ठीक चालीस साल पहले मानव की
चंद्र विजय के बाद धरती पर सुरक्षित लौटने वाला अपोलो 11 मिशन अपने साथ वहा की चट्टानें, मिट्टी और ढेर सारे चित्र लाया था। इन चित्रों ने वहा
जीवन के चिह्नं या जीवन के लिए उपयुक्त परिस्थितियों की उत्सुकतापूर्ण खोज में
जुटे वैज्ञानिकों को निराश किया। उन्होंने कहा कि चंद्रमा तो एकदम सूखा है-बंजर और
बेजान। उसके बाद चंद्रमा के प्रति मानव की उत्सुकता और उत्साह ठंडा सा पड़ गया। नील
आर्मस्ट्रांग और एडविन एल्ड्रिन के चंद्रमा की सतह पर कदम रखने के बाद भी तीन साल
तक अपोलो मिशन चले और कुछ मानवों ने चंद्रमा पर कदम रखे, लेकिन फिर चंद्र-अभियानों के संदर्भ में एक किस्म की
उद्देश्यहीनता व्याप्त होने लगी। विकसित देशों ने भले ही उपग्रहों के जरिए आसमान
पर कब्जा जमा लिया हो, लेकिन चंद्रमा को अकेला ही छोड़
दिया गया। वहा पानी जो नहीं था। कहा जाता है कि अपोलो द्वारा लाई गई मिट्टी में
पानी के कुछ संकेत दिखे तो थे, लेकिन वैज्ञानिकों ने उन्हें
ह्यूस्टन के वातावरण की नमी का परिणाम मान लिया और निष्कर्ष यही रहा कि चंद्रमा तो
सूखा है।
चार दशकों के बाद विकासशील
दुनिया की एक उभरती हुई अंतरिक्षीय शक्ति के छोटे से चंद्रयान ने यकायक चंद्रमा के
पानी-रहित होने की धारणा को खंड-खंड कर दिया है। खालिस हिंदुस्तानी प्रोब और
चंद्रयान में लगे नासा के उपकरणों ने उसकी सतह और धूल का विश्लेषण किया है।
उन्होंने परीकथाओं और विज्ञानकथाओं दोनों में समान रूप से चर्चित होने वाले इंसान
के इस सबसे प्रिय उपग्रह पर पानी के मौजूद होने की बात प्रामाणिक रूप से सिद्ध कर
दी है। चंद्रमा पर पानी मिलने की यह खबर आने वाले वर्र्षो में न सिर्फ धरती के इस
उपग्रह, बल्कि संपूर्ण अंतरिक्ष के
एक्स्प्लोरेशन की प्रक्रिया में नया उत्साह, नवीन उद्देश्यपरकता का प्राण फूंकने वाली है। चंद्रमा की
सतह पर उपस्थिति दर्ज करने, उसकी मैपिंग करने और भविष्य
में वहा के संसाधनों पर दावा पेश करने की जो होड़ अमेरिकी नेतृत्व में हाल ही में
शुरू हुई है उसका भारत की इस उपलब्धि के बाद नई रफ्तार पकड़ना तय है। भारत के लिहाज
से जो बात बेहद महत्वपूर्ण है वह यह कि हमारे वैज्ञानिकों ने महज दस करोड़ डालर के
खर्च पर, चंद वर्षों की मेहनत से ही देश
को तीन-चार अग्रणी एवं निर्णायक देशों की कतार में लाकर खड़ा कर दिया है। भारत का
पहला मानवरहित चंद्र मिशन भले ही अपनी दो साल की तय अवधि से पहले ही खत्म हो गया हो, लेकिन वह जल की खोज और
चंद्र-सतह की मैपिंग के माध्यम से इतनी बड़ी उपलब्धि हासिल कर चुका है जिसकी
महत्वाकाक्षा संभवत: इसरो को भी नहीं रही होगी।
चंद्रमा पर खोजी यान और घुमंतू
वाहन भेजने वाले कई देशों की योजना में पानी की तलाश कोई मुद्दा ही नहीं थी। चीन
को ही लीजिए, जिसके चेंग-1 अभियान के उद्देश्यों में
चंद्रमा की सतह पर हीलियम जैसे कुछ खास तत्वों की खोज को प्रधानता दी गई। चीन का
चेंग-1 आर्बिटर मार्च 2009 में चंद्रमा की सतह पर गिरा था, चंद्रयान द्वारा मून इंपैक्ट
प्रोब को गिराए जाने के चार महीने बाद। इसरो ने तमाम पूर्व-प्रचलित धारणाओं के
