की मदद से छोड़ा गया । यह देश के लिए बहुत बड़ी कामयाबी है । इस सफलता के साथ ही भारत विश्व के उन चार देशों में शामिल हो गया जिन्होंने मंगल पर सफलता पूर्वक अपने यान भेजे है । भारत की अंतरिक्ष एजेंसी इसरो अमरीका, रूस और और यूरोप के कुछ देश (संयुक्त रूप से) यूरोपीय यूनियन की अंतरिक्ष एजेंसी के बाद चैथी ऐसी एजेंसी बन गयी जिसने इतनी बड़ी कामयाबी हासिल की है । चीन और जापान इस कोशिश में अब तक कामयाब नहीं हो सके हैं। रूस भी अपनी कई असफल कोशिशों के बाद इस मिशन में सफल हो पाया है। अब तक मंगल को जानने के लिए शुरू किए गए दो तिहाई अभियान नाकाम साबित हुए हैं।19 अप्रैल 1975 में स्वदेश निर्मित उपग्रह ‘आर्यभट्ट’ के प्रक्षेपण के साथ अपने अंतरिक्ष सफर की शुरूआत  करने वाले इसरो की यह सफलता भारत की अंतरिक्ष में बढ़ते वर्चस्व की तरफ इशारा करती है ।  ये सफलता इसलिए खास है क्योंकि भारतीय प्रक्षेपण राकेटों की विकास लागत ऐसे ही विदेशी  प्रक्षेपण राकेटों की विकास लागत का एक-तिहाई है । 
लोकमत 
देश का मंगल अभियान पूर्णतया स्वदेशी तकनीक पर आधारित है और इस पूरे अभियान पर  450 करोड़ रुपये खर्च हुए । जिसमें प्रक्षेपण यान पीएसएलवी सी 25 की लागत 110 करोड़ रुपये से कुछ ज्यादा है और इसका वजन 1350 किलो है। मंगलयान को छोड़े जाने के बाद यह पृथ्वी की कक्षा से बाहर निकलकर करीब 10 महीने तक अंतरिक्ष में भ्रमण करता रहेगा। सितंबर 2014 में यह मंगल की कक्षा के पास पहुंचेगा। मंगल ग्रह की कक्षा 327 गुणा 80000 किलोमीटर की है। पृथ्वी की कक्षा को पार करने के लिए मंगलयान की गति 11 किलोमीटर प्रति सेकंड रखी गयी है लेकिन  मंगल की कक्षा में प्रवेश करने के लिए इस गति को कम किया जाएगा। यान की गति कम करते समय ही कई मंगल मिशन असफल हुए है इसलिए मंगल की कक्षा में प्रवेश करते समय विशेष सावधानी रखी गयी है ।
दैनिक जागरण 
पिछले कई सालों से  यह जानने की कोशिशें चलती रही हैं कि पृथ्वी के बाहर जीवन है या नहीं । इस  दौरान कई खोजों से ये अंदेशा हुआ कि शायद मंगल ग्रह पर जीवन है । लाल ग्रह यानी मंगल पर जीवन की संभावनाओं को लेकर वैज्ञानिकों ही नहीं, आम आदमी की भी उत्सुकता लंबे अरसे से रही है । पृथ्वी से लाल रंग के दिखाई देने वाले ग्रह पर अब सभी की निगाहें टिकी हैं। आखिर मंगल की सच्चाई क्या है? ऐसे कई सारे सवाल हैं, जिनके जवाब तलाशने के लिए दूसरे देशों के  कई अभियान मंगल ग्रह पर भेजे भी गये । जिनमें लगभग आधे सफल रहें बाकी असफल रहें लेकिन इस बार लेकिन इस बार भारत ने मंगल पर जीवन की तलाश के लिए अपना मार्स आर्बिटर सफलता पूर्वक भेज दिया । 
हरिभूमि
कई शोधों से यह साबित हो चुका है कि  मंगल ग्रह ने धरती पर जीवन के क्रमिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है इसलिए यह अभियान देश के लिए बेहद महत्वपूर्ण है । पृथ्वी की कक्षा को छोड़ने के बाद यान मंगल ग्रह के दीर्घवृताकार पथ में प्रवेश करेगा जो मंगल ग्रह से जुड़े रहस्यों का पता लगायेगा। मार्स आर्बिटर मिशन (एमओएम) का मुख्य ध्येय यह पता लगाना है कि लाल ग्रह पर मिथेन है या नहीं, जिसे जीवन से जुड़ा महत्वपूर्ण रसायन माना जाता है। भारत के मंगल अभियान में अंतरिक्ष यान में पांच पेलोड जुड़े हैं जिसमें से एक मिथेन सेंसर शामिल है और यह मंगल ग्रह पर मिथेन की उपलब्धता का पता लगायेगा, साथ ही अन्य प्रयोग भी करेगा।
यान के साथ 15 किलो का पेलोड भेजा गया है इनमें कैमरे और सेंसर जैसे उपकरण शामिल हैं, जो मंगल के वायुमंडल और उसकी दूसरी विशिष्टताओं का अध्ययन करेंगे। मंगल की कक्षा में स्थापित होने के बाद यान मंगल के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां हमें भेजेगा। मंगलयान का मुख्य फोकस संभावित जीवन, ग्रह की उत्पत्ति, भौगोलिक संरचनाओं और जलवायु आदि पर रहेगा। यान यह पता लगाने की भी कोशिश करेगा कि क्या लाल ग्रह के मौजूदा वातावरण में जीवन पनप सकता है। मंगल की परिक्रमा करते हुए ग्रह से उसकी न्यूनतम दूरी 500 किलोमीटर और अधिकतम दूरी 8000 किलोमीटर रहेगी। 
