Friday 18 February 2022

ग्लोबल वॉर्मिंग और जीने-मरने का हिसाब

 चंद्रभूषण

कोरोना महामारी के कारण 2020 और 2021 में कार्बन उत्सर्जन का ठीक-ठीक हिसाब नहीं लगाया जा सका है। अलबत्ता एक बात तय है कि इस दौरान विश्वव्यापी लॉकडाउन के चलते इसमें तीखी गिरावट का जो अनुमान लगाया जा रहा था, वह निराधार निकला। धरती के वातावरण में कार्बन डायॉक्साइड के हिस्से का पता सटीक ढंग से लगा लेने का जुगाड़ नासा के पास मौजूद है, जो बता रहा है कि ग्राफ में इसे दर्शाने वाली रेखा बीते दो वर्षों में रत्ती भर भी नहीं झुकी है। 2022 की शुरुआत में वातावरण के प्रति दस लाख कणों में 417 कण कार्बन डायॉक्साइड के मौजूद हैं।

2019 के पक्के हिसाब में 43.1 अरब टन कार्बन डायॉक्साइड इंसानी कामकाज के दौरान वातावरण में छोड़ी गई थी। सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा और ज्वार ऊर्जा जैसे वैकल्पिक उपायों को लेकर हल्ला तो काफी मचा हुआ है लेकिन इनके बल पर सन 2050 तक सालाना कार्बन उत्सर्जन को 40 अरब टन से नीचे लाया जा सकेगा, ऐसा यकीन किसी को नहीं है। हिसाब यह है कि सन 1850 में औद्योगिक युग की शुरुआत से लेकर सन 2019 तक कुल 2400 अरब टन कार्बन इंसानी गतिविधियों के चलते वातावरण में पहुंचा है। इसमें से 950 टन पृथ्वी की आबोहवा में बना हुआ है, जबकि बाकी कार्बन समुद्रों ने सोख रखा है। 

इसके अलावा वातावरण में कार्बन का एक बड़ा स्रोत मीथेन है, जिसपर इंसानों का ज्यादा वश नहीं चलने वाला। यह कुल कितनी निकल सकती है, इसका भी कोई अंदाजा नहीं है क्योंकि मीथेन सड़न से पैदा होने वाली गैस है। दुनिया के पर्माफ्रॉस्ट इलाके- ध्रुवीय क्षेत्रों और ऊंचे पहाड़ी-पठारी इलाकों में हमेशा बर्फ के नीचे दबे रहने वाले क्षेत्र- अगर बर्फ गलने के साथ पूरी तरह नंगे हो गए तो वे मीथेन उगल देंगे, जिसका ग्रीनहाउस प्रभाव कार्बन डायॉक्साइड की तुलना में 28 गुना है। रूस में उनका काफी हिस्सा नंगा हो भी गया है।

लक्ष्य और यथार्थ

2019 में दुनिया का औसत तापमान सन 1850 की तुलना में 1.1 डिग्री सेल्सियस ज्यादा दर्ज किया गया था। 2016 में हुए पेरिस जलवायु समझौते में इक्कीसवीं सदी के अंत तक इसे 2 डिग्री या भरसक डेढ़ डिग्री से ज्यादा ऊपर न जाने देने का लक्ष्य लिया गया था। ध्यान रहे, यह ऐसा वैज्ञानिक आकलन था, जिस तक दुनिया की तमाम खरबपति तेल कंपनियों और उनके इशारे पर कठपुतली की तरह काम करने वाले ज्यादातर राष्ट्राध्यक्षों के विरोध के बावजूद पहुंचा गया था। 

इन महाशयों ने जलवायु समझौते पर दस्तखत यह जानकर ही किए थे कि इसपर और ज्यादा पांव पीछे घसीटना अब उनके लिए संभव नहीं है। लेकिन जिन वैज्ञानिकों ने ये नतीजे निकाले थे, उन्हीं का कहना है कि वातावरण में अगर 500 अरब टन कार्बन डायॉक्साइड और चली गई तो औसत ग्लोबल तापमान सन 1850 की तुलना में 2 डिग्री सेल्सियस ऊपर शर्तिया चला जाएगा। इसका मतलब क्या निकलेगा, इस बारे में थोड़ा बाद में बात की जाएगी।