बावजूद एक बार फिर पानी की खोज की कोशिश कर दूरदर्शिता से काम लिया है। नासा के इस
बयान के बाद उसकी उपय¨गिता में कोई संदेह नहीं रह
जाना चाहिए कि ताजा खोज ने जो सबसे बड़ा काम किया है वह यह कि उसने इस मामले को फिर
से खोल दिया है। उसने इस धारणा का खंडन कर दिया है कि चंद्रमा सूखा है। वैज्ञानिक
अर्र्थो में यह एक क्रांतिकारी उपलब्धि है। भविष्य में अगर इंसान चाद पर बस्ती
बसाता है या मंगल तथा अन्य ग्रहों की ओर जाने वाले अभियानों के लाचपैड के रूप में
चंद्रमा का प्रयोग करता है तो नासा और इसरो का भी परोक्ष योगदान होगा। भारत के
चंद्र मिशन को सिर्फ अंतरिक्ष विज्ञान या भौतिकतावादी सफलताओं के संदर्भ में नहीं
देखा जा सकता। अंतरिक्ष, सौर-मंडल तथा प्रकृति के बारे
में हमारे ज्ञान का विस्तार इन अभियानों का सबसे बड़ा सकारात्मक पक्ष है और वही
इनका बुनियादी उद्देश्य होना चाहिए। चंद्र अभियान एक अंतरराष्ट्रीय महाशक्ति के
रूप में भारत के उभरने से जुड़ा है। वह हमारे देश की समग्र शक्ति, मेधा और
सामाजिक-वैज्ञानिक-राजनीतिक परिपक्वता का प्रतीक है। चंद्र अभियान राष्ट्रीय गौरव
का विषय तो है ही, विश्व स्तर पर हमारे आगमन का
उद्घोष भी करता है। चंद्रमा पर मौजूद खनिज भंडार, ऊर्जा संसाधन और वहा के वातावरण के बारे में बोलने का
अधिकार भी किसी भी राष्ट्र को तभी मिलेगा जब वह चंद्रमा की खोज करने वाले विशेष
समूह में मौजूद होगा।
[बालेंदु दाधीच: लेखक स्वतंत्र
टिप्पणीकार हैं]
चंद्रयान प्रथम ने दिखाया संभावनाओं का नया आकाश
नई दिल्ली। चंद्रमा के अनसुलझे
रहस्यों की परत खोलने के लिए पहली बार भारत की ओर से भेजे गए चंद्रयान-प्रथम
अभियान की भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र [इसरो] ने भले ही समय से पूर्व समाप्ति
की घोषणा कर दी हो, लेकिन विषय विशेषज्ञों का
मानना है कि देश के गौरवपूर्ण इस अभियान ने न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया के लिए
संभावनाओं का अनंत आकाश फैला दिया।
विज्ञान पर काम करने वाली
संस्था ज्ञान-विज्ञान से जुड़े प्रतिनिधि मयंक जिंदल के मुताबिक 'किसी भी देश के लिए चंद्रमा या
अंतरिक्ष अभियानों का असफल होना कोई असामान्य बात नहीं है। भारत का चंद्रयान-प्रथम
अपने निर्धारित समय तक काम नहीं कर सका, लेकिन
अपनी उच्च तकनीक के चलते यह भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज हो चुका
है।
उन्होंने कहा कि चंद्रमा को
लेकर हुए 68वें अभियान, चंद्रयान- प्रथम ने 312 दिन तक कक्षा में रहने के
दौरान जो उपलब्धियां हासिल की, उनसे धरती के इस इकलौते उपग्रह, चंद्रमा को समझने में आगे बहुत
मदद मिलने वाली है। 29 अगस्त, 2009 को चंद्रयान- प्रथम का धरती से संपर्क खत्म हो जाने की
घोषणा की गई और इसके बाद इसरो ने इस अभियान के खत्म होने की घोषणा कर दी।
धरती से चंद्रमा की चार लाख
किमी की दूरी पार कर अपनी मंजिल तक पहुंचे चंद्रयान- प्रथम ने अपने 10 महीने के समय में चंद्रमा के
लगभग 3,400 चक्कर काटे और लगभग 70 हजार से भी ज्यादा तस्वीर ली।
22 अक्टूबर, 2008 को जटिल प्रक्षेपण के तहत
