Tuesday 2 August 2022

दो चुम्बक एक दूसरे को क्यों आकर्षित करतें हैं ?

 सुशोभित

नोबेल पुरस्कार विजेता भौतिकविद रिचर्ड फ़ेनमान से एक बार किसी ने पूछा कि दो चुम्बक एक-दूसरे को क्यों आकर्षित करते हैं? सीधा-सा प्रश्न था, लेकिन फ़ेनमान ने इसका जो उत्तर दिया, वह सुनने जैसा है। फ़ेनमान ने कहा कि वॉट डु यू मीन, ऐसा क्यों होता है? मैं तुम्हें बतला सकता हूँ कि ऐसा कैसे होता है, लेकिन यह मत पूछो कि ऐसा क्यों होता है। क्यों का कोई उत्तर नहीं है। कैसे का उत्तर हो सकता है कि कैसे इलेक्ट्रोमैग्नेटिज़्म काम करता है, कैसे पदार्थ के भीतर एटम्स और एटम्स के भीतर सबएटॉमिक पार्टिकल्स का कॉन्फ़िगरेशन होता है और कैसे इलेक्ट्रॉन्स की पोज़िशनिंग मैग्नेटिज़्म को जन्म देती है। लेकिन ऐसा क्यों होता है, यह सवाल अप्रासंगिक है।

इससे आगे फ़ेनमान ने कहा, तुम मुझसे यह नहीं पूछते कि जब मैं मेज़ पर हाथ रखता हूँ तो मेरा हाथ उसके आर-पार क्यों नहीं चला जाता? जबकि वहाँ भी वही इलेक्ट्रोमैग्नेटिज़्म काम कर रहा है। लेकिन जब हम किसी चीज़ को वस्तुस्थिति की तरह स्वीकार कर लेते हैं तो फिर उसके बारे में प्रश्न नहीं करते। हम उन्हें टेकन-फ़ॉर-ग्रांटेड लेते हैं। ये चीज़ें कॉमन सेंस का निर्माण करती हैं, क्योंकि हम उनके अभ्यस्त होते हैं। जबकि ऐसी कोई परिघटना नहीं है, जिस पर कैसे और क्यों के प्रश्न नहीं थोपे जा सकते। जैसे कि अगर मैं तुमसे कहूँ कि एनी बर्फ़ पर फिसलकर गिर गई और अपनी हिप तुड़वा बैठी, जिसके बाद उसके पतिदेव उसे हस्पताल ले गए, तो आप कहेंगे कि ओह, बहुत बुरा हुआ! लेकिन आप यह नहीं पूछेंगे कि यह क्यों और कैसे हुआ। क्योंकि आप एक फ्रेमवर्क में सोच रहे हैं, जहाँ बहुत-सी चीज़ें पहले ही अंडरस्टुड हैं। लेकिन अगर कोई प्राणी दूसरे प्लैनेट से आएगा तो वो अनेक सवाल पूछेगा, जैसे एनी नीचे क्यों गिरी? तब उसको ग्रैविटी समझानी होगी। बर्फ़ पर वह क्यों फिसली? तब उसको पानी की विभिन्न अवस्थाएँ समझानी होंगी। उसे चोट क्यों लगी? इसका सम्बंध ह्यूमन एनॉटोमी से है। उसके पतिदेव उसे अस्पताल क्यों ले गए? इसका नाता मानवीय सम्बंधों से है, क्योंकि एक परिवार में रहने वाले मनुष्य एक-दूसरे की परवाह करते हैं। किन्तु अगर उस एलीयन ने पूछ लिया कि क्या एक परिवार में रहने वाले सभी मनुष्य एक-दूसरे की परवाह करते हैं, तो इसका उत्तर देना कठिन होगा। यानी जितना आप चीज़ों के भीतर जिज्ञासा से प्रवेश करते हैं, उतनी ही वे जटिल होती चली जाती हैं। लेकिन अगर आप चीज़ों को जस की तस स्वीकार कर लेते हैं तो आप उनके आधार पर बड़े आराम से अपनी आस्थाओं और मूल्यों का निर्माण कर सकते हैं और पूरा जीवन उनके घेरे में रहकर बिता सकते हैं। चुम्बक एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं और एनी को चोट लगने पर अस्पताल ले जाया गया- बात समाप्त हो गई- इसमें अब और क्या पूछना है?

