Friday 7 September 2012

इंजीनियरिंग की ढाई लाख सीटें खाली क्यों

शशांक द्विवेदी ॥ 
नवभारतटाइम्स में 07/09/12 को प्रकाशित
देश में इंजीनियरिंग का नया सत्र शुरू हो चुका है। इस सत्र में भी सभी राज्यों में बड़े पैमाने पर सीटें खाली रह गई है । इस बार पूरे देश में लगभग साढ़े तीन लाख से ज्यादा सीटें खाली रहीं। राजस्थान में तो 50 प्रतिशत से ज्यादा, लगभग 35 हजार सीटें खाली रह गईं । यही हाल उत्तर प्रदेश और आंध्र प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में भी है। पिछले इंजीनियरिंग सत्र में पूरे देश में ढाई लाख से ज्यादा सीटें खाली रह गई थीं। हालात ऐसे हो गए हंै कि पिछले दिनों देश के चौदह राज्यों से 143 तकनीकी शिक्षण संस्थानों को एआईसीटीई से अपने पाठ्यक्त्रम बंद करने की इजाजत मांगनी पड़ी। सीटें न भर पाने से देश के कई कॉलेजों में जीरो सेशन का खतरा पैदा हो गया है। कुछ साल पहले तक निजी तकनीकी शिक्षण संस्थान खोलने होड़ थी लेकिन अब इन्हें बंद करने की इजाजत मांगने वालों की लाइन लगी हुई है। अकेले आंध्र प्रदेश से ही 56 संस्थानों ने अपने पाठ्यक्रम बंद करने की इजाजत मांगी है।
बेकारी की मार
भारत में तकनीकी शिक्षा के हालात साल दर साल खराब होते जा रहे हैं। तकनीकी शिक्षा की यह स्थिति सीधे देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करेगी। इस बात पर राष्ट्रीय स्तर पर विचार-विमर्श किया जाना चाहिए कि लोगों का रुझान इंजीनियरिंग में कम क्यों हो रहा है और इतनी सीटें खाली क्यों छूट रही हैं। इंजीनियरिंग के दाखिलों में आ रही गिरावट के पीछे कुछ कारण पहली नजर में भी देखे जा सकते हैं। अपनी तकनीकी शिक्षा को हमने विस्तार तो दिया है, पर उसे व्यवहारिक और रोजगारपरक नहीं बना पाए हैं। ज्यादातर अभिभावक इंजीनियरिंग में अपने बच्चों का दाखिला इसलिए कराते हंै कि उनको डिग्री के बाद नौकरी मिले। छात्र भी इंजीनियर बनने के लिए नहीं, नौकरी पाने के लिए इंजीनियरिंग पढ़ते हैं। नौकरी की गारंटी पर ही लोगों का रुझान इस तरफ बना था लेकिन आज इंजीनियरिंग स्नातकों की एक पूरी फौज बेकार खड़ी है। लोगों में यह आम धारणा बन रही है कि जब बेरोजगार ही रहना है तो इतने पैसे खर्च करके इंजीनियरिंग क्यों करें। अधिकांश इंजीनियरिंग कालेजों में डिग्री के बाद प्लेसमेंट की गारंटी न होना मोहभंग का प्रमुख कारण है।
मंदी में भारी फीस
आर्थिक मंदी का भी प्रभाव इंजीनियरिंग के दाखिले पर पड़ा है। मंदी की वजह से बाजार में लिक्विड मनी कम हो रही है। जो अभिभावक पहले आराम से इंजीनियरिंग की फीस भर देते थे, वे अब ऐसा नहीं कर पा रहे हंै। मय के साथ इंजीनियरिंग की फीस भी पिछले पांच सालों में देश के कई हिस्सों में दो से तीन गुना तक बढ़ गई। उत्तर प्रदेश में 2001 से 2005 तक बी. टेक. की फीस 20 हजार रुपये सालाना थी, जो अभी लगभग एक लाख रुपये सालाना हो गई है। फीस वृद्धि और आर्थिक मंदी के साथ-साथ इस स्थिति के लिए कुछ हद तक कालेजों के संचालक भी जिम्मेदार हैं, जिन्होंने गुणवत्ता की