Friday 23 August 2013

वैज्ञानिक अनुसंधान पर उदासीनता

भारत सरकार (प्रकाशन विभाग ) की "योजना" मैगज़ीन के फरवरी 2013 अंक में  मेरा लेख 
शशांक द्विवेदी 
कोलकाता में 100वें विज्ञान  कांग्रेस समारोह में देश के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने देश के वैज्ञानिकों से विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार पाने की दिशा में काम करने का आह्वान किया है। राष्ट्रपति का आह्वान एक सकारात्मक सन्देश है लेकिन देश में विज्ञान का मौजूदा बुनियादी ढाँचा ही बेहद कमजोर है । पिछले कई सालो से हर बार भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अधिवेशन में सरकार के जिम्मेदार लोगों के  द्वारा इस तरह की बातें ,घोषणाएँ , आह्वान किया जाता रहा है लेकिन लेकिन बाद में वास्तविक धरातल पर वह क्रियान्वित नहीं हो पाता । यह सब हर बार सिर्फ रस्मी तौर पर ही होता आया है । जबकि यथार्थ के धरातल पर देश में वैज्ञानिक अनुसंधान और शोधो की दशा अत्यंत दयनीय है । अगर ध्यान से देखे तो तकनीक के मामले में हम सिर्फ पश्चिम की नकल करते है । आजादी के बाद भी आज तक ऐसा कोई बुनियादी ढांचा विकसित नहीं हो पाया जिससे देश में बड़े पैमाने पर अनुसंधान को प्रोत्साहित किया जा सके । इस बात का प्रमाण हमें अपने समाज में मिल जायेगा जहाँ अधिकाशं युवा शोध और अनुसंधान के क्षेत्र में नहीं जाना चाहते,अगर वो जाना भी चाहते है तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों में जहाँ उनको ऊँचा पैकेज मिलता है।.विदेशी कम्पनियों इस तरह से आपने लाभ के लिए युवाओं के दिमाग का इस्तेमाल करती  है . आज देश में यही तो हो रहा है कोई भी युवा आईआईटी, आईआईऍम में सिर्फ इसलिए जाना चाहता है जिससे उसको मोटा पैकेज मिले ,वो बड़ी कंपनियों में जा सके । सरकार के लिए ये सबसे बड़ा सवाल है कि इन संस्थानों से निकलने वाले अधिकांश ग्रेजुएट क्यों अनुसंधान और शोध की तरफ आकर्षित नहीं होते । जाहिर सी बात  इसकी सबसे बड़ी वजह आर्थिक सुरक्षा है,जो सरकार उपलब्ध करा नहीं सकती ।
देश में पढ़े हजारों उच्च शिक्षित काबिल वैज्ञानिक आज अपनी सेवाए विदेशो में दे रहे है ,उनके लिए जी जान से काम कर रहे है । ऐसा नहीं है कि इन लोगो को अपने देश से ,समाज से प्यार नहीं है बल्कि ये वो लोग है जिनको हमारा देश ,यहाँ की सरकारी मशीनरी लगभग नकार चुकि होती है । इन होनहार लोगो को सरकार अनुसंधान के लिए बुनियादी सुविधाए और आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने में हमेशा नाकाम रहती है । डॉ हरगोविंद खुराना जैसे वैज्ञानिक को भी इस देश ने भुला दिया जिन्होंने विश्व को जीन के क्षेत्र में नयी दिशा दी । उनके जैसे व्यक्ति को भी हम अपने देश में काम नहीं दे सके ऐसे कई उदाहरण है जिन्होंने भारत के बाहर अपनी योग्यता और क्षमता का लोहा पूरे विश्व को मनवाया । ऐसे लोगो के युगांतकारी कामो के बाद ,प्रसिद्धि के बाद हम कहते है ये भारतीय मूल के है । लेकिन सच बात तो यह है कि अब उनकी सेवाए दूसरे देश ले रहे है ।
