छा रहे हैं विदेश के कारोबारी खेतिहर
चंद्रभूषण
पिछली मंदी से पहले दुनिया भर में दिखे ईंधन और खाद्य संकट ने इन दोनों क्षेत्रों में आपूर्ति को लेकर जो अफरा-तफरी पैदा की थी, उसका एक पहलू बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा दूसरे देशों में जाकर खेती की विशाल जमीनें हथियाने का भी था। जमीनों के सबसे ज्यादा विदेशी सौदे 2008-09 में ही हुए। फिर मंदी के नरम पड़ने के साथ ही माहौल पलटता गया और उस दौरान वाम दायरों के बीच ग्लोबल चर्चा में आया ‘लैंड ग्रैब’ का हल्ला देखते-देखते चर्चा से बाहर हो गया।
लेकिन बड़ी पूंजी के दायरे में आज भी इस बात को लेकर पूर्ण सहमति बनी हुई है कि अगले 50 वर्षों तक दुनिया की आबादी जिस हिसाब से बढ़ने वाली है, उस हिसाब से खाद्यान्नों, सब्जियों, फलों और मांस-मछली-अंडे की पैदावार नहीं बढ़ने वाली। शहरी दायरे और इन्फ्रास्ट्रक्चर का विस्तार तथा भूजल का खात्मा सघन आबादी वाली उपजाऊ जमीनों को दिनोंदिन सिमटाता जा रहा है। इस अघोषित बंजरीकरण से भी खान-पान की मुश्किलें आगे चलकर और बढ़ेंगी।
बुनियादी उत्पादन से जुड़ी इस तल्ख हकीकत को ध्यान में रखते हुए अगले दस सालों में विरल आबादी वाले देशों में बाहरी कंपनियों द्वारा विशाल फार्मों पर हाइली मेकेनाइज्ड खेती का चलन बढ़ने वाला है। ब्राजील की 11%, सूडान की 10%, मेडागास्कर, फिलीपीन्स और इथियोपिया की 8-8%, मोजांबीक की 7% और इंडोनेशिया की 6% जमीन इसके लिए प्रस्तुत है, जबकि रूस जैसे अपेक्षाकृत अमीर मुल्क ने भी अपने पूर्वी इलाकों की दसियों लाख एकड़ जमीनें चीनी कंपनियों को खेती के लिए भाड़े पर देने का फैसला किया है।
पूरी दुनिया में करीब 10 अरब एकड़ खेती की और इतनी ही जंगलात की जमीनें नापी गई हैं। खेतिहर जमीनों का एक फीसदी यानी 10 करोड़ एकड़ या तो विदेशी हाथों में जा चुका है या जाने वाला है। इस आपाधापी में काफी सारे जंगलों का भी बंटाधार होने की आशंका जताई जा रही है। और इन जमीनों पर जो लोग खेती करके पहले से गुजारा कर रहे होंगे, स्थानीय सरकार और अरबों डॉलर की हैसियत वाली फूड प्रोसेसिंग कम्पनियां आपसी समझदारी से उन्हें कुछ मुआवजा देकर या यूं ही वहां से उनका नामोनिशान मिटा देंगी।
चंद्रभूषण
पिछली मंदी से पहले दुनिया भर में दिखे ईंधन और खाद्य संकट ने इन दोनों क्षेत्रों में आपूर्ति को लेकर जो अफरा-तफरी पैदा की थी, उसका एक पहलू बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा दूसरे देशों में जाकर खेती की विशाल जमीनें हथियाने का भी था। जमीनों के सबसे ज्यादा विदेशी सौदे 2008-09 में ही हुए। फिर मंदी के नरम पड़ने के साथ ही माहौल पलटता गया और उस दौरान वाम दायरों के बीच ग्लोबल चर्चा में आया ‘लैंड ग्रैब’ का हल्ला देखते-देखते चर्चा से बाहर हो गया।
लेकिन बड़ी पूंजी के दायरे में आज भी इस बात को लेकर पूर्ण सहमति बनी हुई है कि अगले 50 वर्षों तक दुनिया की आबादी जिस हिसाब से बढ़ने वाली है, उस हिसाब से खाद्यान्नों, सब्जियों, फलों और मांस-मछली-अंडे की पैदावार नहीं बढ़ने वाली। शहरी दायरे और इन्फ्रास्ट्रक्चर का विस्तार तथा भूजल का खात्मा सघन आबादी वाली उपजाऊ जमीनों को दिनोंदिन सिमटाता जा रहा है। इस अघोषित बंजरीकरण से भी खान-पान की मुश्किलें आगे चलकर और बढ़ेंगी।
बुनियादी उत्पादन से जुड़ी इस तल्ख हकीकत को ध्यान में रखते हुए अगले दस सालों में विरल आबादी वाले देशों में बाहरी कंपनियों द्वारा विशाल फार्मों पर हाइली मेकेनाइज्ड खेती का चलन बढ़ने वाला है। ब्राजील की 11%, सूडान की 10%, मेडागास्कर, फिलीपीन्स और इथियोपिया की 8-8%, मोजांबीक की 7% और इंडोनेशिया की 6% जमीन इसके लिए प्रस्तुत है, जबकि रूस जैसे अपेक्षाकृत अमीर मुल्क ने भी अपने पूर्वी इलाकों की दसियों लाख एकड़ जमीनें चीनी कंपनियों को खेती के लिए भाड़े पर देने का फैसला किया है।
पूरी दुनिया में करीब 10 अरब एकड़ खेती की और इतनी ही जंगलात की जमीनें नापी गई हैं। खेतिहर जमीनों का एक फीसदी यानी 10 करोड़ एकड़ या तो विदेशी हाथों में जा चुका है या जाने वाला है। इस आपाधापी में काफी सारे जंगलों का भी बंटाधार होने की आशंका जताई जा रही है। और इन जमीनों पर जो लोग खेती करके पहले से गुजारा कर रहे होंगे, स्थानीय सरकार और अरबों डॉलर की हैसियत वाली फूड प्रोसेसिंग कम्पनियां आपसी समझदारी से उन्हें कुछ मुआवजा देकर या यूं ही वहां से उनका नामोनिशान मिटा देंगी।
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