Sunday 13 October 2019

चाँद का भी कोई चांद !!

चांद का भी कोई चांद
चंद्रभूषण
अंतरिक्षीय पिंडों में एक-दूसरे का चक्कर लगाने की सहज वृत्ति होती है। ग्रह-उपग्रह छोड़िए, धरती पर गिरने वाले ज्यादातर उल्कापिंड भी ऐसे ही जोड़ों में आते हैं। ऐसे में यह आश्चर्य की बात ही कही जाएगी कि हमारे सौरमंडल में इतने सारे (फिलहाल 200 से भी ज्यादा दर्ज) उपग्रहों की मौजूदगी के बावजूद अभी तक एक भी उपग्रह का उपग्रह नहीं खोजा जा सका है। क्या प्रकृति ऐसे पिंड बना ही नहीं सकती? या यह केवल हमारे अपने सौरमंडल की सीमा है?

सवाल की गहराई में जाएं तो उपग्रहों के गणित पर काफी सारा काम डेढ़-दो सौ साल पहले किया जा चुका है, लेकिन उससे सिर्फ दो परिभ्रमणकारी पिंडों, मसलन ग्रह और उपग्रह के बीच की अधिकतम दूरी का अंदाजा मिलता है। हिल स्फेयर नाम की यह सीमा हमारे चंद्रमा के मामले में 60 हजार किलोमीटर है। इससे ज्यादा दूरी पर घूमने वाली कोई चीज चांद के बजाय पृथ्वी के ही चक्कर लगाएगी।

स्थिर कक्षा इस 'हिल स्फेयर' की तिहाई-चौथाई दूरी पर ही बन पाती है। इससे ज्यादा दूरी पर लाखों साल तक चलने वाली कक्षाएं जरूर बन सकती हैं पर देर-सबेर पिंड अपना घाट छोड़ देगा। अगर हमारे चंद्रमा का कोई उप-उपग्रह होता तो वह 15-20 हजार किलोमीटर की कक्षा में उसका चक्कर लगाता पाया जाता। हालांकि ज्वारीय बलों के प्रभाव में उसकी कक्षा क्रमश: छोटी होती जाती और वह चंद्रमा पर गिर जाता। लेकिन यह मजबूरी हर जगह तो लागू नहीं होती होगी।

सौरमंडल से बाहर का पहला चंद्रमा खोजे जाने की बात इसी महीने सामने आई है। हमसे 8000 प्रकाशवर्ष दूर स्थित एक ग्रह केप्लर 1625बी का नेप्च्यून के आकार वाला- यानी हमारी पृथ्वी का 17 गुना वजनी- उपग्रह उसका चक्कर हमारे चंद्रमा की आठ-नौगुनी दूरी से लगा रहा है। फिलहाल जानने का कोई तरीका भले न हो, पर इतने विशाल पिंड का कोई उप-उपग्रह क्यों नहीं हो सकता? मान लीजिए अगर यह हुआ तो अंग्रेजी में इसे क्या कहेंगे? कुछ वैज्ञानिकों ने ऐसे पिंडों के लिए ‘मूनमून’ कुलनाम प्रस्तावित किया है!

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