सुबह का नाश्ता हो या फिर रात का भोजन, सेहत और तंदुरस्ती की गारंटी है गर्मागरम दूध का एक
गिलास। आप सोचते हैं दूध का एक गिलास गटक लिया तो मानो सेहत का खजाना मिल गया
लेकिन वैज्ञानिकों के ताजा अध्ययन में सफेद दूध का जो काला सचसामने आया है उसे जानकर आप हैरान रह जाएंगे।
अब अगर दूध में मिलावट कुदरती तौर पर होने लगे तो आप क्या करेंगे? चौंकिए नहीं, दूध में शरीर के लिए जरूरी प्रोटीन, विटामिन और फैट्स ही नहीं बल्कि दूध में एंटीबॉयोटिक, दर्दनिवारक, हॉरमोन और इसी तरह की कई दवाइयों का भी घुसपैठ हो चुकी है जो इंसान और जानवरों की गंभीर बीमारियों के इलाज में इस्तेमाल होता है।
अब अगर दूध में मिलावट कुदरती तौर पर होने लगे तो आप क्या करेंगे? चौंकिए नहीं, दूध में शरीर के लिए जरूरी प्रोटीन, विटामिन और फैट्स ही नहीं बल्कि दूध में एंटीबॉयोटिक, दर्दनिवारक, हॉरमोन और इसी तरह की कई दवाइयों का भी घुसपैठ हो चुकी है जो इंसान और जानवरों की गंभीर बीमारियों के इलाज में इस्तेमाल होता है।
स्पेन और मोरक्को के वैज्ञानिकों ने एक अतिसंवेदनशील जांच में पाया कि एक गिलास दूध में
नाइफ्लूमिक एसिड, मेफेनामिक एसिड, किटोप्रोफेन, डाय़क्लोफेनाक, फेनिलबुटाजोन जैसे दर्दनिवारक दवाइयां, फ्लोरफेनिकॉल जैसी एंटीबॉयोटिक दवाई और एस्ट्रोजन, एस्ट्राडायल, एथिनायलएस्ट्राडायल जैसे हॉरमोन भी मौजूद हैं।
दूध में नैपरोक्सेन, फ्लूनिक्सिन, डायक्लोफेनाक जैसी ताकतवर दर्दनिवारक दवाइयां भी मिली, जिनका इस्तेमाल इंसान और जानवरों में हड्डी की गंभीर बीमारियों में होता है। दूध में पायरीमेथामाइन जैसी एंटी मलेरिया ड्रग और ट्रायक्लोसान जैसी एंटी फंगल ड्रगकी भी घुसपैठ हो चुकी है। हालांकि जांच में पता चला है कि दूध में इन दवाओं की मात्रा बेहद कम है और इसका असर इंसान पर नहीं होता लेकिन लंबे समय तक दूध पीने सेइसके गंभीर नतीजे हो सकते हैं।
नाइफ्लूमिक एसिड से अल्सर, सांस की बीमारी, खून की कमी हो सकती है तो मेफेनामिक एसिड सिरदर्द, डायरिया, गैस्ट्रोइंटेस्टाइन बीमारियों का कारण बन सकता है। किटोप्रोफेन से अल्सर, किडनी की बीमारी, डाय़क्लोफेनाक से दिल और लिवर की बीमारी हो सकती है। फेनिलबुटाजोन से अल्सर, किडनी की बीमारी हो सकती है तो फ्लोरफेनिकॉल जैसी एंटीबॉयोटिक दवाई डायरिया पैदा कर सकती है।
एस्ट्रोजन से अल्सर, दिल की बीमारी तो एस्ट्राडायल से हड्डी और लिवर की बीमारी हो सकती है। एथिनायलएस्ट्राडायल जैसे हॉरमोन से दिल और त्वचा की बीमारी हो सकती है। नैपरोक्सेन, फ्लूनिक्सिन, डायक्लोफेनाक जैसी दर्दनिवारक दवाइयों से अल्सर और दर्द की बीमारियां हो सकती हैं तो पायरीमेथामाइन जैसी एंटी मलेरिया ड्रग ब्लड कैंसर और ट्रायक्लोसान जैसी एंटी फंगल ड्रग से एलर्जी हो सकती है।
खतरा इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि जांच में गाय के दूध में सबसे ज्यादा इन दवाओं कीमात्रा पाई गई। वैज्ञानिकों का मानना है कि अब इंसान के बनाए केमिकल और दवाइयां,खाने की हर चीज में पहुंच गए हैं और इसलिए इनके असर की जांच बेहद जरूरी हो गई हैं।
अब सवाल यह सामने आता है कि गाय, बकरियों के दूध में गंभीर बीमारियों का इलाज करने वाली दवाइयां कहां से आईं। इस सवाल के जवाब में छुपा है वो खतरनाक सचाई जोधरती के हर जीव के लिए खतरा बन गई है। दरअसल इंसान के बनाए रसायन और दवाइयां, धरती की आबोहवा में जहर की तरह घुल गई हैं जिसका खतरनाक असर लगातार दिख रहा है।