अभी तो यह देखें कि 40 अरब टन सालाना के हिसाब से हमारे पास 500 अरब टन का आंकड़ा छूने में समय कितना रह गया है। ज्यादा मुश्किल हिसाब नहीं है। सन 2030 से 2035 के बीच के किसी साल में यह ‘उपलब्धि’ हम हासिल कर लेंगे। थोड़ी धुंध समुद्रों द्वारा इस धुएं के अवशोषण को लेकर है। यह रिकॉर्ड पीछे बहुत अच्छा रहा है। 1850 से 2019 तक गुजरे 170 वर्षों में कुल 2400 अरब टन में से 1450 अरब टन जहर समुद्र पी गए, हमारे लिए 950 अरब टन ही हवा में छोड़ा। कितना अच्छा हो कि इस 500 अरब टन में भी आधे से ज्यादा वे ही पी जाएं।

जब सागर लेंगे डकार

दुर्भाग्यवश, इस बात को लेकर हम आश्वस्त नहीं हो सकते। खतरा अलबत्ता कुछ उलटा ही हो जाने का है। पानी के साथ कार्बन डायॉक्साइड की रासायनिक क्रिया दोतरफा चलती है। डर है कि धरती का तापमान बढ़ने के साथ समुद्र अपनी पचाई हुई कार्बन डायॉक्साइड को उगलना न शुरू कर दें। अभी 1.1 डिग्री औसत तापमान बढ़ने का मतलब यह निकला है कि आर्कटिक क्षेत्र के पर्माफ्रॉस्ट इलाके मीथेन उगलने लगे हैं। समुद्रों की ओर से कार्बन डायॉक्साइड उगलने की प्रक्रिया भी इस बढ़त के 2 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने के थोड़ा पहले ही शुरू हो सकती है। 

औसत तापमान का बढ़ना धरती के अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग तरीके से जाहिर होता है। अभी बर्फीले क्षेत्रों में, खासकर आर्कटिक सर्कल और तिब्बत में तापमान वृद्धि बाकी दुनिया की तुलना में बहुत ज्यादा है। पश्चिमी साइबेरिया के पास कारा सागर में महीनों बर्फ न होने को अभी उत्तरी भारत में जाड़ों की बारिश ज्यादा होने के लिए जिम्मेदार बताया जा रहा है। 2022 की जनवरी हमारे यहां समूचे दर्ज इतिहास में सबसे ज्यादा नम गुजरी है। ग्लोबल वॉर्मिंग के लिए ऐसी अतिरिक्त नमी भी 36 से 72 प्रतिशत तक जिम्मेदार है। दुनिया के कई इलाकों को- खासकर दक्षिणी यूरोप और अमेरिका के कुछ दक्षिणी राज्यों को तबाह करने वाली जंगलों की आग वॉर्मिंग का अलग रूप है।

जीवन पर ग्लोबल वॉर्मिंग के प्रभाव को समझने के लिए हमें एक छोटे से तकनीकी ब्यौरे पर भी गौर करना पड़ सकता है। ‘वेट बल्ब टेंपरेचर’ पर्यावरण विज्ञान से जुड़ी बहुत जरूरी अवधारणा है। इसे नापने के लिए हवा का तापमान लेने वाले थर्मामीटर की घुंडी (बल्ब) पर एक पतला सूती कपड़ा सामान्य तापमान वाले पानी से निकालकर बांध देते हैं, फिर उसकी रीडिंग लेते हैं। इस नाप का इस्तेमाल हवा में मौजूद नमी के आकलन के लिए होता है। ड्राई बल्ब टेंपरेचर और वेट बल्ब टेंपरेचर के बीच अंतर ज्यादा होने का अर्थ है- वातावरण में नमी कम है। बारिश के मौसम में, जब हवा में नमी ज्यादा होती है तब सीधे लिए गए तापमान और गीला कपड़ा लपेटकर लिए गए तापमान में अंतर कम आता है। 

