Monday 21 May 2012

नैनोबायोफ़िज़िक्स (नैनोजैवभौतिकी)

विज्ञान की एक नई शाखा का जन्म हुआ है। उस शाखा का नाम है 'नैनोबायोफ़िज़िक्स' (नैनोजैवभौतिकी)। उसमें प्राण प्रतिष्ठा की‌ है अनीता गोयल तथा उनकी कम्पनी 'नैनोबायोसिम' ने ।
बीसवी शती के लगभग अन्त तक अधिकांश वैज्ञानिकों की यही‌ मान्यता थी कि भौतिकी जैवविज्ञान के रहस्यों को भी समझा सकेगी, कम से कम उसके मूल अवधारणाओं को और वह भी बिना किसी‌ नवीन मूलभूत नियमों के। किन्तु कुछ एर्विन श्रोडिन्जर सरीखे नोबेल पुरस्कृत और क्रान्तिकारी वैज्ञानिक इस मान्यता के विवेक पर संशय कर रहे थे, क्योंकि वे जैव तन्त्रों की तथा जड़ पदार्थों की नितान्त भिन्नता को भी‌ देख रहे थे। जैव तंत्र नितान्त गतिक होते हैं, उनकी ऊर्जा और पदार्थों में एक गतिक पर्यावरण में सतत क्रियाएं तथा प्रतिक्रयाएं होती रहती हैं; इस पर्यावरण में तापक्रम, दबाव, पादार्थिक सामग्रियां और अनेक भिन्न बल कार्य करते रहते हैं। अस्थायी तथा गतिकीय परिवर्तनशील तंत्रों में निर्धारणात्मक (डिटरमिनिस्टिक) सूत्र कार्य नहीं कर पाते। आइन्स्टाइन ने कहा था, और ऐसा मह्त्वपूर्ण तथा साहसिक कथन वे ही दे सकते थे, "जैव तंत्रों के अध्ययन से यह बहुत अच्छी तरह समझा जा सकता है कि भौतिकी कितनी आदिम अवस्था में है।"
अपने भारतीय दर्शन, विशेषकर वेदान्त के ज्ञान पर आधारित अनीता गोयल ने समझा कि ब्रह्माण्ड की विविध घटनाओं के आधार में कोई एकता अवशय ही है, और कि हम विभिन्न विशाल तथा सूक्ष्म स्तर की घटनाओं को, निर्धारणात्मक एवं अप्रागुक्तीय (अनप्रैडिक्टैबल) घटनाओं को एक ही समेकित (इंटीग्रेटैड), समग्रतात्मक (होलिस्टिक)  अवधारणा के अधार पर समझ सकते हैं। यह सोच आइंस्टाइन के 'एकीकृत क्षेत्र सिद्धान्त' के एक कदम आगे है।
भौतिकी में क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के व्यवहार 'प्रारंभिक दशाओं' तथा उन पर लग रहे गणितीय सूत्रों पर निर्भर करते हैं। जब कि जैव तंत्रों में इसके अतिरिक्त घटनाओं का व्यवहार उसके गतिकीय पर्यावरण पर भी निर्भर करता है। जब नई कोशिका (सैल) बनती है तब वह किसी DNA प्रतिलिपि पर ही तो बनती है। इस नकल करने की क्रिया में बहुत सारे घटक काम करते हैं जिऩ्हें सामग्री और सही पर्यावरन आवश्यक होता है, जो कि हमेशा नहीं मिल पाता। अत: प्रतिलिपि एकदम शुद्ध नहीं बन पाती, जिसके फ़लस्वरूप नया डी‌ एन ए किंचित बदल जाता है।
अनीता गोयल के अनुसंधान दर्शाते हैं कि जैव या आण्विकी मोटर की उपरोक्त गतिकी पुराने प्रचलित अवधारणा के विपरीत मात्र  डी  एन ए श्रंखला के पाठ पर निर्भर नहीं करती वरन उस प्रक्रिया के पर्यावरणी परिवेश पर भी निर्भर निर्भर करती है। इसका शरीर के व्यवहार पर सीधा असर पड़ता है, उदाहरणार्थ कैन्सर के कारकों पर पड़ता है। आण्वीय मोटर के  पर्यावरणीय परिवेश द्वारा, डी एन ए पर पैदा किये तनाव के कारण आंशिक रूप से उस डी एन ए का पाठ अशुद्ध हो सकता है, जिसके फ़लस्वरूप उस कोशिका के गुणधर्म में‌ परिवर्तन हो सकता है, जिसकके फ़लस्वरूप  कैन्सर की संभावना भी‌ हो सकती है। ऐसे गतिकीय तंत्रों को समझने के लिये अनीता ने परिपथों के माडलों का विकास कर लिया है, जिनकी‌ मदद से गणित द्वारा प्रागुक्ति की जा सकती है  कि  पर्यावरणीय घटक डीएनए की  प्रतिलिपि की प्रक्रिया पर  किस तरह प्रभाव डालते हैं। यह पर्यावरणीय घटक हैं - परिवेश का तापक्रम, उसमें मौजूद न्यूक्लिओटाइड्स का घनत्व, तथा अन्य जैव पदार्थ, डीएनए पर यांत्रिक तनाव  आदि। (देखिये www.nanobiosystem.com)
नैनोबायोसिम कम्पनी में किये जा रहे अनुसंधानों से इस विषय संबन्धी ज्ञान का और  मह्त्वपूर्ण यंत्रों  जैसे 'जीन रेडार आदिजैव पालिमरों के अणुओं का विनिर्माण तथा जैव पदार्थों में नैनो स्तर पर भंडारण आदि का विकास हो सकेगा। जीन रेडार पूरे जिनोम के अनुक्रम का बहुत परिशुद्धता तथा शीघ्रता से निर्धारण कर सकेगा, और इसके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति स्वयं अपनी बीमारियों का निदान कर सकेगा।
भारतीय मूल की अमैरिकी अनीता गोयल को बहुत बधाइयां तथा शुभ कामनाएं।

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