Sunday 18 March 2018

प्रकाश क्या है पहले इसे समझिए

आइंस्टाइन नामक व्यक्ति का जहाँ-तहाँ नाम लेने से पहले प्रकाश को समझिए
 स्कन्द शुक्ला 
प्रकाश जो फ़ोटॉन नामक कणों से बना है और तरंग भी है। यानी प्रकाश द्विस्वभावी है और कण-तंरग , दोनों के गुण प्रदर्शित करता है। बहुत दिनों तक वैज्ञानिक इस विषय पर जूझते रहे हैं। न्यूटन से लेकर यंग तक , मैक्सवेल से लेकर आइंस्टाइन तक सबने प्रकाश के कई भौतिक प्रयोग किये और अपने-अपने मत दिये हैं। यहाँ सबकी चर्चा करना सही नहीं होगा लेकिन कुछ मोटी बातें जन-जन को पता होनी चाहिए। न्यूटन कणवाद के पक्ष में थे और मानते थे कि प्रकाश कणों के रूप होता है। 
अब न्यूटन को कौन चुनौती देता ! बड़े दिनों तक आम-ओ-ख़ास में यह बात पैठी रही कि न्यूटन बाबा कह गये हैं, तो सही ही कह गये हैं। लेकिन फिर 1801 में एक दूसरे वैज्ञानिक थॉमस यंग ने अपने एक प्रयोग से सिद्ध करने की कोशिश की कि प्रकाश तरंग के रूप में है। नतीजन संसार अब न्यूटन के मत से हटने लगा और पूरी उन्नीसवीं सदी में प्रकाश को तरंग-रूप में जान-समझ कर तरह-तरह के प्रयोग होने लगे। 
मैक्सवेल ने हमें बताया कि प्रकाश दरअसल विद्युत्-चुम्बकीय तरंग है। यानी तरंगों का वह प्रकार , जो जब चलता है तो उसके साथ विद्युत् और चुम्बकीय क्षेत्र दोनों साथ-साथ निर्मित होते चलते हैं। फिर आइंस्टाइन हमें वापस प्रकाश के कणरूप पर ले गये। बिना प्रकाश को कण रूप में ग्रहण किये , हम प्रकाश-विद्युत्-प्रभाव यानी फ़ोटोएलेक्ट्रिक प्रभाव समझ नहीं सकते। यह वही प्रभाव है , जिसपर आइंस्टाइन को नोबल पुरस्कार मिला था। लेकिन आइंस्टाइन ने प्रकाश की कण-प्रवृत्ति और तरंग-प्रवृत्ति को जोड़ दिया। कहा कि फ़ोटॉनों की तरंग है प्रकाश। इसके कुछ गुण आप कण मानकर बूझ सकते हैं , तो कुछ तरंग मानकर। 
फिर जानिए कि प्रकाश की गति संसार में सर्वाधिक है। जानिए कि निर्वात यानी वैक्यूम में प्रकाश की गति निश्चित है। यह निश्चित है , इसलिए हम दूरी-मापक मानक 'मीटर' की परिभाषा-तक प्रकाश की गति से तय करते हैं। यह तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेण्ड के लगभग है। जानिए कि जिन फ़ोटॉनों से प्रकाश बना है , उनका कोई द्रव्यमान् नहीं है। 
प्रकाश की गति प्रकाश-स्रोत के चलते रहने या रुके होने पर नहीं बदलती , न यह प्रकाश को देखने वाले के चलने-रुके रहने पर बदलती है। इस बात को तनिक सोच कर देखिएगा। कार चल रही हो तो भी प्रकाश की गति उतनी ही , रुकी हो तो भी उतनी ही। दूर खड़े आदमी तक चलती गाड़ी का प्रकाश भी उतनी ही तेज़ आता है , जितना वहाँ रुकी हुई गाड़ी का आता है। 

अभी एकदम सरल भाषा में इतना पकड़िए। आइंस्टाइन को मुहावरा न बनाइए। कविता-कहानी में आइंस्टाइन को बिना समझे मत लगाइए। अन्यथा वह महज़ नेम-ड्रॉपिंग लगेगा ! वैज्ञानिक अपने कृतित्व से जाना जाता है और आइंस्टाइन को बिना प्रकाश को समझे समझा नहीं जा सकता। 

और यह कोई मुहावरे वाला प्रकाश नहीं। यह वही प्रकाश है जो सूर्य-चन्द्रमा-तारों से आ रहा है। कोई आन्तरिक प्रकाश , ज्ञान का प्रकाश , चिन्तन का प्रकाश जैसी झिलमिल भाषा नहीं। सीधा-सादा प्रकाश जो आँखों से आप देखते हैं। ऊर्जा-द्रव्य-प्रकाश को लेकर लोगों में इतनी भ्रान्तियाँ जबरन भरी जाती हैं , कि क्या कहा जाए। ऊर्जा कोई आत्मा-वात्मा की ऊर्जा नहीं। ऊर्जा यानी एनर्जी। जिससे आप चलते हैं। कूदते हैं। बोलते हैं। लिखते हैं। यहाँ तक कि सोते भी हैं। 
द्रव्य को लेकर कलाकारी कम हुई , लोगों ने लच्छेदार बातें कम बनायीं। द्रव्य सामने स्पष्ट दिखता है। आदमी , कुत्ता , सिक्का , टायर , पानी , दूध। हवा महसूस हो जाती है। लेकिन ऊर्जा को लेकर , जिसे देखिए अपनी फ़िलॉस्फ़ी बाँच रहा है। ऊर्जा यह वह , ऊर्जा वह है। और सब सिर्फ़ इसलिए कि ऊर्जा को द्रव्य की तरह समझना सरल नहीं है। 