हिसाब यह है कि किसी जगह वेट बल्ब टेंपरेचर अगर 32 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया जाए तो वहां मौजूद सभी जीव-जंतुओं को उतनी ही गर्मी महसूस होगी, जितनी उन्हें 55 डिग्री सेल्सियस सूखे तापमान में महसूस होती। और यह गर्मी उन्हें छांव में भी महसूस होगी, पंखे के नीचे बैठकर भी महसूस होगी, क्योंकि शरीर से पसीना नहीं उड़ पाएगा। जो भी राहत मिलेगी, एसी से ही मिलेगी लेकिन एसी का काम बाहर गर्मी बढ़ाकर भीतर ठंडक लाना है। एक रत्ती भी ठंडक वह खुद से पैदा नहीं कर सकता, टनेज चाहे जितनी भी हो। यानी वॉर्मिंग बढ़ाने का एक और उपाय।

वेट बल्ब टेंपरेचर को महसूस किए जा सकने वाले तापमान में बदलने का एक गणितीय फॉर्मूला है और अनुमान है कि 35 डिग्री का वेट बल्ब टेंपरेचर इंसानों और धरती के ज्यादातर जीव-जंतुओं के लिए जानलेवा साबित होगा। संसार में इतना ऊंचा वेट बल्ब टेंपरेचर अभी तक कहीं भी और कभी भी दर्ज नहीं किया गया है। अलबत्ता 34 डिग्री का वेट बल्ब टेंपरेचर अबतक सिर्फ एक बार, अमेरिका के शिकागो शहर में 1995 की हीट वेव में जरूर दर्ज किया गया है।

विकास का क्या होगा

वैसे तो यह एक चमत्कार ही कहलाएगा, लेकिन मान लीजिए, दुनिया कार्बन उत्सर्जन को 500 अरब टन से ज्यादा न होने देने को लेकर अड़ जाए। ऐसे में जरा यह हिसाब लगाकर देखें कि यह काम कितना मुश्किल साबित होने वाला है। संसार की बड़ी तेल अर्थव्यवस्थाओं ने अपने-अपने यहां मौजूद तेल, गैस और कोयले का जो हिसाब लगा रखा है, उसमें कुल 3000 अरब टन कार्बन उत्सर्जन की संभावना मौजूद है। कई देशों के लिए यह एकमात्र राष्ट्रीय संसाधन है। कुछेक की दुनिया में हनक इसी पर निर्भर करती है। लोग अगर तेल और गैस खरीदना ही बंद कर दें तो बात और है, लेकिन ये देश तो अपनी तरफ से पूरी कोशिश करेंगे कि जमीन के नीचे मौजूद उनका पूरा का पूरा खजाना बाहर आए और उनके साथ-साथ बाकी दुनिया का भी विकास होता रहे।

ध्यान रहे, इस खजाने के बारे में फैसला लेने का अधिकार ज्यादातर सरकारी कंपनियों के पास है, हालांकि उनमें कुछेक के निदेशक मंडल में प्राइवेट प्रतिनिधि भी बैठते हैं। बड़ी से छोटी के क्रम में ऐसी उन्नीस कंपनियों के नाम हैं- सऊदी अरामको, शेवरॉन, गैज़प्रोम, एक्सॉनमोबिल, नेशनल ईरानियन ऑयल कंपनी, बीपी, रॉयल डच शेल, पेमेक्स, पेट्रोलिओस डि वेनेजुएला, पेट्रोचाइना, पीबॉडी एनर्जी, कोनोकोफिलिप्स, अबू धाबी नेशनल ऑयल कंपनी, कुवैत पेट्रोलियम कॉरपोरेशन, इराक नेशनल ऑयल कंपनी, टोटल एसए, सोनाट्रैक, बीएचपी बिलिटन और पेट्रोब्रास। इस सूची में भारत का कोई नाम शामिल नहीं है, हालांकि जैसे लक्षण हैं, आगे कोई आ भी सकता है।

No comments:

Post a Comment