लेकिन पूछना तो होता है। और जानना भी होता है। मसलन, यहीं आप देखें कि दो तरह की संरचनाएँ काम कर रही हैं। एक तो वे जो प्राकृतिक नियमों के अधीन हैं, जैसे ग्रैविटी, मनुष्य की देह, पानी की अवस्थाएँ। लेकिन कुछ संरचनाएँ मानव निर्मित भी हैं, जैसे परिवार, अस्पताल आदि। हर मनुष्य किन्हीं प्राकृतिक नियमों के अधीन है और चाहकर भी उनसे मुक्त नहीं हो सकता। किन्तु कुछ ऐसे मानव-निर्मित नियम, मूल्य, आस्थाएँ भी हैं, जिन्हें स्वयं मनुष्य ने आविष्कृत किया है, किन्तु वो इतने समय से उनका पालन कर रहा है कि अब वह भूल ही गया है कि ये उसकी ही करामातें हैं, प्रकृति में इनका कोई अस्तित्व नहीं था।

जैसे कि ईश्वर। मनुष्य से पहले ईश्वर नहीं था। यह बड़े मज़े की बात है, क्योंकि हम कहते हैं मनुष्य ईश्वर की संतान है। वास्तविकता यह है कि ईश्वर मनुष्य की संतान है, मनुष्य ने ईश्वर को जन्म दिया है। मनुष्य पृथ्वी पर 25 लाख सालों से है और पृथ्वी साढ़े चार अरब साल पुरानी है। जब मनुष्य पृथ्वी पर नहीं था, तब यहाँ ईश्वर भी नहीं था। प्रकृति ने अपनी ओर से ऐसे कोई स्ट्रक्चर्स नहीं बनाए हैं, जिन्हें आप मूर्ति या मंदिर या पवित्र पत्थर या स्थान कहें और अगर वे हैं भी तो उनकी ईश्वर के रूप में व्याख्या मनुष्य ने की है, प्रकृति ने नहीं की है। वह मनुष्य का अपना प्रोजेक्शन है। राष्ट्र, समाज, संस्कृति, परिवार, धन आदि भी इसी तरह से मनुष्य-निर्मित व्यवस्थाएँ हैं। एक काग़ज़ का टुकड़ा है। उस पर कुछ चिह्न अंकित कर दें तो वह धनराशि बन जाती है, मुद्रा बन जाती है, उसका मूल्य निश्चित हो जाता है, यह मूल्य अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में घटता-बढ़ता है। एक पत्थर पड़ा है, उसे तराशकर मूर्ति बना दें या किसी पवित्र माने जाने वाले स्थान पर प्रतिष्ठित कर दें तो अब करोड़ों लोग उसके लिए मरने-मारने पर आमादा हो जाएँगे। कपड़ा है। उस पर रंगों का संयोजन कर दें तो वह झण्डा बन जाएगा, उससे गौरव की भावनाएँ जुड़ जाएँगी। जबकि राष्ट्रीय प्रतीक बीसवीं सदी में ईजाद की गई व्यवस्थाएँ हैं, क्योंकि राष्ट्र-राज्य स्वयं एक आधुनिक राजनैतिक प्रबंध है। प्राकृतिक होना तो दूर, वे ऐतिहासिक भी नहीं हैं- जैसे परिवार की एक ऐतिहासिकता क़बीलाई दौर से अब तक बनी हुई है। यहाँ यह भी मज़े की बात है कि पृथ्वी पर कोई राजनैतिक सीमारेखाएँ नहीं हैं, यह मनुष्यों की कल्पना में है, किन्तु मनुष्यों का लगाव पृथ्वी से उतना नहीं है, जितना कि काल्पनिक सीमारेखाओं में बँधे राष्ट्र से होता है। हर नागरिक को यह भ्रम है कि उसका देश पृथक से एक संयोजन है और पृथ्वी से पृथक है।