मामला बेहद चौंकाने वाला है, लेकिन यही हकीकत है। इंसानों की बनाई केमिकल और दवाइयां धीरे धीरे धरती की पूरी आबोहवा में जहर की तरह घुलती जा रही है और इसके बेहद खतरनाक नतीजे सामने आ रहे हैं। इंग्लैंड के पोर्ट्समाउथ तट पर नर मछलियांअचानक अंडे देने लगी। मछलियों में आय़ा ये परिवर्तन हैरान करने वाला था। वहीं भारत और दक्षिण अफ्रीका में गिद्ध की आबादी में आई कमी भी आबोहवा में घुलती दवाओं का ही नतीजा है। नर मछलियों के अंडे देने का कारण कंट्रासेप्टिव पिल के वो हॉरमोन हैं जो समुद्र में पाए गए।
वहीं घोड़ों के लिए बनी दर्दनिवारक दवा डायक्लोफेनाक गिद्ध की मौत का कारण बन रहीं क्योंकि मरे हुए घोड़ों को खाने के बाद गिद्ध भी बेमौत मर रहे। दरअसल जांच मे पता चला है कि दवाइयां और रसायन धरती के फूड चेन में मिलकर खाने की हर चीज तक पहुंच चुके हैं। इन दवाओं का अंश घर के सीवर से होते हुए नदी और समुद्र तक पहुंच रहा। पानी में पहुंच कर ये दवाइंया फिर खेतों और अनाजों तक पहुंचती है और इस तरह एक श्रंखला बन जाती है।
यानी बीमारियां दूर करने वाली दवाएं ही बीमारी और मौत बांट रही और ये सिलसिला हरदिन तेज होता जा रहाहै।
दूध में नैपरोक्सेन, फ्लूनिक्सिन, डायक्लोफेनाक जैसी ताकतवर दर्दनिवारक दवाइयां भी मिली, जिनका इस्तेमाल इंसान और जानवरों में हड्डी की गंभीर बीमारियों में होता है। दूध में पायरीमेथामाइन जैसी एंटी मलेरिया ड्रग और ट्रायक्लोसान जैसी एंटी फंगल ड्रगकी भी घुसपैठ हो चुकी है। हालांकि जांच में पता चला है कि दूध में इन दवाओं की मात्रा बेहद कम है और इसका असर इंसान पर नहीं होता लेकिन लंबे समय तक दूध पीने सेइसके गंभीर नतीजे हो सकते हैं।
नाइफ्लूमिक एसिड से अल्सर, सांस की बीमारी, खून की कमी हो सकती है तो मेफेनामिक एसिड सिरदर्द, डायरिया, गैस्ट्रोइंटेस्टाइन बीमारियों का कारण बन सकता है। किटोप्रोफेन से अल्सर, किडनी की बीमारी, डाय़क्लोफेनाक से दिल और लिवर की बीमारी हो सकती है। फेनिलबुटाजोन से अल्सर, किडनी की बीमारी हो सकती है तो फ्लोरफेनिकॉल जैसी एंटीबॉयोटिक दवाई डायरिया पैदा कर सकती है।
एस्ट्रोजन से अल्सर, दिल की बीमारी तो एस्ट्राडायल से हड्डी और लिवर की बीमारी हो सकती है। एथिनायलएस्ट्राडायल जैसे हॉरमोन से दिल और त्वचा की बीमारी हो सकती है। नैपरोक्सेन, फ्लूनिक्सिन, डायक्लोफेनाक जैसी दर्दनिवारक दवाइयों से अल्सर और दर्द की बीमारियां हो सकती हैं तो पायरीमेथामाइन जैसी एंटी मलेरिया ड्रग ब्लड कैंसर और ट्रायक्लोसान जैसी एंटी फंगल ड्रग से एलर्जी हो सकती है।
खतरा इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि जांच में गाय के दूध में सबसे ज्यादा इन दवाओं कीमात्रा पाई गई। वैज्ञानिकों का मानना है कि अब इंसान के बनाए केमिकल और दवाइयां,खाने की हर चीज में पहुंच गए हैं और इसलिए इनके असर की जांच बेहद जरूरी हो गई हैं।
अब सवाल यह सामने आता है कि गाय, बकरियों के दूध में गंभीर बीमारियों का इलाज करने वाली दवाइयां कहां से आईं। इस सवाल के जवाब में छुपा है वो खतरनाक सचाई जोधरती के हर जीव के लिए खतरा बन गई है। दरअसल इंसान के बनाए रसायन और दवाइयां, धरती की आबोहवा में जहर की तरह घुल गई हैं जिसका खतरनाक असर लगातार दिख रहा है।
मामला बेहद चौंकाने वाला है, लेकिन यही हकीकत है। इंसानों की बनाई केमिकल और दवाइयां धीरे धीरे धरती की पूरी आबोहवा में जहर की तरह घुलती जा रही है और इसके बेहद खतरनाक नतीजे सामने आ रहे हैं। इंग्लैंड के पोर्ट्समाउथ तट पर नर मछलियांअचानक अंडे देने लगी। मछलियों में आय़ा ये परिवर्तन हैरान करने वाला था। वहीं भारत और दक्षिण अफ्रीका में गिद्ध की आबादी में आई कमी भी आबोहवा में घुलती दवाओं का ही नतीजा है। नर मछलियों के अंडे देने का कारण कंट्रासेप्टिव पिल के वो हॉरमोन हैं जो समुद्र में पाए गए।
