रमेश कुमार दुबे
चिकित्सा
के इतिहास में एंटीबायोटिक का आविष्कार उसी प्रकार की चमत्कारिक घटना
थी, जिस प्रकार विज्ञान के क्षेत्र में परमाणु बम की। दोनों घटनाएं 1940 के
दशक में घटीं। दोनों में कई समानताएं भी थीं, जैसे इनका अत्यधिक
इस्तेमाल मानव जाति के लिए विनाशकारी होता है। यद्यपि द्वितीय विश्व
युद्ध के बाद परमाणु बम का इस्तेमाल नहीं किया गया है तथापि एंटीबायोटिक
दवाओं के अत्यधिक इस्तेमाल से मनुष्य आपदा को न्योता दे रहा है।
एंटीबायोटिक दवाओं के बल पर डॉक्टरों ने मरीजों में संक्रमण रोकने में
कामयाबी पाई, लेकिन यह भी अनुभव किया गया कि इनके इस्तेमाल से शरीर के कई
लाभदायक बैक्टीरिया भी नष्ट होते जा रहे हैं। इससे कीटों में प्रतिरोधक
क्षमता विकसित हो रही है। इसी का नतीजा है कि सर्दी-जुकाम सरीखी छोटी-मोटी
बीमारियों में भी एंटीबायोटिक दवाएं अपना असर देर से दिखाती हैं। दूसरी नई
श्रेणी की एंटीबायोटिक दवाओं की खोज का काम ठप पड़ा हुआ है क्योंकि
डाइबिटीज, कैंसर, ब्लड प्रेशर जैसी बीमारियों की दवाओं की तुलना में
एंटीबायोटिक दवाओं में मुनाफे की संभावना नहीं है।
एंटीबायोटिक दवाएं बैक्टीरिया से होने वाली विभिन्न बीमारियों में दो तरीके से काम करती हैं; पहला, शरीर में मौजूद बीमारी पैदा करने वाले बैक्टीरिया को मारती हैं और दूसरा, जरूरत के हिसाब से शरीर में अच्छे बैक्टीरिया पैदा करती हैं, जिससे वे खराब बैक्टीरिया से लड़ सकें। 20वीं सदी की शुरुआत से पहले सामान्य और छोटी बीमारियों से भी छुटकारा पाने में महीनों लगते थे, लेकिन एंटीबायोटिक दवा खाने के बाद उनसे एक सप्ताह से भी कम समय में छुटकारा मिलने लगा। कई आधुनिक दवाइयां तो प्रभावशाली एंटीबायोटिक के बिना काम ही नहीं करती हैं। इसीलिए इसे मैजिक बुलेट कहा जाने लगा। लेकिन एंटीबायोटिक दवाओं के अत्यधिक इस्तेमाल से यह मैजिक बुलेट बेअसर होने लगी है। इसकी प्रतिक्रिया मेंडॉक्टर अधिक शक्तितशाली एंटीबायोटिक लिखने लगे हैं। इसी का नतीजा है कि इनकी बिक्री में छह गुना इजाफा हुआ। उदाहरण के लिए कार्बापेनेम्स कही जाने वाली इन दवाओं का इस्तेमाल तब होता है जब दूसरे सभी उपाय विफल हो जाते हैं, लेकिन अब इसे साधारण बीमारियों में भी दिया जाने लगा है।
एंटीबायोटिक दवाओं के विरुद्ध बढ़ते प्रतिरोध को देखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेतावनी दी है कि मानवता एंटीबायोटिक के बाद के ऐसे युग में प्रवेश कर रही है जहां सामान्य संक्रमण ठीक नहीं हो सकेंगे। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 114 देशों से लिए गए आंकड़ों के विश्लेषण के बाद बताया कि यह प्रतिरोध क्षमता दुनिया के हर कोने में दिख रही है। अकेले यूरोप में हर साल 25,000 मौतें बैक्टीरिया में दवाओं के खिलाफ प्रतिरोध पैदा करने के कारण हो रही हैं। हाल ही में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने चेतावनी देते हुए कहा कि यदि एंटीबायोटिक