चंद्रभूषण
गणित शिक्षण के मामले में सन् 1950 को एक कट-ऑफ पॉइंट माना जाता है। इसके पहले आम धारणा यही थी कि विभिन्न कलाओं की तरह गणित भी आपको या तो आती है या नहीं आती। बीच वालों के लिए यहां कोई जगह नहीं है। लेकिन 1950 के बाद से बच्चों में गणित के खौफ को लेकर कई खर्चीले अध्ययन किए गए। इस खोजबीन से समझदारी यह बनी कि ज्यादातर बच्चे असल में गणित से नहीं, गणित के टेस्ट से डरते हैं। यूं कहें कि टेस्ट से शुरू हुआ डर कुछ समय बाद गणित से डर में बदल जाता है।
कोई कह सकता है कि इम्तहान तो और विषयों के भी होते हैं, फिर यह दुर्घटना गणित के साथ ही भला क्यों? इसका एक सीधा जवाब यह है कि गणित में बीच के नंबर नहीं आते। 5 नंबर का सवाल है। सही निकल गया तो 5 नंबर मिलेंगे, गलत निकला तो 0। ऊंचे स्तर पर पहुंचकर कुछ नंबर स्टेप के भी मिल जाते हैं, पर ज्यादातर बच्चों के लिए वहां तक पहुंचने की नौबत ही नहीं आती। इसके अलावा इस सवाल का एक जवाब यह भी है कि गणित में चीजें आपस में काफी जुड़ी हुई होती हैं। जोड़ समझने में कुछ दिक्कत रह गई तो गुणा हरगिज समझ में नहीं आएगा और घटाने में कुछ पेच फंसा रह गया तो भाग सिर के ऊपर से निकल जाएगा।
ऐसे में एक बार परेशानी शुरू हो जाती है तो बच्चा सहज रूप में गणित से भागने लगता है। पिछला नहीं समझ में आया, अगला कैसे समझ पाऊंगा? पतली गली से निकल लेना ही बेहतर है। कन्नी कटाने की यह सोच उसको कई दूसरे मामलों में भी नुकसान पहुंचाती है। गणित के एक शौकिया शिक्षक के रूप में इस भय से निपटने के लिए मैं एक अदद ‘पंचसूत्री कार्यक्रम’ अपनाता रहा हूं और छात्रों को भी इसे अपनाने की सलाह देता आया हूं।
पहला, कॉन्सेप्ट के स्तर पर काम करना। छोटे बच्चे को जोड़ समझ में आना चाहिए। मान लीजिए, दूसरी क्लास में जोड़ पढ़ाया जा चुका है लेकिन बच्चा चौथी क्लास में पहुंच गया है। आप शुरुआत यहां से करें कि उसने पढ़ाई ही छोड़ दी है। कहीं मजूरी करके अपना पेट चला रहा है, या यूं ही मजे कर रहा है। तो भी जिंदगी के लिए एक जरूरी तकनीक के रूप में जोड़ तो उसे आना ही चाहिए।
उसके दाएं हाथ में पांच कंचे हैं और एक-एक करके छह कंचे उसे और पकड़ा दिए गए तो उसके दिमाग में सहज रूप में दर्ज होना चाहिए कि अब कुल ग्यारह कंचे उसके हाथ में हैं। घटाना, गुणा, भाग, सब कुछ उसको इसी तरह सिखाया जाना चाहिए। पिछला अगर दो साल पहले छूट गया तो भी वापस उसे सीख लेने में दो साल नहीं लगेंगे। छोटी सी बात है, दो दिन नहीं तो दो हफ्ते में सीख ही जाएगा।
यह बात इंटीग्रल कैलकुलस या बूलियन अलजेब्रा या किसी और ऊंचे गणित पर भी ज्यों की त्यों लागू होती है। कॉन्सेप्ट साफ होनी चाहिए और यह काम पूरे इत्मीनान से किया जाना चाहिए। किसी इम्तहान या घंटे-मिनट की बाध्यता से इसका कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए। हां, किसी मैथमेटिकल कॉन्सेप्ट की आजमाइश के काम को कोई शिक्षक अगर अपने छात्र की रोजमर्रा की जिंदगी से जोड़ सके तो इसे उसका कमाल समझा जाना चाहिए!
दूसरा मामला टेक्नीक का है। एक सवाल कई तरीकों से हल किया जा सकता है। इसका सबसे आसान और सीधा तरीका खोजने की लगन बच्चे में पैदा की जानी चाहिए। खोजने के लिए समय कम हो- अक्सर कम ही होता है- तो ऐसे तरीके अपनी ओर से सुझाए जाएं। तीसरी बात, कुछ चीजों पर याददाश्त के स्तर पर भी काम किया जाना चाहिए। लगभग हर विषय में काफी सारा कचरा याद करना बच्चों के रुटीन में शामिल होता है। गणित की जिस शाखा की पढ़ाई चल रही हो, कॉन्सेप्ट क्लियर हो, उसके फॉर्मूले और कुछ कठिन सवालों के स्टेप रट डालने में कोई हर्ज नहीं है।
अंतिम दोनों सूत्र अभ्यास से जुड़े हैं। चौथा- रोज थोड़ा वक्त गणित को दें। और पांचवां, परीक्षा से पहले दो-तीन पर्चे जरूर हल करें। जहां मामला फंसता दिखे, वहां कॉन्सेप्ट और टेक्नीक, दोनों रिवाइज करें। इसके बावजूद कहीं कुछ उलझाव लगे तो इम्तहान से पहले मन बना लें कि ऐसे सवालों पर सबसे बाद में हाथ लगाएंगे।
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