चंद्रभूषण
सैटेलाइट कम्युनिकेशन की एक नई दुनिया बननी शुरू हुई है। 23 अक्टूबर 2022, दिन रविवार को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने ब्रिटिश कंपनी वनवेब के लिए 36 कृत्रिम उपग्रह निर्धारित कक्षाओं में बड़ी कुशलता से स्थापित करके हमारे खित्ते में इस दुनिया की नींव रख दी है। वनवेब भारतीय कंपनी नहीं है लेकिन भारतीय उद्योगपति सुनील भारती मित्तल इसके चेयरमैन हैं और कंपनी में उनके शेयर भी सबसे ज्यादा हैं। उनका कहना है कि 2023 के मध्य से वनवेब अपने सैटेलाइट नेटवर्क के जरिये उन जगहों पर भी ब्रॉडबैंड इंटरनेट और सैटेलाइट कम्युनिकेशन की व्यवस्था करने लगेगी, जहां फिलहाल कोई भी लैंडलाइन या मोबाइल नेटवर्क उपलब्ध नहीं है। पहली नजर में यह कोई बड़ी बात नहीं लगती, लेकिन यह खेल यकीनन बहुत बड़ा है।
इंटरनेट समेत दूरसंचार की पूरी व्यवस्था अभी घर-घर पहुंचने वाले तार या दांव देखकर कहीं भी लगा दी गई सेल टावरों पर निर्भर करती है। ग्लोबल पैमाने पर इस काम के लिए समुद्र में केबल डाले जाते हैं। इसमें सैटेलाइटों की भूमिका आज भी काफी बड़ी होती है लेकिन इसके साथ दो मुश्किलें जुड़ी हैं। एक तो सूचनाओं की अपलोडिंग और डाउनलोडिंग बड़े स्तर का काम है और इसकी रफ्तार कम है, दूसरे इस काम में थोड़ा वक्त लग जाता है। बीच में कोरोना लॉकडाउन के वक्त जूम क्लास के हल्ले में बच्चों को जितनी समस्याओं का सामना करना पड़ा, सबको ठीक से ध्यान में रखा जाए, खासकर गांवों और कस्बों के बच्चों की समस्याओं को, तब सैटेलाइट कम्युनिकेशन के मायने बेहतर समझ में आएंगे।
इसरो का मुकाम
दुर्गम से दुर्गम जगह में भी बिना किसी व्यवधान के 4जी स्पीड पर डेटा सप्लाई। इससे आगे बात इंटरनेट पर टीवी प्रसारण और चीजों के इंटरनेट (आईओटी) तक जाएगी, लेकिन बाद में। इसरो की उपलब्धि पर वापस लौटें तो भारत के ताकतवर रॉकेट जीएसएलवी मार्क-3 की यह पहली कमर्शियल उड़ान थी। ध्यान रहे, छोटे उपग्रह छोड़ने के मामले में पहले भी इसरो को दुनिया के एक पावरहाउस जैसा दर्जा हासिल रहा है। इस लाइन में साढ़े छह हजार करोड़ से ज्यादा का इंटरनेशनल कारोबार वह कोरोना की बंदिशें शुरू होने से पहले कर चुका था। लेकिन यह सारी की सारी लांचिंग भारत के छोटे रॉकेट पीएसएलवी (पोलर सैटेलाइट लांच वीइकल) के जरिये की गई थी, जो दो टन तक वजनी चीज को मध्यम ऊंचाई वाली कक्षा तक पहुंचा सकता है।
पीएसएलवी की ख्याति इस मामले में सबसे सस्ती और सुरक्षित सवारी की बनी हुई है। लेकिन भारी रॉकेट जीएसएलवी (जियो स्टेशनरी सैटेलाइट लांच वीइकल) लंबे समय से इसरो के लिए एक समस्या बना हुआ था और बार-बार की विफलताओं से एक समय लगने लगा था कि रूस का साथ लिए बगैर इस क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की कोशिश कहीं पैसे की बर्बादी तो नहीं है। पिछले चार-पांच वर्षों में जीएसएलवी की महारत यकीनन बड़ी बात है। कुछ फर्क पीएसएलवी और जीएसलएवी की बुनियादी तकनीक में भी है, लेकिन उनकी ताकत में लगभग पांच गुने का अंतर है।
धरती की नजदीकी- एक हजार किलोमीटर तक ऊंचाई वाली- कक्षाओं में जीएसएलवी 10 टन तक वजनी चीज पहुंचा सकता है और जियो स्टेशनरी यानी लगभग 30 हजार किलोमीटर ऊंची कक्षाओं में चार टन वजन का उपग्रह स्थापित कर सकता है। यह चीज इसरो की छवि दुनिया की सैटेलाइट लांचिंग इंडस्ट्री के एक बड़े खिलाड़ी जैसी बनाने के लिए काफी होनी चाहिए। वनवेब के साथ उसका 36-36 सैटेलाइटों की दो लांचिंग का कॉन्ट्रैक्ट एक हजार करोड़ रुपये से थोड़ा ज्यादा रकम में हुआ पड़ा है। एक अभी, एक अगले साल। यह संयोग रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते हाथ लगा।
