भारत शुरू से ही अपने उत्पादों को सस्ता बनाने में माहिर है।
इसकी मिसाल विश्व की सबसे सस्ती कार नैनो (2600 डालर), सबसे सस्ता टैबलेट आकाश (2500 रुपया) के बाद भारत अब मंगल पर स्पेसक्राफ्ट भेजने में सबसे कम पैसा
खर्च कर इस कड़ी को कायम रखा है। भारत ने हेल्थकेयर और एजूकेशन सहित विविध
क्षेत्रों में सस्ती लागत का नमूना पेश किया है। मार्स मिशन इसी तरह का उदाहरण है।
इससे भारत ने एशिया में अपने को वैश्विक स्तर पर स्पेस के क्षेत्र में हो रही दौड़
में एक बजट प्लेयर के रूप में ऊभरने की कोशिश की है। देश की आर्थिक एवं सामाजिक
जरूरतों को पूरा करने के मकसद से यह मिशन काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। इसरो
द्वारा 5 सितंबर को लांच किए गए मार्स मिशन पर
भारत सरकार को 80
मिलियन डालर का खर्च आया है, जो कि नासा के क्यूरियोसिटी प्रोजेक्ट की 2.5 अरब डालर की तुलना में बेहद कम है। इस सैटेलाइट को मंगलयान
(मार्स व्हीकल) का नाम दिया गया है। इसके डिजाइन को काफी तवज्जो दी गई है।
वैश्विक स्तर पर अब तक 51 मिशन
भेजे गए हैं जिसमें 21 असफल
हुए हैं। जिसमें चीन द्वारा भेजा गया एक सैटेलाइट भी शामिल है। देखने में लाल और
ऊजली पट्टी वाले इस राकेट को साउथ इस्टर्न तट से छोड़ा गया जो अगले साल सितंबर तक
मार्स की कक्षा में स्थापित हो जाएगा। मार्स पर भेजे जाने वाले प्रोब्स में असफल
होने की दर काफी रही है, ऐसे
में इसकी सफलता पर भारत को गर्व होना चाहिए। खासकर तब जब इसी तर्ज पर चीन द्वारा2011 में पृथ्वी की कक्षा के लिए भेजा गया मिशन असफल रहा था। केवल
अमेरिका, यूरोप और रूस अब तक मार्स पर लैंड
कराने में सफल हो सके हैं। इसरो के मुताबिक यात्रा तो अभी शुरू हुई है चुनौतीपूर्ण
समय तो आना बाकी है।
लागत को कैसे किया गया कम
अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में भारत से अमेरिका, रूस और चीन कहीं आगे हैं लेकिन इसके बावजूद भारत ने इतनी कम
लागत में इसे कैसे सफल कर दिखाया है? यह
जानकर सभी को आश्चर्य हो रहा है। मंगलयान को भेजने की लागत को कम रखे जाने के सवाल
पर निस्टैड्स के वैज्ञानिक गौहर रजा ने कहा कि भारत को पहले से लांच किए गए
सैटेलाइट से काफी कुछ सीखने को मिला है। पहले से मौजूद तकनीक को अपनाने के साथ
टेस्ट के लिए कम से कम माडल बनाने पड़े हैं जिसके कारण लागत में काफी कमी आई है।
यूरोपियन और अमेरिकन देशों के मुकाबले इसरो ने अपने बजट को काफी कम रखा था क्योंकि
वह उसे वहन नहीं कर सकता था। सामान्य तौर पर नासा (अमेरिकन स्पेस एजेंसी) और
यूरोपियन स्पेस एजेंसी स्पेसक्राफ्ट के लिए तीन माडल बनाते हैं जिसकी वजह से खर्च
में बढ़ोतरी होती है। यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है कि इसरो ने माडल तो कई
बनाए लेकिन फिजिकल रूप में नहीं बल्कि इसके लिए साफ्टवेयर का सहारा लिया।
स्पेसक्राफ्ट को लांच करने के लिए जरूरी माडल को ही फिजिकल रूप में निर्माण किया
जिससे लागात में काफी कमी आई। जहां तक तकनीकी स्तर पर ध्यान देने की बात है तो
