Friday 7 January 2022

चीनियों का सूरज उग गया, हमारा कहां है?

चंद्रभूषण

अपने एक एक्सपेरिमेंटल फ्यूजन रिएक्टर में 7 करोड़ डिग्री सेल्सियस तापमान 1056 सेकंड (साढ़े सत्रह मिनट से थोड़ा ज्यादा) समय तक टिकाकर चीनी वैज्ञानिकों ने न सिर्फ एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है, बल्कि फ्यूजन एनर्जी को वास्तविकता में बदलने के काफी करीब पहुंच गए हैं। यह उपलब्धि उन्होंने दिसंबर 2021 के आखिरी हफ्ते में हेफेई प्रांत के उसी प्रायोगिक संयंत्र एक्सपेरिमेंट्स फॉर एन एडवांस्ड सुपरकंडक्टिंग टोकामाक (ईस्ट) में हासिल की, जहां बीते जून में 16 करोड़ डिग्री सेल्सियस का प्लाज्मा टेंपरेचर 20 सेकंड तक और इससे भी पहले 12 करोड़ डिग्री प्लाज्मा टेंपरेचर 101.2 सेकंड तक बनाए रखने का कमाल दिखाया गया था।

बिग साइंस, यानी बड़े ढांचे वाले विज्ञान के सारे ही क्षेत्रों में चीनी वैज्ञानिक बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। लेकिन भारतीय परमाणु वैज्ञानिकों के लिए यह कोई ऐसी खबर नहीं है, जिसे सुनकर वे भी बेसाख्ता उछल पड़ें। जिस टोकामाक ढांचे में ये प्रयोग किए जा रहे हैं, भारत ने उसी के साथ अपनी आदित्य परियोजना में लगभग डेढ़ करोड़ डिग्री सेल्सियस का प्लाज्मा तापमान 0.4 सेकंड तक बनाए रखने का प्रयोग सन 1989 में संपन्न किया था। इस परियोजना का नवीकरण 2016 में किया गया लेकिन इससे जुड़ी खबरें पता नहीं क्यों अब बिल्कुल सुनने में नहीं आतीं।

आदित्य पर इटेर का ग्रहण

बाहर से इसके दो ही कारण समझ में आते हैं। एक तो यह कि भारत 2006 से दक्षिणी फ्रांस में जारी परियोजना इंटरनेशनल थर्मोन्यूक्लियर एक्सपेरिमेंटल रिएक्टर (इटेर) का हिस्सा है और फ्यूजन एनर्जी जैसे फ्यूचरिस्टिक फील्ड का जो भी हिस्सा देश के साइंस बजट में बनता है, सारा का सारा इसी मद में चला जा रहा है। दूसरा यह कि अभी भारत की ज्यादातर वैज्ञानिक चर्चा डिफेंस और स्पेस टेक्नॉलजी के लिए समर्पित रहती है लिहाजा आदित्य जैसे बड़े काम किसी मिसाइल या सैटेलाइट के पीछे छिप जाते हैं।


फ्यूजन एनर्जी ग्लोबल वॉर्मिंग से जूझ रही दुनिया के लिए निश्चित रूप से बहुत बड़ी उम्मीद है। लेकिन सूर्य से कई गुना ज्यादा तापमान वाला प्लाज्मा टेंपरेचर प्राप्त करना इस भगीरथ प्रयास का एक हिस्सा भर है। उसे ज्यादा समय तक टिकाए रखना और इस ऊर्जा को सतत और सुरक्षित ढंग से बिजली में बदलने का इंतजाम करना ज्यादा चुनौती भरा काम है। 


इसका पहला हिस्सा, यानी प्लाज्मा तापमान को देर तक टिकाए रखने के काम में पहले दक्षिण कोरियाई और फिर चीनी वैज्ञानिकों ने 100 सेकंड की सीमा पार कराकर यकीनन एक गतिरोध तोड़ा है। रहा सवाल इसे 1000 सेकंड की सीमारेखा के पार ले जाने का, तो खुद फ्रांस स्थित इटेर का लक्ष्य भी यही रखा गया था। यूं कहें कि अंतरराष्ट्रीय सहयोग के जरिये इटेर में जो काम अभी किया जाना बाकी है, चीनियों ने वह अकेले ही कर लिया है। 