दबंग दुनियां 
हमारे अपने जीवन में भी मंगल ग्रह को लेकर अनगिनत कहानियां जुड़ी हैं। लेकिन कुछ खास तथ्य इस गुलाबी ग्रह का कौतूहल बढ़ा देते हैं। मंगल सौरमंडल में सूर्य से चैथा ग्रह है। पृथ्वी से लाल दिखाई देने की वजह से ही इसको लाल ग्रह का नाम दिया गया। मंगल के दो चंद्रमा, फोबोस और डिमोज हैं। माना जाता है कि यह यह 5261 यूरेका के समान एक क्षुद्रग्रह हैं जो मंगल के गुरुत्व के कारण यहां फंस गए हैं। मंगल पर 1965 में भेजे गए मेरिनर 4 यान की उड़ान के समय तक यह माना जाता था कि ग्रह की सतह पर तरल अवस्था मे जल हो सकता है। यह हल्के और गहरे रंग के धब्बों की आवर्तिक सूचनाओं पर आधारित था। दूर से देखने में यहां पर विशालकाय नदियां और नाले दिखाई देते हैं। सौर मंडल के सभी ग्रहों में हमारी पृथ्वी के अलावा, मंगल ग्रह पर जीवन और पानी होने की संभावना सबसे अधिक है। पूर्ववर्ती अभियानों द्वारा जुटाए गए भूवैज्ञानिक सबूत इस ओर इशारा करते हैं कि मंगल ग्रह पर कभी बडे पैमाने में पानी मौजूद था। फिलहाल इस पर गहन शोध चल रहा है । मंगल एक स्थलीय ग्रह है जो सिलिकॉन और ऑक्सीजन युक्त खनिज, धातु और अन्य तत्वों से बना है जो आम तौर पर उपरी चट्टान बनाते हैं। मंगल ग्रह की सतह मुख्यत थोलेईटिक बेसाल्ट की बनी है। हालाकि यह हिस्से प्रारूपिक बेसाल्ट से अधिक सिलिका-संपन्न हैं और पृथ्वी पर मौजूद एंडेसिटीक चट्टानों या सिलिका ग्लास के समान हैं। मंगल की अधिकतर सतह लौह आक्साइड धूल के बारीक कणों से गहराई तक ढकी हुई है। मंगल की मिट्टी में मैग्नीशियम, सोडियम, पोटेशियम और क्लोराइड जैसे तत्व शामिल हैं। यह तत्व पृथ्वी पर भी मिट्टी में पाए जाते हैं जो पौधों के विकास के लिए आवश्यक हैं।
मंगलयान मंगलग्रह परिक्रमा करते हुए ग्रह की जलवायु ,आन्तरिक बनावट, वहां जीवन की उपस्थिति, ग्रह की उत्पति, विकास आदि के विषय में बहुत सी जानकारी जुटा कर पृथ्वी पर भेजेगा। वैज्ञानिक जानकारी को जुटाने हेतु मंगलयान पर कैमरा, मिथेन संवेदक, उष्मा संवेदी अवरक्त वर्ण विश्लेषक, परमाणुविक हाइड्रोजन संवेदक, वायु विश्लेषक आदि पांच प्रकार के उपकरण लगाए गये हैं। इन उपकरणों का वजन लगभग 15 किलोग्राम के लगभग होगा। मेथेन की उत्पत्ति जैविक है या रसायनिक यह सूचना मंगल पर जीवन की उपस्थिति का पता लगाने में सहायक होगी। मंगलयान में ऊर्जा की आपूर्ती हेतु 760 वॉट विद्युत उत्पादन करने वाले सौर पेनेल लगे होगें।
इससे पहले के मंगल अभियानों में भी इस ग्रह के वायुमंडल में मिथेन का पता चला था, लेकिन इस खोज की पुष्टि की जानी अभी बाकी है। ऐसा माना जाता है कि कुछ तरह के जीवाणु अपनी पाचन प्रक्रिया के तहत मिथेन गैस मुक्त करते हैं।  लाल ग्रह यानी मंगल पर जीवन की संभावनाओं को लेकर वैज्ञानिकों ही नहीं, आम आदमी की भी उत्सुकता लंबे अरसे से रही है । इस जिज्ञासा के जवाब को तलाशने के लिए कई अभियान मंगल ग्रह पर भेजे भी गये । इसका मुख्य काम यह पता करना है कि क्या कभी मंगल ग्रह पर जीवन था । मंगलयान ग्रह की मिट्टी के नमूनों को इकट्ठा कर यह पता लगायेगा कि क्या कभी मंगल पर जीवन था या नहीं? इस अभियान का उद्देश्य यह पता लगाना है कि वहां सूक्ष्म जीवों के जीवन के लिए स्थितियां हैं या नहीं और अतीत में क्या कभी यहां जीवन रहा है।
भारत के मार्स ऑर्बिटर मिशन से दुनियाँ  को बहुत उम्मीदें है  । इसके  जिनके जरिए ग्रह की चट्टानों, मिट्टी और वायुमंडल का विश्लेषण किया जा सकता है। जिससे  दुनियाँ को  मंगल के अतीत के बारे महत्वपूर्ण जानकारी  मिल सकती  हैं साथ में  यह पता चल सकता है कि अतीत में मंगल पर कितना पानी था, क्यां वहां की परिस्थितियां जीवन के अनुकूल थीं और ऐसे क्या कारण थे, जिनकी वजह से यह ग्रह आज एक बंजर लाल रेगिस्तान में तब्दील हो गया। इस मिशन में उन तकनीकों को शामिल किया गया है, जो आगे चल कर मंगल से नमूने लाने में मदद करेगी और अंतत वहां मनुष्य के मिशन को सुगम बनाएगी।