भारत ने इसे ऐसे समय पर लांच किया है जब मंगल भारत की कक्षा के नजदीक हो ताकि ईंधन
की बचत की जा सके। इसके अलावा स्पेसक्राफ्ट को सीधे उडऩे के बजाए 350 टन के वजन वाले राकेट को एक महीने के लिए चक्कर काटने के लिए
जरूरी वेलोसिटी की जरूरत पड़ती है ताकि इसे पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण बल के प्रभाव
से बाहर निकाला जा सके। इसी को ध्यान में रखते हुए भारत फ्रूगल अप्रोच को अपनाता
है, जिससे खतरे की आशंका बढ़ जाती है।
जिसका उदाहरण भारत के कई असफल मिशन रहे हैं। इसरो ने पृथ्वी के इर्द-गिर्द घूमने
के लिए क्राफ्ट को इस तरह से डिजाइन किया है कि वह 6 से 7 बार चक्कर लगा सके, जिससे
मार्स तक पहुंचने के लिए जरूरी मोमेंटम को हासिल किया जा सके। इससे फ्यूल की बचत
की जाती है। इस वजह से भारत को स्पेस में एक ग्राम भेजने के लिए 1000 रूपए की लागत आई जो कि नासा की लागत से करीब दस गुणा कम थी।
भारत की क्यों हो रही है आलोचना
भारत जैसे गरीब देश को इस बात के लिए भी आलोचना का शिकार
होना पड़ रहा है कि जिस देश की एक बड़ी आबादी गरीबी में गुजर-बसर करती है वहां पर
ऐसे मिशन को लांच करना कितना जायज है? भारत
की आलोचना इस बात के लिए भी की जा रही है कि जो देश गरीबी और ऊर्जा की कमी झेलने
के साथ पिछले एक दशक में अर्थव्यवस्था में तेजी से गिरावट दर्ज की गई हो वहां के
लिए यह कितना जरूरी है। भारत हमेशा से यह तर्क देता आया है कि भारत ने जो स्पेश
प्रोग्राम विकसित किए हैं, रोजमर्रा
की जिंदगी में उनकी महत्ता है। हालांकि इस मिशन से जुड़े लोगों का कहना था कि यह
भारत विकास के लक्ष्य के साथ कदम से कदम मिला कर चलने की दिशा में लांच किया गया
एक मिशन है। इसरो का जोर इस बात को लेकर था कि स्पेस रिसर्च का इस्तेमाल कर, कैसे आर्थिक बाधाओं को दूर किया जा सके, ताकि देश में खुशहाली लाई जा सके। भारत जैसे देश के लिए यह
एक लक्जरी नहीं है बल्कि आवश्यकता है क्योंकि सैटेलाइट का इस्तेमाल टेलीविजन
ब्राडकास्टिंग से लेकर मौसम पूर्वानुमान और आपदा प्रबंधन में किया जाता है। इस
मिशन से देश की अर्थव्यवस्था के साथ साइक्लोन के पूर्वानुमान में भी काफी मदद
मिलेगी।
अंतरिक्ष का बाजार
जानकारों के मुताबिक भारत 304 अरब डालर के वैश्विक स्पेस मार्केट पर अपनी सस्ती तकनीक के आधार पर
कब्जा करने में कामयाब हो सकता है। नासा के अपने प्रोब मिशन पर 4.5 अरब डालर खर्च किए थे जो कि इसका एक हिस्सा भर है। इसरो के
मुताबिक भारत का स्पेस एक्सप्लोरेशन बजट केवल इसके कुल बजट का 0.34 फीसदी है जिसका 7 फीसदी
ही प्लैनेटरी एक्सप्लोरेशन के लिए इस्तेमाल में लाया गया है। भारतीय स्पेस
प्रोग्राम के सामने कई चुनौतियां अभी भी मौजूद हैं लेकिन भारत में अभी कंपोनेंट
आयात करने के साथ डीप स्पेस मोनिटरिंग सिस्टम की कमी है। जिसके लिए अमेरिका पर
निर्भर रहना पड़ता है। इसका इस्तेमाल सैटेलाइट को देखने के लिए किया जाता है, जब वह मार्स के नजदीक होता है। यूएस सैटेलाइट इंडस्ट्री
एसोसिएशन के मुताबिक 2012 से
सैटेलाइट इंडस्ट्री का ग्लोबल स्पेस बिजनेस में करीब189.5 अरब डालर दांव पर लगा हुआ है। इसरो की स्पेस की क्षमता को
