Thursday 29 October 2020

तकनीक की रेलमपेल


चंद्रभूषण

टेक्नॉलजी की उठापटक के मामले में नब्बे का दशक अद्वितीय समझा जाएगा। कोई चीज आसमान से उतर कर अचानक जमीन पर छा जाती। फिर देखते ही देखते ऐसे गायब होती जैसे गधे के सिर से सींग। इन बदलावों के पीछे हजारों-लाखों परिवारों की बर्बादी की कहानी भी मौजूद होती, लेकिन उस तरफ किसी का ध्यान मुश्किल से ही जा पाता था। 1990 में मैंने दिल्ली में पेजर का चलन शुरू होते देखा था, जो जल्द ही किसी फैशन स्टेटमेंट की शक्ल ले बैठा। टी-शर्ट तब कम लोग पहनते थे। पैंट में खुंसी कमीज, चौड़ी बेल्ट और उस पर सामने दाईं ओर सजा मोटरोला का अल्फा-न्यूमेरिक पेजर। 

महानगरों में किराये पर रहते हुए घूम-फिरकर दिमागी दिहाड़ी मारने वाले पेजरधारी शाम को ठिकाने पर पहुंचते तो उन्हें यह भी पता चल जाता कि उनसे कौन, कहां, किस नंबर पर संपर्क करना चाहता था। नए-नए पीसीओ बूथ भी उसी समय खुले थे, जहां डायल के बजाय बटन वाले फोन पर अगले दिन का प्रोग्राम फिक्स हो जाता था। इस पेजर और पीछे-पीछे पीसीओ बूथ को भी भारतभूमि पर आने और यहां से जाने में बमुश्किल दस साल लगे। इनको और साथ में कैमरा, ट्रांजिस्टर, टेप रिकॉर्डर, जेबी म्यूजिक सिस्टम और ‘डिजिटल डायरी-कैलकुलेटर’ को भी दुनिया से उठा देने का श्रेय जिस एक चीज को जाता है, वह मोबाइल फोन शुरू में एक भद्दी, जेबजलाऊ चीज के रूप में हमारे सामने प्रकट हुआ। 

शायद 1996 की बात है, दो साल पुराने एक प्राइवेट टीवी न्यूज प्रोग्राम ने, जो जल्द ही स्वतंत्र न्यूज चैनल की शक्ल लेने वाला था, ऐसा ही ईंटनुमा एक फोन अपने कामकाज के सिलसिले में महीने भर के लिए मेरे एक मित्र के सुपुर्द कर रखा था। यह चीज अपने पास न होने का हीनताबोध तब किसी में नहीं दिखता था क्योंकि भारी कीमत के चलते तब इसे छापाखाने जैसा कोई संस्थागत संसाधन ही माना जाता था। इसकी इनकमिंग कॉल उस समय 16 रुपये और आउटगोइंग 32 रुपये प्रति मिनट हुआ करती थी! एक और चीज उन दिनों खूब नजर आती थी- वीएचएस, जिसका जीवनकाल मोटे तौर पर 1980 से 1995 तक रहा। 

आम लोग इसे फिल्मों का टेप कहते थे जिसे चलाने के लिए वीसीपी नाम की एक डिवाइस को टीवी से जोड़ना पड़ता था। गांवों में नौटंकी, बिरहा और तमाम लोकनृत्यों को यह बेहूदा चीज अकेले ही निगल गई। मुंबइया सिनेमा इसके खौफ में कुख्यात स्मगलरों का पोसुआ बन गया। बहरहाल, पहले सीडी फिर डीवीडी ने वीएचएस को कुल पन्द्रह साल की उम्र में ही स्वर्गवास मेल पर चढ़ा दिया। लेकिन इन डिस्कों के नए अवतार ब्लू-रे का शुरू में जितना हल्ला था, वह कंप्यूटर, मोबाइल और इंटरनेट की तेज तरक्की के सामने व्यर्थ सिद्ध हुआ। इन भीषण बदलावों ने समाज में बहुतेरे स्मार्ट लोगों को जन्म दिया, लेकिन कुछेक हमारे जैसे कूल डूड भी पैदा किए, जो पॉप टेक्नॉलजी और गैजेट्स को कोई भाव नहीं देते।

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