चंद्रभूषण
ह्यूमन जीनोम प्रॉजेक्ट सन 2003 में पूरा हुआ। इंसान का जेनेटिक ढांचा पूरा का पूरा डिकोड कर लिया गया। मानव जीवन के बहुत लंबे, उलझे हुए सॉफ्टवेयर का कौन सा हिस्सा कोई काम कैसे पूरा करता है, इसकी एक मोटी समझ भी बन गई। फिर ऐसे दावों की भरमार देखने को मिली कि छोटी-मोटी चोट-चपेट या वायरल इनफेक्शन के अलावा जल्द ही कोई स्वास्थ्य समस्या शेष नहीं बचेगी। लोग अपनी जीनोम सीक्वेंसिंग कराकर रख लेंगे, डॉक्टर उसी हिसाब से सटीक प्रेस्क्रिप्शन लिख देंगे और अस्पतालों पर ताला पड़ जाएगा। लेकिन व्यवहार में इसका उलटा देखने को मिल रहा है।
हेल्थकेयर इंडस्ट्री और इससे जुड़े बीमे पर अब सिर्फ इनके मुनाफे से जोड़कर बातें होती हैं। बीमारी कैसी भी क्यों न हो, उसका इलाज दिनोंदिन टेढ़ा होता जा रहा है। नब्बे के दशक में ग्लोबलाइजेशन के साथ एक बड़ा बदलाव यह आया कि मेडिकल साइंस और मेडिकल ढांचे का जोर आम स्वास्थ्य समस्याओं से हटकर खास बीमारियों की तरफ हो गया। सरकारी अस्पतालों का बजट घटाने से पहले टीबी और मलेरिया जैसी बड़े दायरे की बीमारियों से जुड़े कम्यूनिटी मेडिसिन विभाग बंद कर दिए गए, जबकि निजी अस्पतालों में कैंसर मैनेजमेंट और दिल की बीमारियों वाले हिस्से अपनी फाइव स्टार सुविधा के लिए चर्चा में आने लगे।
कोविड जैसी महामारी के झटके से भी यह रुझान नहीं पलटने वाला। अलबत्ता इधर इसमें एक नया उछाल यह दिख रहा है कि जीन थेरैपी का एक अलग क्लास बन रहा है, जिसमें एक इंसान के इलाज में लाखों डॉलर लगते हैं। इसका तो हिसाब लगाना भी एक आम हिंदुस्तानी के लिए खासा मुश्किल है।
* दुनिया भर में लगभग 7000 बीमारियों को ‘रेयर जेनेटिक डिजीज’ का दर्जा हासिल है, जिन्हें मेडिकल साइंस के धंधे में जुटे लोग फिलहाल सोने की खान मानकर चल रहे हैं।
* ये बीमारियां कुछ गिने-चुने लोगों में ही मिलती हैं लेकिन ये ऐसी असाधारण भी नहीं हैं। ऑटिज्म, डाउन सिंड्रोम, थैलिसीमिया, कम उम्र में नजर गायब होना वगैरह। इनमें कुछेक का जेनेटिक इलाज इधर के सालों में खोज लिया गया है, हालांकि यह महंगा ही नहीं, मुश्किल भी है।
* 2019 में ऐसी लगभग 1000 जीन थेरैपीज दुनिया में मौजूद थीं, जो जून 2022 तक 2000 हो गईं। ऐसी सरपट रफ्तार मेडिकल साइंस में शायद ही कभी देखने को मिली हो।
* धंधे पर आएं तो वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के मुताबिक, जीन थेरैपी का ग्लोबल बाजार अभी 5.33 अरब डॉलर का है, लेकिन अगले पांच साल में, यानी 2027 तक इसके 19.88 अरब डॉलर तक पहुंच जाने का अनुमान है।
इस सोने की खान की खुदाई के लिए पैसा भी बरसने लगा है। पिछले साल, सन 2021 में 1308 डेवलपर जीन थेरैपी से जुड़ी तकनीकें विकसित करने में जुटे थे और उनकी कंपनियों ने 22.7 अरब डॉलर का निवेश जुटा रखा था। यह रकम 2019 की तुलना में 57 फीसदी ज्यादा थी। एक बात तय है कि इन इलाजों में अब कोई घपलेबाजी नहीं हो रही है।
दस-बारह साल पहले रीढ़ से जुड़ी अपंगता के जेनेटिक ट्रीटमेंट में एक बड़ा घपला दक्षिण कोरिया से उठा था, लेकिन फिर ऐसे मामले नहीं सुनने में आए। थेरैपी सही होने के बावजूद सारे इलाज कामयाब ही होते हों, ऐसा नहीं है। लेकिन जितनी नाकामी किसी नई थेरैपी में देखने को मिलती है, उसके बरक्स कामयाबी के मामले यहां इतने ज्यादा हैं कि बीटा थैलिसीमिया के इलाज के लिए बंदे 28 लाख डॉलर लगाने को तैयार हैं। अभी ऐसी बीमारियों का जीवन भर इलाज चलता है। कोई लक्षण उभरने पर उससे निपटने के उपाय किए जाते हैं। इस थेरैपी के साथ एक अच्छी बात यह है कि एक ही बार में इलाज हो जाता है।