ओर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया और इंजीनियरिंग कालेज खोलने को एक कमाऊ उपक्रम का हिस्सा मान लिया। अधिकांश निजी तकनीकी शिक्षा संस्थान बड़े व्यापारिक घरानों, नेताओं और ठेकेदारों के व्यापार का हिस्सा बन गए। वे इसके जरिए सिर्फ रुपया बनाना चाहते हैं। गुणवत्ता और छात्रों के प्रति जवाबदेही उनकी प्राथमिकता में नहीं है। इंजीनियरिंग के क्षेत्र में रुझान इसके चलते भी नकारात्मक हुआ है । 
इंजीनियरिंग स्नातकों में बेरोजगारी बढ़ने की मुख्य वजह इंडस्ट्री और इंस्टीट्यूट्स के बीच दूरी बढ़ना है। पिछले दिनों आईटी दिग्गज नारायणमूर्ति ने कहा था कि सूचना प्रौद्योगिकी इंडस्ट्री को प्रशिक्षित इंजिनियर नहीं मिलते। कॉलेज इंडस्ट्री की जरूरतों के हिसाब से इंजीनियर पैदा नहीं कर पा रहे हैं , जबकि इंडस्ट्रीज में कुशल मानव संसाधन की कमी है। देश के 13 राज्यों के 198 इंजीनियरिंग कॉलेजों में फाइनल ईयर के 34 हजार विद्यार्थियों पर हुए एक हालिया सर्वेक्षण के मुताबिक देश के सिर्फ 12 फीसदी इंजीनियर नौकरी करने के काबिल हैं। इस सर्वे ने भारत में उच्च शिक्षा की शर्मनाक तस्वीर पेश की है। यह आंकड़ा चिंता बढ़ाने वाला भी है , क्योंकि स्थिति सुधरने के बजाय दिनोंदिन खराब ही होती जा रही है ।
दरअसल , इंडस्ट्री की जरूरत और छात्रों के ज्ञान में कोई तालमेल ही नहीं है। इसकी मुख्य वजह यह है कि आज भी हमारे शैक्षिक कोर्स 20 साल पुराने हैं। पाठ्यक्रमों में सालोंसाल कोई बदलाव न होना उच्च शिक्षा की एक बड़ी कमी है। खासतौर पर इंजीनियरिंग में , क्योंकि इस क्षेत्र में नई - नई तकनीकें विकसित होती हैं। यही वजह है कि इंडस्ट्री के हिसाब से छात्रों को अपडेटेड थ्योरी नहीं मिल पाती। अभी छात्रों का सारा ध्यान थ्योरी रटकर परीक्षा पास करने पर होता है। घिसे - पिटे कोर्स से जो शिक्षा दी जाती है , उससे तैयार होने वाले ग्रेजुएट हर दिन बदलती तकनीकी दुनिया से तालमेल नहीं बिठा पाते। ऐसे में उन्हें डिग्री के बाद तुरंत जॉब मिलने की उम्मीद बहुत कम होती है।
सिर्फ आईआईटी की चिंता
चार साल इंजीनियरिंग करने के बाद उन्हें फिर अपना नॉलेज अपडेट करने के लिए विभिन्न प्रशिक्षण कोर्सेस में दाखिला लेना पड़ता है। तब जाकर उन्हें कंपनियों में एक प्रशिक्षु ( ट्रेनी ) के रूप में नौकरी मिल पाती है। दुर्भाग्य से देश में आम तकनीकी शिक्षा का स्तर सुधारने की कोई पहल भी नहीं हो रही है। इंजीनियरिंग कॉलेजों में इतने बड़े पैमाने पर सीटें खाली रहना बहुत बड़ा मामला है। अगर समय रहते इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो देश को इसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे। सरकार का सारा ध्यान आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों पर रहता है जबकि देश के विकास में निजी इंजीनियरिंग कालेजों का योगदान कहीं ज्यादा है। 95 प्रतिशत इंजीनियर यही कॉलेज पैदा करते है। अगर इनकी दशा खराब होगी तो इसका असर पूरे देश पर पड़ ेगा । 
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