खैर, प्लाज्मा क्या है? मोटे तौर पर कहें तो परमाणु का मलबा, जिसमें ऋणात्मक आवेश वाले इलेक्ट्रॉन और धनात्मक आवेश वाले नाभिक, दोनों शामिल होते हैं। खास बात यह कि प्लाज्मा एक आवेशित पदार्थ होता है, लिहाजा विद्युत चुंबकों से इसे मनचाहे ढंग से घुमाया और दबाया जा सकता है। यह मलबा बहुत ऊंचे तापमान, कोई डेढ़ करोड़ डिग्री सेंटीग्रेड पर ही हासिल होता है, हालांकि इसे और ज्यादा, बहुत ज्यादा गर्माया जा सकता है। इतनी गर्म चीज जिस भी पदार्थ या उपकरण के संपर्क में आएगी, उसका नामोनिशान मिट जाएगा। प्लाज्मा खुद बर्बाद हो जाएगा सो अलग। 

अतिनिम्न तापमान पर काम करने वाले, सुपर कंडक्टिविटी पर आधारित शक्तिशाली विद्युत चुंबकों का काम प्लाज्मा को किसी भी चीज के संपर्क में आने से रोकने और उसे तेजी से घुमाते हुए अधर में ही संतुलित रखने का है। यह काम फिलहाल बहुत मुश्किल साबित हो रहा है, क्योंकि चुंबकों से दाएं-बाएं का संतुलन तो बन जाता है लेकिन ऊपर-नीचे का बनकर भी बहुत जल्दी बिगड़ जाता है। प्लाज्मा के जरा भी इधर-उधर होने पर उसे गर्म कर रहे लेजरों के पास करने को कुछ नहीं होता। बहरहाल, चीन में 12 करोड़ डिग्री का प्लाज्मा 101.2 सेकंड और 7 करोड़ डिग्री सेल्सियस वाला 1056 सेकंड तक टिका रहा, इसका मतलब यह हुआ कि इस मोर्चे पर गाड़ी तेजी से आगे बढ़ रही है। 

इससे आगे का काम, छोटे परमाणुओं के नाभिकों को आपस में जोड़ने से प्राप्त होने वाली विराट ऊर्जा को घर-घर इस्तेमाल होने वाली बिजली में बदल देना और भी ज्यादा टेढ़ा है। कुछ गिने-चुने पदार्थों के परमाणु ही इस जरूरत के अनुरूप पाए गए हैं। धरती पर पाए जाने वाले हाइड्रोजन के दो आइसोटोपों- भारी पानी में मौजूद ड्यूटीरियम और खरबों में एक के अनुपात वाली अत्यंत दुर्लभ ट्रिटियम को इस काम के लिए सही पाया गया है, जबकि चांद पर मिलने वाली हीलियम-3 आगे इस काम के लिए काफी मुफीद हो सकती है। 

जाहिर है, ईंधन का मामला फ्यूजन में भी उतना आसान नहीं है, जितना लोगों को अबतक लगता रहा है- धरती पर तो पानी ही पानी है, हाइड्रोजन निकालते रहेंगे, बिजली बनाते रहेंगे! एक बहुत बड़ी सिरदर्दी इस न्यूक्लियर रिएक्शन के दौरान इफरात में पैदा होने वाले हाई-स्पीड न्यूट्रॉनों की है, जिन्हें एटमी रिएक्टरों में अपेक्षाकृत कम स्पीड पर नियंत्रित करना भी काफी मुश्किल काम माना जाता रहा है। 

कचरे का निपटान

फिशन एनर्जी, यानी बड़े परमाणुओं के नाभिकों को तोड़कर हासिल की जाने वाली ऊर्जा, जो हाल-फिलहाल हमारी एटॉमिक एनर्जी है, अपने साथ न्यूक्लियर वेस्ट की समस्या लेकर आती है। ऐसा फ्यूल, जो चुक जाने के बाद भी हर जीवित चीज के लिए जानलेवा बना रहता है। इस तरह की समस्या फ्यूजन एनर्जी के साथ नहीं है लेकिन हाई-स्पीड न्यूट्रॉन अपने संपर्क में आने वाली सारी चीजों के परमाणुओं में घुसकर उनके नाभिकों को अस्थिर कर देंगे। अच्छा-भला स्टील और प्लास्टिक भी कुछ समय के लिए जानलेवा तरीके से रेडियो-एक्टिव हो सकता है। 