श्रीहरिकोटा से प्रक्षेपित किया गया चंद्रयान-प्रथम कई मायनों में एतिहासिक था।
इसके साथ कई देशों के उपकरण जुड़े थे, जिनमें
ब्रिटेन का पेलोड, स्वीडन का सारा, जर्मनी का सर-द्वितीय, बुल्गारिया का रेडाम और
अमेरिका के मिनी सार और एम 3 शामिल हैं। अमेरिका के ये
दोनों उपकरण नासा ने तैयार किए थे, जिन्हें
इसरो के इस अभियान के साथ चंद्रमा की दहलीज पर भेजा गया था।
इसके अलावा भारत की ओर से
इसमें हाइसी, हेक्स, एलएलआरआई, टीएमसी
और मून इंपैक्ट प्रोब जोड़े गए थे। चंद्रमा पर पानी की खोज चंद्रयान -प्रथम की सबसे
बड़ी सफलता थी। चंद्रमा की सतह पर पानी की खोज नासा के उपकरण एम 3 [मून मिनरोलाजी मैपर] ने की थी।
चंद्रयान-प्रथम ने चंद्रमा पर पानी की तलाश की, जिसके बाद विज्ञान से जुड़े लोगों को अब वहां जीवन की
संभावनाएं भी नजर आने लगी हैं। इस खोज के बारे में बेंगलूर आधारित विज्ञान
प्राध्यापक एस शिवमणि का मानना है कि चंद्रमा पर पानी मिलने के बाद वहां मानवयुक्त
यान भेजने के बारे में भी सोचा जा सकता है। हो सकता है कि पानी अपने संपूर्ण रूप
में न हो, लेकिन अगर इसके अणुओं के अंश
भी मिल जाते हैं, तो ए आगे के लिए बहुत अच्छा संकेत
है। इसके बाद वहां जीवन के बारे में भी सोचा जा सकता है।
इसके बाद भारत दूसरी बार
चंद्रमा पर कदम रखने की योजना चंद्रयान- द्वितीय के रूप में बना रहा है, जिसे 2013 में भेजे जाने की योजना है। सरकार की ओर से इसके लिए
अनुमति भी मिल चुकी है। इस यान में संचार के लिए अतिरिक्त तकनीक का समावेश होगा।
यह भी मानवरहित अभियान होगा। यह चंद्रमा की सतह पर मौजूद पानी में उपस्थित खनिजों
पर शोध करेगा।
चंद्रयान-द्वितीय में एक रोवर
भी भेजा जाएगा, जो भ्रमण करने वाला यान होगा।
संभावना व्यक्त की जा रही है कि भ्रमण करने वाले इस यान से चंद्रमा के अलग-अलग
क्षेत्रों पर शोध किया जा सकेगा।
चंद्रयान-1 ने खोजा चांद पर विशाल खड्ड
ह्यूस्टन। भारत के मानवरहित
मिशन चंद्रयान-1 में गए नासा के उपकरण से
प्राप्त आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला है कि पृथ्वी के इस उपग्रह पर 2400 किलोमीटर लंबा और नौ किलोमीटर गहरा एक विशालकाय और बहुत
गहरा खड्ड है।
चंद्रयान-1 के साथ नासा का मून मिनरोलाजी मैपर [एम-3] चांद पर गया था। चांद पृथ्वी का इकलौता प्राकृतिक उपग्रह
है। इस उपकरण ने जो आंकड़े दिए हैं, उसके अनुसार चांद के निर्माण के तुरंत बाद एक क्षुद्रग्रह
के साथ टक्कर होने के बाद दक्षिणी गोलार्द्ध में इस विशालकाय खड्ड का निर्माण
हुआ। इस खड्ड का नाम साउथ पोल एतकेन बेसिन है। ग्रीनबेल्ट स्थित नासा के गोडार्ड
स्पेस फ्लाइट सेंटर के प्रमुख अनुसंधानकर्ता नोआ पेट्रो ने कहा कि चांद पर यह सबसे
बड़ा और गहरा खड्ड है, जिसमें अमेरिका के टेक्सास से
लेकर ईस्ट कोस्ट का हिस्सा समा सकता है। टेक्सास में चांद और ग्रहीय विज्ञान की
बैठक में पेट्रो ने कल अपने निष्कर्ष रखे। पेट्रो के अनुसार, चांद की सतह पर पपड़ी के भीतर टकराने के बाद यह क्षुद्रग्रह
धंस गया होगा और इससे निकला पदार्थ चांद और पूरे अंतरिक्ष में बिखर गया होगा।
