Friday 12 February 2021

कि जैसे बीगल पर डार्विन

चंद्रभूषण  

मात्र 22 साल की उम्र में कप्तान रॉबर्ट फित्जरॉय के अवैतनिक सहायक के रूप में चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन बीगल नाम के जहाज पर सवार हुए थे। यह जहाज सन् 1831 में दक्षिणी अमेरिका की तटरेखा के बहुविध अध्ययन के लिए दो साल के अभियान पर रवाना हो रहा था। अकादमिक योग्यता के नाम पर डार्विन के पास सिर्फ एक डिग्री धर्मशास्त्र की थी, जो कैंब्रिज विश्वविद्यालय द्वारा दो प्रोफेसरों की सहायता और सौजन्य से प्राप्त हुई थी। दरअसल धर्मशास्त्र की तरफ उन्हें खदेड़ा ही इसलिए गया था कि एडिनबर्ग विश्वविद्यालय में चिकित्साशास्त्र के अध्ययन में वे फिसड्डी साबित हुए थे।

उस जमाने की सर्जरी से- जो अपने उजड्डपने में जर्राही के ज्यादा करीब थी- कोई दिली नाता बिठा पाना डार्विन के बस का नहीं रहा। अलबत्ता एडिनबर्ग में अपने समय का सदुपयोग उन्होंने अमेरिका से मुक्त कराए गए अफ्रीकी मूल के गुलाम जॉन एडमंस्टन से जानवरों की खाल में भुस भरने और उन्हें दीवार पर टांगने की कला सीखने में किया। बीतती किशोरावस्था में एडमंस्टन का साथ डार्विन के लिए कई दूसरे मामलों में भी बड़े काम का साबित हुआ। एडमंस्टन ने उन्हें दक्षिणी अमेरिका के वर्षावनों (रेन फॉरेस्ट्स) से जुड़ी अद्भुत बातें बताईं और परंपरा से चली आ रही जो अफ्रीकी कहानियां उन्हें सुनाईं उससे पहली बार डार्विन के मन में धारणा बनी कि ऊपरी तौर पर बहुत अलग लगने के बावजूद अफ्रीकी और यूरोपीय मनुष्यों में कोई बुनियादी फर्क नहीं है।
चार्ल्स डार्विन की सोच और कर्म में आ रहे ये बदलाव उनके रौशनखयाल जमींदार और डॉक्टर पिता रॉबर्ट डार्विन को भटकाव जैसे लगे। पढ़ाई के बीच में ही एडिनबर्ग से उनका बोरिया-बिस्तर बांधकर धर्मशास्त्र के अध्ययन के लिए उन्हें कैंब्रिज रवाना करते हुए शायद उन्होंने सोचा होगा कि लड़का और कुछ नहीं तो चर्च की पुरोहिताई से ठीक-ठाक कमा खाएगा। लेकिन किस्मत कहें या बदकिस्मती कि डार्विन को धर्मशास्त्र पढ़ाने वाले प्रोफेसरों में भी दो आला दर्जे के वैज्ञानिक मिल गए! इन गुरुजन का नाम और संक्षिप्त परिचय- वनस्पतिशास्त्री जॉन स्टीवेंस हेंसलो और भूगर्भविज्ञानी एडम सेजविक। चिकित्साशास्त्र, वनस्पतिशास्त्र और भूगर्भविज्ञान- उस जमाने में एक प्रकृतिविज्ञानी (नेचुरलिस्ट) बनने के लिए यह एक दुर्लभ मणिकांचन योग था।
खासकर हेंसलो के साथ डार्विन की निकटता ज्यादा थी और उनकी सहायता से आखिरी दिनों में की गई पढ़ाई के बल पर उन्हें 1831 में हुई धर्मशास्त्र की अंतिम वर्ष की परीक्षा में 178 परीक्षार्थियों के बीच दसवां स्थान प्राप्त हो गया। फिर हेंसलो की अनुशंसा पर ही उन्हें अपने खर्चे पर कप्तान के सहायक के रूप में बीगल जहाज पर रवाना होने की इजाजत भी मिल गई। आपके मन में ज्ञान की आकांक्षा हिलोरें मार रही है। ज्ञान अर्जित करने की बुनियादी तकनीकें आपके पास हैं। जानने के लिए आपके सामने एक समूचा महाद्वीप खुला पड़ा है जिसे वैज्ञानिकों का तो दूर, कथित सभ्य दुनिया का सामान्य सान्निध्य भी बमुश्किल ही प्राप्त हुआ है। और सबसे बड़ी बात यह कि उमर आपकी 22 साल है, यानी रोजी-रोटी की चिंताओं ने आपकी आत्मा पर फंदा भी नहीं डाला है!