बड़े स्तर पर देखते हुए अगर सभी चीजें सही तरीके से हुईं तो भारत स्पेस इंडस्ट्री की कुल हिस्सेदारी के एक चौथाई
हिस्से पर अगले एक दशक या दो दशक में कब्जा जमा सकता है। वास्तविकता ऐसी है कि इस
क्षेत्र में कंपीटिशन के साथ काफी संभावनाएं हैं। हालांकि भारत का प्रोग्राम
अधिकतर शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए है लेकिन चीन द्वारा 2007 में एंटी सैटेलाइट मिसाइल टेस्ट के बाद क्षमता विकसित करना
जरूरी है।
इसरो का मार्स मिशन
इसरो द्वारा 5 सितंबर
को लांच किए गए मंगलयान एक साल की यात्रा करने के बाद मार्स कक्षा में स्थापित हो
जाएगा। लांच होने के बाद इस मुद्दे पर इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गेनाइजेश के जन
संपर्क अधिकारी देवी प्रसाद कार्णिक ने बताया कि लागत को कम करने के कई स्तर पर
काम किए गए हैं। कैसे प्रभावी बनाया जाए। अमेरिका किसी भी मिशन को उपयुक्त बनाने
पर जोर देता है जबकि रूस का फोकस इसे प्रभावी बनाने पर टिका रहता है।
कार्णिक के मुताबिक मोड्यूलर अप्रोच को अपनाया गया। भारत ने
विकास इंजन के लिए तकनीक फ्रेंच सरकार के साथ मिलकर 1970 में हासिल किया था। इसमें किसी तरह का कोई पैसे का लेन-देन
नहीं हुआ था। उस समय से लेकर अभी तक 120 ऐसे
इंजन बनाए जा चुके हंै। हमारे यहां हर नई लांच के लिए पुराने लांच पैड का इस्तेमाल
पहले से सफल रहे तकनीक को नए इंजन की जरूरत के मुताबिक बदलाव कर उपयोग में लाया
जाता है।
इसी तरह का मोड्यूलर अप्रोच मार्स मिशन के लिए भी इस्तेमाल
में लाया गया ताकि लागत में कमी के साथ तय समय पर लांच को अंजाम दिया जा सके। इसके
अलावा किसी खास मिशन के लिए बार बार परीक्षण रकरने में समय की बर्बादी के साथ पैसा
भी काफी खर्च होता है। इस वजह से परीक्षण की संख्या को कम करने के साथ सबसे बेहतर
परीक्षण को लांच के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है। मंगलयान को पृथ्वी की कक्षा से
भेजने के लिए जरूरी ईंधन मंल कमी लाने के लिए दो बातों पर अधिक ध्यान दिया जाता
है। इसके साथ ही लांच का प्लान ऐसे किया जाता है ताकि किसी भी स्थिति में उसका
लांच प्रभावित नहीं हो। इससे परीक्षण के लंबा खिंचने के बावजूद भी लागत में
बढ़ोतरी नहीं होती थी। इस मिशन को पूरा करने के लिए प्रधानमंत्री की घोषणा से 15 महीने के भीतर पूरा किया गया।
ये हैं भारत के सपूत जिन्होंने किया मंगल
फतह
सफल मंगल अभियान से भारत ने पूरी दुनिया में एक अलग
मुकाम हासिल कर लिया है. इतना ही नहीं भारत ने सबसे कम कीमत पर यह सफलता हासिल की
है. इस पूरे अभियान में लगभग 450 करोड़
रुपये खर्च हुए. जबकि अमेरिका में अंतरिक्ष पर बनी एक फिल्म ग्रेविटी में
इससे ज्यादा पैसे खर्च हुए थे. अमेरिका ने मंगलअभियान में भारत से 10 गुणा ज्यादा पैसा खर्च किया था. अमेरिका, रुस व जापान के बाद भारत मंगलअभियान में सफलता पाने वाला
चौथा देश बन गया और हमने अपने प्रतियोगी चीन को पीछे छोड़ दिया है. भारत को यह
गौरव दिलाने में कई वैज्ञानिकों का अहम योगदान है.