ऐसी हर चीज को ठिकाने लगाना, या फिर हाई-स्पीड न्यूट्रॉनों का कोई सकारात्मक उपयोग करना फ्यूजन एनर्जी वाले दौर में भारी चुनौती साबित होने वाला है। एक प्रस्ताव इन्हीं के दम पर लीथियम को विखंडन के जरिये ट्रिटियम में बदल देने का है, ताकि फ्यूजन प्लांट हाथोंहाथ अपना ईंधन भी बनाते चलें! साइंस-टेक्नॉलजी के बीस से ज्यादा क्षेत्रों में ऐसी गतिरोध पैदा करने वाली समस्याओं पर लगातार काम चल रहा है। चीनियों ने ऐसे 19 क्षेत्रों के 300 वैज्ञानिकों को एक ही संस्थान कॉम्प्रीहेंसिव रिसर्च फैसिलिटी फॉर फ्यूजन टेक्नॉलजी (क्राफ्ट) में जुटा रखा है।

साल के पहले हफ्ते में जारी हुई एक बड़ी खबर चाइनीज फ्यूजन इंजीनियरिंग टेस्ट रिएक्टर (सीएफईटीआर) पर काम शुरू होने को लेकर भी है, जहां इन 19 क्षेत्रों में एक साथ काम जारी है। तीन प्रायोगिक संयंत्रों- ऊपर बताए गए हेफेई स्थित ईस्ट, तिब्बत से सटे चीनी प्रांत सिचुआन में मौजूद एचएल-2ए(एम) और हूपेई स्थित जे-टेक्स्ट के तजुर्बों की आजमाइश सीएफईटीआर के साथ ही हो रही है। 

एक तरह से यह फ्रांस में मौजूद तीन प्रायोगिक संयंत्रों इटेर, डेमो और इफमिफ का मिला-जुला रूप होगा। भारत को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि सिर्फ इटेर के खर्चों में अपना 9 फीसदी हिस्सा लगा देने भर से हमें कुछ नहीं हासिल होने वाला, क्योंकि ‘डेमो’ और ‘इफमिफ’ में हमारा कोई दखल नहीं है। ध्यान रहे, इटेर का लक्ष्य 1000 सेकंड तक प्लाज्मा का ऊंचा तापमान बनाए रखने के अलावा इस काम में लगाई गई ऊर्जा की दसगुनी ऊर्जा प्राप्त करना भर है। 

इसे बिजली में बदलने से जुड़ा सारा काम डेमो में चल रहा है, जबकि फ्यूजन एनर्जी से जुड़ी पूरी मटीरियल साइंस, खासकर इस दौरान पैदा होने वाले कचरे के निपटारे पर रिसर्च इफमिफ में जारी है।

करने होंगे सारे काम

हम दूध के जले हुए लोग हैं। हमें मट्ठा भी फूंक-फूंक कर पीना चाहिए। जिस समय दुनिया में क्वांटम मेकेनिक्स और न्यूक्लियर साइंस का उदय हो रहा था, इन दोनों ही क्षेत्रों में संसार के कुछ सबसे तेज, सबसे चर्चित दिमाग हमारे पास थे। सीवी रमन, मेघनाद साहा, सत्येंद्रनाथ बोस, होमी जहांगीर भाभा। 

फिर परमाणु ऊर्जा विभाग और इससे जुड़े प्रायोगिक संयंत्र भी हमारे यहां यूरोप-अमेरिका के थोड़े ही समय बाद स्थापित हो गए। हम प्रायोगिक स्तर पर परमाणु ऊर्जा बनाने लगे और 1974 के मध्य में ही एटम बम का परीक्षण भी कर लिया। लेकिन हमारी हालत आज तक यही बनी हुई है कि इस क्षेत्र से जुड़े सामानों और तकनीकों की छोटी-छोटी आपूर्तियों के लिए भी हमें कभी रूस, कभी फ्रांस तो कभी अमेरिका का मुंह जोहना पड़ता है। 

इटेर में हम नौ प्रतिशत नहीं, सौ प्रतिशत पूंजी लगा दें तो भी 2040 के आसपास, जब फ्यूजन एनर्जी दुनिया की ऊर्जा जरूरतों के एक वास्तविक विकल्प के रूप में उभर रही होगी, तब इसमें हमारी अबतक की साझेदारी हमारे किसी काम नहीं आएगी। इसके उत्पादन से जुड़े हर पहलू पर पूरी तरह आत्मनिर्भर होने के सिवाय और कोई रास्ता हमारे पास नहीं होगा।

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