नासा ने कहा कि टक्कर के कारण उत्पन्न भारी ताप के कारण इस
खड्ड की सतह भी पिघल गई होगी। अंतरिक्ष अनुसंधान संस्था ने कहा है कि यह पहली
टक्कर थी। अरबों वर्षो में क्षुद्रग्रहों की बौछार से चांद की सतह धब्बे वाली हो
गई है। यहां छोटे बड़े कई खड्ड हैं। ये लावा, मलबा और धूल के आवरण से घिरे हैं। उल्लेखनीय है कि
चंद्रयान-1 के साथ 11 उपकरण रवाना किए गए थे और एम-3 भी उनमें से एक था।
नासा ने कहा कि चांद के वास्तविक सतह या पपड़ी की इस झलक में
गहरा खड्ड दिखना अब भी दुर्लभ है। बहरहाल साउथ पोल एतकेन [एसपीए] में यह दिख सकता
है। छोटे-छोटे क्षुद्रग्रहों की टक्कर के कारण बने इस खड्ड का नाम अपोलो बेसिन है
और अब भी इसका विस्तार 300 मील तक है। पेट्रो ने कहा कि अपोलो और एसपीए बेसिन हमें
चांद के शुरुआती विकास के बारे में जानकारी देते हैं और चांद हमें यह बताता है कि
तरुणाई में पृथ्वी किसी प्रकार अत्यधिक सक्रिय थी।
नासा ने कहा कि एसपीए और अपोलो को चांद के पुराने खड्ड में
गिनती की जाती है क्योंकि इनके ऊपर छोटे बड़े कई खड्डे बने हैं।
बेंगलूर। चंद्रयान-2 अभियान भारत की अंतरिक्ष
उपलब्धियों में नया सोपान स्थापित करेगा। यह अभियान 2012-13 तक पूरा हो जाएगा। इससे चंद्रमा पर पाए जाने वाले खनिज
तत्वों के विश्लेषण और धरती के प्राकृतिक उपग्रह के भूभाग के नक्शे तैयार करने में
मदद मिलेगी।
चंद्रयान परियोजना के निदेशक
डा. एम अन्नादुरई ने विश्वेसरैया कालेज आफ इंजीनियरिंग में छठे राष्ट्रीय छात्र
सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए कहा कि 425 करोड़
रुपये की परियोजना 2012-13
तक पूरी
हो जाएगी। चांद के चक्कर लगाने वाले चंद्रयान-1 के विपरीत चंद्रयान-2, चांद की सतह पर उतरेगा।
उन्होंने कहा कि चंद्रयान-2 में एक अंतरिक्ष यान एक
लैंडिंग प्लेटफार्म और दो मून रोवर्स [एक भारत से और एक रूस से] होंगे जो चांद की
सतह पर उतरेंगे और पहियों पर चलेंगे। रोवर्स चांद की मिट्टी या चट्टानों के नमूने
उठाएंगे। रासायनिक विश्लेषण करेंगे और विवरण ऊपर चक्कर लगा रहे यान को भेजेंगे।
चंद्रयान-1 और चंद्रयान-2 के परियोजना निदेशक अन्नादुरई
ने कहा कि चंद्रमा पर जाने वाले 70वें उपग्रह चंदयान-1 ने चांद पर पानी खोजकर इतिहास
रच दिया। उन्होंने कहा कि 386 करोड़ रुपये की चंद्रयान-1 परियोजना को पूरा होने में
साढ़े चार साल लगे थे जिसने छह टेराबाइट डाटा उपलब्ध कराया जिसके अध्ययन में
वैज्ञानिकों को तीन साल लगेंगे।
अन्नादुरई ने चंद्रयान-1 की सफलता का श्रेय तीन हजार
वैज्ञानिकों की टीम को दिया जिसने परियोजना पर लगातार काम किया। भारतीय
प्रौद्योगिकी संस्थान [आईआईटी] के बारे में उन्होंने कहा कि आप सब अपने काम और टीम
वर्क से आईआईटीयन बन सकते हो। मेरे लिए आईआईटी का यही मतलब है।
उन्होंने कहा कि चंद्रयान मिशन
ने साबित किया कि भारत अपने अनुसंधान से आश्चर्यजनक काम कर सकता है। अन्नादुरई ने
कहा कि आज के छात्र नवनिर्माण के जरिए 2020 में
विश्व का नेतृत्व करने की क्षमता रखते हैं।
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