कभी दुनिया भर में होने वाले शोध कार्य में भारत का नौ फीसद योगदान था जो आज घटकर महज 2.3 फीसद रह गया है। सृजन के क्षेत्र में हमारी बढ़ती दरिद्रता का आलम क्या है इस पर भी एक नजर डालें। देश में इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक (टेक्नोलॉजी) को लें तो तकरीबन पूरी टेक्नोलॉजी आयातित है। इनमें 50 फीसद तो बिना किसी बदलाव के ज्यों की त्यों इस्तेमाल होती है और 45 फीसद थोड़ा-बहुत हेर-फेर के साथ इस्तेमाल होती है। इस तरह विकसित तकनीक के लिए हमारी निर्भरता आयात पर है। कहा तो जा रहा है कि देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है लेकिन ये प्रतिभा क्या केवल विदेशों में नौकरी या मजदूरी करने वाली हैं? दूसरे पहलू से भी इस बढ़ती दरिद्रता को देखने की जरूरत है। देश की जनसंख्या का मात्र 10 फीसद हिस्सा ही उच्च शिक्षा ले पाता है। इसके विपरीत जापान में 70 प्रतिशत, यूरोप में 50 कनाडा और अमेरिका में 80 फीसद लोग उच्च शिक्षा लेते हैं।
अमेरिका बुनियादी विज्ञान विषयों की प्रगति का पूरा ध्यान रखता है। उसकी नीति है कि वैज्ञानिक मजदूर तो वह भारत से लेगा, पर विज्ञान और टेक्नोलॉजी के ज्ञान पर कड़ा नियत्रंण रखेगा। चीन में भी शिक्षा का व्यावसायीकरण हुआ है, पर बुनियादी विज्ञान और टेक्नोलॉजी की प्रगति का उसने पूरा ध्यान रखा है। भारत को चीन से शिक्षा लेनी चाहिए। ‘वल्र्ड क्लास’ बनने के लिए बुनियादी विज्ञान का विकास जरूरी है।
दुनिया के कई छोटे देश तक वैज्ञानिक शोध के मामले में हमसे आगे निकल चुके हैं। सन् 1930 में सी. वी. रमन को उनकी खोज के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया, लेकिन रमन स्कैनर का विकास किया दूसरे देशों ने। यह हमारी नाकामी नहीं तो और क्या है. आज देश में प्रति 10 लाख भारतीयों पर मात्र 112 व्यक्ति ही वैज्ञानिक शोध में लगे हुए हैं।
परमाणु शक्ति संपन्न होने और अंतरिक्ष में उपस्थिति दर्ज करा चुकने के बावजूद विज्ञान के क्षेत्र में हम अन्य देशों की तुलना में पीछे ही हैं। वैज्ञानिकों-इंजीनियरों की संख्या के अनुसार भारत का विश्व में तीसरा स्थान है, लेकिन वैज्ञानिक साहित्य में पश्चिमी वैज्ञानिकों के कार्य है, इसमें किसी भी भारतीय का नाम नहीं है। हमारे देश में आज कोई रामन, खुराना क्यों नहीं है ? इतने सारे वैज्ञानिक संस्थानों में लगे हुए ढेरों वैज्ञानिक किस ऊहापोह में हैं। वे कुछ करते हैं, उसे मान्यता नहीं मिलती या वे कुछ कर ही नहीं रहे हैं? क्या हमारे देश में वैज्ञानिक प्रगति के लिए उपयुक्त वातावरण नहीं है? दरअसल, सात-आठ दशक पहले तो ऐसा नहीं था। ब्रिटिश राज्य में मुशकिलें मुशकिलें कम नहीं थी, परिस्थितियां एकदम प्रतिकूल थीं। इसके बावजूद भारत ने रामानुजम, जगदीश चंद्र बोस, चंद्र शेखर वेंकट रामन, मेघनाद साहा, सत्येंद्र नाथ बोस जैसे वैज्ञानिक पैदा किए। इन वैज्ञानिकों ने भारत में ही काम करके दुनिया में भारत का गौरव बढ़ाया। लेकिन आजादी के बाद हम एक भी अंतरराष्ट्रीय स्तर का वैज्ञानिक देश में पैदा नहीं कर सके? इस बारे में क्या कभी हमने सोचा है? दुनिया में अब वैज्ञानिक और तकनीकी ज्ञान आर्थिक स्त्रोत के उपकरण बन गए हैं। किसी भी देश की वैज्ञानिक और तकनीकी क्षमता उसकी आर्थिक प्रगति का पैमाना बन चुकी है।