लेकिन जरा इलाज के खर्चे के बारे में सोचिए। 28 लाख डॉलर यानी लगभग 25 करोड़ रुपये। और इसके लिए जिस तरह की प्रयोगशाला की जरूरत पड़ती है, वह भी हर जगह नहीं मिलती। इलाज के लिए सिर्फ एक इंजेक्शन काफी होता है, लेकिन इसमें दी जाने वाली दवा मरीज की जेनोम एडिटिंग करके बनाई जाती है। ऐसी एडिटिंग के उपकरण हर जगह नहीं मिलते और मरीज का रॉ और एडिटेड जेनेटिक मटीरियल बहुत दूर लाने-ले जाने का जोखिम नहीं उठाया जा सकता।
मेडिकल इंडस्ट्री की तरफ से अभी कोशिश यह चल रही है कि सरकारों को कन्विंस करके हेल्थ बीमा का कोई ऐसा ढांचा बनाया जाए, जिसमें सरकारें, रिसर्च कंपनियां और बीमा कंपनियां मिलकर करोड़ों रुपये के इलाज की गुंजाइश ठीक तरह बना दें, जैसे अभी लाखों रुपये के इलाज के लिए बनाए हुए हैं। इस काम में जोर-जबर्दस्ती भी नहीं की जा सकती क्योंकि कंपनियों को फायदा नहीं मिलेगा तो वे रेयर जेनेटिक बीमारियों का इलाज खोजने में इतनी बड़ी पूंजी क्यों लगाएंगी। लेकिन कुल मिलाकर शोध, निवेश और उपचार की यह दिशा ठीक नहीं लगती।
ह्यूमन जेनोम प्रॉजेक्ट से दुनिया भर में मेडिकल साइंस को लेकर जो उम्मीदें जगी थीं, वे तो इस रास्ते पर चलकर कभी नहीं पूरी होने वाली। कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि पहला ह्यूमन जेनोम तैयार करने में तीन अरब डॉलर और तेरह साल लगे थे, लेकिन बीस साल भी नहीं हुए और अभी यह गिनती के कुछेक दिन लगाकर 100 डॉलर से भी कम खर्चे में तैयार हो जाता है। यह तो हुई जेनेटिक ढांचा पढ़ने की बात। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के जरिये इसकी गड़बड़ियां जल्दी पकड़ में आ सकती हैं, सो अभी दिखने वाले ऐसे इक्का-दुक्का चमत्कार आगे रोजमर्रा की बात हो जाएंगे।
* क्रिस्पर-कैस 9, बेस एडिटिंग, प्राइम एडिटिंग जैसे गड़बड़ी दुरुस्त करने वाली तकनीकें अभी बहुत महंगी पड़ती हैं। लेकिन जिन समाजों में ऐसी बीमारियां ज्यादा हैं, वहां की सरकारें कोशिश करें तो अगले दस-पंद्रह सालों में इन्हें सस्ता बनाया जा सकता है।
* इतना तय है कि ये उपाय न सिर्फ बीमारियों का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जाना रोक सकते हैं, बल्कि कुछ लाइलाज बीमारियों को इलाज के दायरे में ला सकते हैं। गरीब देशों की बड़ी बीमारी सिकल सेल एनीमिया से ऐसे ही निपटा जा सकता है
बहरहाल, सवाल सपना दिखाने का नहीं, सपने को हकीकत में बदलने का है। दुनिया भर में सरकारों की प्राथमिकता अभी बड़ी कंपनियों का रुख देखकर तय होने लगी है, जो अपनी तिमाही बोर्ड बैठक में मुनाफे की ग्रोथ दिखाने से आगे नहीं सोचतीं। जरूरत हर बीमारी, हर इलाज को इंसान की जेनेटिक बनावट की नजर से देखने की है। कौन सा एंटीबायोटिक किस व्यक्ति को कितना दिया जाना चाहिए, इसके लिए व्यक्तियों का जेनेटिक वर्गीकरण किया जाए।
इसके लिए सबकी जेनोम टेस्टिंग जरूरी न हो, ऐसे उपाय खोजे जाएं। किस व्यक्ति को कम उम्र में डायबिटीज हो सकती है, कैंसर या हार्ट डिजीज की आशंका किसमें ज्यादा है, ऐसे टेस्ट ईजाद करने का अजेंडा ह्यूमन जेनोम प्रॉजेक्ट पूरा होने के बाद नए ढंग से मेडिकल साइंस के सामने होना चाहिए था, पर यह आज भी दूर-दूर तक नहीं है। किस्सा ऐसे ही चला तो अगले दस-बीस साल अमेरिका-यूरोप में लाख-करोड़ डॉलर के इलाज वाली खबरें देखते ही निकल जाएंगे।
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