रूस की खाली जगह
रूसी अंतरिक्ष एजेंसी रोसकोसमोस ने यूरोपीय देशों के लिए सैटेलाइट लांचिंग से मना कर दिया। नतीजा यह कि, वनवेब के 36 सैटेलाइट रोसकोसमोस के पास ही जब्ती जैसी हालत में पड़े हैं। इसका अगला कदम यह है कि रूस ने कमर्शल सैटेलाइट लांचिंग के बाजार से खुद को अलग ही रखने का फैसला किया है। उसके एक आधिकारिक बयान में कहा गया कि सैटेलाइट कम्युनिकेशन पर लगने जा रही कुल पूंजी का चार फीसदी बजट ही उपग्रहों की लांचिंग पर खर्च होना है, लिहाजा उसे ज्यादा फायदे का धंधा उपग्रह छोड़ने के बजाय उपग्रह बनाने का लग रहा है।
इस तरह दुनिया में सबसे प्रतिष्ठित रूस के सोयुज रॉकेटों के कमर्शल लांचिंग की होड़ से बाहर हो जाने के बाद भारत के जीएसएलवी के लिए मौके काफी बढ़ गए हैं। इससे जुड़ा कोई भी संदेह, कोई भी दुविधा जड़ से मिटा देने के लिए जीएसएलवी मार्क-3 का नाम बदलकर एलवीएम-3 (लांच वीइकल मार्क-3) कर दिया गया है। इस रॉकेट को एक बार छोड़ने का खर्चा 500 करोड़ रुपया है, यानी अभी इसका कारोबार ‘नो प्रॉफिट नो लॉस’ की स्थिति में है। इससे जुड़े पूंजी खर्च को भी लागत में शामिल कर लें तो वह करीब दस हजार करोड़ रुपया बैठता है। दूसरे शब्दों में कहें तो अंतिम रूप से मुनाफा कमाना अभी बहुत दूर की बात है।
लांचिंग बिजनेस में इसरो का मुकाबला कुछ अमेरिकी और यूरोपियन प्राइवेट कंपनियों से है। इलॉन मस्क की स्पेस एक्स, यूनाइटेड लांच एलायंस और एरियानस्पेस के नाम इनमें प्रमुख हैं। सरकारी कंपनियों में चीन और रूस की हालत बहुत मजबूत है लेकिन इंटरनेशनल मार्केट में इन दोनों देशों की कुछ खास गति कम से कम निकट भविष्य में तो नहीं दिखाई पड़ रही है। यानी इसरो के लिए गुंजाइश बड़ी है, बशर्ते वहां व्यापारिक बुद्धि को अवसर मिले।
एक लाख उपग्रह
इस खेल का पैमाना क्या है, इसे समझने के लिए एक तथ्य पर गौर करें कि बीते इतवार को की गई 36 सैटेलाइटों की लांचिंग वनवेब के प्रॉजेक्ट में चौदहवीं थी और इसके साथ ही उसके 462 उपग्रह धरती की लगभग 600 किलोमीटर ऊंची कक्षाओं में स्थापित हो गए। इस संख्या को अगले एक-दो वर्षों में ही उसे 648 तक ले जाना है। यह संख्या अगर आपको ज्यादा लग रही हो तो स्पेस-एक्स की घोषणा पर ध्यान दें, जिसकी ओर से सैटेलाइट कम्युनिकेशन के लिए 2025 तक 14 हजार से ज्यादा उपग्रह पृथ्वी की निकटवर्ती कक्षाओं में स्थापित करने का बयान काफी पहले आ चुका है। चीन में इस काम के लिए बनाई गई कंपनी भी लगभग 13 हजार कृत्रिम उपग्रह स्थापित करने का आवेदन कर चुकी है।
अनुमान है कि 2030 तक 500 से 1000 किलोमीटर ऊंची कक्षाओं में लगभग एक लाख कृत्रिम उपग्रह दुनिया को फोन, इंटरनेट और टीवी की सेवाएं उपलब्ध करा रहे होंगे। संचार के इस बड़े खेल में शामिल होने का कोई संकेत अबतक न भारत सरकार की तरफ से आया है, न ही किसी भारतीय कंपनी की ओर से। ऐसे में बहुत ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है। हां, उपग्रह छोड़ने के कारोबार में हमारे इसरो ने मजबूती से हाथ जरूर डाल दिया है, जिसमें उसकी बड़ी से बड़ी सफलता की कामना की जानी चाहिए।
No comments:
Post a Comment