दुनिया के ज्यादातर विकसित देश वैज्ञानिक शोध को बढ़ावा देने के लिए अपने रिसर्च फंड का 30 प्रतिशत तक यूनिवर्सिटीज को देते हैं, मगर अपने देश में यह प्रतिशत सिर्फ छह है। उस पर ज्यादातर यूनिवर्सिटीज के अंदरूनी हालात ऐसे हो गए हैं कि वहां शोध के लिए स्पेस काफी कम रह गया है। शोध के साथ ही पढ़ाई के मामले में भी काफी कुछ किए जाने की जरूरत है, ताकि यूनिवर्सिटी सिर्फ डिग्री बांटने वाली दुकानें न बनकर रह जाएं। देश में अकादमिक शोध करने-कराने की एक बड़ी जिम्मेदारी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी पर है। यूजीसी देश में उच्च शिक्षा के मापदंड तय करने के साथ ही विश्वविद्यालयों, कॉलेजों और अन्य संस्थाओं को शिक्षा और शोध के लिए अनुदान भी उपलब्ध कराता है। शोध के नियमों को भी तय करता है और शोध के लिए जरूरी सहायता भी देता है। इसलिए देश में इस समय जैसे भी शोध हो रहे हैं, एक तरह से उसकी जिम्मेदारी यूजीसी की बनती है।  लेकिन भारत के विश्वविद्यालयों और उच्च शैक्षणिक संस्थानों में गंभीर शोध संस्कृति का पूरी तरह से अभाव है। भारत में वैसे भी उच्च शिक्षा में आने वाले छात्रों की संख्या बहुत कम है। यूजीसी की उच्च शिक्षा पर आधारित एक रिपोर्ट के मुताबिक 86 प्रतिशत छात्र स्नातक की पढ़ाई करते हैं और इसमें से केवल 12 प्रतिशत परास्नातक या पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी कर पाते हैं। शोध का हाल तो और भी बुरा है। उच्च शिक्षा पाने वालों में से केवल एक प्रतिशत छात्र ही शोध करते हैं। दिसंबर 2011 तक भारत में करीब 81 हजार छात्र और केवल 56 हजार छात्राएं शोध से जुड़े हैं। बहरहाल किन विषयों पर शोध हो रहा है और समाज के लिए उसकी क्या उपयोगिता है, इसका मूल्यांकन करने वाला कोई नहीं है। इसके उलट यूजीसी के कई सारे ऐसे प्रावधान हैं, जो गंभीर शोधपरक संस्कृति के विकास में रुकावट डालते हैं।
भारत आर्यभट्ट, कणाद, ब्रह्मभट्ट, रामानुजन, भास्कर, जगदीश चंद्र बोस ,सी वी रमण जैसे वैज्ञानिको का देश है। अगर हमने अपनी समृद्ध वैज्ञानिक परंपरा को पूरी शिद्दत और ईमानदारी के साथ आगे बढ़ाया होता तो विज्ञान के क्षेत्र में भारत दुनिया के शीर्ष पर होता। ऐसा नहीं है कि हमने उपलब्धियां हासिल नहीं की हैं, लेकिन हमारी योग्यता और क्षमता के लिहाज से हम इस मोर्चे पर अब भी काफी पीछे हैं। 
सरकार ने भारत को 2020 तक दुनिया की पांच सबसे बड़ी वैज्ञानिक शक्तियों में शामिल करने का लक्ष्य रखा गया है। लेकिन वर्तमान नीतियों और सरकारी लालफीताशाही के इस दौर में इस लक्ष्य को पाना बहुत मुश्किल लग रहा है । देश में वैज्ञानिक शोध और आविष्कार का माहौल बनाना होगा। िवज्ञान को आम आदमी से जोड़ना होगा । विज्ञान के क्षेत्र में अब समस्याओं को ध्यान में रखकर ठोस और बुनियादी समाधान करने का है । तभी भारत एक वैज्ञानिक शक्ति संपन्न राष्ट्र के रूप में उभरेगा।(YOJANA ,Feb2013 ISSUE)

article lik

1 comment:

  1. Sir, aap ne jo likha wo wakai kabile tarif hai. Lekin jo aaj ho raha hai usme goverment ka nakarapan hai wo apne hi logo se khilwad kar rahi hai apne hi logo ko kuchalana chahti hai.

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