कुछ बातें ऊर्जा , द्रव्य और प्रकाश पर। एकदम नन्हीं-मुन्नी टाइप। कोई जटिल भौतिकी का जाल नहीं , जो भयभीत करे। पहले भौतिकी को समझिए , पराभौतिकी बाद में कर लीजिएगा। और फिर कविता में आइंस्टाइन का प्रयोग खिलकर-खुलकर कीजिए। 

आइंस्टाइन की महज़ नेम-ड्रॉपिंग नहीं। 

फ़िज़िक्स के साथ अतीन्द्रियता की समस्या है , जिसे न कवि बूझ पा रहे हैं और न श्रोता-पाठक।
आदमी सदियों से इन्द्रियों के साथ जिया। देखा-छुआ-सूँघा-सुना और जाना। जितना इनसे समझा , वही भौतिक सत्य माना। अन्य बातों को उसने कमरे में या जंगल में चटाई बिछाकर मन में कल्पित किया। तरह-तरह के लोग , तरह-तरह की कल्पनाएँ। अच्छे-घने-गम्भीर लोगों की अच्छी-घनी-गम्भीर कल्पनाएँ। लेकिन फिर भी कल्पनाएँ ही। कल्पना का अपना महत्त्व है , लेकिन सत्य का महत्त्व पहले और अधिक है।
फिर फ़िज़िक्स वाले आ गये। पहले वे सफ़ेद विग वाले सनकी और अब ये बड़े-बड़े जटाजूट वाले। लगे ज्ञान बाँचने। पदार्थ को हमें प्रयोग से बेहतर समझाया। खाली कहा नहीं। कहा कि हवा-पानी-पत्थर को ही तुम ढंग से नहीं जानते , आत्मा-परमात्मा-सात आसमान-जिन्न-फ़रिश्ते बाद में जानना। तो पहले जो दिख रहा है , उसे ढंग से समझो। प्लेट में जो है ख़त्म नहीं कर पा रहे हो और दूसरे डोंगे ढूँढ़ रहे हो।
फिर वे पगले वैज्ञानिक लोग और आगे बढ़े। इन्होंने मशीनों के माध्यम से पदार्थ को जानने का दायरा ही बढ़ा दिया। फिर पदार्थ और प्रकाश के रिश्ते समझाने लगे। प्रकाश को कहा कि यह तरंग है और कण भी। आम आदमी चकराने लगा और उसका कवि भी। तरंग का अर्थ जिसने समुद्र की तरंग तक समझा हो और कणों को रेत का कण , वह बेचारे एलेक्ट्रॉनों को कैसे समझे और कैसे उन पर कविता बनाए !
लेकिन एलेक्ट्रॉनों पर पुष्ट-प्रमन कविता बनेगी और पढ़ने वाले भी सामने आएँगे। उसके लिए पहले एलेक्ट्रॉन की साधारण अभिधात्मक समझ पैदा करनी होगी। फिर उसकी अनुभूतियाँ जिनमें जन्मनी होंगी , जन्मेंगी। पहले अभिधा , फिर व्यंजना-लक्षणा की झिलमिल। पहले मौलिक सत्य , फिर धुँधला छलावा। अन्यथा कवि लोगों को और भरमा देगा। वे विज्ञान नहीं समझेंगे , उसकी कविता पहले पढ़कर भटकने लगेंगे।
पदार्थ को समझने के लिए सनक चाहिए। ( सनक तो पदार्थ से कविता पैदा करने के लिए भी चाहिए ! ) लेकिन ढेरों लोग सोचते हैं कि पदार्थ को क्या समझना , यह समझा-समझाया है। वे फ़िज़िक्स नहीं पढ़ते , सीधे मेटाफ़िज़िक्स की गोलमोल बातें करने लगते हैं। सुनने में बहुत अच्छी लगती हैं। लेकिन पहले सच्ची बातें सुनायी जाएँ , अच्छी बातें फिर बाद में।
कमरे में संगीत बज रहा है। झूमना चाहिए। संगीत बहुत श्रव्य है। लेकिन उसके पहले कमरा समझना है। अन्यथा वह गिर गया , तो बाजे-समेत सुनने वाले नष्ट हो जाएँगे। न भी गिरे तो वह संगीत के बाजे के साथ तालमेल करके ध्वनि आपके कानों तक पहुँचा रहा है। लेकिन आप अज्ञानी हैं , इसलिए कृतघ्न हैं। आपको लगता है कि स्वर केवल बाजे से पैदा हो रहे हैं और आप तक पहुँच रहे हैं।
वैसे संगीत भी हवा के अणुओं का ऊर्जात्मक लहराव है। लेकिन पहले कमरे को समझिए , हवा को समझिए , ऊर्जा को समझिए , अणुओं को समझिए , लहराव को समझिए। उसके बाद लिया गया संगीतानन्द घटता नहीं , बढ़ जाता है।
रस लेना है , पहले स्वयं को दायरे समझने के लिए कस लेना है। फिर ढीला छोड़ना है और रस आने लगेगा।
जाने गये में नया जोड़ने के लिए जाना गया ढंग से जानना ज़रूरी है। पहले मंजन , फिर रंजन , फिर ज़रूरत पड़ी तो भंजन। फिर मंजन चालू। यही क्रम अनवरत।


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