उम्मीद है कि
वर्ष 2016 से भारत का अपना ‘इंडियन नेविगेशन सिस्टम’ काम करना शुरू कर देगा. फिलहाल इसके लिए अमेरिकी ‘जीपीएस’ की मदद ली जाती है. इसे विकसित
करने के मकसद से भारत ने 16 अक्तूूबर को तीसरा सेटेलाइट सफलतापूर्वक
लॉन्च कर दिया .इस तरह की तकनीक अभी अमेरिका और रूस के पास ही है. यूरोपीय संघ और
चीन भी 2020 तक इसे विकसित कर पायेंगे, लेकिन भारत उससे पहले यह कामयाबी हासिल कर सकता है. क्या है
नेविगेशन सिस्टम, क्या है इसकी खासियत आदि के अलावा
अमेरिका और अन्य देशों के जीपीएस सिस्टम के बारे में विशेष
लेख
स्वदेशी
क्षेत्रीय नेवीगेशन प्रणाली विकसित करने के लिए भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन
(इसरो) 16 अक्तूबर को इंडियन रीजनल
नेवीगेशनल सेटेलाइट सिस्टम-1सी
(आइआरएनएसएस-1सी) का सफल प्रक्षेपण कर लिया .
हालांकि, इसे लॉन्च करने की योजना 10 अक्तूबर को ही थी, लेकिन तकनीकी
कारणों से इसकी तिथि आगे बढ़ा दी गयी. ‘आरआरएनएसएस- 1सी’ के प्रक्षेपण की 67 घंटे की उल्टी
गिनती 13 अक्तूबर को सुबह 6.32 बजे से शुरू हो चुकी थी .दरअसल, इसरो की योजना अमेरिका के ‘ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम’ यानी जीपीएस की तरह ही एक अपना ‘इंडियन रीजनल नेविगेशनल सेटेलाइट सिस्टम’ बनाने की है. पूर्ण नेविगेशन का तंत्र विकसित करने के लिए अगले दो वर्षो में
इसरो की कुल सात सेटेलाइट लॉन्च करने की योजना है. 1,425.4 किलोग्राम का भार ले जाने में सक्षम ‘आइआरएनएसएस-1सी’ सात सेटेलाइटों की श्रृंखला में तीसरे नंबर का है. इससे पहले
आइआरएनएसएस-1ए और बी का प्रक्षेपण क्रमश: 1 जुलाई, 2013 और 4 अप्रैल, 2014 को श्रीहरिकोटा से किया गया था.
वर्ष 2016 तक आइआरएनएसएस कार्यक्रम के सभी
सातों सेटेलाइट के पूरी तरह से संचालित होने की उम्मीद है. विशेषज्ञों का मानना है
कि इसके बाद देशवासियों को इसके फायदे मिल सकते हैं. ‘आरटी डॉट कॉम’ पर एक रिपोर्ट
में बताया गया है कि आम आदमी की जिंदगी को सुधारने के अलावा सैन्य गतिविधियों, आंतरिक सुरक्षा और आतंकवाद-रोधी उपायों के रूप में यह सिस्टम बेहद
उपयोगी होगा.
खासकर 1999 में सामने आयी कारगिल जैसी
सुरक्षा संबंधी चुनौतियों से इसके जरिये समय रहते निपटा जा सकेगा. इस रिपोर्ट के
मुताबिक, कारगिल घुसपैठ के समय भारत के पास
ऐसा कोई सिस्टम मौजूद नहीं होने के कारण सीमा पार से होने वाले घुसपैठ को समय रहते
नहीं जाना जा सका. बाद में यह चुनौती बढ़ने पर भारत ने अमेरिका से जीपीएस सिस्टम
से मदद मुहैया कराने का अनुरोध किया गया था. हालांकि, अमेरिका ने मदद मुहैया कराने से इनकार कर दिया था. उसके बाद से ही
जीपीएस की तरह ही देशी नेविगेशन सेटेलाइट नेटवर्क के विकास पर जोर दिया गया.
वर्तमान में अमेरिका और रूस के पास ही पूर्णतया संचालित नेविगेशन
सेटेलाइट है. यूरोपियन यूनियन (गैलीलियो) और चीन (बेइदोउ) भी इस दिशा में काम कर
रहे हैं. इसके अलावा, जापान और फ्रांस भी अपना नेविगेशन
सेटेलाइट नेटवर्क बनाने में जुटे हैं. माना जा रहा है कि इस सिस्टम के पूर्णतया
संचालित होने पर भारत अन्य देशों को इसकी सुविधा मुहैया करा सकता है और विदेशी
मुद्रा अजिर्त कर सकता है.
इंडियन रीजनल
नेवीगेशन सेटेलाइट सिस्टम
इसरो की
वेबसाइट ‘इसरो डॉट जीओवी डॉट इन’ के मुताबिक, इंडियन रीजनल नेवीगेशन सेटेलाइट
सिस्टम (आइआरएनएसएस) एक स्वतंत्र रीजनल नेवीगेशन सेटेलाइट सिस्टम है. इस सिस्टम को
कुछ इस तरह से डिजाइन किया गया है, ताकि इस सेटेलाइट से भारत की भौगोलिक सीमा और आसपास करीब 1,500 से 2000 किलोमीटर के दायरे में किसी चीज
की वास्तविक स्थिति को जाना जा सकता है.
