Saturday 25 April 2020

विषाणु-विज्ञानी डेविड बाल्टीमोर से कुछ सवाल और उनके जवाब

प्रश्नकर्ता विषाणु-विज्ञानी डेविड बाल्टीमोर से  ( जिन्होंने एचआईवी के उस एन्ज़ाइम की खोज की जिससे यह विषाणु अपने आरएनए से डीएनए बनाता है और जिसके लिए उन्हें नोबेल-पुरस्कार दिया गया।  ) :
 "साधारण ज़ुकाम भी कई बार कोरोनावायरसों से हो सकता है। इस ज़ुकाम को हम वैश्विक महामारी यानी पैंडेमिक क्यों नहीं मानते ?"

उत्तर : "साधारण ज़ुकाम यानी कॉमन कोल्ड भी एक वैश्विक महामारी है। पर यह मारक नहीं है। सैकड़ों क़िस्म के विषाणु ज़ुकाम पैदा कर सकते हैं , इनमें अनेक कोरोनाविषाणु भी हैं। पर हम इनकी बहुत चिन्ता नहीं करते , क्योंकि हम अपना ध्यान रख लेते हैं। लोगों ( विशेषकर बच्चों ) में ज़ुकाम होता है , कुछ दिनों में ठीक हो जाता है। ये अधिकांश कोरोनाविषाणु गम्भीर बीमारी नहीं पैदा करते , इसलिए हम इनकी चिन्ता भी नहीं करते। ज़ुकाम की वैश्विक महामारी यानी ढेर सारे लोगों में नाक बहना-हरारत-बुख़ार-खाँसी जैसे लक्षण होना और फिर प्रतिरक्षा-तन्त्र के प्रयासों से ठीक हो जाना।"

"ज़ुकाम की उपेक्षा करना भी ठीक नहीं है। सार्वजनिक स्वास्थ्य-अधिकारी सामान्य ज़ुकाम ( कॉमन कोल्ड ) के विषाणुओं का अध्ययन करते हैं और उसके प्राकृतिक विकास , संक्रामकता ,फैलाव व अन्य बातों का भी। पर एक सीमा से अधिक हम ज़ुकाम पर संसाधन व्यय नहीं करते।"

"कोविड-19 विषाणु 1-5 % में मारक है। सामान्य ज़ुकाम लगभग कभी मारक नहीं। कोविड-19 के खिलाफ़ हमारे भीतर कोई विशिष्ट प्रतिरक्षा अभी विकसित नहीं। यह रोग नया है , इसका विषाणु भी। हम इसके फैलाव को रोकने का प्रयास कर रहे हैं क्योंकि इससे मृत्यु हो रही हैं और सामाजिक जीवन की अस्तव्यस्त करने की क्षमता सामान्य से कहीं अधिक है। हमने ऐसा कुछ सन् 1918 की एच1 एन 1 इन्फ़्लुएन्ज़ा-महामारी से समय से नहीं देखा है।"

प्रश्न : "क्या आप हमें एचआईवी-महामारी ( एपिडेमिक ) के बारे में कुछ बता सकते हैं ?"

उत्तर : "एड्स महामारी तब शुरू हुई , जब लॉस एंजल्स में कुछ लोग डॉक्टरों के पास विचित्र लक्षणों के साथ पहुँचने लगे। इन लक्षणों के मूल में क्षीण होता प्रतिरक्षा-तन्त्र था। यह सिंड्रोम पहले कभी नहीं देखा गया था : अनेक ऐसे लक्षण जो त्वचा व मुँह में उभरते थे। इनमें से अधिकांश लोग समलैंगिक पुरुष थे और इन्हें उन डॉक्टरों ने देखा , जो समलैंगिक पुरुषों के उपचार में कुछ विशेषज्ञता रखते थे।"

"डॉक्टरों ने इन मरीज़ों को सीडीसी , एटलांटा रिपोर्ट किया वहाँ उन्होंने इन्हें अलग पाया। फिर अनेक अन्य डॉक्टरों ने कहा कि उन्हें भी ऐसे मरीज़ मिल रहे हैं। तब इसे एक अज्ञात कारण वाले सिंड्रोम का नाम दिया गया और इसे एचआईवी के नाम से पहचाने जाने में समय लगा। एक बार यह स्पष्ट हो गया कि इसका कारण एक विषाणु है , तब यह सोचा जाने लगा कि यह एक-व्यक्ति-से-दूसरे में फैलता है। इससे इस समस्या को समझने में कुछ बेहतरी हुई , यह एक ऐसा कीटाणु था जो पहले हमें कभी नहीं मिला था। बाद में हमने जाना कि एचआईवी एक रेट्रोवायरस है : अनेक उन रेट्रोवायरसों की तरह जिनपर हम दसियों साल से काम कर रहे हैं। ये रेट्रोवायरस अपने भीतर आरएनए रखते हैं और कोशिकाओं के भीतर पहुँच कर एक ख़ास एन्ज़ाइम द्वारा डीएनए का निर्माण करते हैं। इसी एन्ज़ाइम की खोज के लिए मुझे सन् 1975 में नोबेल पुरस्कार दिया गया। अस्सी के दशक में इन रेट्रोविषाणुओं की क़िस्म बेहतर समझ में आ गयी थी , पर इस तरह की ( रेट्रोविषाणु से होने वाली ) किसी बीमारी को लोग पहली बार देख रहे थे।"