बीगल का दो साल के लिए निर्धारित अभियान तमाम संयोगों-दुर्योगों के चलते पांच साल लंबा खिंच गया। इस दौरान डार्विन पर लगातार काम का दौरा सा पड़ा रहा। वे पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों, जीवाश्मों और पत्थरों के नमूने इकट्ठा करते रहे, उनके मूल स्थान का रेखांकन करते रहे और अपने प्रेक्षणों के साथ लगातार उन्हें इंग्लैंड रवाना करते रहे। इधर इंग्लैंड में उनके गुरुजन हेंसलो और सेजविक से शुरू करके धीरे-धीरे पूरा वैज्ञानिक समाज उनके नमूनों के अध्ययन और विश्लेषण में जुट गया। हालत यह हुई कि 1837 में डार्विन ने जब बीगल जहाज से उतरकर इंग्लैंड की धरती पर पांव रखा तो विज्ञान के लगभग हर क्षेत्र में उन्हें एक महत्वपूर्ण खोजी का दर्जा हासिल हो चुका था। दुनिया आज चार्ल्स डार्विन को जीवविज्ञान के आदिपुरुष की तरह देखती है लेकिन मात्र 27 साल की उम्र में पूरे हुए अपने लंबे अभियान के बाद जो पहली किताब उन्होंने लिखी वह भूगर्भशास्त्र पर थी।
इसमें उन्होंने साबित किया था कि दक्षिणी अमेरिकी महाद्वीप लगातार ऊपर उठ रहा है। ज्ञान की दुनिया को बुनियादी तौर पर बदल देने वाली उनकी किताब 'ऑन द ओरिजिन ऑफ स्पीसीज बाई मीन्स ऑफ नेचुरल सेलेक्शन ऑर द प्रिजर्वेशन ऑफ फेवर्ड रेसेज इन द स्ट्रगल फॉर लाइफ' (संक्षेप में 'ओरिजिन ऑफ स्पीसीज') लिखने में उन्होंने 22 साल और लिए, जो 22 नवंबर 1859 को प्रकाशित हुई। इस दौरान डार्विन के प्रेक्षण किसानों, नाविकों, जहाजियों, पशुपालकों, मालियों, शिकारियों आदि से उनकी सहज मैत्री के जरिए लगातार जारी रहे। वैज्ञानिक सेमिनार उनकी मनपसंद जगह कभी नहीं रहे। ऐसे सेमिनारों में कभी-कभी उन्हें अजीब किस्म का दौरा (शायद एंजाइटी अटैक) पड़ जाता था।
उनके पूरे शरीर में खुजली होने लगती थी। वे बुरी तरह से पसीना-पसीना हो जाते थे और कभी-कभी मुंह से झाग भी निकलने लगता था। उनके लिए प्रकृति और जीवन से संबंध रखने वाला हर इन्सान किसी गंभीर वैज्ञानिक जितना ही महत्वपूर्ण हुआ करता था। अपनी इस प्रवृत्ति के चलते उन्होंने अपनी ममेरी बहन और भावी पत्नी को लगभग चौंका ही दिया था- जब तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार उनसे शादी की बात चलाने के बजाय इवोल्यूशन डिस्कस करके घर चले आए थे! और डार्विन के बारे में इन सारी बातों को पुराणपोथन तो कृपया न ही समझा जाए क्योंकि जीवविज्ञान की सदी, डार्विन की खास अपनी सदी तो अभी शुरू ही हुई है।
एक अर्से से दुनिया की बागडोर थामे बोदे और खतरनाक सियासी दिमागों ने डेढ़ सौ साल से भी ज्यादा वक्त 'सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट' का सिद्धांत इन्सानों पर लागू करने की बेवकूफी में गुजार दिए, जबकि हर जाति हर नस्ल का इन्सान डार्विन की सोच में सिर्फ एक इन्सान, एक खास जीवजाति भर था। अमेरिका के थैलीशाह आज भी डार्विन से इतना डरते हैं कि उनपर आयोजित प्रदर्शनियों को कोई प्रायोजक नहीं मिलता, जबकि पुरोहिताई चिंतन से संचालित डार्विन विरोधी 'क्रिएशनिस्ट' सिद्धांत के म्यूजियम को हर साल एक करोड़ डॉलर तक की सहायता प्राप्त हो जाया करती है!

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