यह कैसे होता है, इसको समझें। मान लीजिये, आप एक विशाल भूखण्ड पर टहल रहे हैं। आप पूरा दिन उस पर आराम वे चलते हैं, कहीं कुछ नहीं होता। फिर वहाँ एक बड़ा-सा गोल घेरा खींच दिया जाता है। वहाँ एक क्रिकेट स्टेडियम बन जाता है। सीमाएँ खींच दी जाती हैं। पिच बनती हैं। पिच में क्रीज़ बनते हैं। नियम बाँधे जाते हैं कि बल्लेबाज़ और गेंदबाज़ इस क्रीज़ को लाँघ नहीं सकेंगे और उस सीमारेखा के पार गेंद जाने पर या इस पिच के बीच दौड़ लगाने पर रन माने जाएँगे। ये तमाम नियम मनुष्यों ने ही बनाए हैं और उन्हें उस भूखण्ड पर आरोपित किया है, जो निरंक था और देखा जाए तो अब भी है। उस स्टेडियम में विश्वकप का फ़ाइनल मुक़ाबला होता है। अंतिम गेंद पर दो रन चाहिए। बल्लेबाज़ पहला रन पूरा करके दूसरे के लिए दौड़ता है। वह बल्ला क्रीज़ पर टिकाता है और गिल्लियाँ उड़ा दी जाती हैं। क्या वह रनआउट हो गया है? बड़ी स्क्रीन पर दिखाया जा रहा है और निर्णय पेंडिंग है। अगर वह बल्लेबाज़ भारत का है और उसने सफलतापूर्वक रन पूरा कर लिया है तो भारत विश्वकप जीत जाएगा और सवा अरब लोग जश्न मनाएँगे, उससे राष्ट्रीय गौरव को जोड़ लेंगे और उस पर विश्व में उनकी श्रेष्ठता का सिद्धांत निर्भर होगा। बड़ी स्क्रीन पर बार-बार दिखाया जा रहा है कि मामला क़रीबी है और चंद सेंटीमीटर के भेद से कहानी इधर-उधर हो सकती है। तब मान लीजिये, आप घूमते-घामते उस जगह पर चले आएँ, जिन्होंने अतीत में उस भूखण्ड पर टहलते हुए पूरा दिन बिताया था तो आप इस सबसे चकित होंगे। आप कहेंगे कि मैं कई कोस उस भूमि पर उस दिन चला और कुछ भी नहीं हुआ, किन्तु आज चंद सेंटीमीटर के अंतर पर राष्ट्र-गौरव निर्भर है। मान लें कि बल्लेबाज़ ने रन पूरा कर लिया और भारत ने विश्वकप जीत लिया। जश्न मनाया गया, शोरगुल हुआ, पुरस्कार बाँटे गए। रात हुई। सब सो गए। तब अगर कोई व्यक्ति रात के अँधेरे में उस क्रिकेट-मैदान में प्रवेश कर जाए और उसी पिच पर टहले तो वह पाएगा यह तो वही निरा भूखण्ड है जैसा कि वह पहले था, लेकिन बीच में इसमें कुछ समीकरण गूँथ दिए गए थे, जिनके कारण इसके एक-एक इंच का महत्व हो गया था। इसे ही माया कहते हैं। यह धरती प्रकृति-निर्मित है और वे समीकरण मानव-निर्मित थे। और अलबत्ता मैच देखने में बड़ा मज़ा आया था, किन्तु सच यही है कि वह मनुष्य ने स्वयं रचा था। मनुष्य उसके नियमों का पालन करे ये ठीक है, पर उसको प्राकृतिक सत्य मानकर उसके अधीन हो जावे, इसकी कोई तुक नहीं बनती है।

अगर मनुष्य यह सोचना शुरू कर दें कि हमारे आसपास जितनी भी चीज़ें हैं, उनमें से कितनी प्रकृति-निर्मित हैं, कितनी मानव-निर्मित हैं और कितनी ऐसी हैं, जो प्राकृतिक होने के बावजूद मानव-निर्मित हैं- जैसे डोमेस्टिक एनिमल्स, जिनका मौजूदा स्वरूप मनुष्यों के आर्टिफ़िशियल सिलेक्शन का नतीजा है। या ईंट-गारे के मकान, जो स्वयं किन्हीं मोलेक्यूल्स और एटम्स से निर्मित संरचनाएँ थीं, जिन्हें मनुष्यों ने और परिष्कृत संरचनाओं के रूप में कंस्ट्रक्ट कर दिया। लेकिन तब भी ये केवल भौतिक संरचनाएँ हैं, धर्म, राष्ट्र, धन जैसी अभौतिक संरचनाओं के मुक़ाबले उनकी कोई बिसात नहीं, जो करोड़ों-अरबों लोगों को एक सूत्र में बाँधती हैं, जबकि उनका स्वयं का कोई अस्तित्व नहीं। दुनिया सत्यों के आधार पर नहीं, सामूहिक-भ्रमों के आधार पर संचालित होती है। एक बार आप किसी कल्पना पर सर्वसम्मति बना लें तो वह वास्तविकता बन जाती है- मनुष्यों के दिमाग़ के भीतर।

फ़ेनमान ने कहा था कि हमें क्यों का प्रश्न नहीं पूछना चाहिए, क्योंकि इसका कोई उत्तर नहीं है। लेकिन क्या और कैसे वाले प्रश्न निरन्तर पूछने चाहिए, ताकि क्यों की असम्भवता को और अच्छे-से परख सकें। मेरे हिसाब से तीन ही विद्याएँ श्रेष्ठ हैं- विज्ञान जो पदार्थ के स्वरूप का चिंतन करता है, साहित्य जो मनुष्य के मन-हृदय के आवेगों पर मनन करता है, और अध्यात्म जो चेतना की निर्मिति का दर्शन करता है। शेष सभी विद्याएँ इन तीन के समक्ष गौण हैं।

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