इस सिस्टम के
तहत विभिन्न संगठनों या विभागों से जुड़े इस्तेमालकर्ताओं को किसी भी मौसम में
एक्यूरेट रीलय टाइम पोजिशन, नेवीगेशन और टाइम (पीएनटी) संबंधी
सेवाएं 24 घंटे मुहैया करायी जायेंगी. हिंद
महासागर के इलाके में 20 मीटर से कम दूरी और भारत के
स्थलीय इलाके में 10 मीटर से भी कम दूरी तक चीजों को
नेवीगेट कर सके गा. यानी यह जो स्थिति बतायेगा, वह वास्तविक स्थिति के महज 10 मीटर के दायरे में होगा.
आइआरएनएसएस
सिस्टम में मुख्य रूप से तीन घटक हैं. इन्हें इस रूप में जाना जाता है-स्पेस
सेगमेंट (कॉन्स्टेलेशन ऑफ सेटेलाइट एंड सिगनल-इन-स्पेस यानी उपग्रहों के समूह और
अंतरिक्ष में सिगनल), ग्राउंड सेगमेंट और
इस्तेमालकर्ताओं का सेगमेंट. आइआरएनएसएस समूह के तहत सात उपग्रह आते हैं. इनमें से
तीन उपग्रहों को जियोस्टेशनरी इक्वेटोरियल ऑरबिट यानी भूमध्यवर्ती कक्षा में
स्थापित किया जायेगा और दो उपग्रहों को जियोसाइक्रोनस ऑरबिट में स्थापित किया
जायेगा. आइआरएनएसएस में ‘एल5’ और एस-बैंड सेंटर फ्रिक्वेंसी के तौर पर दो प्रकार के सिगनलों का
इस्तेमाल किया जाता है. साथ ही 1176.45 मेगाहट्र्ज एल
बैंड सेंटर फ्रिक्वेंसी और 2492.028 मेगाहट्र्ज एस-बैंड फ्रिक्वेंसी है.
एल5 और एस-बैंड दोनों ही में दो डाउनलिंक हैं. सामान्य नागरिक जैसे
इस्तेमालकर्ताओं के लिए यह स्टैंडर्ड पोजिशनिंग सर्विस और खास अधिकृत इस्तेमालकर्ताओं
के लिए रेस्ट्रिक्टिव सर्विस जैसी दो मूलभूत सेवाएं मुहैया कराता है.
सेटेलाइट
नेविगेशन सेंटर
इसरो की परियोजना के एक हिस्से के रूप में 28 मई, 2013 को बंगलुरु के निकट ब्यालालू में
इसरो के डीप स्पेस नेटवर्क (डीएसएन) के कैंपस में सेटेलाइट नेविगेशन सेंटर स्थापित
किया गया था. इसके लिए देशभर में 21 स्थानों पर स्थित रेंजिंग स्टेशनों के नेटवर्क से उपग्रहों की
कक्षा को निर्धारित करने और
नेविगेशन सिगनल की मॉनीटरिंग के लिए आंकड़े मुहैया कराये जायेंगे.
इसके निर्माण में यह कोशिश की गयी है कि वह पूरी तरह से मानकों के
अनुरूप हो. इनमें से पहले दो मॉडल का निर्माण 2012 से पहले ही कर लिया गया था. आइआरएनएसएस सेटेलाइट के प्रमुख घटकों
जैसे स्पेसक्राफ्ट की संरचना, थर्मल कंट्रोल
सिस्टम, प्रोपल्शन सिस्टम, पावर सिस्टम, टेलीमेट्री, ट्रैकिंग एंड कमांड, डेप्लॉयमेंट मेकेनिजम, चेक आउट और इंटेग्रेशन जैसी चीजें के डिजाइन की समीक्षा भी कई वर्ष
पहले ही की जा चुकी है.
आइआरएनएसएस के नेविगेशन सॉफ्टवेयर को इसरो सेटेलाइट सेंटर
में देशी तरीके से विकसित किया गया है. सिगनल चैनल एसपीएस और आरएस डुअल
फ्रिक्वेंसी रिसिवर को भी देश में ही विकसित किया गया है. नेविगेशन पेलोड का
परीक्षण भी किया गया है, जो इसे पूर्ण कार्यसक्षम बनायेगा.
यूरोप का गैलीलियो
गैलीलियो यूरोप का अपना ग्लोबल नेविगेशन सेटेलाइट सिस्टम है. यह
अत्यधिक सटीक, सिविलियन कंट्रोल (नागरिकों के
नियंत्रण में), गारंटीयुक्त ग्लोबल पोजिशनिंग
सेवा मुहैया करायेगा. यूरोपियन स्पेस एजेंसी की अधिकृत वेबसाइट ‘इएसए डॉट आइएनटी’ में बताया गया
है कि अमेरिकी और रूसी ग्लोबल सेटेलाइट नेवीगेशन सिस्टम के तौर पर यह क्रमश:
‘जीपीएस’ और ‘ग्लोनास’ के समकक्ष है.
डुअल फ्रिक्वेंसी स्टैंडर्ड के माध्यम से गैलीलियो रीयल-टाइम
पोजिशनिंग एक्यूरेसी बताने में सक्षम है. चार में से पहले दो ऑपरेशनल सेटेलाइट को
गैलीलियो कॉन्सेप्ट के मुताबिक अंतरिक्ष और धरती पर 21 अक्तूबर, 2011 को स्थापित किया गया. इसके बाद 2012 में दो और सेटेलाइट भेजे गये. गैलीलियो सिस्टम की पूर्ण क्षमता को
विकसित करने के लिए इसमें 30 सेटेलाइट शामिल किये गये हैं.
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