वहीं घोड़ों के लिए बनी दर्दनिवारक दवा डायक्लोफेनाक गिद्ध की मौत का कारण बन रहीं क्योंकि मरे हुए घोड़ों को खाने के बाद गिद्ध भी बेमौत मर रहे। दरअसल जांच मे पता चला है कि दवाइयां और रसायन धरती के फूड चेन में मिलकर खाने की हर चीज तक पहुंच चुके हैं। इन दवाओं का अंश घर के सीवर से होते हुए नदी और समुद्र तक पहुंच रहा। पानी में पहुंच कर ये दवाइंया फिर खेतों और अनाजों तक पहुंचती है और इस तरह एक श्रंखला बन जाती है।
यानी बीमारियां दूर करने वाली दवाएं ही बीमारी और मौत बांट रही और ये सिलसिला हरदिन तेज होता जा रहाहै।
नीदरलैंड में एम्सर्टडम विश्विद्यालय के
शोधकर्ताओं का कहना है कि अगर दुधारू पशु से ज्यादा
दूध लेने के लिए उसे 'ऑक्सीटोसिन' का इंजेक्शन दिया जाए तो उस दूध का सेवन करनेवाले में कई विकार पैदा हो सकते हैं। शोध के
मुताबिक़ इस तरह के दूध के सेवन से अपने समुदाय और जाति को दूसरे से
श्रेष्ठ समझने का भाव बलवती होता है।
ये शोध हाल में अमरीकन एसोसिएशन ऑफ़ एडवांसमेंट ऑफ़
साइंस की पत्रिका 'प्रोसीडिंग्स नेशनल अकेडमी ऑफ़
साइंस' में प्रकाशित हुआ है। यह
उल्लेखनीय है किभारत में कई स्थानों पर दूध विक्रेता और पशुपालक अपने मवेशियों में दूध का उत्पादन बढ़ाने के लिए
नियमित तौर पर ऑक्सीटोसिन इंजेक्शन का इस्तेमाल करते हैं।
जोधुपर स्थित जेएनवी विश्विद्यालय में वनस्पति विज्ञान के प्रमुख प्रोफ़ेसर नरपत शेखावत कहते है कि भारत में ऐसी दवाइयों पर लगाई गई रोक को सख्ती से पालन किया जाए क्योंकि हम एक जाति समुदायों वाले विविधपूर्ण समाज का हिस्सा हैं। नरपत शेखावत कहते हैं, ''मुझे लगता है हाल के वर्षो में जातीय विवाद और द्वंद जिस स्तर पर उभरा है उसमें इस तरह के दूध के इस्तेमाल ने मदद की होगी इस बात से पूरी तरह से इनकार नहीं किया जा सकता है.''
अब तक ऑक्सीटोसिन को ऐसा रसायन माना जाता था जो जानवरों में अपने बछड़े के प्रति प्रेम का भाव का पैदा करता है जिससे उसे ज़्यादा दूध उतरता था। लेकिन अब शोधकर्ताओं ने एक नई बात पाई है कि जहाँ ये अपने समुदाय के भीतर एक दूसरे के प्रति प्रेम और विश्वास को बढ़ावा देता है वहीं दूसरे समुदायों और जातियों के प्रति अविश्वास का भाव का निर्माण करता है।
जोधुपर स्थित जेएनवी विश्विद्यालय में वनस्पति विज्ञान के प्रमुख प्रोफ़ेसर नरपत शेखावत कहते है कि भारत में ऐसी दवाइयों पर लगाई गई रोक को सख्ती से पालन किया जाए क्योंकि हम एक जाति समुदायों वाले विविधपूर्ण समाज का हिस्सा हैं। नरपत शेखावत कहते हैं, ''मुझे लगता है हाल के वर्षो में जातीय विवाद और द्वंद जिस स्तर पर उभरा है उसमें इस तरह के दूध के इस्तेमाल ने मदद की होगी इस बात से पूरी तरह से इनकार नहीं किया जा सकता है.''
अब तक ऑक्सीटोसिन को ऐसा रसायन माना जाता था जो जानवरों में अपने बछड़े के प्रति प्रेम का भाव का पैदा करता है जिससे उसे ज़्यादा दूध उतरता था। लेकिन अब शोधकर्ताओं ने एक नई बात पाई है कि जहाँ ये अपने समुदाय के भीतर एक दूसरे के प्रति प्रेम और विश्वास को बढ़ावा देता है वहीं दूसरे समुदायों और जातियों के प्रति अविश्वास का भाव का निर्माण करता है।
शोध के अनुसार दूसरे समुदायों के प्रति पूर्वाग्रह की धारणा उत्पन्न होने से जातीय झगडे़ बढ़ सकते हैं।
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