का इसी तरह दुरुपयोग होता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब एंटीबायोटिक फेल हो जाएंगी। नई श्रेणी की एंटीबायोटिक को खोजने में कम से कम 25 साल लगेंगे। भारत विश्व में एंटीबायोटिक दवाओं का सबसे ज्यादा खपत करने वाला देश है। वर्ष 2000 में जहां एंटीबायोटिक की 8 अरब गोलियों का इस्तेमाल होता था, वहीं वर्ष 2010 में इसकी संख्या बढ़कर 12.9 अरब हो गई। एक भारतीय एक वर्ष में औसतन 11 एंटीबायोटिक का सेवन करता है। हम न सिर्फ दवाओं के रूप में एंटीबायोटिक का अंधाधुंध इस्तेमाल कर रहे हैं बल्िक खाद्य पदार्थों में भी एंटीबायोटिक के धड़ल्ले से इस्तेमाल को बढ़ावा मिल रहा है। पोल्ट्री उद्योग में मुर्गे-मुर्गियों को जल्दी बड़ा करने के लिए एंटीबायोटिक का इस्तेमाल हो रहा है। इनका मांस (चिकन) खाने से मानव शरीर के भीतर ऐसे जीवाणु उत्पन्न हो रहे हैं जो एंटीबायोटिक के असर को खत्म कर देंगे। पिछले दिनों दिल्ली स्िथत सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) के शोध में परीक्षण हेतु लिए गए चिकन के नमूनों में से 40 फीसदी में ऐसे एंटीबायोक्स पाए गए हैं, जो चिकन की तेज वृद्धि के लिए दिए गए थे। भारत की भांति उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों जैसे ब्राजील, रूस, चीन और दक्षिण अफ्रीका में भी एंटीबायोटिक दवाओं का उपभोग तेजी से बढ़ा है क्योंकि इन देशों में मध्य वर्ग की क्रय शक्ति में इजाफा हुआ है।
यदि एंटीबायोटिक दवाओं के दुरुपयोग का सिलसिला इसी तरह बढ़ता रहा तो वह दिन जल्द आएगा जब मरीजों पर एंटीबायोटिक का कोई असर नहीं होगा। इससे सर्दी-जुकाम, चोट लगने पर भी मौत हो जाया करेगी। अत: नई एंटीबायोटिक की खोज के साथ-साथ एंटीबायोटिक दवाओं के अंधाधुंध इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता है ताकि साधारण पैरासिटामॉल से ठीक होने वाली बीमारियों के लिए डॉक्टर एंटीबायोटिक न लिखें।
एंटीबायोटिक दवाएं बैक्टीरिया से होने वाली विभिन्न बीमारियों में दो तरीके से काम करती हैं; पहला, शरीर में मौजूद बीमारी पैदा करने वाले बैक्टीरिया को मारती हैं और दूसरा, जरूरत के हिसाब से शरीर में अच्छे बैक्टीरिया पैदा करती हैं, जिससे वे खराब बैक्टीरिया से लड़ सकें। 20वीं सदी की शुरुआत से पहले सामान्य और छोटी बीमारियों से भी छुटकारा पाने में महीनों लगते थे, लेकिन एंटीबायोटिक दवा खाने के बाद उनसे एक सप्ताह से भी कम समय में छुटकारा मिलने लगा। कई आधुनिक दवाइयां तो प्रभावशाली एंटीबायोटिक के बिना काम ही नहीं करती हैं। इसीलिए इसे मैजिक बुलेट कहा जाने लगा। लेकिन एंटीबायोटिक दवाओं के अत्यधिक इस्तेमाल से यह मैजिक बुलेट बेअसर होने लगी है। इसकी प्रतिक्रिया मेंडॉक्टर अधिक शक्तितशाली एंटीबायोटिक लिखने लगे हैं। इसी का नतीजा है कि इनकी बिक्री में छह गुना इजाफा हुआ। उदाहरण के लिए कार्बापेनेम्स कही जाने वाली इन दवाओं का इस्तेमाल तब होता है जब दूसरे सभी उपाय विफल हो जाते हैं, लेकिन अब इसे साधारण बीमारियों में भी दिया जाने लगा है।