"एचआईवी को जब ट्रेस किया गया तब इसका सम्बन्ध बन्दरों से निकला , जो अफ़्रीका में मिलते हैं। उनसे चिम्पैंजियों में और फिर मनुष्यों में। यह प्रसार बहुत सफल तो नहीं था, लेकिन फिर भी हो गया था। बहुत सफल इसलिए नहीं, क्योंकि एचआईवी बहुत संक्रामक विषाणु नहीं है। अस्सी व नब्बे के दशकों में यह और स्पष्ट हो गया।"

"इस बीच एचआईवी संसार-भर में फैला। इसके कारण लोग ख़ूब बीमार हुए और अनेक मृत्यु हुईं। इन विषाणुओं को रोकने वाली इन्हिबिटर-दवाएँ बनायी गयी , कुछ पर तुरन्त टेस्ट हुए। इनमें से एक एजेडटी बहुत असरदार सिद्ध हुई , हालांकि इसका असर कम देर तक रहता था क्योंकि विषाणु म्यूटेट करके अपने स्वरूप को बदल लेता था और दवा से बच निकलता था। लेकिन इससे दवाएँ कैसे विकसित करनी हैं --- इसका रास्ता खुल गया। फिर अनेक कम्पनियों ने अनेक दवाएँ बना डालीं और इनमें से कई बेहतरीन थीं।"

"वैज्ञानिकों ने विषाणु को समझा और उसकी कमज़ोरियों को भी। उन्हीं कमज़ोरियों को समझकर टारगेट किया गया दवाओं को बनाने के लिए। ढेरों दवाएँ तैयार हो गयीं। आज एड्स एक दीर्घकालिक रोग है किन्तु अब मारक नहीं रहा। कम-से-कम विकसित देशों में तो यह थम गया क्योंकि यहाँ दवाएँ उपलब्ध रहीं।  अब हम एचआईवी-युक्त एक संसार में रहते हैं। एड्स नहीं गया , पर अब यह हमें उस तरह से मार नहीं पा रहा।"

प्रश्न : "यानी एड्स-महामारी दवाओं के कारण धीमी पड़ी , पर बिना टीके के। एचआईवी का टीका क्यों नहीं बना ?"

उत्तर : "यह दिलचस्प कहानी है। हम अक्सर सोचते हैं कि जब कोई नया विषाणु खोजा जाएगा , तब सबसे पहले उसके खिलाफ़ टीका बनेगा , न कि दवा। हमने अनेक विषाणुओं चेचक ( स्मॉलपॉक्स ) , पोलियो , खसरा ( मीज़ल्स ) , मम्प्स , रूबेला के खिलाफ़ टीके ही बनाये हैं। जब अस्सी के दशक में मैं जब इस विषाणु पर शोध कर रहा था , तब मुझे लगा था कि इस विषाणु के खिलाफ़ टीका बना पाना शायद सम्भव न हो। कारण कि विषाणु म्यूटेट कर सकता है : अपना जेनेटिक स्वरूप बदल सकता है। जो नित्य प्रतिरक्षा-तन्त्र को भरमा रहा है , उससे कैसे लड़ा जाएगा ? यही कारण है कि सफल टीका न बन सका। किसी विषाणु की रोकथाम इतनी मुश्किल नहीं रही , हालांकि आज भी मेरे कुछ साथी एचआईवी का टीका बनाने में लगे हुए हैं।"

प्रश्न : "तो अब एचआईवी और सार्स-सीओवी 2 में अन्तर बताइए। एचआईवी-पैंडेमिक और कोविड-19-पैंडेमिक में आप अन्तर क्या पाते हैं ?"

उत्तर : "सबसे बड़ा अन्तर तो व्यक्ति-से-व्यक्ति में फैलाव का है। एचआईवी मुश्किल से फैलता है , सार्स-सीओवी 2 अत्यधिक संक्रामक है। फिर ये दोनों विषाणु अलग-अलग विषाणु-परिवारों के हैं। सार्स-सीओवी 2 कोरोनाविषाणु है , एचआईवी एक रेट्रोविषाणु है। एकदम भिन्न विकास , एकदम अलग कार्यप्रणाली। ( हाँ , दोनों विषाणु हैं यह अलग बात है ! )"

"ये दोनों विषाणु मनुष्य में जानवरों से आये। एचआईवी बन्दरों से , सार्स-सीओवी 2 सम्भवतः चमगादड़ों से। दोनों मानवों के लिए नये हैं। कोरोनाविषाणुओं के खिलाफ़ कोई दवा नहीं है क्योंकि कोरोनाविषाणु अब तक बड़ी समस्या नहीं रहे। सार्स और मर्स जैसे रोग जब सामने आये , तब कुछ हलचल हुई किन्तु इन्हें भी अपेक्षाकृत तेज़ी से नियन्त्रित कर लिया गया।"

साभार - स्कन्द शुक्ला

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