Wednesday 23 May 2012

मानसून की गुत्थी सुलझाएगा मेघा ट्रॉपिक्स

मानसून के पूर्वानुमान को लेकर नयी कोशिशें हमेशा से होती रही हैं. कभी परंपरागत तकनीक की मदद ली गयी, तो कभी कृत्रिम उपग्रहों के जरिए मानसून की भविष्यवाणी की कोशिश की गयी. हाल में इसरो ने फ्रांस के सहयोग से निर्मित मेघा-ट्रॉपिक्स उपग्रह का प्रक्षेपण किया है. वैज्ञानिकों का कहना है कि मेघा से मानसून की सटीक भविष्यवाणी करने मदद मिलेगी.
हालांकि, यह पहली बार नहीं है जब भारत ने मौसम या मानसून की जानकारी पाने के लिए कोई उपग्रह अंतरिक्ष में भेजा है. इससे पहले भी इस मकसद से भारत कई उपग्रहों का प्रक्षेपण कर चुका है. लेकिन, कहा जा रहा है कि मेघा-ट्रॉपिक्स मानसून पूर्वानुमान में क्रांतिकारी बदलाव लाने वाला साबित होगा. इससे किसानों को काफ़ी मदद मिलेगी. क्या है मेघा-ट्रॉपिक्स, कैसे हुआ इसका निर्माण और मानसून भविष्यवाणी में क्या होगी इसकी भूमिका, इसी पर केंद्रित है आज का नॉलेज..
उपग्रह प्रक्षेपण के इतिहास में एक नया कीर्तिमान रचते हुए भारत के पीएसएलवी-सी 18 राकेट ने सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से भारत-फ्रांसीसी उपग्रह मेघा-ट्रॉपिक्स को कक्षा में सफ़लतापूर्वक स्थापित कर दिया है. इस उपग्रह से मानसून के मिजाज को समझने में काफ़ी मदद मिलेगी. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ( इसरो ) के मुताबिक, इस उपग्रह से मानसून की सटीक भविष्यवाणी की जा सकती है.

मानसून की सही भविष्यवाणी करने की कोशिश काफ़ी पहले से ही जारी है. इसके लिए अब तक कई उपग्रह भी अंतरिक्ष में छोड़े जा चुके हैं. आइए सबसे पहले जानते हैं कि कि ओखर मानसून पूर्वानुमान का क्या इतिहास रहा है और पहले इसका पूर्वानुमान किस तरह किया जाता था.
मानसून पूर्वानुमान का इतिहास
मानसून अरबी शब्द मौसिम से बना है. इसका मतलब होता है, हवाओं का बदलने वाला मिजाज. मानसून का इतिहास काफ़ी पुराना है. 16वीं शताब्दी में मानसून शब्द का सबसे पहले प्रयोग समुद्र मार्ग से होने वाले व्यापार के संदर्भ में हुआ. तब भारतीय व्यापारी शीत ऋतु में इन हवाओं के सहारे व्यापार के लिए अरब और अफ्रीकी देशों में जाते थे और ग्रीष्म ऋतु में अपने देश लौटते थे.
शीत ऋऋतु में हवाएं उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम दिशा में बहती हैं, जिसे शीत ऋतु का मानसून कहा जाता है. ग्रीष्म ऋतु में यह इसके विपरीत बहती हैं. इसे दक्षिण-पश्चिम मानसून या गर्मी का मानसून कहा जाता है. इन हवाओं से व्यापारियों को नौकायन में सहायता मिलती थी. इसलिए इन्हें एक किस्म का ट्रेड विंड भी कहा जाता है.
कैसा लगाया जाता है पूर्वानुमान
मानसून की अवधि 1 जून से 30 सितंबर यानी चार महीने की होती है. हालांकि, इससे संबंधित भविष्यवाणी 16 अप्रैल से 25 मई के बीच कर दी जाती है. मानसून की भविष्यवाणी के लिए भारतीय मानसून विभाग 16 तथ्यों का अध्ययन करता है. इन 16 तथ्यों को चार भागों में बांटा गया है. सारे तथ्यों को मिलाकर मानसून के पूर्वानुमान निकाले जाते हैं. पूर्वानुमान निकालते समय तापमान, हवा, दबाव और बर्फ़बारी जैसे विभिन्न कारकों का ध्यान रखा जाता है.
पूरे भारत के विभिन्न भागों के तापमान का अलग-अलग अध्ययन किया जाता है. मार्च में उत्तर भारत का न्यूनतम तापमान और पूर्वी समुद्री तट का न्यूनतम तापमान, मई में मध्य भारत का न्यूनतम तापमान और जनवरी से अप्रैल तक उत्तरी गोलार्ध की सतह का तापमान नोट किया जाता है. तापमान के अलावा हवा का भी अध्ययन किया जाता है.       
वातावरण में अलग-अलग महीनों में छह किलोमीटर और 20 किलोमीटर ऊपर बहने वाली हवा के रुख को नोट किया जाता है. इसके साथ ही वायुमंडलीय दबाव भी मानसून की भविष्यवाणी में अहम भूमिका निभाता है. वसंत ऋतु में दक्षिणी भाग का दबाव और समुद्री सतह का दबाव, जबकि जनवरी से मई तक विषुवतीय हिंद महासागर के दबाव को मापा जाता है.
इसके बाद बर्फ़बारी का अध्ययन किया जाता है. जनवरी से मार्च तक हिमालय के खास भागों में बर्फ़ का स्तर, क्षेत्र और दिसंबर में यूरेशियन भाग में बर्फ़बारी का अध्ययन मानसून की भविष्यवाणी में अहम किरदार निभाता है. इन सभी तथ्यों के अध्ययन के लिए आंकड़े उपग्रह द्वारा इकट्ठा किये जाते हैं. फ़िर, अनुमान के आधार पर मानसून के बारे में बताया जाता है.
पूर्वानुमान की राह में क्या हैं दिक्कतें
उपग्रह से मिले आंकड़ों की जांच-पड़ताल में थोड़ी-सी असावधानी या मौसम में किसी प्राकृतिक कारणों से बदलाव का असर मानसून की भविष्यवाणी पर पड़ता है. उदाहरण के तौर पर, साल 2004 में प्रशांत महासागर के मध्य विषुवतीय क्षेत्र में समुद्री तापमान जून के महीने में बढ़ गया. इस कारण 2004 में मानसून की भविष्यवाणी पूरी तरह सही न हो पायी.


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