एंटीबायोटिक दवाओं के विरुद्ध बढ़ते प्रतिरोध को देखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेतावनी दी है कि मानवता एंटीबायोटिक के बाद के ऐसे युग में प्रवेश कर रही है जहां सामान्य संक्रमण ठीक नहीं हो सकेंगे। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 114 देशों से लिए गए आंकड़ों के विश्लेषण के बाद बताया कि यह प्रतिरोध क्षमता दुनिया के हर कोने में दिख रही है। अकेले यूरोप में हर साल 25,000 मौतें बैक्टीरिया में दवाओं के खिलाफ प्रतिरोध पैदा करने के कारण हो रही हैं। हाल ही में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने चेतावनी देते हुए कहा कि यदि एंटीबायोटिक का इसी तरह दुरुपयोग होता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब एंटीबायोटिक फेल हो जाएंगी। नई श्रेणी की एंटीबायोटिक को खोजने में कम से कम 25 साल लगेंगे। भारत विश्व में एंटीबायोटिक दवाओं का सबसे ज्यादा खपत करने वाला देश है। वर्ष 2000 में जहां एंटीबायोटिक की 8 अरब गोलियों का इस्तेमाल होता था, वहीं वर्ष 2010 में इसकी संख्या बढ़कर 12.9 अरब हो गई। एक भारतीय एक वर्ष में औसतन 11 एंटीबायोटिक का सेवन करता है। हम न सिर्फ दवाओं के रूप में एंटीबायोटिक का अंधाधुंध इस्तेमाल कर रहे हैं बल्िक खाद्य पदार्थों में भी एंटीबायोटिक के धड़ल्ले से इस्तेमाल को बढ़ावा मिल रहा है। पोल्ट्री उद्योग में मुर्गे-मुर्गियों को जल्दी बड़ा करने के लिए एंटीबायोटिक का इस्तेमाल हो रहा है। इनका मांस (चिकन) खाने से मानव शरीर के भीतर ऐसे जीवाणु उत्पन्न हो रहे हैं जो एंटीबायोटिक के असर को खत्म कर देंगे। पिछले दिनों दिल्ली स्िथत सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) के शोध में परीक्षण हेतु लिए गए चिकन के नमूनों में से 40 फीसदी में ऐसे एंटीबायोक्स पाए गए हैं, जो चिकन की तेज वृद्धि के लिए दिए गए थे। भारत की भांति उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों जैसे ब्राजील, रूस, चीन और दक्षिण अफ्रीका में भी एंटीबायोटिक दवाओं का उपभोग तेजी से बढ़ा है क्योंकि इन देशों में मध्य वर्ग की क्रय शक्ति में इजाफा हुआ है।
यदि एंटीबायोटिक दवाओं के दुरुपयोग का सिलसिला इसी तरह बढ़ता रहा तो वह दिन जल्द आएगा जब मरीजों पर एंटीबायोटिक का कोई असर नहीं होगा। इससे सर्दी-जुकाम, चोट लगने पर भी मौत हो जाया करेगी। अत: नई एंटीबायोटिक की खोज के साथ-साथ एंटीबायोटिक दवाओं के अंधाधुंध इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता है ताकि साधारण पैरासिटामॉल से ठीक होने वाली बीमारियों के लिए डॉक्टर एंटीबायोटिक न लिखें।
सार्थक और ज्ञानवर्द्धक लेख, आभार। सादर ... अभिनन्दन।।
ReplyDeleteनई कड़ियाँ :- दीवा जलाना कब मना है ? - डॉ . हरिवंश राय 'बच्चन'
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