मंगल अभियान में भारत ने एक ही बार में सफलता हासिल कर ली. 67 करोड़ किलोमीटर का यह सफर इतना आसान नहीं था. इस सफर को तय करने में कई दिग्गजों ने पूरी मेहनत की है. इससे पहले चीन का पहला मंगल अभियान, यंगहाउ-1, 2011 में असफल रहा. 1998 में जापान का पहला मंगल अभियान ईधन खत्म हो जाने के कारण असफल हुआ था. वर्ष 1960 से लेकर अभी तक दुनिया भर में मंगल पर 51 अभियान भेजे गए और इनकी सफलता की दर 24 प्रतिशत रही है. इसलिए भारत के इस अभियान पर ज्यादा दबाव रहा. आइये हम जानते है उन वैज्ञानिकों के विषय में जिन्होंने इस अभियान को सफल बनाया.
मंगल अभियान में भारत ने एक ही बार में सफलता हासिल कर ली. 67 करोड़ किलोमीटर का यह सफर इतना आसान नहीं था. इस सफर को तय करने में कई दिग्गजों ने पूरी मेहनत की है. इससे पहले चीन का पहला मंगल अभियान, यंगहाउ-1, 2011 में असफल रहा. 1998 में जापान का पहला मंगल अभियान ईधन खत्म हो जाने के कारण असफल हुआ था. वर्ष 1960 से लेकर अभी तक दुनिया भर में मंगल पर 51 अभियान भेजे गए और इनकी सफलता की दर 24 प्रतिशत रही है. इसलिए भारत के इस अभियान पर ज्यादा दबाव रहा. आइये हम जानते है उन वैज्ञानिकों के विषय में जिन्होंने इस अभियान को सफल बनाया.
इसरो के अध्यक्ष डॉ. के. राधाकृष्णन
जब क्रिकेट की टीम जीत का परचम लहराती है, तो इसका श्रेय कप्तान को जाता है. ठीक इसी तरह मंगल
अभियान की सफलता का बड़ा हिस्सा इसरो के अघ्यक्ष डॉ.के. राधाकृष्णन को जाता है.
राधाकृष्णन कहते हैं, 'हम
किसी से मुक़ाबला नहीं कर रहे हैं, बल्कि
अपनी क्षमता को उच्च स्तर पर ले जाने की कोशिश कर रहे हैं.' अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी, उपयोग और अंतरिक्ष कार्यक्रम प्रबंधन में 40 वर्षों से भी अधिक विस्तृत उनका कैरियर कई
उपलब्धियों से भरा पड़ा है.
डॉ. के. राधाकृष्णन का जन्म 29 अगस्त 1949 को
इरिन्जालाकुडा,
केरल में हुआ. 1970 में केरल विश्वविद्यालय से
इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की, आईआईएम बेंगलूर में पीजीडीएम पूरा किया 1976 और आईआईटी, खड़गपुर से अपने "भारतीय भू-प्रेक्षण प्रणाली के
लिए कुछ सामरिक नीतियाँ" शीर्षक वाले शोध प्रबंध पर डॉक्टरेट की उपाधि हासिल
की. 1971 में इसरो के विक्रम साराभाई
अंतरिक्ष केंद्र,
तिरुवनंतपुरम में एक
इंजीनियर के रूप में इन्होंने अपने कॅरियर की शुरूआत की और आज इसरो के अध्यक्ष पद
पर हैं.
सुब्बा अरुणन प्रोजेक्ट डायरेक्टर
मंगल अभियान में सुब्बा अरुणन की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण
रही है. 24 मिनट का वक्त जिस पर मंगलअभियान
की सफलता टिकी थी. उस पर विशेष नजर रखे हुए थे. सुब्बा अरुणन का जन्म तमिलनाडु के
तिरुनेलवेली में हुआ. इन्होंने अपने करियर की शुरुआत विक्रम साराभाई स्पेश सेंटर
से 1984 में शुरु किया. इन्हें 2013 में मंगल अभियान के लिए प्रोजेक्ट
डायरेक्टर की भूमिका दी गयी. यह एक मेकेनिकल इंजीनियर हैं.
ए. एस किरण कुमार, स्पेस
एप्लीकेशन सेंटर
मंगल अभियान की सफलता में अलूर सिलेन किरण कुमार की
महत्वपूर्ण भूमिका है. उन्होंने भौतिकी विज्ञान में नेशनल कॉलेज बेंगलूर से 1971 में डिग्री हासिल की. इसके बाद
उन्होंने 1973
इलेक्ट्रोनिक में
मास्टर डिग्री हासिल की और 1975 में
एम टेक डिग्री हासिल की. 1975 में
ही उन्होंने इसरो के साथ काम करना शुरु किया.
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